हेल्लो दोस्तों, इस लेख में सन 1726 का चार्टर क्या है। सन 1726 चार्टर के मुख्य प्रावधान (मेयर न्यायालय की स्थापना) तथा इसकी विशेषताऐ एंव दोषों का वर्णन किया गया है, इस आलेख में सन 1726 के राजलेख जिसे न्यायिक चार्टर के नाम से भी जाना जाता है को आसान शब्दों में समझाने का प्रयास किया गया है –

परिचय – 1726 का चार्टर एक्ट

भारत के वैधानिक इतिहास में सन 1726 ई. न्याय व्यवस्था के लिए एक नयी सूत्रधार थी। सन 1726 तक ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपना विस्तार कर चुकी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने मद्रास, बम्बई व बगांल (कलकत्ता) के क्षैत्रो में अपनी अनेक आंग्ल बस्तियां स्थापित कर ली थी, इन बस्तियों को प्रेसीडेन्सी कहा जाता है।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां की न्याय व्यवस्था में हस्तक्षेप करते हुए इन तीनों प्रेसीडेन्सी शहरों में इंग्लिश न्याय व्यवस्था को भी लागू कर दिया था और विभिन्न प्रकार के न्यायालय स्थापित किऐ।

लेकिन इन तीनों प्रेसीडेन्सी शहरों की भौगोलिक व ऐतिहासिक परिस्थितियों व विकास के चरण एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न थे, जिस कारण यहां पर स्थापित न्याय-व्यवस्था के उद्गम व विकास में भिन्नता होनें से न्याय व्यवस्था असमान, असन्तोषप्रद व अव्यवस्थित होने से निर्णयों में भी सुनिश्चितता नहीं थी, जिससे कंपनी की न्याय व्यवस्था इन प्रेसीडेन्सी शहरों में सफल नहीं हो सकी।

जबकि ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में अपने व्यापार, कंपनी के विस्तार व भारतीयों का विश्वास प्राप्त करने के लिए तीनों प्रेसीडेन्सी (मद्रास, बोम्बे व कलकत्ता) में एक सुदृढ़, सुव्यवस्थित, सुनिश्चित व समरूपी न्याय व्यवस्था की आवश्यकता थी।

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जिस पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अनुरोध पर इंग्लैण्ड के तत्कालीन सम्राट जार्ज प्रथम ने तीनों प्रेसीडेन्सी क्षेत्रो में एक समरूपी, सुदृढ़, सुनिश्चित व सुव्यवस्थित न्याय व्यवस्था स्थापित करने के लिए 24 सितम्बर, 1726 को एक राजपत्र (Charter) जारी किया, जो सन 1726 के न्यायिक चार्टर के नाम से प्रसिद्व हुआ।

डॉ. एम.पी. जैन ने 1726 का चार्टर को बम्बई, मद्रास एंव कलकत्ता में न्यायिक संस्थाओ के विकाश और विस्तार का मार्ग प्रशस्त करने वाला बताया| 1726 का चार्टर इसलिए भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि इस चार्टर द्वारा ही बम्बई, मद्रास एंव कलकत्ता में न्यायिक संस्थाओ का विकाश और विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ था।

1726 का चार्टर एक्ट के प्रावधान

सन 1726 का चार्टर में मुख्यतः तीन तरह के प्रावधान (प्रशासनिक प्रावधान, न्यायिक प्रावधान, विधायी प्रावधान) लागु किये गए जो निम्न प्रकार है –

(i) प्रशासनिक प्रावधान (Administrative Provisions)

प्रशासनिक प्रावधान के अंतर्गत प्रेसीडेंसी नगरों (मद्रास, बम्बई तथा कलकत्ता) के प्रशासनिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए 1687 ई. में कम्पनी द्वारा मद्रास में स्थापित नगर निगम को समाप्त कर दिया गया तथा प्रेसीडेंसी नगरों (मद्रास, बम्बई तथा कलकत्ता) में नये नगर निगम की स्थापना की गई।

प्रत्येक नगर निगम की अधिकारिता प्रेसीडेंसी शहर की सीमा तथा उनके अधिनस्थ स्थानीय कारखानों तक सीमित थी।

इस राजलेख द्वारा प्रत्येक नगर निगम के लिए एक मेयर व नौ एल्डरमेनों की नियुक्ति की गई जिनमें मेयर तथा सात एल्डरमैन अंग्रेज व्यक्ति होना आवश्यक था तथा शेष दो एल्डरमेन ऐसे शासको की प्रजा में से हो सकते थे जो कम्पनी के मित्र हो तथा किसी भी जाति के हो सकते थे।

