इस आलेख में हम ‘साक्ष्य’ की परिभाषा, अर्थ एंव उनके प्रकार के बारें में जानेगें जो न्याय निर्णयन का अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है| साक्ष्य क्या है, अधिनियम में इसकी परिभाषा क्या है, साक्ष्य विधि में मौखिक साक्ष्य एंव दस्तावेजी साक्ष्य क्यों महत्वपूर्ण है|
इस लेख में साक्ष्य विधि को आसान भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है, उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा, तो चलिए जानते है की –
साक्ष्य विधि एक परिचय –
साक्ष्य, एक साधन या उपकरण है जिसके द्वारा माननीय न्यायाधीश मामले से सम्बंधित विषय के सत्य या असत्य होने के बारे में विश्वास कर निर्णय देते है क्योंकि बिना साक्ष्य के निर्णय देना सम्भव नहीं है|
इस प्रकार न्याय प्रशासन में साक्ष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान होने से इसको न्याय व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी भी कहा जा सकता है।
साक्ष्य का सामान्य नियम है की “जब पक्षकार सहमत ना हो तब सत्य का पता साक्ष्यों से लगाना चाहिए तथा प्रकरण चाहे सिविल हो या आपराधिक उनका निर्णय साक्ष्य पर ही निर्भर करता है|
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 60 में सर्वोत्तम प्रमाण, प्रत्यक्ष साक्ष्य को माना गया है| साक्ष्य विधि एक अमूर्त और कठिन विषय है जो अब भी प्रगतिशील है तथा साक्ष्य के नियम सामान्य बुद्वि एंव मानव अनुभव पर आधारित है|
रामजस बनाम सुरेन्द्रनाथ के मामले में माननीय न्यायालय द्वारा कहा गया कि “साक्ष्य विधि न्यायालयों का मार्ग प्रशस्त करती है, यह ऐसे नियमों का प्रतिपादन करती है जिससे न्याय प्रशासन सुविधानुसार चल सकें व ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय का अध्ययन अपरिहार्य है। (ए.आई.आर. 1980 इलाहाबाद 385)
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साक्ष्य की परिभाषा एंव अर्थ Definition and meaning of evidence
‘साक्ष्य’ शब्द अंग्रेजी भाषा के Evidence का हिन्दी रूपान्तर है जो लैटिन शब्द Evidere से निकला है जिसका अर्थ है – स्पष्ट रूप से पता लगाना या सुनिश्चित करना या साबीत करना|
सरल शब्दों में साक्ष्य का अर्थ न्यायालय द्वारा किसी तथ्य को विधिक साधनों द्वारा स्पष्ट रूप से साबित करना, दिखाना अथवा निश्चित करना है।
साक्ष्य शब्द का अर्थ ऐसी वास्तु या साधन से भी है जिसके द्वारा किसी विवादग्रस्त तथ्य को साबित किया जाता है इसके अलावा ऐसी वस्तु या बात जो न्यायालय के सामने विवादित प्रश्न को स्पष्ट कर सके, वह साक्ष्य है
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के अनुसार साक्ष्य की परिभाषा –
साक्ष्य शब्द से अभिप्रेत है और उसके अन्तर्गत आते हैं –
(क) वे सभी कथन (ब्यान); जिनके जाँचाधीन तथ्य के विषयों के सम्बन्ध में न्यायालय अपने सामने साक्षियों द्वारा किये जाने की अनुज्ञा देता है या अपेक्षा करता है, ऐसे कथन मौखिक साक्ष्य कहलाते है,
(ख) न्यायालय के निरीक्षण के लिए पेश की गई सब दस्तावेजें, (जिनमे इलेक्ट्रोनिक अभिलेख शामिल है) ऐसी दस्तावेजें दस्तावेजी साक्ष्य कहलाती है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में साक्ष्य की कोई शाब्दिक परिभाषा नहीं दी जाकर केवल मात्र साक्ष्य के दो प्रकार मौखिक व दस्तावेजी साक्ष्य को बताया गया है।
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विधिशास्त्रियों द्वारा साक्ष्य की अलग अलग परिभाषायें दी गई है जो निम्न है –
