हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में सुने जाने के अधिकार की अवधारणा | इसका महत्त्व एंव आवश्यक तत्वों | locus standi in hindi के बारें में बताया गया है, उम्मीद है आपको यह आलेख पसन्द आयेगा

सुने जाने के अधिकार की अवधारणा

सुने जाने के अधिकार की अवधारणा बहुत ही पुरानी है। हमारे यहाँ जब से न्याय प्रशासन प्रारम्भ हुआ तब से इस अधिकार यानि सुनने के अधिकार का अभ्युदय हुआ माना जाता है, इससे यह पता चलता है कि, सुने जाने के अधिकार (Locus Standi) की उत्पत्ति की जड़े अतीत की गहराईयों में छिपी हैं।

सुने जाने के अधिकार का अर्थ है –

(i) सुनवाई का अधिकार,

(ii) अपने अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार; तथा

(iii) अपनी प्रतिरक्षा करने का अधिकार।

विधि की यह सुस्थापित धारणा है कि कोई भी व्यक्ति अनसुना नहीं रह सकता। नैसर्गिक न्याय का सिद्धान्त भी यही है कि न्यायालय में चलने वाली प्रत्येक न्यायिक कार्यवाही में उसमें के पक्षकारों को सुनवाई का समुचित अवसर प्रदान किया जाये।

यहाँ उल्लेखनीय यह है कि पक्षकार को केवल सुनवाई का अवसर नहीं मिले, अपितु ऐसा अवसर समुचित भी हो। सुनने के अधिकार का सिद्वांत भी साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के नियम पर आधारित है।

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सुने जाने के अधिकार से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रकरण

फतेहसिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (ए.आई.आर. 1995 राजस्थान 15) –

इस मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा भी यही अभिनिर्धारित किया गया है कि, “प्रत्येक व्यक्ति को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुरूप है।”

मै. ग्लोबल फेसिलिटीज बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (ए.आई. आर. 2018 पंजाब एण्ड हरियाणा 39) –

इस मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना तथा आदेश का सकारण (speaking) होना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों की अपेक्षा है।

इआईडी पेरी (इण्डिया) लिमिटेड बनाम कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट (ए.आई. आर 2016 कलकता 11) –

इस मामले में कलकता उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सुनवाई का अवसर दिये बिना की गई कार्यवाही नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का उल्लंघन है।

सरिता कुमारी बनाम बोर्ड ऑफ सैकेण्डरी एज्यूकेशन, अजमेर (ए.आई. आर. 2011 राजस्थान 167) –

इस मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धानों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए, लेकिन परीक्षा में सामूहिक नकल के मामलों में यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है। यदि मामला व्यक्तिगत नकल का है तो सुनवाई का अवसर प्रदान किया जाना आवश्यक है।

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सुने जाने के अधिकार का महत्त्व –

सुने जाने के अधिकार का महत्त्व जहाँ अधिकार है, वहाँ उपचार है (Ubi jus ibi remedium) के सूत्र के कारण है। विधि एवं संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को अनेक अधिकार प्रदान किये गये हैं। इन अधिकारों के प्रवर्तन एवं संरक्षण के लिए उसे न्यायालय में जाने का अधिकार भी प्रदान किया गया है। यदि ऐसा नहीं होता तो इन अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।

लिहाजा प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों के प्रवर्तन, संरक्षण एवं बचाव के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार है। यह उसका मूल अधिकार है और उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है इसे  ही सुनवाई या सुने जाने का अधिकार (Locus Standi) कहा जाता है।

आवश्यक शर्तें –

सुने जाने के अधिकार की भी कुछ शर्तें है जिनका प्रकरण में पूरा होना आवश्यक है, जैसे-

(i) ऐसे वादों या मुकदमों का व्यापक जनहित से जुड़ा होना;

(ii) उनमें सामाजिक हित निहित होना;

(iii) उनका राजनीति से प्रेरित नहीं होना;

(iv) सद्भावपूर्वक होना, आदि। (एस.सी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए. आई.आर. 1982 एस.सी.149)

‘किशोर भाई डी. पंचाल बनाम चीफ सेक्रेटरी, स्टेट ऑफ गुजरात’, (ए.आई.आर. 2003 गुजरात 43) के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा यह स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि लोकहित वाद का उद्देश्य राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करना तथा राजनीतिक समस्याओं का समाधान तलाशना नहीं है।

