इस आलेख में अपकृत्य विधि के तहत अपकृत्य के कार्य में कोन-कोनसे मानसिक तत्व होते है और उनका अपकृत्य में योगदान रहता है | Mental Elements of Tort law के बारे में बताया गया है। यह विधि छात्रो के लिए अपकृत्य कानून का एक मुख्य विषय है|

आपराधिक विधि में दायित्व की स्थिति कृत्य एवं मानसिक दोनों तत्वों को ध्यान में रख कर तय की जाती है। यहाँ अपकृत्य विधि के तत्व के रूप मै मानसिक तत्व, जैसे – हेतु, आशय, विद्वेष, दोष आदि का अपकृत्य विधि में क्या महत्व है? और यह तत्व किसी कृत्य को अपकृत्य का रूप देने में कहाँ तक सहायक होते हैं तथा क्या ये तत्व अपकृत्य विधि में आवश्यक रूप से मौजुद रहते है आदि प्रश्न विचारणीय हैं, जिनका इस आलेख में उल्लेख दिया गया है|

परिचय – अपकृत्य विधि के मानसिक तत्व

अपराध जन साधारण के खिलाफ किया जाने वाला कृत्य होता है इसलिए अपराधी के विरुद्ध कार्यवाही राज्य द्वारा की जाती है तथा अपराध के साबित हो जाने पर अपराधी को दण्ड से दण्डित किया जाता है। इस प्रकार अपराधी को दण्डित करने के लिए उसका मन दोषी होना आवश्यक है। “जब तक मन दोषी न हो, कोई भी कार्य स्वयं में दोषयुक्त नहीं होता”|

अपकृत्य, अपराध से अलग होता है। अपकृत्य के मामले में व्यक्ति विशेष के विधिक अधिकार का उल्लंघन होता है तथा इसके उपचारस्वरूप क्षतिग्रस्त पक्ष को क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है। क्षतिपूर्ति की धनराशि निर्धारित करते समय वादी तथा प्रतिवादी, दोनों के हितों को ध्यान मै रखा जाना आवश्यक होता है क्योंकि अपकृत्य विधि का उद्देश्य सामान्यतः प्रतिवादी को दण्डित करना नहीं होता बल्कि वादी को हुई क्षति की पूर्ति कराना होता है।

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अपकृत्य विधि के मानसिक तत्व

अपकृत्य विधि मै मानसिक तत्व का क्या स्थान है, इस प्रश्न को समझने के लिए हमें मानसिक तत्वों पर विचार करना होगा जो निम्नलिखित है –

(1) हेतु (Motive), (2) आशय (Intention), (3) विद्वेष (Malice), (4) त्रुटि तथा कठोर दायित्व (Fault and Strict liability)

(1) हेतु (MOTIVE)

अपकृत्य विधि के तत्व में हेतु एवं आशय एक-दूसरे के पर्यायवाची माने जाते हैं, किन्तु कानूनी दृष्टि में उनमें अन्तर हैं। हेतु अन्तिम उद्देश्य है जो किसी कार्य को रोकने के लिए अथवा करने के लिए मन को प्रेरित करता (या उकसाता) है|

अर्थ – मनुष्य द्वारा किसी कार्य को करने का कारण ही हेतु कहलाता है। यही वह मुख्य शक्ति है जो कर्ता को कुछ काम करने के लिए प्रेरित करती है।

सामण्ड के अनुसार – हेतु एक दूरस्थ आशय (the ulterior intent) है, जो प्रकट नहीं होता वरन् पृष्ठभूमि (Background) में पड़ा होता है। सामान्य रूप से यह निर्णय करने के लिये कि ‘कार्य अपकृत्य है या नहीं, हेतु असंगत माना जाता है। कोई कृत्य बुरे हेतु से किये जाने के कारण गैर क़ानूनी नही कहा जा सकता है।

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यदि वह कृत्य कानूनी था तो वह कानूनी ही रहेगा, चाहे उसे करने का हेतु कुछ भी हो। इसी प्रकार यदि कोई कार्य गैर-कानूनी है तो वह केवल इस कारण कानूनी नहीं हो जाता है कि उसे अच्छे हेतु से किया गया है। अपकृत्य विधि के तत्व मै कृत्य का महत्व कार्य का होता है, हेतु का नहीं। अपकृत्य विधि के तत्व मै हेतु विसंगत (Irrelevant) होता है।

