इस आलेख में जॉन ऑस्टिन ने विधिशास्त्र को सुस्पष्ट विधि का दर्शन क्यों एंव किसलिए कहा है, की व्याख्या की गई है, जिसमे सुस्पष्ट विधि का दर्शन को विस्तृत शब्दों में बताया गया है –
सुस्पष्ट विधि का दर्शन
ऑस्टिन (Austin) को विख्यात विधिशास्त्री जेरेमी बेन्थम का शिष्य माना जाता है। ऑस्टिन तथा बेन्थम दोनों ही विधि की विश्लेषणात्मक (Analytical) व्याख्या के प्रवर्तक थे।
ऑस्टिन विधि का वैज्ञानिक अध्ययन करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने विधिशास्त्र की अपनी परिभाषा में ‘विज्ञान’ शब्द का प्रयोग नहीं कर उसके स्थान पर ‘दर्शन’ शब्द का प्रयोग किया है।
ऑस्टिन ने विधिशास्त्र की परिभाषा देते हुए कहा है – विधिशास्त्र सुस्पष्ट विधि का दर्शन है, इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि – विधिशास्त्र विध्यात्मक विधि का दर्शन है।
विधिशास्त्र की परिभाषा में ‘विज्ञान’ के स्थान पर ‘दर्शन’ का प्रयोग करने का मुख्य कारण 17वीं और 18वीं शताब्दी में विधिवेत्ताओं की सोच एवं चिन्तन में विज्ञान की अपेक्षा दर्शन का अधिक लोकप्रिय होना माना जाता है।
ऑस्टिन के अनुसार विधिशास्त्र का वास्तविक अर्थ विधिक संकल्पनाओं का प्रारूपिक विश्लेषण करना है| ऑस्टिन की विधिशास्त्र की परिभाषा से उसके दो आवश्यक तत्त्व का पता चलता है|
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ऑस्टिन की परिभाषा के प्रमुख तत्त्व
(i) विध्यात्मक अर्थात् सुस्पष्ट विधि (positive law), (ii) सामान्य विधिशास्त्र या दर्शन (philosophy)
(i) विध्यात्मक अर्थात् सुस्पष्ट विधि (positive law)
सुस्पष्ट विधि से तात्पर्य है – स्वतन्त्र राजनीतिक समाज में सम्प्रभु या सर्वोच्च सरकार के व्यक्त या अव्यक्त प्राधिकारिता प्राप्त सुस्थापित या तथ्य रूप मान।
इस प्रकार सुस्पष्ट विधि की परिभाषा में केवल निश्चित या सशक्त रूप से कही जाने वाली विधि को ही सम्मिलित किया गया है, दैवी विधि, परम्परागत (conventional) सांविधानिक विधि, अन्तर्राष्ट्रीय विधि, सादृश्य पर आधारित विधि, फैशन, शिष्टाचार और लाक्षणिकता पर आधारित विधि, नैतिकता, रूढ़ि आदि को नहीं।
(ii) सामान्य विधिशास्त्र या दर्शन (philosophy)
ऑस्टिन द्वारा सामान्य विधिशास्त्र या सुस्पष्ट विधि के दर्शन का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में और एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में किया गया है।
ऑस्टिन ने ‘सामान्य’ के साथ ‘तुलनात्मक’ और ‘दर्शन’ के साथ ‘सामान्य सिद्धान्तों’ भावार्थ प्रयुक्त किया गया है। इस प्रकार ऑस्टिन की विधिशास्त्र की परिभाषा से अभिप्राय अनेक विधि व्यवस्थाओं में पाये जाने वाले सिद्धान्तों, मनोभावों या विभेदो से है। इस प्रकार ‘दर्शन’ से अभिप्राय ‘विधि के सामान्य सिद्धान्तों’ से है।
ऑस्टिन के मत में विधिशास्त्र के अन्तर्गत निश्चित रूप से विद्यमान विधि का अध्ययन किया जाता है। निश्चित तौर पर विद्यमान विधि विशिष्ट या सामान्य विधिशास्त्र की विषय-वस्तु हो सकती है।
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विशिष्ट विधिशास्त्र –
विशिष्ट विधिशास्त्र किसी निश्चित विधि प्रणाली या उसके अनुभाग का विज्ञान है। इससे सुस्पष्ट विधि और नियम किसी विनिर्दिष्ट समुदाय से सम्बन्धित होते हैं तथा उनका अध्ययन इन्हीं समुदायों तक सीमित रहता है। यही कारण है कि इसे विशिष्ट विधिशास्त्र या राष्ट्रीय विधिशास्त्र कहा जाता है।
सामान्य विधिशास्त्र –
ऑस्टिन की मान्यता है कि यद्यपि प्रत्येक विधिक प्रणाली को अपनी अलग-अलग विशेषतायें होती हैं फिर भी कुछ ऐसे सिद्धान्त, मनोभाव या विभेद होते हैं जो विभिन्न प्रणालियों में समान तौर पर पाये जाते हैं।
लिहाजा सामान्य विधिशास्त्र से ऑस्टिन का आशय ऐसे विज्ञान से है जिसका सम्बन्ध सिद्धान्तों, मनोभावों और विभेदी की व्यवस्था से है जो विधि प्रणालियों में सामान्य है।
ऑस्टिन ने विभिन्न प्रकार के सिद्धान्तों, मनोभावों एवं विभेदों के कुछ उदाहरण दिये हैं –
(क) कर्त्तव्य अधिकार, स्वतन्त्रता, रूढ़ि, दण्ड, उपचार, सम्प्रभुता, राजनीतिक समाज,
