हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में सीआरपीसी के तहत आरोपों का संयोजन (Joinder of charges) एंव, कुसंयोजन | section 218 CrPC 1973 , आरोपों का संयोजन कब किया जा सकता है आदि उल्लेख किया गया है| उम्मीद है कि, यह आलेख आपको जरुर पसंद आएगा –
आरोपों का संयोजन –
आपराधिक न्याय प्रशासन में आरोप का महत्वपूर्ण स्थान है, आरोपी व्यक्ति के सम्बन्ध में पुलिस द्वारा अंतिम प्रतिवेदन पेश करने के बाद न्यायालय उस गिरफ्तार व्यक्ति पर आरोप तय करती है, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2(ख) में आरोप शब्द को परिभाषित किया गया है|
वास्तविक रूप से आरोप से ही मुकदमे की कार्यवाही (विचारण) की शुरुआत होती है, संहिता की धारा की धारा 211 से 217 आरोपों को तैयार करने से सम्बंधित है और धारा 218 से धारा 223 आरोपों का संयोजन से सम्बंधित है, जिसमे यह बताया गया है कि, इस संहिता के अधीन अभियुक्त पक्षकार पर कब और कोनसे अपराधों के लिए एक साथ आरोप लगाये जा सकते है एंव उनका विचारण किया जा सकता है|
सुभिन्न अपराधों के लिए पृथक आरोप –
यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है कि, कब कई आरोपों का एक साथ विचारण किया जा सकता है, क्योंकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 218 में यह कहा गया है कि – “प्रत्येक सुभिन्न अपराध के लिए, जिसका किसी व्यक्ति पर अभियोग है, पृथक् आरोप होगा और ऐसे प्रत्येक आरोप का पृथकतः विचारण किया जायेगा”।
आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि, यदि किसी अभियुक्त पर एक से अधिक अपराध कारित करने का आरोप है तो ऐसे प्रत्येक अपराध का आरोप पृथक-पृथक लगाया जायेगा तथा ऐसे प्रत्येक आरोप का पृथक् पृथक् विचारण किया जायेगा।
उदाहरण के लिए – क पर एक स्थान पर चोरी करने एंव किसी दुसरे स्थान पर घोर उपहति कारित करने का अभियोग लगाया जाता है| यहाँ क पर चोरी व घोर उपहति कारित करने के लिए पृथक्-पृथक् आरोप लगा कर उनका अलग अलग विचारण करना होगा|
आफ़ताब अहमद खान बनाम हैदराबाद राज्य के प्रकरण में कहा गया कि, धारा 218 में उपबन्धित सिद्धान्त का उद्देश्य उचित विचारण को सुनिश्चित करना है एवं यह देखना है कि अभियुक्त को अनेक असम्बन्धित अपराधों के आरोपों में या विभिन्न अपराधों के लिए एक या अलग-अलग आरोप लगाकर उसके लिए कठिनाई न उत्पन्न की जाय।’
धारा 218 आज्ञापक है और प्रत्येक भिन्न अपराध के लिए उन मामलों को छोड़कर जो संहिता में विनिर्दिष्ट किए गए हैं, अलग-अलग आरोप होना चाहिए। जहाँ एक ही रात मे दो घरों में दो डकैती हुई है। वहाँ दोनों डकैतियों को मिलाकर एक ही आरोप में दोनों को नहीं समेटना चाहिए।
आरोपों के संयोजन के अपवाद
CrPC की धारा 218 में कुछ अपवाद है जिनमे मामलों अथवा परिस्थितियों के तहत अभियुक्त पर एक से अधिक अपराध का एक साथ आरोप लगाया जाकर उनका एक साथ विचारण किया सकता है, ऐसे मामले अथवा परिस्थितियाँ निम्नांकित है –
(1) एक ही वर्ष में एक ही किस्म के तीन अपराध –
इस संहिता की धारा 219 के अनुसार एक ही वर्ष में एक ही किस्म के तीन अपराधों का एक साथ आरोप लगाया जा सकता है और उनका एक साथ विचारण किया जा सकता है। धारा 219 की प्रयोज्यता के लिए तीन बातें आवश्यक है –
(क) अपराध एक ही प्रकार के हों,
(ख) ऐसे अपराध तीन से अधिक नहीं हों, एवं