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प्राचीन धारणा

सुने जाने के अधिकार की प्राचीन अथवा परम्परागत धारणा यह है कि जिस व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन अथवा अतिक्रमण हुआ है; वही व्यक्ति उनके प्रवर्तन एवं संरक्षण के लिए न्यायालय में दस्तक दें। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि केवल पीड़ित अथवा व्यथित व्यक्ति (aggrieved party) को ही अपने अधिकारों के प्रवर्तन एवं संरक्षण के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार है। उसकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति न्यायालय में नहीं जा सकता है।

उदाहरणार्थ – संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत रिट अधिकारिता में केवल वही व्यक्ति जा सकता है या जा सकता था जिसके अधिकारों का अतिक्रमण हुआ हो। उच्च न्यायालय में आवेदन करने का अधिकार केवल उसी व्यक्ति को है जिसके अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है।

इसका मुख्य कारण यह माना जाता है कि अन्य व्यक्तियों द्वारा न्यायालयों में दस्तक दिये जाने से कहीं मुकदमों की लम्बी लाइन ना लग जाये।

उदारीकरण

लेकिन समय के साथ इस प्राचीन एवं परम्परागत अवधारणा में परिवर्तन आया और अब यह धारणा बनने लगी कि कोई व्यक्ति किसी भी कारण से न्याय से वंचित नहीं रहे।

यदि कोई व्यक्ति अर्थाभाव अर्थात निर्धनता या अन्य किसी कारण से न्यायालय में दस्तक देने में असमर्थ है तो उसकी ओर से अन्य व्यक्ति, संघ या संगठन द्वारा न्यायालय में दस्तक दी जा सकती है। यह धारणा ‘लोक हित वाद’ (Public interest litigation) की अवधारणा कहलाई।

लोकहित वाद की अवधारणा वस्तुतः संविधान के अनुच्छेद 39क के अनुरूप है जिसमें यह कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति मात्र अर्थाभाव या अन्य किसी कारण से न्याय’ से वंचित नहीं रहें। इसे हम “निर्धन को न्याय” की अवधारणा भी कह सकते हैं।

इस अवधारणा का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों को न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराना रहा है। लोकहित वाद की अवधारणा का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्ग की सहायता करना तथा उन्हें न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराना है।

न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती के मत में “न्याय अब केवल सम्पन्न व्यक्तियों की बपौती नहीं है। न्याय के मन्दिर (न्यायालय) अब जन साधारण के लिए खुले है।”

न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर का भी यही विचार है कि “पीड़ित और व्यथित व्यक्ति के ही न्यायालय में जा सकने की संकुचित धारणा अब समाप्त हो गई है। उसका स्थान अब वर्ग कार्यवाही (Class action), लोकहित वाद (Public Interest Litigation), प्रतिनिधि वाद (Representative action) आदि ने ले लिया है।

अब कोई भी व्यक्ति किसी सार्वजनिक हित से जुड़े मामलों में अपने एवं अन्य के हितों के संरक्षण हेतु न्यायालय में जा सकता है।”

ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें ‘सुने जाने के अधिकार’ (Locus standi) का व्यापक विस्तार हुआ है; जैसे-

(i) गंगा के पानी को प्रदूषित होने से बचाना (एम. सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए.आई. आर. 1988 एस.सी. 1115);

(ii) ताजमहल के सौन्दर्य की रक्षा करना (एम.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए.आई.आर. 1997 एस.सी.734);

प्रदूषणरहित जल के उपयोग का अधिकार (जम्मू कन्जुमर कौंसिल बनाम स्टेट, ए. आई.आर. 2003 एन.ओ.सी. 256 जम्मू एण्ड कश्मीर); आदि। पत्र एवं समाचार पत्रों की कतरनें

वर्तमान समय में लोकहित वाद एवं ‘सुने जाने के अधिकार’ (Locus standi) का विस्तार इतना अधिक हो गया है कि पत्रों, पोस्टकार्डों एवं समाचार पत्रों की कतरनों को भी रिट मानकर हमारे शीर्षस्थ न्यायालयों द्वारा न्यायिक कार्यवाही की जाने लगी है।

‘बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ (ए.आई.आर. 1982 एस.सी.803); पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ (ए.आई.आर. 1982 एस.सी. 1473) आदि मामलों में उच्चतम न्यायालय ने पत्रों एवं समाचारों को रिट मानकर न्यायिक कार्यवाही की है।

इस प्रकार “सुने जाने के अधिकार” (Locus standi) का दायरा अब दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। लोकहित वाद एवं सामाजिक अनुयोजन मुकदमा आदि अब “सुने जाने के अधिकार” की परम्परगत अवधारणा के “अपवाद” (Exception) बन गये हैं अर्थात इन पर अब परम्परागत अवधारणा लागू नहीं होती है।

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संदर्भ – बसंती लाल बाबेल