फिफ्सन के अनुसार – न्यायिक कार्यवाही के अन्तर्गत साक्ष्य शब्द से तात्पर्य “तथ्य, परिसाक्ष्य और दस्तावेज जिन्हें जाँचाधीन तथ्य को साबित या नासाबित करने के लिए वैध रूप से किया जाता है|
टेलर (Taylor) के अनुसार – बहस को छोड़कर वे सभी विधिक साधन, जिनके द्वारा किसी बात या तथ्य को साबित या नासाबित किया जाता है, साक्ष्य कहलाते हैं तथा जिसकी सत्यता न्यायिक अन्वेषण के लिए प्रस्तुत है।
सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार — कोई तथ्य अथवा कथन जिसमे प्रमाण देने की शक्ति हो साक्ष्य कहलाता है, यानि प्रमाणक बल रखने वाले तथ्यों को साक्ष्य कहा जाता है|
यहाँ यह उल्लेखनीय है की प्रमाणक बल किसी भी मात्रा या सीमा की हो सकती है, जैसे – आपराधिक मन स्थिति, हेतु, हथियार, मृत्युकालीन कथन, मानव वध के लिए प्रत्यक्षदर्शी साक्षी का ब्यान आदि को बतौर प्रमाण के प्रस्तुत किया जाता है|
सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता बेन्थम के मतानुसार – ऐसा तथ्य जिसके मस्तिष्क के सामने उपस्थित होने पर किसी दुसरे तथ्य के सत्य या असत्य का पता लगे साक्ष्य कहलाता है और साक्षी न्याय के आँख व कान है|
ऑस्बर्न शब्दकोश के अनुसार – साक्ष्य से अभिप्राय उन समस्त विधिक तथ्यों अथवा साधनों से है जिनके द्वारा किसी तथ्य को सिद्ध अथवा असिद्ध करने का प्रयास किया जाता है।
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भारतीय साक्ष्य अधिनियम कहाँ लागू नहीं होता –
शपथ पत्र – भारतीय साक्ष्य अधिनियम शपथ पत्रों पर लागु नहीं होता है, क्योंकि शपथ पात्र धारा 3 के अन्तर्गत नहीं आने से व धारा 1 द्वारा बहिष्कृत होने से साक्ष्य कि परिभाषा में नहीं आते है|
ए.आई.आर. 1968, कलकत्ता 532 के अनुसार – साक्ष्य अधिनियम के अन्तर्गत शपथ पत्र साक्ष्य नहीं है जब तक की वह आदेश 19 स.पी.सी. द्वारा अनुज्ञात (parmitted) ना हो| यानि ऐसे शपथ पत्र को साक्ष्य माना जा सकता है, जिसकी न्यायालय द्वारा ऐसी अपेक्षा की जाये।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम शपथ पत्रों पर लागु नहीं होता है इसका अर्थ यह नहीं है की एक जीवित व्यक्ति द्वारा दिया गया शपथ पत्र बिना उसके साक्षी-कक्ष में उपस्थित हुए ही साक्ष्य हो जाएगा तथा उसे ग्राहय साक्ष्य होने के लिए धारा 32 के अधीन आने वाला लिखित कथन होने योग्य होना चाहिए| (ए.आई.आर. 1949 म.प्र. 689)
मुनीर अहमद बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान के अनुसार – एक जीवित व्यक्ति के मामले में न्यायिक कार्यवाही में साक्ष्य साक्षी को साक्षी-कक्ष में उपस्थित होने के द्वारा दिया जाना चाहिए और जब तक विधि द्वारा उसकी अनुमति ना दी जाए उसका स्थान शपथ पत्र नहीं ले सकता है|
माध्यस्थम् कार्यवाही – साक्ष्य अधिनियम किसी मध्यस्थ के समक्ष की जाने वाली कार्यवाहियों पर लागु नहीं होता है, इसका कारण यह है की पक्षकार किसी मुकदमे को मध्यस्थ के समक्ष इसलिए पेश करता है की उनके मुकदमा का संक्षिप्त कार्यवाही द्वारा शीघ्रतापूर्वक निस्तारण हो जाए और उसमे नियमीत वाद जैसी लम्बी-चौड़ी कार्यवाही ना करनी पड़े|
हज इब्राहीम कसम कोचीन वाला बनाम नार्दर्न इंडिया ऑयल इण्डस्ट्रीज लिमि. में उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि “साक्ष्य अधिनियम माध्यस्थम् कार्यवाहियों में लागु नहीं होता है|
मध्यस्थ नैसर्गिक न्याय के सिद्वान्तो के अनुसार कार्य करने के लिए उत्तरदायी होते है, लेकिन वे साक्ष्य विधि से बाध्य नहीं है|