(ग) वे एक ही वर्ष में कारित किये गये हों।
अपराध एक ही किस्म के तब होते हैं जब वे भारतीय दण्ड संहिता, 1860 या किसी विशेष या स्थानीय विधि की एक ही धारा के अधीन दण्ड की समान मात्रा से दण्डनीय होते है| संहिता की धारा 219 के प्रयोजन के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 379 एंव 380 के अधीन दण्डनीय अपराधों को एक ही प्रकार का अपराध समझा जाएगा|
स्टेट बनाम मोतीसिंह के प्रकरण अनुसार तीन से अधिक अपराधों का न तो एक साथ आरोप लगाया जा सकेगा और न ही उनका एक साथ विचारण किया जा सकेगा। (ए. आई. आर. 1962, राजस्थान 35)
(2) एक ही संव्यवहार में किये गये एकाधिक अपराध –
सर जेम्स स्टीफेन ने एक संव्यवहार को एक तथ्यों के समूह के रूप में परिभाषित किया है, जो इस तरह एक दुसरे से जुड़े होते है कि उन्हें एक नाम यथा अपराध, संविदा, दोष, खोज की विषय वस्तु जो प्रश्नगत है, से पुकारा जाता है|
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 220 (1) के अनुसार – यदि परस्पर सम्बद्ध ऐसे कार्यों के, जिनसे एक ही संव्यवहार बनता है, एक क्रम में एक से अधिक अपराध एक ही व्यक्ति द्वारा कारित किये गये हैं तो ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में उस पर आरोप लगाया जा सकेगा और उन सभी का एक साथ विचारण किया जा सकेगा।
उदाहरण – क किसी महिला को इस आशय से फुसलाकर ले जाता है कि वह उसके साथ जारकर्म करे और क उसके साथ जारकर्म करता है। क के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 एवं 498 का आरोप लगाते हुए उनका एक साथ विचारण किया जा सकेगा।
(3) दुर्विनियोग एवं लेखाओं के मिथ्याकरण के लिए संयुक्त आरोप –
सीआरपीसी की धारा 220 (2) के अनुसार- जहाँ किसी व्यक्ति पर आपराधिक न्यास भंग या सम्पत्ति के बेईमानीपूर्वक दुर्विनियोग के अपराधों को सुकर बनाने के लिए लेखाओं के मिथ्याकरण के एकाधिक अपराधों का अभियोग हो, वहाँ ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में उस पर आरोप लगाते हुए उनका विचारण किया जा सकेगा।
(4) एकाधिक परिभाषाओं में आने वाले अपराध –
सीआरपीसी की धारा 220 (3) के अनुसार – यदि अभिकथित कार्य किसी ऐसे अपराध का गठन करता है जो विधि की एकाधिक परिभाषाओं में आता हो तो अभियुक्त ऐसे अपराधों में से प्रत्येक के लिए एक ही विचारण में आरोपित किया जा सकेगा।
उदाहरण – क, ख पर बेंत से सदोष आघात करता है। क पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 352 एवं 323 के अन्तर्गत अपराधों के लिए पृथक् पृथक् आरोप लगाते हुए उनका एक साथ विचारण किया जा सकेगा।
सुरेन्द्रसिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार के प्रकरण में अभियुक्त द्वारा किसी आयुध से हत्या कारित की गई थी उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 तथा आयुध अधिनियम की धारा 27 (3) के अन्तर्गत आरोप विचरित किये जाकर उनके एक साथ विचारण को उचित ठहराया। (ए. आई. आर. 2002 एस. सी. 260)
(5) कई कार्यों से गठित भिन्न अपराध –
सीआरपीसी की धारा 220 (4) के अनुसार – जब अनेक कार्यों की श्रृंखलाओं से मिलकर कोई अपराध गठित होता हो और ऐसे कार्यों में से प्रत्येक कार्य स्वयं सुस्पष्ट अपराध का गठन करता है या ऐसे कार्यों के समूह से अन्य दूसरे अपराधों का गठन होता है, तब ऐसे सभी अपराधों को एक साथ आरोपित करते हुए उनका विचारण किया जा सकेगा।
