नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में सन् 1600 का चार्टर एक्ट (राजलेख) का उल्लेख किया गया इस चार्टर द्वारा ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी को संविधान, शक्ति तथा सुविधाओं आदि का अधिकार दिया गया था, यह आलेख विधि के छात्रो के महत्वपूर्ण है|

सन् 1600 का चार्टर (राजलेख)

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का श्रेय ईस्ट इण्डिया कम्पनी को जाता है जिसने एक साधारण व्यापारिक कम्पनी के रूप में ब्रिटेन का व्यापार बढ़ाने के उद्देश्य से प्रवेश किया था। इस कम्पनी का वास्तविक नाम दि गवर्नर एण्ड कम्पनी ऑफ मर्चेन्ट्स ऑफ लण्डन ट्रेडिंग इन टु दि ईस्ट इंडीजथा

ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना ब्रिटेन की सम्राज्ञी एलिजाबेथ ने सन् 1600 के राजलेख (Charter) के द्वारा ईस्ट इंडीज में व्यापार करने के लिए की थी। जिस कारण सन् 1600 का चार्टर को भारत मै ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आगमन के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है|

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सन् 1600 का चार्टर एक्ट

सन् 1600 का चार्टर द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई तथा इस चार्टर मै ईस्ट इण्डिया कम्पनी का संविधान, शक्ति तथा सुविधाओं आदि का विवरण मिलता है जिसे 31 दिसम्बर, सन् 1600 को लागू किया गया। प्रारम्भ में कम्पनी का अस्तित्व केवल 15 वर्षों के लिए निर्धारित किया गया लेकिन उसमें यह भी प्रावधान था कि कम्पनी का व्यापार लाभप्रद सिद्ध न होने की दशा में इंग्लैण्ड के सम्राट् द्वारा इस राजलेख के अन्तर्गत उसे दो वर्ष पूर्व सूचना देकर समाप्त किया जा सकेगा।

सन् 1600 का चार्टर द्वारा कम्पनी को व्यापार करने का एकाधिकार प्राप्त हुआ तथा अन्य ब्रिटिश व्यापारियों का अनधिकृत रूप से स्वतन्त्र व्यापार करना अवैध घोषित कर दिया व ऐसा करने पर उन्हें दण्डित किये जाने लगा। कम्पनी का कार्य प्रजातांत्रिक सिद्धान्तों पर आधारित था। कम्पनी के प्रबंधन हेतु एक जनरल कोर्ट को स्थापित किया गया जिसका कार्य प्रत्येक वर्ष के लिए एक गवर्नर और चौबीस डाइरेक्टरों की चुनाव द्वारा नियुक्ति करना था|

जिससे कम्पनी के व्यापारिक हितों की देखभाल की जा सके। सामान्यतः गवर्नर तथा प्रत्येक डाइरेक्टर का कार्यकाल एक वर्ष का होता था, परन्तु जनरल कोर्ट द्वारा अयोग्य घोषित किए जाने पर उन्हें इस अवधि के पूर्व भी निलम्बित किया जा सकता था।

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कानून बनाने सम्बन्धी अधिकार शक्ति

सन् 1600 का चार्टर (राजलेख) द्वारा कम्पनी को अपनी बस्तियों में कुशल प्रशासन के लिए सीमित मात्रा में कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई थी। इसका उद्देश्य यह था कि कम्पनी अपने कर्मचारियों को अनुशासन में रखने के लिए आवश्यक नियम बना सके जो व्यापारिक दृष्टि से कम्पनी के हित में हो।

कर्मचारियों द्वारा कंपनी के नियमों का उल्लंघन किये जाने की स्थिति में उन्हें कम्पनी द्वारा उचित अर्थदण्ड अथवा साधारण कारावास का दण्ड दिया जा सकता था परन्तु कम्पनी को इससे अधिक दण्ड देने की अधिकार शक्ति न होने के कारण हत्या तथा अन्य गम्भीर अपराधों के मामलों में उसकी दण्ड-विधि अपर्याप्त थी।