कमीशन – व्यवहार प्रक्रिया संहिता या दण्ड संहिता के अधीन नियुक्त किये गए कमिश्नरों के समक्ष होने वाली न्यायिक कार्यवाही में साक्ष्य विधि लागु नहीं होती है, कमिश्नर साक्ष्यों को बुलवा सकता है और उनका साक्ष्य लेखबद्ध कर सकता है| (व्य.प्र.सं. आदेश 26, नियम 16, 17 एंव दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 284-289) ताकि यदि वह आवश्यक समझे तो इस प्रकार के साक्ष्य के आधार पर अपना प्रतिवेदन कर सके|
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि साक्ष्य विधि एक ऐसी प्रक्रियात्मक विधि है जो दूसरी बातों के साथ-साथ यह भी बताती है कि कोई तथ्य कैसे साबित किया जा सकता है।
साक्ष्य के प्रकार Type of Evidence
(i) मौखिक साक्ष्य (Oral evidence)
मौखिक साक्ष्य ऐसी साक्ष्य है जो किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं न्यायालय में उपस्थित होकर अपने मुँह से दी जाती है। इसमें वे सभी ब्यान शामिल है जिन्हें, न्यायालय अपने समक्ष लम्बित प्रकरण में साक्षियों द्वारा कहे जाने की आज्ञा देता है|
ऐसे साक्ष्य के प्रत्यक्ष होने की अपेक्षा की जाती है और ऐसी साक्ष्य किसी रिश्तेदार की भी हो सकती है। यह साक्ष्य इतना गतिशील होता है जो पारिस्थितिक एंव दस्तावेजी साक्ष्य को आकार प्रदान करता है|
इसरार बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि – गवाह का रिश्तेदार होना या उसके हितबद्ध होने मात्र से उसके साक्ष्य को अविश्वसनीय माने जाने का कारण नहीं हो सकता। (ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 249)
(ii) दस्तावेजी साक्ष्य (Documentary evidence)
जब किसी तथ्य को साबित या नासाबित करने के लिए साक्ष्य के तौर पर न्यायालय में कोई दस्तावेज पेश किया जाता है, जिसमे अक्षरों, चिन्हों या चित्रों को वर्णित किया गया है, तब उसे दस्तावेजी साक्ष्य कहा जाता है।
दस्तावेजी साक्ष्य में, साक्ष्य दस्तावेज के माध्यम से या के रूप में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, यह साक्ष्य विधि में महत्वपूर्ण स्थान रखता है|
दस्तावेजी साक्ष्य लिखित रूप में होने से अत्यधिक विश्वसनीय होते है इस कारण किसी तथ्य विशेष को सिद्व करने में इसकी मुख्य भूमिका होती है| न्यायालय के समक्ष दस्तावेज मूल रूप में ही पेश करने चाहिए,
लेकिन मूल के अभाव में उसकी प्रतिलिपि भी पेश की जा सकती है| दस्तावेजी साक्ष्य को प्राथमिक साक्ष्य या द्वितीयक साक्ष्य द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है|
उदाहरण – किसी व्यक्ति की जन्म तिथि को साबित करने के लिए न्यायालय के समक्ष विद्यालय का अभिलेख या किसी सरकारी निकाय से जारी जन्म प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना, दस्तावेजी साक्ष्य कहलाता है।
(iii) प्राथमिक साक्ष्य
यह एक ऐसा साक्ष्य है जिसे न्यायालय की दृष्टि में सर्वोत्तम माना जाता है तथा ऐसी साक्ष्य पर सर्वाधिक विश्वास भी किया जाता है। प्राथमिक साक्ष्य दस्तावेजी साक्ष्य से सम्बन्ध रखता है।
प्राथमिक साक्ष्य का अर्थ है कि “स्वंय दस्तावेज को ही न्यायालय के निरिक्षण के लिए प्रस्तुत करना”| जब किसी मामले से सम्बन्धित मूल दस्तावेज न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो वह प्राथमिक साक्ष्य (Primary evidence) कहलाता है।
