इस लेख में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 क्या है, सिविल प्रकृति के वाद से आप क्या समझते क्या है एंव क्या न्यायालय सभी सिविल वादों का परीक्षण कर सकते है | What do you understand by ‘Suit of Civil Nature’ को आसान शब्दों में समझाने का प्रयास किया गया है…..
वाद (कार्यवाहियाँ अथवा मामले) सामान्यतया दो (सिविल एंव आपराधिक) प्रकार के होते है। जैसा की हम जानते है कि, सिविल मामलों की सुनवाई सिविल न्यायालयों द्वारा एंव आपराधिक मामलों की सुनवाई आपराधिक न्यायालयों द्वारा की जाती है तथा इन दोनों न्यायालयों का अपना-अपना क्षेत्राधिकार और अपनी-अपनी प्रक्रिया भी होती है।
सिविल प्रकृति के वाद –
सिविल प्रकृति के वाद से आशय ऐसे वाद से है, जिसमें किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के वर्ग के महत्वपूर्ण अधिकारों या दायित्वों के सृजन, उल्लंगन आदि का प्रश्न शामिल है, यदि किसी वाद में ऐसे अधिकार एंव दायित्वों सम्बन्धी कोई विवाद नहीं है तो वह वाद सिविल प्रकृति के वाद नहीं माना जाएगा| सिविल प्रकृति के वाद के अर्थ को संहिता की धारा 9 में बताया गया है|
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 में के उपबंधों अनुसार – ऐसा वाद, जिसमें किसी सम्पत्ति के अधिकार अथवा किसी हैसियत का प्रश्न विवादास्पद हो, सिविल प्रकृति का वाद कहलाता है, चाहे ऐसा अधिकार धार्मिक रीति-रिवाजों अथवा समारोहों से जुड़े प्रश्नों के विनिश्चय पर ही पूर्णतया आधारित क्यों न हो।
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धारा 9 से यह भी पता चलता है कि सम्पत्ति एवं हैसियत (Property and Office) के अधिकार से जुड़े सभी वाद सिविल प्रकृति के वाद होते हैं। आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सिविल प्रकृति का वाद एक ऐसा वाद है जिसका उद्देश्य किसी नागरिक अथवा स्वयं राज्य के विरुद्ध किसी सिविल अधिकार या सिविल दायित्व का प्रवर्तन है।
केस – एसेसिंग ऑथोरिटी, लुधियाना बनाम मंशाराम (ए. आई. आर. 1965 पंजाब 459)
इस मामले में कहा गया है कि – सिविल अधिकार से तात्पर्य ऐसे अधिकार से है जो किसी व्यक्ति को राज्य का नागरिक होने के नाते प्राप्त होते है, चाहे ऐसा अधिकार किसी अधिनियम के द्वारा प्राप्त हुआ हो या अन्यथा नहीं।
केस – गुरुचरन सिंह बनाम श्रीमती गुरदयाल कौर (ए. आई. आर. 1982 राजस्थान 91)
इसी तरह इस मामले में मत व्यक्त गया है कि – किसी बाद की सिविल प्रकृति का विनिश्चय करते समय मुख्य रूप से दो बातों (वाद की सार वस्तु एवं उसके उद्देश्य की वास्तविक प्रकृति) पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
सिविल वादों का परीक्षण
कई बार हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि, क्या न्यायालय सभी तरह के सिविल वादों का विचारण कर उनका निपटारा कर सकते है या नहीं| इसके जवाब में सीपीसी की धारा 9 में प्रावधान किया गया है कि – न्यायालय सभी प्रकार के सिविल वादों का परीक्षण करने का क्षेत्राधिकार रखते हैं, सिवाय उन वादों के जिनका उनके द्वारा परीक्षण अभिव्यक्त अथवा उपलक्षित तौर पर वर्जित है।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि, जब तक अभिव्यक्त या उपलक्षित रूप से वर्जित न हो, न्यायालय सभी प्रकार के सिविल प्रकृति के वादों का विचारण करेगें यानि सिविल न्यायालयों का क्षेत्राधिकार अत्यन्त विस्तृत है। न्यायालय की अधिकारिता किसी वाद को निर्धारण करने के लिए अधिकार पर निर्भर करती है, ना की किसी मामले के निर्णय के गुण व दोष पर|
सिविल न्यायालय किसी वाद का विचारण करेगा या नहीं यह सम्बंधित वाद की प्रकृति पर निर्भर करता है, यदि वाद की प्रकृति सिविल है तब न्यायालय ऐसे वाद का विचारण निश्चित तौर पर करेगा ही| दीवानी प्रकृति के वादों में सिविल न्यायालयों को विचारण करने की व्यापक शक्ति प्राप्त है, सिविल प्रकृति के वाद को दीवानी प्रकृति के वाद भी कहा जाता है|
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सिविल प्रकृति के वाद के मापदण्ड –
कई बार प्रश्न यह उठता है कि सिविल प्रकृति के वाद कौन-से है या किस वाद को सिविल प्रकृति का वाद माना जाएगा, इस सम्बन्ध में वाद के निर्धारण के निम्न मापदण्ड बताये गए है –