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मेयर का कार्यकाल एक वर्ष के लिए व एल्डरमेन का कार्यकाल स्थाई होता था। मेयर का वार्षिक चुनाव एल्डरमैनों के द्वारा अपने में से ही किया जाता था। प्रत्येक मेयर व एल्डरमेन के लिए अपने पद पर निष्ठापूर्वक कार्य करने की शपथ ग्रहण करना आवश्यक था।

मेयर का कार्यकाल समाप्त हो जाने पर वह प्रेसीडेन्सी शहर में एल्डरमेन की हेसियत से निवास कर सकता था तथा एल्डरमेन आजीवन काल तक या प्रेसीडेन्सी शहर में निवास करते तक अपने पद पर बना रह सकता था।

इस राजलेख द्वारा सपरिषद् राज्यपाल को यह अधिकार दिया गया था कि वह उचित प्रमाण के आधार पर मेयर व ऐल्डरमेन को पद का दुरुपयोग करने के दोष में उनको पद से हटा सकता था। पद से हटाये गये मेयर या ऐल्डरमेन सपरिषद् राज्यपाल के निर्णय के खिलाफ इग्लैण्ड स्थित सम्राट की परिषद में अपील कर सकते थे।

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(ii) न्यायिक प्रावधान (Judicial Provisions)

सन् 1726 का चार्टर का मुख्य उद्देश्य प्रेसीडेंसी नगरों में एक निश्चित एवं समरूप न्याय व्यवस्था स्थापित करना था। परिणामस्वरूप इस राजपत्र में निम्न प्रावधान किए गए :-

(अ) मेयर न्यायालय की स्थापना

सन 1726 का चार्टर द्वारा प्रत्येक प्रेसीडेंसी नगर में मेयर न्यायालय की स्थापना की गई थी जिसमें एक मेयर व नो ऐल्डरमेन होते थे। इस राजलेख द्वारा मेयर न्यायालय को सिविल, आपराधिक एवं वसीयत सम्बन्धी मामलों की सुनवाई करने की अधिकारिता दी गई थी। यह न्यायालय सप्ताह में अधिक से अधिक तीन बार लगता था जो प्रेसीडेन्सी नगर व उनके अधीनस्थ बस्तियों के सभी दीवानी मामलों को निपटाता था।

सन 1726 के राजलेख में यह नहीं बताया गया था कि मेयर न्यायालय कोन-सी विधि पर कार्य करेगें बल्कि इतना उल्लेख किया गया था कि इस न्यायालय के निर्णय न्यायसंगत एंव उचित होने चाहिए। मेयर न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय भी था जो अपने अवमान के दोषी व्यक्तियों को दण्डित कर सकता था।

(ब) शेरिफ की नियुक्ति

मेयर न्यायालय द्वारा प्रतिवादी को जारी सम्मन की तामील करवाने तथा न्यायालय द्वारा दी गई डिक्रियों के निष्पादन के लिए प्रत्येक प्रेसीडेंसी नगर (मद्रास, बम्बई तथा कलकत्ता) में एक-एक शेरिफ की नियुक्ति राज्यपाल व परिषद् द्वारा की जाती थी। शेरिफ का कार्यकाल एक वर्ष के लिए होता था जिसका क्षैत्राधिकार प्रेसिडेंसी नगर के आस पास 10 मील तक का क्षैत्र था।

(स) अपीलीय न्यायालय की स्थापना

सन् 1726 का चार्टर में अपीलीय न्यायालयों के गठन का भी प्रावधान था। मेयर न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के खिलाफ अपील निर्णय की तिथि से 14 दिन के अन्दर सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय में की जा सकती थी, यह प्रथम अपील होती थी। एक हजार पैगोड़ा तक के मूल्यांकन के मामलों में सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय का निर्णय अन्तिम होता था।

लेकिन एक हजार पैगोड़ा से अधिक मूल्यांकन वाले मामलों के निर्णयों के खिलाफ अपील सपिरषद राज्यपाल के निर्णय देने की तिथि से 14 दिन के अन्दर प्रीवी कौन्सिल (इंग्लैण्ड) को किये जाने की व्यवस्था थी, यह द्वितीय अपील होती थी तथा इसका निर्णय अन्तिम होता था।

(द) शान्ति न्यायाधीशों की व्यवस्था

सन 1726 का चार्टर के अंतर्गत आपराधिक न्याय प्रशासन के लिए प्रत्येक प्रेसीडेंसी नगर के राज्यपाल तथा उसकी परिषद के पाँच वरिष्ठ सदस्यों को शान्ति न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किए जाने का प्रावधान किया गया था तथा शान्ति न्यायाधीश के कार्य, शक्तियाँ एवं अधिकारिता इंग्लैण्ड के शान्ति न्यायाधीशों जैसी ही थी।