लार्ड वाट्सन ने कहा है कि, “किसी भी सिविल दोष की उत्पत्ति के संदर्भ में इंग्लैण्ड का कानून हेतु को कोई स्थान नहीं देता, भले ही अपराधों के सम्बन्ध में हेतु को महत्व देने का नियम कुछ और हो।”

कोई भी कार्य केवल इसलिए अपकृत्य नहीं बन जाता कि वह विद्वेषभाव से किया गया था। न्यायालय हेतु को दृष्टिगत न करके कार्य को ही देखता है। किसी व्यक्ति के सिविल अधिकार पर अन्य व्यक्ति द्वारा प्रहार करना एक कानूनी दोष है तथा इसके साथ जुड़ा हुआ दायित्व, दोषजनित अनिवार्य परिणाम की पूर्ति है।

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हेतु का अपवाद –

लार्ड मैकनाटन ने क्राफ्टर हैंडवोबन हैरिस ट्वीड कम्पनी बनाम बीच में कहा – “किसी भी कार्य में कृत्य का ही महत्व होता है, हेतु का नहीं। हेतु से कृत्य की अनुयोज्यता (Action ability) पर कोई असर नहीं पहुँचता। यदि व्यक्ति को क्षति पहुँची है और वह विधिक क्षति है तो कुछ भी हो, वह क्षतिपूर्ति पाने का अधिकारी हो जायेगा।”

हेतु सम्बन्धी नियम को हम दो भागों में बाँट सकते हैं –

(i) यदि कार्य अवैध है तो प्रतिवादी दायी है, भले ही उसने ऐसा कार्य अच्छे हेतु से किया हो।

(ii) यदि कार्य वैध है तो कार्य इस कारण अवैध नहीं होगा, क्योंकि वह बुरे हेतु से किया गया है।

इन नियमों के भी कुछ अपवाद हैं। उक्त नियम के प्रथम भाग के अपवाद आवश्यकता और व्यक्तिगत सुरक्षा  से बचाव हैं।

नियम के भाग दो के अपवाद स्वरूप विद्वेषपूर्ण अभियोजन, न्यूसेंस, षड्यन्त्र और हानिकारक मिथ्या कथन को शामिल जा सकता है। इस प्रकार इन अपकृत्यों में हेतु एक सुसंगत तत्व होता है।

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(2) आशय (INTENTION)

आशय का अर्थ – अपकृत्य विधि के तत्व में ‘आशय’ का अर्थ मानसिक स्थिति से है। सामण्ड के अनुसार जिस ध्येय को मन में रख कर कोई कार्य किया जाता है, उसे आशय या नीयत कहते हैं। इसमें क्षतिकारक परिणाम का पूर्वज्ञान और उसको कृत्य द्वारा प्राप्त करने की अभिलाषा (Desire) निहित रहती है।

उद्देश्य को पाने में आशय एक निदेशात्मक तत्व है। किसी कृत्य को तभी आशय (intentional) कहा जाता है जब वह तथ्य के रूप में आने के पूर्व, विचार के रूप में भी रहा हो। आसान शब्दों में, लक्ष्य प्राप्त करने की इच्छा और उसके पूर्वज्ञान से प्रेरित होकर किये गये कृत्य को आशय कृत्य कहते हैं।

आशय किसी भी कार्य को करने का तात्कालिक तथा बाहरी उद्देश्य होता है। एक हत्यारे का तात्कालिक आशय किसी व्यक्ति को गम्भीर चोटें पहुँचा कर हत्या करना होता है, किन्तु उसका अन्तिम उद्देश्य उसकी हत्या करके उसकी सम्पत्ति हड़पने का हो सकता है। आशय में किसी व्यक्तिगत लाभ का होना आवश्यक नहीं है।

केस – किंग बनाम हार्वे में कहा गया कि किसी पक्ष के उद्देश्य एवं उसके द्वारा किये गये कृत्य पर कानून की दृष्टि से विचार किया जाना चाहिये। सभी सिविल मामलों में कानून कर्ता के आशय को इतना महत्व नहीं देता है जितनी क्षतिग्रस्त पक्ष के नुकसान और क्षति को देता है।

केस – गाइल बनाम स्वान [Guille v. Swan (Balloon Case)] —

इस मामले के तथ्यानुसार प्रतिवादी गुब्बारे में बैठकर उड़ा और कुछ समय उड़ने के बाद वादी के बगीचे में उतरा। उसे देखने के लिए दर्शकों की एक भीड़ बगीचे में घुस आयी और उद्यान – मालिक (वादी) के पौधों को रौंद डाला। इस पर वादी ने मुकदमा चलाकर हानि के लिये नुकसानी की मांग की। न्यायाधीश ने उड़ाके (प्रतिवादी) को उस नुकसान के लिए दायी ठहराया।