उदाहरण – क, ख को लूटता है और इसी दौरान वह उसे स्वेच्छया उपहति कारित करता है। क पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323, 392, 394 के अन्तर्गत अपराधों का पृथक्-पृथक् आरोप लगाते हुए उनका एक साथ विचारण किया जा सकेगा।
इस प्रकार यह एक समर्थकारी व्यवस्था है जो न्यायालय को अनेक अपराधों का एक साथ विचारण करने की शक्तियाँ प्रदान करती है। (मोहिन्दर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, ए. आई. आर. 1999 एस. सी 211)
आरोप की विरचना –
जहाँ यह संदेहास्पद हो कि कौन-सा अपराध किया गया है, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 221 में ऐसे मामलों में आरोप की विरचना के बारे में प्रावधान किया गया है जिनमें यह संदेह है कि कौन-सा अपराध कारित किया गया है। ऐसे मामलों में अभियुक्त के विरुद्ध निम्नानुसार आरोप की विरचना की जायेगी –
(क) कार्य की प्रकृति से गठित होने वाले सभी अपराधों का
(ख) ऐसे अपराधों में से किसी एक या एकाधिक अपराधों का, अथवा
(ग) उक्त अपराधों में से किसी एक का अनुकल्पतः (alternate) आरोप।
उदाहरण – क पर ऐसे कार्य का अभियोग है जो चोरी की या चुराई हुई सम्पत्ति को प्राप्त करने की या आपराधिक न्यासभंग की या छल की परिभाषा में आ सकता है। उस पर चोरी करने, चुराई हुई सम्पति प्राप्त करने, आपराधिक न्यास भंग करने और छल करने का आरोप लगाया जा सकेगा अथवा उस पर चोरी करने का या चोरी को सम्पत्ति प्राप्त करने का या आपराधिक न्यास भंग करने का या छल करने का आरोप लगाया जा सकेगा।
धारा 221 की उपधारा (2) के अनुसार – यदि अभियुक्त पर किसी एक अपराध का आरोप लगाया गया है और साक्ष्य से भिन्न अपराध साबित होता है तो वह उस अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जा सकेगा जिसका उस पर आरोप लगाया जा सकता था, लेकिन नहीं लगाया गया है।
उदाहरण – यदि अभियुक्त पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 का आरोप लगाया गया है, लेकिन साक्ष्य से धारा 406 का अपराध साबित होता है तो उसे धारा 406 के लिए दोषसिद्ध किया जा सकेगा। [गोवर्धन बनाम कनिलाल, आई. एल. आर. (1953) 2 कलकत्ता 133]
अपराध का लघु अपराध –
सीआरपीसी की धारा 222 में यह कहा गया है कि, यदि अभियुक्त के विरुद्ध लगाये गये आरोपों से अलग कोई छोटा अपराध साबित होता है तो उसे उस छोटे अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जा सकेगा चाहे उसका उस पर आरोप नहीं लगाया गया हो। (स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम तारादत्त, ए. आई. आर. 2000 एस. सी. 297)
उदाहरण के लिए – क पर घोर उपहति कारित करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 325 का आरोप है। यदि क यह साबित कर देता है कि उसने घोर और आकस्मिक प्रकोपन के अन्तर्गत कार्य किया था तो उसे धारा 335 के अन्तर्गत दोषसिद्ध किया जा सकेगा। जहाँ तक लघु अपराध का प्रश्न है, धारा 306 के अधीन कारित अपराध को धारा 302 के अधीन कारित अपराध का लघु अपराध नहीं माना गया है। (संगरबोनिया श्रीनू बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्रप्रदेश, ए. आई. आर. 1997 एस. सी. 3233)
इसी प्रकार धारा 304 ख के अपराध को धारा 302 व 498 के अपराधों का लघु अपराध नहीं माना गया है। (एस. एम. मुलतानी बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक, ए. की आई. आर. 2001 एस. सी. 921)