सन् 1600 का चार्टर (राजलेख) में यह स्पष्ट उल्लेख नहीं था कि कम्पनी द्वारा निर्मित विधियाँ किसी निश्चित अंग्रेजी-बस्ती (फैक्ट्री) या क्षेत्र विशेष में लागू होंगी। यद्यपि प्रारंभिक काल में कम्पनी का कानून बनाने सम्बन्धी शक्ति कम थी फिर भी कालातर मै कम्पनी भारत में अंग्रेजी शासन स्थापित करने में सफल हो सकी। [सी. इल्बर्ट (illbert) : दि गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया (1915), पृ. 10]

महारानी एलिजाबेथ द्वारा जारी सन् 1600 का चार्टर (राजलेख) के अन्तर्गत कम्पनी को पूर्वी देशों मै व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया था। इस चार्टर के अनुसार कम्पनी को यह अधिकार था कि वह वेस्ट इंडीज को भेजे जाने हेतु व्यापार-मण्डलों का गठन करे। तदनुसार कम्पनी ने अपने प्रशासन तथा प्रबन्ध के लिए कानून बनाये जो उसकी सुरक्षा की दृष्टि से भी आवश्यक थे।

लगभग नौ वर्षों की अवधि में कम्पनी ने कार्य-क्षेत्र में पर्याप्त विस्तार कर लिया जो ब्रिटेन की सरकार के लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ। इसके परिणाम स्वरूप इंग्लैण्ड के तत्कालीन सम्राट् जेम्स-प्रथम ने 31 मई, 1609 के राजलेख द्वारा कम्पनी के कार्यकाल को अनिश्चित समय के लिए बढ़ा दिया तथा सन् 1600 का चार्टर में दिये गये कम्पनी के पन्द्रह वर्ष तक कार्य कर सकने सम्बन्धी बन्धन को समाप्त कर दिया गया।

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भारत में प्रथम आंग्ल-बस्ती 

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत में आने के पश्चात् उसे सर्वप्रथम ऐसे स्थान की आवश्यकता थी जो व्यापारिक दृष्टि से उपयुक्त हो। इसके लिए कम्पनी ने सूरत को चुना जो उस समय मुगल सम्राट् जहाँगीर के शासनाधीन एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह होने के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए विशेष रूप से उपयोगी था।

उस समय यह नगर पुर्तगालियों के आधिपत्य में होने के कारण अंग्रेजी कम्पनी को वहाँ अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित करने के लिए पूर्तगालियों से संघर्ष करना पड़ा।

अन्त में सन् 1612 में अंग्रेजों ने पुर्तगालियों को सूरत से निष्कासित करने में सफलता प्राप्त की तथा मुगल सम्राट् की अनुमति से वहाँ अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया। उस वक्त कम्पनी के समक्ष अनेक समस्या भी थी जिनको दूर करने के लिए ब्रिटिश सम्राट् जेम्स प्रथम ने सन् 1615 में अपने विश्वस्त दूत सर टॉमस रो (Sir Thomas Roe) को भारत भेजा।

सर टॉमस रो ने सन् 1615 में मुगल बादशाह के आगरा स्थित दरबार मै पंहुच कर ब्रिटिश कम्पनी के लिए निम्नलिखित सुविधायें प्राप्त की –

(1) भारत में स्थित अंग्रेजों को उनके धर्म, विधि एवं परम्पराओं के अनुसार रहने की अनुमति दी गयी।

(2) अंग्रेजों को यह सुविधा दी गयी कि वे अपने आपसी झगड़े कम्पनी के मुख्य प्रशासक, जो प्रेसीडेन्ट कहलाता था, के समक्ष प्रस्तुत करें तथा उन्हें अंग्रेजी न्यायाधिकरण (Tribunals) द्वारा ही निपटायें। परन्तु ऐसे प्रकरण जिनमें एक पक्ष अंग्रेज तथा दूसरा भारतीय हो, केवल भारतीय न्याय अधिकारियों द्वारा ही निपटाये जा सकते थे।

(3) मुगल सम्राट् द्वारा सूरत के मुगल शासक तथा काजियों को यह निर्देश दिये गये कि वे अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी मामलों या समस्याओं को न्यायपूर्ण तरीके से तुरन्त निपटायें और उनके साथ शिष्टाचारपूर्ण व्यवहार करें| [बुस (Bruce) : एनाल्स ऑफ दि इस्ट इण्डिया कम्पनी (ग्रन्थ 1), पृ. 240]