(i) अधिकार एवं सम्पत्ति सम्बन्धी वाद सम्पत्ति मूर्त अथवा अमूर्त कैसी भी हो सकती है, जैसे-पेटेन्ट, कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, मताधिकार, मछली पकड़ने का अधिकार आदि।
(ii) मन्दिर एवं अन्य धार्मिक सम्पत्ति सम्बन्धी वाद किसी मन्दिर के धार्मिक चिन्हों को नष्ट करना, उनमें परिवर्तन करना, हस्तक्षेप करना आदि सिविल प्रकृति के वादों में सम्मिलित है। मूर्ति भी सम्पत्ति है।
(iii) सिविल दोषों (Civil Wrongs) के लिए क्षतिपूर्ति एवं संविदा-भंग सम्बन्धी वाद, जैसे—अपलेख, अपवचन, विद्वेषपूर्ण अभियोजन, अवैध बन्दीकरण के लिए क्षतिपूर्ति आदि से सम्बन्धित बाद। (घ) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act) के अन्तर्गत
विनिर्दिष्ट अनुतोष हेतु संस्थित वाद, जैसे – संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन, व्यादेश, घोषणात्मक डिक्री आदि से सम्बन्धित वाद (iv) कॉमन लॉ से जुड़े अधिकार विषयक वाद, जैसे- मताधिकार, राजमार्ग के उपयोग का अधिकार आदि।
(v) पूजा के अधिकार से सम्बन्धित वाद (मुनियान्डी कोने बनाम श्री रामनाथ सीतापथी हैरिडिटेडी, ए. मंगलनाथ स्वामी मन्दिर, ए. आई. आर. 1982 चेन्नई 170)
(vi) मृत को दफनाने के अधिकार से सम्बन्धित वाद।
(vii) धार्मिक या अन्य जुलूसों से सम्बन्धित वाद।
(viii) किसी पदधारी (Office bearer) के रूप में निर्वाचित किसी व्यक्ति के अधिकार से सम्बन्धित वाद ।
(ix) विवाह विच्छेद या दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के बाद।
(x) किसी क्लब के सदस्य के रूप में किसी व्यक्ति के अधिकारों के प्रवर्तन के लिए वाद ।
(xi) किसी संविदाजन्य अधिकार से सम्बन्धित वाद ।
(xii) लेखा (Accounts) विषयक वाद ।
(xiii) अंशदान (Contribution) के लिए वाद ।
(xiv) साझेदारी (Partnership) विषयक वाद ।
(xv) धार्मिक तथा अन्य पद से उपाबद्ध शुल्क के लिए वाद। अब ऐसे शुल्क का पद अथवा धार्मिक पद से उपाबद्ध (attached) होना आवश्यक नहीं है।
(xvi) गोपनीयता के प्रथागत अधिकार (Customary right of privacy) से सम्बन्धित वाद ।
(xvii) जाति अथवा जाति की सम्पत्ति से निष्कासित किए जाने से सम्बन्धित वाद ।
(xviii) विधानमण्डल के अधिनियमों की विधिमान्यता एवं संवैधानिकता से सम्बन्धित वाद ।
(xix) सेवा से दोषपूर्ण निष्कासन की दशा में प्रतिकर हेतु संस्थित वाद सिविल प्रकृति का वाद है।
(xx) किसी बस परिचालक की सेवा समाप्ति के विरुद्ध वाद सिविल प्रकृति का वाद है। (रामकुमार बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा, ए. आई. आर. 1987 एस. सी. 2043)
(xxi) किसी शिक्षा अधिनियम के अधीन मान्यता प्राप्त स्कूलों के निदेशकों के सन्दर्भ में कार्यवाही के प्रश्न से जुड़ा वाद सिविल प्रकृति का वाद है|
कोनसे वाद सिविल प्रकृति के नहीं है
ऐसे वाद को सिविल प्रकृति के वाद नहीं माना गया है, जिसका मुख्य विचारणीय प्रश्न दीवानी या विधिक अधिकार से सम्बंधित नहीं होकर किसी जाती, संस्था या समुदाय के एक सदस्य के रूप में विहित है| इसके अनुसार निम्न प्रकार के वाद सिविल प्रकृति के वाद नहीं है –
(i) ऐसे वाद जिनमें मुख्य रूप से जाति सम्बन्धी प्रश्न अन्तग्रस्त हो।
(ii) केवल गरिमा या सम्मान को बनाये रखने के बाद।
(iii) करार या चिरयोगाधिकार पर आधारित न होने वाली स्वैच्छिक देनदारियों (Voluntary Payments) के लिए वाद।
(iv) किसी अधिनियम द्वारा अभिव्यक्त रूप से वर्जित वाद ।
(v) राजनीतिक प्रश्नों से सम्बन्धित वाद ।
(vi) लोक नीति के विरुद्ध वाद, आदि।
उषाबेन नवीनचन्द्र त्रिवेदी बनाम भाग्यलक्ष्मी चित्र मन्दिर (ए. आई. आर. 1978 गुजरात 13)
इस मामले में फिल्म जय संतोषी माँ के प्रदर्शन के विरुद्ध इस आधार पर लाये गये वाद को कि इससे हिन्दूओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती है, सिविल प्रकृति का वाद नहीं माना गया है।
बसन्ती देवी बनाम मस्जिद पंच विसायतियान (ए.आई. आर. 2016 राजस्थान 69)
इस वाद में वक्फ सम्पत्ति से निष्कासन सम्बन्धी वादों की सुनवाई करने की अधिकारिता को सिविल प्रकृति का वाद नहीं माना गया है।
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संदर्भ – बुक सिविल प्रक्रिया संहिता चतुर्थ संस्करण (डॉ. राधा रमण गुप्ता)