समन मामला क्या होता है? इसमें विचारण की प्रक्रिया एंव वारन्ट मामला से अन्तर | Sec. 274 to 282 of BNSS

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली में समय-समय पर सुधार किए जाते रहे हैं ताकि न्याय प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी, तेज और प्रभावी बनाया जा सके।

भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita, BNSS) 2023, जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) का स्थान ले चुकी है, में आपराधिक मामलों को दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित गया है, (1) समन मामला (Summons Cases) और (2) वारंट मामला (Warrant Cases)।

इन दोनों मामलों में विचारण प्रक्रिया (Trial Process) अलग-अलग होती है। BNSS, 2023 समन मामलों में विचारण की प्रक्रिया को और अधिक व्यवस्थित और सरल बनाने का प्रयास करती है।

इस लेख में हम समन मामलों की सुनवाई कैसे होती है और यह वारंट मामलों से किस प्रकार अलग है, जानेगे। यह आलेख विधि के छात्रो एंव आम पाठको के लिए काफी उपयोगी है-

समन मामला क्या होता है?

समन मामला वह आपराधिक मामला होता है जिसमें अपराध की गंभीरता कम होती है और सजा, दो वर्ष तक की अवधी के कारावास या केवल जुर्माना या दोनों से दंडनीय हो सकती है।

उदाहरण के लिए, छोटी-मोटी चोरी, मानहानि या सार्वजनिक स्थान पर उपद्रव जैसे मामले समन मामलों की श्रेणी में आते हैं। इसी तरह यदि कोई मामला 50 रूपये के अर्थदंड से दण्डनीय है तब उसे समन मामला माना जायेगा।

किसी मामले में समन या वारन्ट जारी कर देने से उस मामले की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होता है, यानि किसी समन मामले में भूलवंश वारन्ट जारी कर देने से वह वारन्ट मामला नहीं माना जाएगा।

बीएनएसएस, 2023 के तहत समन मामलों की सुनवाई एक सरल और त्वरित प्रक्रिया के माध्यम से की जाती है ताकि समय और संसाधनों की बचत हो।

समन केस की परिभाषा – BNSS, 2023 में समन मामला की परिभाषा दी गई है, इसके अनुसार – समन मामला से ऐसा मामला अभिप्रेत है, जो किसी अपराध से सम्बंधित है और जो वारन्ट मामला नहीं।

समन मामला में विचारण की प्रक्रिया

समन मामलों में विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 274 से 282 में किया गया है। इनके अनुसार समन मामलों में विचारण की प्रक्रिया इस प्रकार है-

(1) अभियोग का सारांश सुनाया जाना (धारा 274) 

जब किसी समन मामले में अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाता है या वह मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है तब उसे धारा 274 के तहत सर्वप्रथम उस अपराध की विशिष्टियाँ बताई जायेगी, जिसका उस पर अभियोग है और उससे यह पूछा जायेगा कि वह दोषी होने का अभिवाक् (कथन) करता है या अपनी प्रतिरक्षा करना चाहता है। ऐसे मामलों में यथारीति आरोप विरचित किया जाना आवश्यक नहीं है।

प्रचलित भाषा में इसे ‘सारांश अभियोग’ कहा जाता है, यह व्यवस्था आज्ञापक है। मामले का विचारण शुरू करने करने से पहले अभियुक्त को उस अपराध की विशिष्टियों से अवगत करा दिया जाना आवश्यक है जिसका कि उस पर अभियोग चलाया जाना है।

(2) दोषी होने के कथन पर दोषसिद्ध किया जाना अपराध की विशिष्टियाँ (धारा 275)

धारा 274 के तहत अभियुक्त को ‘सारांश अभियोग’ सुनाने के पश्चात् यदि अभियुक्त अपने दोषी होने का कथन करता है तो मजिस्ट्रेट द्वारा उसके कथनों को उसी के शब्दों में लेखबद्ध किया जायेगा और उसे स्वविवेकानुसार दोषसिद्ध किया जायेगा।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जहाँ छोटे मामलों (petty offences) में संहिता की धारा 229 के अन्तर्गत समन जारी किया जाता है और अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाज़िर हुए बिना पत्र के द्वारा अपने दोषी होने का कथन करता है; धारा 276 के अधीन वहाँ मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे कथनों के आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जा सकेगा और उसके द्वारा भेजी गई रकम को जुर्माने की राशि में समायोजित कर ली जायेगी।

(3) साक्ष्य लेखबद्ध किया जाना (धारा 277)

जब अभियुक्त द्वारा अपने दोषी होने का कथन नहीं किया जाता है और वह विचारण चाहता है तब संहिता की धारा 253 के तहत सर्वप्रथम अभियोजन की तथा उसके बाद प्रतिरक्षा (defence) की साक्ष्य लेखबद्ध की जायेगी।

इस दौरान अभियोजन या अभियुक्त की प्रार्थना पर किसी साक्षी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज या अन्य चीज पेश करने का निर्देश देने वाला समन जारी किया जा सकेगा।