आरोपों का संयोजन से सम्बंधित प्रावधान | Joinder of charges –
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 223 अभियुक्त पक्षकारो पर एक साथ आरोप लगाये जाने का प्रावधान करती है, यह धारा अनेक व्यक्तियों पर संयुक्त रूप से आरोप लगाने की स्वीकृति देती है। इसके अंतर्गत निम्न व्यक्तियों पर एक साथ आरोप लगाया जाकर उनका एक साथ विचारण किया जा सकेगा –
(क) वे व्यक्ति जिन पर एक ही संव्यवहार के अनुक्रम में किए गए एक ही अपराध का अभियोग है।
(ख) वे व्यक्ति जिन पर किसी अपराध का अभियोग है और वे व्यक्ति जिन पर ऐसे अपराध का दुप्रेरण या प्रयत्न करने का अभियोग है।
(ग) वे व्यक्ति जिन पर बारह मास की अवधि के अन्दर संयुक्त रूप में उनके द्वारा किए गए धारा 219 के अर्थ में एक ही किस्म के एक से अधिक अपराधों का अभियोग है
(घ) वे व्यक्ति जिन पर एक ही संव्यवहार के अनुक्रम में दिए गए भिन्न अपराधों का अभियोग है।
(ड) वे व्यक्ति जिन पर ऐसे अपराध का, जिसके अन्तर्गत चोरी, उद्यापन, छल या आपराधिक दुर्विनियोग भी है, अभियोग है और वे व्यक्ति, जिन पर ऐसी संपत्ति को जिसका कब्जा प्रथम नामित व्यक्तियों द्वारा किए गए किसी ऐसे अपराध द्वारा अन्तरित किया जाना अभिकथित है, प्राप्त करने या रखे रखने या उसके व्ययन या छिपाने में सहायता करने का या किसी ऐसे अंतिम नामित अपराध का दुष्प्रेरण या प्रयत्न करने का अभियोग है,
(घ) वे व्यक्ति जिन पर ऐसी चुराई हुई सम्पत्ति के बारे में, जिसका कब्जा एक ही अपराध द्वारा अन्तरित किया गया है, भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 411 और धारा 414 के, या उन धाराओ मे से किसी के अधीन अपराधों का अभियोग है।
(छ) वे व्यक्ति जिन पर भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) के अध्याय 12 के अधीन कूटकृत सिक्के के सम्बन्ध में किसी अपराध का अभियोग है और वे व्यक्ति जिन पर उसी सिक्के के सम्बन्ध में उक्त अध्याय के अधीन किसी भी अन्य अपराध का या किसी ऐसे अपराध का दुष्प्रेरण या प्रयत्न करने का अभियोग है, और इस अध्याय के पूर्ववर्ती भाग के उपबन्ध सब ऐसे आरोपों को यथाशक्य लागू होंगे|
लेकिन जहाँ अनेक व्यक्तियों पर पृथक अपराधों का आरोप लगाया जाता है और वे व्यक्ति इस धारा में विनिर्दिष्ट कोटियों में से किसी में नहीं आते है वहाँ “मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय” ऐसे सब व्यक्तियों का विचारण एक साथ कर सकता है यदि ऐसे व्यक्ति, लिखित आवेदन द्वारा ऐसा चाहते है और मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय का समाधान हो जाता है कि उससे ऐसे व्यक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा और ऐसा करना समीचीन है।
ए० आर० अन्तुले बनाम आर० एस० नायक, वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त व्यक्ति सह अभियुक्त के साथ विचारण किये जाने के किसी अधिकार का दावा नहीं कर सकता। यह अधिकार अभियोजन का है कि वह निर्णय ले कि किसे अभियोजित किया जाता है। अयोध्या सिंह बनाम राजस्थान राज्य के बाद
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संदर्भ :- बाबेल लॉ सीरीज (बसन्ती लाल बाबेल)
बूक : दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 (सूर्य नारायण मिश्र)