सर टॉमस रो के प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप कम्पनी ने सुरत को अपना मुख्य व्यापारिक केन्द्र बनाया तथा सन 1618 में वहाँ अपनी फैक्टरी (कम्पनी के व्यापारिक अड्डे की जहाँ उसके कार्यालय, गोदाम, कर्मचारियों के आवास-गृह आदि हुआ करते थे, फैक्ट्री के नाम से सम्बोधित किया जाता था) स्थापित की जिसका मुख्याधिकारी प्रेसीडेंट या ‘गवर्नर’ कहलाता था और वह कम्पनी का प्रतिनिधि होता था। इस प्रकार सुरत ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रथम प्रेसीडेन्सी थी कम्पनी का मुख्य व्यापार माल का आयात तथा निर्यात करना था।

प्रेसीडेन्ट एण्ड काँसिल की नियुक्ति कम्पनी द्वारा ही की जाती थी तथा कम्पनी के व्यापार एवं प्रबन्ध सम्बन्धी सभी निर्णय बहुमत (majority votes) द्वारा लिए जाते थे। सन् 1687 में सपरिषद्-राज्यपाल (President in Council) का कार्यालय सुरत से बम्बई स्थानान्तरित कर दिया गया जिससे सुरत का महत्व कम हो गया और वह एक साधारण व्यापारिक अड्डा मात्र रह गया।

चूँकि कालान्तर में सूरत का व्यापारिक महत्व कम हो गया था लेकिन यहाँ अंग्रेजों द्वारा अपनी प्रथम आंग्ल-बस्ती स्थापित किये जाने के कारण यहाँ की प्रशासनिक एवं न्याय-व्यवस्था का भारतीय विधि के इतिहास में विशेष महत्व रहा है।

सूरत फैक्टरी की प्रशासनिक व्यवस्था

कम्पनी के समस्त कर्मचारियों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया था। सबसे निचली श्रेणी के कर्मचारियों को ‘राइटर्स’ (Writers) कहा जाता था तथा ये ऐसे व्यक्ति हुआ करते थे जिनका कम्पनी में सेवाकाल पाँच वर्षों से कम था।

इन्हें कम्पनी द्वारा दस पौंड वार्षिक वेतन दिया जाता था। कर्मचारियों की द्वितीय श्रेणी में ऐसे व्यक्तियों का समावेश था जिनका कार्यकाल पाँच वर्ष से अधिक था। उन्हें ‘फैक्टर्स’ (Factors) कहा जाता था तथा उनका वार्षिक वेतन बीस पौंड था।

प्रत्येक राइटर को पाँच वर्ष के सेवाकाल के पश्चात् फैक्टर की श्रेणी में पदोन्नत कर दिया जाता था। इसी प्रकार प्रत्येक फैक्टर को तीन वर्ष का अनुभव प्राप्त हो जाने पर ‘सीनियर फैक्टर’ (Senior Factor) बना दिया जाता था तथा तीन वर्षों तक सीनियर फैक्टर रहने के पश्चात् उसे ‘मर्चेन्ट’ (Merchant) की श्रेणी में सम्मिलित कर लिया जाता था।

कम्पनी के कर्मचारियों की वरिष्ठतम श्रेणी के सदस्य ‘मर्चेन्ट्स’ कहलाते थे जो कम्पनी के कार्यों में अनुभवी व्यक्ति होते थे। प्रत्येक ‘मर्चेन्ट’ को चालीस पौण्ड वार्षिक वेतन दिया जाता था। कम्पनी के प्रशासनिक अधिकारी इसी मर्चेन्ट श्रेणी में से नियक्त किये जाते थे।

सूरत फैक्टरी की न्याय-व्यवस्था

सूरत फैक्टरी के अन्तर्गत रहने वाली अंग्रेज प्रजा दोहरी विधि व्यवस्था द्वारा शासित थी। अपने आपसी मामलों के लिए वे इंग्लैण्ड की इंग्लिश विधि तथा भारत वासियों के विवादों को स्थानीय भारतीय न्यायाधिकारियों द्वारा देशी विधि के अनुसार निपटाया जाता था। अंग्रेजों के आपसी मामलें कम्पनी के मुख्य प्रशासन- ‘प्रेसीडेंट-इन-कौंसिल’ द्वारा निपटाये जाते थे।