उदाहरण – क एक विक्रयपत्र ख के पक्ष में 5,000 रूपये के लिए निष्पादित करता है लेकिन क भूखण्ड का कब्ज़ा देने और कोई विक्रयपत्र लिखा होने से इन्कार कर देता है| ख कब्ज़ा पाने के लिए न्यायालय में मुक़दमा दायर करता है और अपने पक्ष में लिखा विक्रयपत्र पेश करता है, यह मूल विक्रय-विलेख प्राथमिक साक्ष्य है।
(iv) गौण साक्ष्य
जब किसी प्रकरण में प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होती है तब गौण साक्ष्य (Secondary Evidence) का सहारा लिया जाता है, इसे द्वितीयक साक्ष्य भी कहा जाता है| यह साक्ष्य कम विश्वसनीय होता है इसका कारण यह हो सकता है कि, यह साक्ष्य मूल दस्तावेज की नक़ल या प्रतिलिपि होती है|
किसी मौलिक दस्तावेज के नष्ट हो जाने, या गुम हो जाने, या उसके दूर स्थान पर होने, या उसके किसी बैंक, निकाय में ऋण के तहत जमा होने पर उस दस्तावेज के न्यायालय में निरिक्षण हेतु प्रस्तुत करना कठिन एंव असंभव हो,
इस स्थिति में न्यायालय उस दस्तावेज के प्रतिलिप या नक़ल आदि को द्वितीयक साक्ष्य के रूप में मान्यता देता है| यह साक्ष्य प्राथमिक साक्ष्य से निम्न स्तर का होता है|
गौण साक्ष्य में निम्न को शामिल किया गया है
(क) मूल दस्तावेज की प्रमाणित प्रतिलिपियाँ
(ख) मूल दस्तावेज की यान्त्रिक प्रक्रिया द्वारा बनाई गई प्रतिलिपियाँ
(ग) मूल दस्तावेज से मिलान कर बनाई गई प्रतिलिपियाँ
(घ) दस्तावेजों के प्रतिलेख
(ङ) किसी मूल दस्तावेज की अन्तर्वस्तुओं का उस व्यक्ति द्वारा दिया हुआ मौखिक साक्ष्य जिसने उस दस्तावेज को स्वयं देखा है।
(v) प्रत्यक्ष साक्ष्य
साक्ष्य विधि में प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्यक्ष साक्ष्य किसी ऐसे तथ्य का साक्ष्य होता है जिसे साक्षी ने स्वयं अपनी आँखों से बोध किया है और ऐसा व्यक्ति स्वयं न्यायालय में उपस्थित होकर अपना साक्ष्य देता है। धारा 60 के अन्तर्गत कहा गया है कि, प्रत्येक मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होना चाहिए।
प्रत्यक्ष साक्ष्य से तात्पर्य विवाद्यक तथ्यों या तथ्यों के सत्य अथवा असत्य के बारे में साक्षी के द्वारा न्यायालय के समक्ष मौखिक साक्ष्य से है| सामान्य शब्दों में जब साक्ष्य किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जिसने प्रकरण से सम्बंधित घटना को आँखों से घटित होते हुए देखा हो, सुना, अनुभव किया हो तब ऐसा साक्ष्य, प्रत्यक्ष साक्ष्य कहलाता है| प्रत्यक्ष साक्ष्य को निश्चायक साक्ष्य भी कहते है|
उदाहरण – क पर ख की हत्या का आरोप है। ग को न्यायालय में साक्ष्य के लिए पेश किया जाता है जो यह कहता है कि उसने क को ख की हत्या करते हुए देखा है। यह प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं।
(vi) परिस्थितिजन्य साक्ष्य
जब किसी तथ्य को साबित करने के लिए प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता है तब ऐसी अवस्था में कुछ परिस्थितियों का सहारा लिया जाता है जो घटना के आस पास मौजूद तथ्य अथवा सबूत होती है, जिनके अवलोकन से यह पता चलता है कि कोई घटना वास्तव में घटी है या नहीं है| इसी को परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial evidence) या सुसंगत तथ्यों का साक्ष्य कहते है|
परिस्थितिजन्य साक्ष्य में साक्ष्य का सम्बन्ध घटना के मुख्य तथ्यों से प्रत्यक्ष रूप से नहीं होकर ऐसे अन्य तथ्यों से होता है जिनसे प्रश्नगत तथ्यों का अनुमान लगाया जा सके|
परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रश्नगत घटना के अलावा उन तथ्यों की कड़ियों का प्रत्यक्ष साक्ष्य होता है जिसे साक्षी ने स्वंय देखा होता है, परिस्थितिजन्य साक्ष्य में सहायक घटनाये शामिल होती है|