इसमें प्रतिवादी का यह तर्क था कि वह नहीं जानता था और न ही उसका यह आशय था कि उद्यान में उतरने से भीड़ उसे देखने आयेगी और पौधों को कुचलकर क्षति पहुँचायेगी। इस तर्क को न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया। न्यायाधीश ने कहा कि गुब्बारे में उड़ने वाले व्यक्ति को भूमि पर उतरते देखने की इच्छा स्वाभाविक है, जिस कारण भीड़ का उद्यान में घुस आना और पौधों को कुचलना प्रतिवादी (उड़ाके) के कृत्य का प्रत्यक्ष एवं स्वाभाविक परिणाम है।

इसमें प्रतिवादी यह नहीं कह सकता कि उसे अपने कृत्य के स्वाभाविक परिणाम का पूर्वज्ञान नहीं था अथवा प्रतिवादी को क्षति पहुँचाने का आशय नहीं रखता था। आशय अपकृत्य विधि में विसंगत होता है।

यद्यपि सामान्य रूप से “आशय” अपकृत्य सम्बन्धी दायित्व का आवश्यक तत्व नहीं है, परन्तु कुछ अपकृत्यों में यह एक आवश्यक तत्व है, जैसे – प्रवंचना, विद्वेषपूर्ण अभियोजन, हमला), व्यापारिक या संविदात्मक सम्बन्धों में हस्तक्षेप तथा षड्यन्त्र।

(3) विद्वेष अथवा दुर्भाव (MALICE)

अर्थ – अपकृत्य विधि के तत्व में विद्वेष का अर्थ किसी व्यक्ति के प्रति दुर्भावना से है; परन्तु कानूनी दृष्टि से इसका अर्थ किसी ऐसे अनुचित कार्य से लगाया जाता है जो किसी भी औचित्य के बिना आशय किया जाता है, जैसे – यदि मैं किसी अनजान व्यक्ति को घुसा मारूं तो मेरा कार्य विद्वेष पूर्ण कहा जायेगा, क्योंकि ऐसा मैंने किसी भी औचित्य के बिना आशय किया।

केस – बोमेज बनाम प्रोसर [(1825) 4 बी. एण्ड सी. 247, 255]

इस वाद में विद्वेष की परिभाषा दी गई है कि, इसके अनुसार – सामान्य भाषा में विद्वेष का अर्थ किसी व्यक्ति के विरुद्ध दुर्भावना से होता है, परन्तु कानूनी अर्थ में विद्वेषपूर्ण कार्य उसे कहते हैं जहाँ कोई व्यक्ति जान-बूझकर बिना विधिक औचित्य के कोई कार्य करता है जिससे किसी अन्य व्यक्ति को हानि पहुँचती है।

उच्चतम न्यायालय ने विद्वेष का यह अर्थ बताया है कि – विधिक अर्थ में इसका अभिप्राय ऐसे आशयपूर्ण किये गये गलत कार्य से है जो बिना किसी औचित्य अथवा बिना किसी युक्तियुक्त कारण के किया जाता है।”

साधारण तौर से विद्वेष के दो भेद किये जाते हैं –

(i) वास्तविक विद्वेष (Actual malice) या तथ्यतः विद्वेष (Malice in fact) –

तथ्यत: विद्वेष का अर्थ किसी व्यक्ति के प्रति दुर्भाव से किये गये कार्य से है। जैसे दुर्भाव, घृणा और वैमनस्य से किये गये कार्यों को साधारणतः विद्वेषपूर्ण कार्य कहा जाता है।

(ii) कानूनी विद्वेष (Legal malice) या विधि की दृष्टि से विद्वेष (Malice in law) –

विधिक या कानूनी विद्वेष व्यावहारिक दृष्टि से दिखावटी होता है, क्योंकि कानून में प्रत्येक अपकृत्य स्पष्ट रूप से विद्वेषपूर्ण होता है; अत: यह कानूनी दृष्टि से द्वेषपूर्ण कार्य होता है।