कम्पनी की प्रारम्भिक न्याय व्यवस्था संतोषजनक नहीं थी। इसके अतिरिक्त कम्पनी के प्रारम्भिक काल में जो अंग्रेज व्यापारी भारत में आये उनमें अधिकांश ऐसे थे जिनका सामाजिक स्तर ऊँचा नहीं था।

सूरत की प्रेसीडेंसी का प्रेसीडेंट तथा उसकी परिषद् के सदस्य व्यापारी वर्ग के व्यक्तियों में से नियुक्त थे। सपरिषद्-प्रेसीडेंट (President-in-Council) के दो प्रमुख कर्तव्य थे कि वह कम्पनी के क्षेत्राधीन रहने वाली अंग्रेज-प्रजा में अनुशासन बनाये रखे तथा उनके सामान्य हितों की रक्षा करे।

अंग्रेजों के आपसी मामलों को भारतीय न्यायालयों के अधिकार-क्षेत्र से बाहर रखा गया इसका एक कारण भारतीय न्यायाधिकारियों को अंग्रेजी विधि का ज्ञान न होने के कारण वे अंग्रेजों के आपसी वाद इंगलिश विधि के अनुसार निपटाने में असमर्थ थे।

अंग्रेजों के मामलों में सपरिषद-प्रेसीडेंट को विस्तृत अधिकार-शक्ति दी गई थी जिसमे सपरिषद्-प्रेसीडेंट द्वारा दोषी व्यक्ति को मृत्युदण्ड तक दिया जा सकता था। परन्तु मृत्युदण्ड देने के पूर्व उसे ज्यूरी (न्याय-सभ्यों) की राय जान लेना अनिवार्य था।

सन् 1615 तथा 1623 के राजकीय अनुदान

ब्रिटेन और भारत के बीच व्यापार मुख्यतः समुद्री मार्ग के जहाजों द्वारा ही हुआ करता था। व्यापारिक प्रगति के साथ-साथ समुद्री मार्ग पर समुद्री अपराध तथा जहाजों पर उपद्रव जैसे अपराधों में वृद्धि भी होने लगी। इसके अलावा कम्पनी में कार्यरत उनके कर्मचारियों में अनुशासनहीनता भी बढ़ने लगी|

जिस कारण बढ़ते हुये अपराधों की रोकथाम तथा अराजकता पर काबू पाने के उद्देश्य से ब्रिटिश सम्राट् ने सन् 1615 के राजकीय अनुदान (Royal Grant) द्वारा भारत स्थित ईस्ट इण्डिया कम्पनी की विधायिनी शक्ति में विस्तार किया तथा कम्पनी को अधिकृत किया कि वह समुद्री मार्ग पर होने वाले उत्पातों की रोकथाम के लिए समुद्री जहाजों के कप्तानो को कमीशन प्रदान कर सकती है।

इस अधिकार-शक्ति के अन्तर्गत जहाजों के कमीशन्ड कप्तान अपने जहाज पर होने वाली हत्या, विद्रोह, विप्लव तथा अन्य गम्भीर अपराधों के लिए दोषी व्यक्ति को दण्डित कर सकते थे।

इसी प्रकार सन् 1623 के राजकीय अनुदान द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों में बढ़ती हुई उदंडता और अनुशासनहीनता को नियन्त्रण में रखने की दृष्टि से ब्रिटिश सम्राट् ने कम्पनी को यह अधिकार-शक्ति दी, कि वह प्रेसीडेन्ट तथा अपने कुछ अन्य अधिकारियों को कमीशन प्रदान करे जिससे वे स्थानीय अपराधों के लिए दोषी व्यक्तियों को समुचित दण्ड दे सकें।

परन्तु गम्भीर अपराधों के मामलों में इन कमीशन्ड अधिकारियों को ज्यूरी से परामर्श लेना अनिवार्य था। इस प्रकार इन राजकीय अनुदानों के द्वारा कम्पनी को समद्री मार्ग तथा भारत-स्थित अपनी अंग्रेजी बस्तियों में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए पर्याप्त अधिकार प्राप्त हुए जो कम्पनी के लिए हितकारी साबित हुए।

सन् 1657 का राजलेख (चार्टर एक्ट)

इस राजलेख (Charter) द्वारा ईस्ट इंडीज तथा भारत में कार्यरत संयुक्त स्टाक कम्पनियों (Joint Stock Companies) को ईस्ट इण्डिया कम्पनी में एकीकृत किया गया।