(य) सैशन कोर्ट का गठन

मेयर के न्यायालय को फौजदारी की अधिकारिता प्राप्त नहीं थी, सन 1726 का चार्टर के अंतर्गत आपराधिक (फौजदारी) मामलों की सुनवाई करने के लिए सैशन न्यायालयों का गठन किया गया था। शान्ति न्यायाधीश इसके पीठासीन अधिकारी होते थे तथा ये न्यायाधीश अपराधियों को बन्दी बनाकर उन्हे छोटे छोटे अपराधों के लिए दण्डित कर सकते थे। ये न्यायालय वर्ष में चार बार यानि प्रत्येक त्रिमास में आपराधिक (फौजदारी) मामलों की सुनवाई करते थे।

(र) जूरी व्यवस्था

सन 1726 का चार्टर के अंतर्गत फौजदारी के मामलो को निपटाने के लिए ग्राण्ड जूरी व सामान्य जूरी की व्यवस्था की गई थी। जूरी का कार्य न्यायालय को साक्ष्य के आधार पर किसी मामले के तथ्यों से अवगत करवाना तथा ग्राण्ड जूरी का कार्य अपराधियों को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना होता था। यानि आपराधिक (फौजदारी) मामलों का परीक्षण जूरी (Jury) की सहायता से किया जाता था। ग्राण्ड जूरी में 23 सदस्य हुआ करते थे।

(iii) विधायी प्रावधान (Legislate Provisions)

सन् 1726 के राजपत्र में कई महत्त्वपूर्ण विधायी प्रावधान भी लागु किए गए| सन 1726 ई. से पहले सभी विधियाँ इंगलैण्ड में बनाई जाती थी और उन्हें ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत में लागू किया जाता था। लेकिन इग्लैण्ड स्थित कम्पनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स (Court of Directors) भारत की परिस्थितियों से पूर्णत अनजान थे जिस कारण उनके द्वारा बनाई गई विधियां यहां (भारत) में प्रभावकारी साबित नहीं होती थी। इसके अलावा प्रेसीडेन्सी शहरों में नगर निगमो की स्थापना के कारण भी विधि निर्माण की इस पद्वति में परिवर्तन करना आवश्यक हो गया था।

इस कारण प्रेसीडेन्सी नगरों के सपरिषद राज्यपाल बार- बार कम्पनी से अनुरोध करते थे कि एक समान विधियाँ इन प्रेसीडेन्सी नगरों में प्रयोग नहीं की जा सकती थीं क्योंकि इनकी भौगोलिक व ऐतिहासिक परिस्थितियां एक-दूसरे से अलग थी। प्रेसीडेन्सी नगरों को आवश्यकता थी कि वे अपनी परिस्थितियों के अनुसार विधि का निर्माण कर सके।

इसलिए सन 1726 के राजपत्र के अन्तर्गत प्रशासनिक व्यवस्था हेतु विधि बनाने का आंशिक अधिकार भारत के प्रेसीडेन्सी नगरों को दिया गया कि वे अपनी परिस्थितियों के अनुसार नियम, उपनियम तथा अध्यादेश आदि जारी कर सके। लेकिन इसके लिए यह आवश्यक था कि

(1) ये अंग्रेजी विधि के विपरीत नहीं होने चाहिये थे।

(2) ऐसे नियम, उपविधियाँ, अध्यादेश आदि युक्तियुक्त अर्थात् न्यायोचित हो,

(3) ये कानून का रूप धारण नहीं कर सकते थे जब तक की कम्पनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स (Court of Directors) द्वारा इन्हें लिखित रूप में अनुमोदित नहीं कर दिया जाता था।

इस प्रकार सन 1726 ई. के राजपत्र के द्वारा पहली बार विधि बनाने का अधिकार इंग्लैण्ड से भारत में हस्तांतरित हो सका था और राज्यपाल द्वारा इस प्रकार निर्मित कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को दण्ड दिया जा सकता था।

डॉ. एम.पी. जैन ने अपनी कृति “Indian Legal History” में इसे भारतीय विधि के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण एवं विलक्षण राजपत्र निरूपित किया है।

1726 का चार्टर एक्ट की विशेषताएँ

भारतीय विधि के इतिहास में सन 1726 के राजलेख को महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इस राजपत्र द्वारा ही भारत में विधि बनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ था, यह राजपत्र अनेक विशेषताओं को समाहित किए हुए था जिनमें मुख्य विशेषताऐ निम्नांकित है –

(i) सन 1726 के राजपत्र द्वारा तीनों प्रेसीडेन्सी नगरों में सुचारु व प्रभावशाली प्रशासन के लिये मेयर निगम की स्थापना की गई।

(ii) सन 1726 के राजपत्र द्वारा प्रेसीडेंसी नगरों (बम्बई, मद्रास एवं कलकत्ता) की न्याय व्यवस्था को समाप्त कर वहाँ एकरूप न्याय व्यवस्था का प्रादुर्भाव किया गया क्योंकि पूर्व की न्याय व्यवस्था में एकरूपता नहीं थी।