(ख) लिखित या प्रख्यापित और अलिखित या अप्रख्यापित विधियों के बीच अन्तर या सम्प्रभु द्वारा आदेशित विधि या अधीनस्थ प्राधिकारियों द्वारा आदेशित विधि में अन्तर,
(ग) सम्पूर्ण विश्व के विरुद्ध प्राप्त अधिकार अर्थात् लोक अधिकार (right-in-rem) जैसे सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार और किसी विनिर्दिष्ट व्यक्ति के विरुद्ध प्राप्त अधिकार अर्थात् निजी अधिकार (right-in-personam) जैसे संविदाजन्य अधिकारों के बीच विभेद,
(घ) सम्पत्ति सम्बन्धी वस्तुपरक अधिकार एवं सम्पत्ति से उत्पन्न होने वाले सीमित अधिकारों के बीच विभेद,
(ङ) विनिर्दिष्ट संविदाओं के भंग से उत्पन्न विशिष्ट व्यक्तियों के दायित्व एवं दुर्घटनाओं से उत्पन्न दायित्वों के बीच अन्तर; तथा
(च) व्यक्तिगत नियम भंग से उत्पन्न सिविल क्षति एवं सार्वजनिक नियम भंग से कारित अपराध के बीच विभेद।
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ऑस्टिन की परिभाषा की आलोचना –
ऑस्टिन की परिभाषा की विभिन्न विधिशास्त्रियों द्वारा आलोचना की गई है। इन आलोचकों द्वारा विधिशास्त्र की अपनी-अपनी परिभाषायें भी दी गई हैं। इन आलोचकों में हॉलैण्ड एवं सॉमण्ड के नाम मुख्य रूप से लिये जाते हैं।
हॉलैण्ड की आलोचना का मुख्य आधार ऑस्टिन द्वारा विधिशास्त्र को विशिष्ट एवं सामान्य विधिशास्त्र में वर्गीकृत किया जाना रहा है। हॉलैण्ड का मत है कि विधिशास्त्र एक प्रगतिशील विज्ञान होने के साथ यह सार्वभौम (universal) भी है। इसे सामान्य एवं विशिष्ट रूप में वर्गीकृत अथवा विभक्त नहीं किया जा सकता है।
विशिष्ट विधिशास्त्र का प्रयोग अनावश्यक तथा सामान्य एवं विशिष्ट विधिशास्त्र का वर्गीकरण (classification) भ्रामक है।
सॉमण्ड की आलोचना का मुख्य आधार अव्यवहारिकता रहा है। उनकी मान्यता है कि विधिशास्त्र के एक विषय के रूप में किसी सिद्धान्त का विभिन्न प्रणालियों में समान रूप से पाया जाना आवश्यक नहीं है, क्योंकि विधि के विज्ञान के प्रयोजनार्थ किसी सिद्धान्त का सार्वभौम प्रतिग्रहण पूर्ववर्ती शर्त नहीं है।
सॉमण्ड का कहना है कि, सामान्य विधिशास्त्र विधिक प्रणालियों का सामान्य अध्ययन नहीं होकर विशिष्ट विधिक व्यवस्था के सामान्य या मूल तत्त्वों का अध्ययन है।
विख्यात विधिशास्त्री डायस (Dias) ने भी ऑस्टिन की विधिशास्त्र की आलोचना करते हुए कहा है कि –
(i) ऑस्टिन ने विधिक प्रणाली की विपुलता और विकसित अवस्था का कोई आधार नहीं बताया है।
(ii) ऑस्टिन ने यह भी नहीं बताया है कि सामान्य सिद्धान्त वे हैं जो तथ्यतः सामान्य तौर पाये जाते हैं अथवा किसी भी कारण से सामान्य मान लिये जाते हैं।
(iii) ऑस्टिन ने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि जिन मनोभावों का वर्णन उनके द्वारा अपनी कृति में किया गया है वे वास्तव में विकसित अवस्था वाली विधिक प्रणाली में पाये जाते हैं।
बकलैण्ड (Buckland) भी ऑस्टिन के आलोचकों में है। उन्होंने ऑस्टिन की परिभाषा की आलोचना यह कहते हुए की है कि, ऑस्टिन ने सामान्य विधिशास्त्र की बात तो की है लेकिन उसे व्यवहार में अपनाया नहीं गया है।
इन सभी आलोचनाओं के बावजूद भी ऑस्टिन की परिभाषा कई अर्थों में सार्थक मानी जाती है। ऑस्टिन की परिभाषा को आगे चलकर हॉलैण्ड ने परिष्कृत अर्थात् परिमार्जित किया है।
निष्कर्ष –
उपरोक्त विवेचन से ऑस्टिन की विधिशास्त्र की परिभाषा से निम्नांकित निष्कर्ष निकलते हैं –
(i) विभिन्न विध्यात्मक अर्थात् सुस्पष्ट प्रणालियों से निस्सरित या एकत्रित किये गये सिद्धान्त सामान्य विधिशास्त्र की विषय-वस्तु (Subject- matter) है।
(ii) विधिशास्त्र का विधि के गुण-दोषों (merits and demerits) से कोई तत्कालिक या सीधा सरोकार नहीं है।
(iii) सामान्य सिद्धान्त और विभेद यद्यपि विभिन्न विधिक प्रणालियों में पाये जा सकते हैं, फिर भी सभी प्रणालियों में समान रूप से पर्याप्त नहीं माने जा सकते हैं।
(iv) विशिष्ट विधिशास्त्र किसी निश्चित विधिक प्रणाली अथवा उसके किसी अनुभाग का विज्ञान है और यही व्यावहारिक है।
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