सन् 1661 का राजलेख (चार्टर एक्ट)

व्यापारिक प्रगति के साथ कम्पनी को दक्षिण भारत के आन्तरिक क्षेत्रों में अपनी बस्तियाँ स्थापित करने के लिए कम्पनी ने ब्रिटिश सम्राट् के पास एक प्रार्थना-पत्र भेजा जिसमे भारत स्थित कम्पनी के प्रेसीडेन्ट तथा उसकी परिषद् को अपने अधीनस्थ क्षेत्रों में रहने वाले अंग्रेज निवासियों को इंग्लिश विधि के अनुसार दण्डित करने की अधिकार शक्ति प्राप्त करने की याचना की।

जिसके परिणामस्वरूप 3 अप्रैल, सन् 1661 को इंग्लैण्ड के सम्राट् चार्ल्स द्वितीय ने कम्पनी को नया राजलेख (Charter) प्रदान किया जिसके द्वारा कम्पनी अपने व्यापारिक अड्डों (फैक्ट्रियों) के लिए राज्यपाल तथा उसकी परिषद् के सदस्यों की नियुक्ति कर सकती थी। प्रत्येक आंग्ल फैक्ट्री के सपरिषद् राज्यपाल अपने क्षेत्राधिकार में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर दीवानी तथा फौजदारी मामलों में इंग्लिश विधि के अनुसार निर्णय दे सकता था।

ऐसी अंग्रेजी बस्तियों में जहाँ राज्यपाल (Governor) नियुक्त नहीं थे वहां फैक्ट्री के मुख्याधिकारी को यह अधिकार दिये गये कि उसके क्षेत्र में घटित होने वाले अपराधों के लिए दोषी अपराधियों को दण्ड दिलाने के लिए वह उन्हें निकटस्थ सपरिषद-राज्यपाल के पास भिजवाने की व्यवस्था करे अथवा उन्हें इंग्लैण्ड भिजवा दे।

भारतीय विधि के इतिहास में सन् 1661 के राजलेख का विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि इसके अन्तर्गत कम्पनी को दी गई न्यायिक शक्ति के परिणामस्वरूप आंग्ल बस्तियों में रहने वाले सभी निवासी चाहे वे अंग्रेज हों अथवा देशी-भारतीय, दीवानी तथा फौजदारी मामलों के लिए कम्पनी के सपरिषद्-राज्यपाल के क्षेत्राधिकार में माने गये तथा राज्यपाल की दण्ड सम्बन्धी अधिकार शक्ति में इतनी अधिक वृद्धि की गई कि वह मृत्युदण्ड तक देने की क्षमता रखने लगा।

सन् 1661 के चार्टर एक्ट द्वारा ब्रिटिश सम्राट् ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्षेत्राधीन भारतीय भू-प्रदेशों में एक निश्चित न्याय व्यवस्था लागू की जो इंग्लिश विधि पर आधारित थी। अंग्रेजों ने इस राजलेख द्वारा यह संकेत देने का प्रयास किया था कि अब कम्पनी एक व्यापारिक प्रतिष्ठान मात्र न रह कर क्षेत्रीय प्रभूत्व स्थापित करने की और कृत संकल्प थी।

सन् 1661 के चार्टर एक्ट के महत्व का एक अन्य कारण यह भी है कि इसके द्वारा सपरिषद-राज्यपाल (Governor-in-Council) के नेतृत्व में भारतीय आंग्ल बस्तियों के लिए एक निश्चित शासन व्यवस्था लागू की गई जिसमें व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के कार्य एक ही संस्था (सपरिषद राज्यपाल) में केन्द्रित किये गये थे।

इन बस्तियों की न्याय व्यवस्था मूलतः इंग्लिश विधि पर आधारित होने के कारण यह स्वाभाविक था कि वह अंग्रेजों के लिए पक्षपातपूर्ण तथा देशी भारतीयों के लिए अहितकर थी।

इस प्रकार सन् 1600 का चार्टर (राजलेख) द्वारा भारत मै ईस्ट इण्डिया कम्पनी का आगमन हुआ और उसके बाद कम्पनी ने धीरे धीरे अपने व्यापार के प्रसार के साथ साथ यहाँ पर अनेक तरह की न्याय व्यवस्था को लागु किया गया|

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