(4) दोषसिद्धि या दोषमुक्ति का निर्णय (धारा 278)

अभियोजन एवं अभियुक्त की साक्ष्य लेने के पश्चात् यदि मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो उसे ‘दोषमुक्त’ (acquity) कर दिया जायेगा। लेकिन यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त दोषी है तो उसे ‘दोषसिद्ध’ (convict) घोषित करते हुए दण्डादेश पारित कर सकेगा।

यदि अपराधी व्यक्ति द्वारा अपने अपराध को स्वीकार कर लिया जाता है उस स्थिति में केवल अपराध स्वीकार करने की दशा में सजा को कम नहीं किया जाना चाहिये।

क्योंकि ‘स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश बनाम चन्द्रिका, (ए. आई. आर. 2000 एस. सी. 164) के मामले में अपराध स्वीकार कर लिये जाने पर कम सजा देने की सौदेबाजी को लोकनीति के विरुद्ध माना गया है।

(5) परिवादी के हाजिर नहीं होने का प्रभाव (धारा 279)

संहिता की धारा 279 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि सुनवाई के लिए नियत किसी दिवस परिवादी न्यायालय में उपस्थित नहीं होता है तो मजिस्ट्रेट द्वारा उसका परिवाद खारिज करते हुए अभियुक्त को दोषमुक्त घोषित किया जा सकेगा, बशर्ते कि ऐसे मामले की सुनवाई को अन्य किसी दिन के लिए स्थगित किया जाना मजिस्ट्रेट उचित नहीं समझे।

यदि परिवादी की ओर से मामले की पैरवी किसी प्लीडर (वकील) द्वारा की जाती है तो ऐसे परिवादी को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दी जा सकेगी। यह व्यवस्था केवल परिवाद पर संस्थित मामलों के लिए है, पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित मामलों के लिए नहीं।

(6) परिवाद का वापस लिया जाना (धारा 280)

धारा 280 के अन्तर्गत परिवादी मामले में निर्णय सुनाये जाने से पहले कभी भी परिवाद को अभियुक्त के विरुद्ध और यदि एक से अधिक अभियुक्त है तो उन सबके विरुद्ध या उनमें से किसी के विरुद्ध वापस ले सकता है। यहाँ पर परिवाद को ऐसे वापस लिये जाने का प्रभाव अभियुक्त की दोषमुक्ति माना जाएगा।

समन एवं वारन्ट मामलों के विचारण की प्रक्रिया में अन्तर

(1) समन मामले में दो वर्ष तक की अवधि के कारावास का दण्डादेश पारित किया जा सकता है, जबकि वारन्ट मामले में मृत्यु दण्ड, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास का दण्डादेश पारित किया जा जा सकता है।

(2) समन मामले में विचारण की प्रक्रिया अपेक्षाकृत संक्षिप्त होती है, जबकि वारन्ट मामले में संक्षिप्त प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया जा सकता।

(3) समन मामलों में औपचारिक आरोप विरचित किये जाने की आवश्यकता नहीं होती, जबकि वारन्ट मामलों में औपचारिक तौर पर आरोप विरचित किया जाना आवश्यक है।

(4) समन मामलों में अभियुक्त को दोषसिद्ध या फिर दोषमुक्त घोषित किया जा सकता है, जबकि वारन्ट मामलों में अभियुक्त को उन्मोचित (discharge) भी किया जा सकता है।

(5) समन मामला एक बार समाप्त हो जाने परं पुनर्जीवित नहीं हो सकता, जबकि वारन्ट मामला उन्मोचन की दशा में पुन-र्जीवित किया जा सकता है।

(6) परिवाद पर संस्थित समन मामले में परिवादी की अनुपस्थिति पर परिवाद को खारिज करते हुए अभियुक्त को दोषमुक्त किया जा सकता है, जबकि वारन्ट मामलों में सामान्यतः ऐसा नहीं होता।

(7) समन मामलों में परिवादी द्वारा परिवाद को वापस लिया जा सकता है। इसका प्रभाव अभियुक्त की दोषमुक्ति होता है, जबकि वारन्ट मामले सामान्यतः वापस नहीं लिये जाते। यदि लिए भी जाते हैं तो न्यायालय की अनुज्ञा से और अभियोजन की प्रार्थना पर।

(8) समन मामलों में अभियुक्त को सामान्यतः समन जारी किया जाता है, जबकि वारन्ट मामलों में अभियुक्त को सामान्यतः वारन्ट जारी किया जाता है।

(9) समन मामलों में अभियुक्त को दण्ड के प्रश्न पर सुने जाने की आवश्यकता नहीं होती, जबकि वारन्ट मामलों में अभियुक्त को दण्ड के प्रश्न पर सुना जाना अपेक्षित है।

(10) समन मामलों में सामान्यतः सारांश अभियोग सुनाये जाने से पूर्व उस पर बहस की आवश्यकता नहीं होती, जबकि वारन्ट मामलों में आरोप सुनाये जाने से पूर्व बहस होती है जिसे प्रचलित भाषा में “बहस चार्ज” कहा जाता है।

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