केस – शियरल बनाम शील्ड्स (Shearel v. Shields) –

इस प्रकरण में अपकृत्य विधि में विद्वेष की स्थिति को स्पष्ट करते हुये विस्काउन्ट हलडेन ने कहा है – “वह व्यक्ति जो विधिक उल्लंघन करते हुये दूसरे व्यक्ति को क्षति पहुंचाता है, उसे यह कहने की अनुमति नहीं है की उसने ऐसा निर्दोष भाव से किया।

उसके विषय में यह माना जायेगा कि उसे विधि का ज्ञान है और उसे विधि के अनुसार कार्य करना चाहिए। अतः वह विधि में विद्वेष के लिए दोषी हो सकता है, यद्यपि जहाँ तक उसके मन की दशा का प्रश्न है वह अनभिज्ञता से कार्य करता है तथा उस अर्थ में निर्दोष है।

केस – टाउन एरिया कमेटी बनाम प्रभुदयाल –

इस वाद में भारतीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी इसी प्रकार का मत व्यक्त किया कि मात्र विद्वेष से कोई कार्य दोषपूर्ण नहीं हो जाता यदि वह कार्य अन्यथा विधि विरुद्ध नहीं है। इस स्थिति का अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती एस० आर० वेंकटरमन बनाम युनियन ऑफ इंडिया तथा अन्य में किया है।

तथ्यतः विद्वेष तथा विधिक विद्वेष में अन्तर 

(i) तथ्यतः विद्वेष में वास्तव में किसी व्यक्ति के प्रति दुर्भावना से कार्य किया जाता है; विधिक विद्वेष में बिना किसी उचित एवं सम्भव कारण के दोषपूर्ण कार्य किया जाता है, जिसके पीछे क्रोध की भावना या दुष्प्रेरणा होना आवश्यक नहीं है। विधिक विद्वेष होने के लिये किया गया कार्य दोषपूर्ण होना चाहिये।

(ii) तथ्यतः विद्वेष हेतु (motive) पर आधारित होता है, लेकिन विधिक विद्वेष ज्ञान या जानकारी पर निर्भर रहता है।

(iii) वास्तविक विद्वेष का अर्थ किसी व्यक्ति के प्रति दुर्भावना या दुष्प्रेरणा में होता है, लेकिन कानूनी विद्वेष में इसका अर्थ बिना किसी उचित एवं सम्भव कारण के किये गये गलत कार्य के साथ मन की एकरूपता है।

इस नियम के अपवाद –

तथ्यतः विद्वेष या अनुचित हेतु, अपकृत्य विधि में कोई महत्व नहीं रखते हैं। इस सम्बन्ध मै कुछ अपवाद निम्न हैं –

(i) किसी विशेष अवसर पर मानहानि जहाँ सीमित विशेषाधिकार का प्रतिवाद लिया जाता है, वहाँ यदि किसी विद्वेष भावना से प्रेरित होकर कथन का प्रकाशन किया गया है, तो सीमित विशेषाधिकार समाप्त हो जाता है।

(ii) विद्वेषपूर्ण अभियोजन (Malicious prosecution)।

(iii) हानिकारक मिथ्याकथन (Injurious falsehood)।

(iv) विद्वेषपूर्ण षड्यन्त्र (Malicious conspiracy)।

(v) न्यूसेंस (Nuisance)।

(4) त्रुटि तथा कठोर दायित्व (FAULT AND STRICT LIABILITY)

अपकृत्य विधि में यह साबित किया जाना आवश्यक नहीं है कि प्रतिवादी ने क्षति साशय पहुँचायी है किन्तु प्रतिवादी को दायी ठहराने के लिए सामान्यतः यह साबित किया जाना अनिवार्य हो जाता है कि उसने कोई त्रुटिपूर्ण व्यवहार किया है।

इसका अभिप्राय यह हुआ कि अपकृत्य विधि के मानसिक तत्व के अभाव में प्रतिवादी का त्रुटिपूर्ण व्यवहार जैसे उपेक्षा या असावधानी से उत्पन्न क्षति, अपकृत्यपूर्ण दायित्व का आधार होता है। इस धारणा की पुष्टि लार्ड मैक्मिलन ने भी की है।

लार्ड मैक्मिलन प्रतिवादी के व्यवहार को महत्व देने के लिये जोर देते हैं। उनके अनुसार यह प्रश्न अवश्य उठाया जाना चाहिए कि क्या प्रतिवादी के व्यवहार को उपेक्षापूर्ण साबित किया जा सकता है? इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपकृत्य विधि में प्रतिवादी की आपराधिक मनःस्थिति साबित किया जाना आवश्यक नहीं है किन्तु उसका त्रुटिपूर्ण व्यवहार अवश्य ही साबित किया जाना चाहिए।