(iii) सन् 1726 के राजपत्र द्वारा सीधे ही भारत में मेयर कोर्ट, शान्ति न्यायाधीश एवं सेशन न्यायालयों की स्थापना होना, जबकि तत्कालीन न्यायालय कम्पनी द्वारा निर्मित विधि के अधीन स्थापित थे।

(iv) सन 1726 के राजपत्र द्वारा प्रथम बार एक हजार पैगोड़ा से अधिक मूल्य वाले मामलों के खिलाफ प्रिवी परिषद किंग इन कौंसिल में अपील किए जाने का प्रावधान होना।

(v) सन 1726 के राजपत्र द्वारा न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग कर उसे स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष स्वरूप दिया गया।

(vi) सन 1726 के राजपत्र द्वारा भारत में आंग्ल विधि का स्थानीय विधि के रूप में प्रादुर्भाव हुआ, जो एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है।

(vii) सन 1726 के राजपत्र द्वारा पहली बार स्थानीय समस्याओं के निराकरण के लिए सपरिषद राज्यपाल को नियम, उपविधियाँ एवं अध्यादेश आदि पारित करने की शक्तियाँ प्रदान की गई थी।

इस प्रकार सन् 1726 का चार्टर तत्कालीन न्याय व्यवस्था को स्वतन्त्र, निष्पक्ष, सुनिश्चित एवं सुदृढ़ स्वरूप प्रदान करने वाला एक अहम राजपत्र था।

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1726 का चार्टर एक्ट के दोष

सन् 1726 का चार्टर अनेक विशेषताएँ लिए हुए था फिर भी 1726 का चार्टर आलोचना का शिकार बना और अनेक प्रकार के दोष सामने आए। मुख्य दोष निम्नांकित हैं :-

(i)  इस राजपत्र के द्वारा नियुक्त न्यायाधीश सामान्यतः व्यापारी होते थे। न्यायाधीश के लिए विधि विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं था। जिन्हें विधि  का ज्ञान नहीं होने के परिणामस्वरूप उनसे न्याय की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। यह इस राजपत्र की एक महत्त्वपूर्ण कमी थी।

(ii)  सन् 1726 के राजपत्र को न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के पृथक्करण (Separation) का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज कहा जाता है, लेकिन सामान्यत: ऐसा नहीं था क्योंकि मेयर कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार सपरिषद राज्यपाल (Government of Council)  को था।

सपरिषद राज्यपाल का न्यायालय फौजदारी मामलों की सुनवाई की अधिकारिता भी रखता था। इस प्रकार व्यवस्थापिका, एवं कार्यपालिका पूर्ण रूप से न तो पृथक हो पाए थे और न ही स्वतन्त्र।

(iii)  मेयर कोर्ट और सपरिषद राज्यपाल के सदस्यों के बीच टकराव की स्थिति रहती थी। सपरिषद राज्यपाल के सदस्य अपने को हमेशा मेयर कोर्ट के न्यायाधीशों के ऊपर मानते थे जबकि मेयर कोर्ट के न्यायाधीश इनकी परवाह किए बिना अपने ज्ञान और विवेक के अनुसार मामलों का निपटरा करते थे।

(iv)  भारतीय जनता पर उनके वैयक्तिक एवं स्थानीय मामलों में आंग्ल विधि का लागू किया जाना इस राजपत्र की एक भारी भूल थी क्योंकि  इससे भारतवासियों में असंतोष उत्पन्न हो गया था। मेयर कोर्ट की न्याय व्यवस्था को परिलक्षित करने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण मामले अवलोकन योग्य है, जैसे :-

(क) संकूराम का मामला,

(ख) तेरियानी का मामला,

(ग) पगौड़ा शपथ का मामला आदि।

1726 चार्टर एक्ट के विशेष बिंदु –

सन 1726 का चार्टर सम्राट जार्ज प्रथम द्वारा 24 सितम्बर, 1726 को जारी किया गया|

शेरिफ का क्षेत्राधिकार प्रेसीडेंसी नगर के आस-पास 10 मील तक का क्षेत्र था।

सन् 1726 का चार्टर के द्वारा नियुक्त न्यायाधीश सामान्यतः व्यापारी होते थे।

सन् 1726 में चार्टर में शपथ पर बयान लेने की व्यवस्था की गई थी।

इस प्रकार सन् 1726 का चार्टर (राजपत्र) अधिक समय तक प्रभाव में नहीं रह सका और इसकी कमियों को दूर करने के लिए सन् 1753 में नया  राजपत्र जारी करना पड़ा।

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संदर्भ :- बसंती लाल बेबल