पर्यावरण जैसे – संवेदनशील विषय पर उच्चतम न्यायालय ने गम्भीरता से विचार करते हुए कठोर दायित्व के सिद्धान्त को नकारते हुए ‘पूर्ण दायित्व’ (Absolute Liability) के सिद्धान्त को स्थापित किया। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में दायित्व निर्धारण करते समय प्रतिवादी के व्यवहार पर विचार कतई आवश्यक नहीं है। वे हर स्थिति में दायी हैं।

केस – श्रीमती कुमारी बनाम तमिलनाडु (ए. आई. आर. 1992 एस. सी. 2069)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि राज्य सरकार छ: वर्षीय बच्ची की मृत्यु के लिए नुकसानी की धनराशि दे तथा सम्बन्धित व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करे। इस वाद में बच्चे की मृत्यु बिना ढके सिवरेज टैंक में गिरने से हो गयी थी तथा तमिलनाडु के हाईकोर्ट ने नुकसानी देने से इसलिए मना कर दिया था क्योंकि यह निश्चित करना सम्भव नहीं हो पा रहा था कि किसकी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप यह घटना घटित हुई थी।

इस प्रकार इस वाद के निर्णय से यह स्पष्ट हो जाता है कि त्रुटि पर विचार किया जाना उतना आवश्यक नहीं होता जितना कि क्षतिपूर्ति पर किया जाना होता है।

इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे मामले हैं जिनमें प्रतिवादी के त्रुटिपूर्ण व्यवहार पर सिद्धान्ततः विचार नहीं किया जाता क्योंकि इन मामलों में दायित्व बिना त्रुटि के निर्धारित की जाती है। इसलिए इन्हें बिना त्रुटि के दायित्व के मामले कहते हैं और इनमें कठोर दायित्व, मानहानि, तथा प्रतिनिधिक दायित्व शामिल किये जाते है। इस प्रकार के मामलों में प्रतिवादी अपने कृत्य से उत्पन्न क्षति के लिए उत्तरदायी माना जाता है भले ही उसने उस कृत्य को पूरी सतर्कता के साथ बिना त्रुटि या उपेक्षा के तथा बिना क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से किया हो।

दुष्करण का अर्थ –

किसी अवैध कार्य का किया जाना दुष्करण है जो विधि में स्वतः अभियोज्य होता है। ऐसे मामलों में किसी प्रकार की असावधानी अथवा उपेक्षा (Negligence) तथा विद्वेष आदि को साबित किया जाना आवश्यक नहीं होता।

अपकरण का अर्थ –

जहाँ किसी कार्य के करने का विधिक दायित्व किसी व्यक्ति पर होता है और वह उसको सम्पन्न नहीं करता और उससे दूसरे व्यक्ति को क्षति पहुँचती है तो उसे अपकरण कहते हैं।

अकरण का अर्थ उन कृत्यों से भी है जो अवैध रूप से निष्पादित किये जाते हैं। उसमें कार्य अवैध अथवा गैरकानूनी नहीं होते वरन् उनको सम्पन्न करने का ढंग गैर कानूनी होता है। किसी कार्य के करने अथवा न करने के नि:स्वार्थ कर्त्तव्य की अवहेलना करने से कर्त्ता पर कानूनी रूप में कोई दायित्व नहीं आता, लेकिन किसी कृत्य को गैर कानूनी ढंग से किये जाने पर कर्त्ता नुकसानी का देनदार होगा|

क्षति (Damage) –

अपकृत्य विधि के अन्तर्गत क्षति (Damage) तथा नुकसानी या क्षतिपूर्ति (Damages) शब्द न तो एक-दूसरे के पर्यायवाची ही हैं और न एक शब्द का प्रयोग दूसरे शब्द के लिये ही किया जा सकता है। क्षति’ शब्द का अर्थ – उस प्रत्येक प्रकार की हानि से है जिसे हर्जाना दिलाकर पूरा कराया जा सकता है, अर्थात् नुकसानी द्वारा क्षति का इलाज किया जा सकता है।

उसके विपरीत “नुकसानी” (Damages : क्षतिपूर्ति) शब्द का अर्थ – उस मुआवजे से है जो धन के रूप में होता है तथा जिसके देने के लिये न्यायालय प्रतिवादी को आदेश देता है।

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Reference :- Law of Torts (edition 22, N.M. Shukla)