जैसे – गोली मारने की घटना में अपराधी का घटना से पहले पड़ौस में बन्दुक लेकर जाते हुए देखा जाना इसकी सहायक घटना है जो गोली मारने से सम्बंधित है|
उदाहरण – क पर ख की हत्या का आरोप है। क एवं ख के बीच लम्बे समय से दुश्मनी चलना, घटना के बाद क को जंगल की ओर भागते देखना, उसके कपड़ों पर खून के दाग होना आदि ऐसी परिस्थितयाँ हैं जो ख की हत्या की ओर इंगित करती है।
पेबी के अनुसार – परिस्थितिजन्य साक्ष्य एक अच्छा साक्ष्य है, क्योंकि गवाह झूठ बोल सकता है, लेकिन परिस्थितियाँ नहीं।
चतरसिंह बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले के अनुसार – परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जा सकता है, बशर्ते कि अन्य साक्ष्य से उसकी पुष्टि होती हो। (ए. आई. आर. 2009 एस. सी. 378)
प्रत्यक्ष साक्ष्य के अभाव में अपराध सार को परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना चाहिए और इसकी ग्राह्यता के लिए दो बातें आवश्यक हैं –
(क) परिस्थितियों का सन्देह से परे साबित किया जाना, तथा (ख) परिस्थितियों का मुख्य घटना से निकट का सम्बन्ध होना ।
(vii) भौतिक या वास्तविक साक्ष्य (Real Evidence)
ऐसा साक्ष्य जिसे न्यायालय के समक्ष इस तरीके से प्रस्तुत किया जाता है कि न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट स्वयं उसे देखकर अपनी ज्ञानेन्द्रियों से सही बात का अनुमान लगा लेते है, वास्तविक साक्ष्य कहलाता है|
वास्तविक साक्ष्य को वास्तु साक्ष्य भी कहते है जो कि, भौतिक वस्तुओं द्वारा प्रस्तुत होता है जिसे न्यायालय के निरिक्षण के लिए पेश किया जाता है|
इस अधिनियम के निर्माता स्टीफेन ने अपनी भूमिका में कहा था कि, “भौतिक वस्तु की हालत दस्तावेजो के अतिरिक्त प्राय: मौलिक Evidence द्वारा साबित की जाती है इसलिए मौखिक और वस्तु साक्ष्य के मध्य सुभिन्नता करने का कोई कारण नहीं है”|
उदाहरण – क पर ख की तलवार से हत्या करने का आरोप है। न्यायालय के समक्ष वह तलवार तथा क एवं ख के रक्तरंजित कपड़े प्रस्तुत किये जाते हैं। न्यायालय तलवार एवं कपड़ों को देखकर हत्या का अनुमान लगा सकता है।
(viii) अनुश्रुत साक्ष्य
जब एक व्यक्ति किसी दुसरे व्यक्ति से प्राप्त सूचना के अनुसार जो कुछ कहता है, तब उसे अनुश्रुत साक्ष्य कहते है, इसे सुनी सुनाई साक्ष्य’ (Hearsay evidence) भी कहा जाता है। यह कम महत्त्व की एवं कमजोर प्रकृति की Evidence होती है। जिस पर न्यायालय द्वारा कम विश्वास किया जाता है।
विधिक अर्थ में यह उस प्रकार के साक्ष्यों में से है जो किसी साक्षी के ब्यान मात्र से उत्पन्न किये गए आधार पर पूर्ण रूप से आधारित नहीं होकर किसी दुसरे व्यक्ति की योग्यता व सत्यवादिता पर आधारित होती है| इसे असंगत साक्ष्य माना गया है, जिससे वह अग्राह्य है|
बबुली बनाम स्टेट ऑफ़ उड़ीसा के प्रकरण में कहा गया है कि, साक्षियों को वही Evidence देनी चाहिए जिसको उन्होंने स्वंय सुना या देखा है, उससे यह अनुमान लगाने का उत्तरदायित्व उन पर नहीं बल्कि न्यायालय पर है| (ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 775)
यह साक्ष्य ऐसे व्यक्ति द्वारा दी जाती है जिसने –
(क) घटना को अपनी आँखों से देखा नहीं है
(ख) किसी तथ्य या बात को अपने कानों से सुना नहीं है
(ग) किसी तथ्य का स्वयं अपनी ज्ञानेन्द्रियों से बोध नहीं किया है।
उदाहरण – क पर ख के घर में चोरी करने का आरोप है। ग को एक साक्षी के रूप में न्यायालय में पेश किया जाता है, जो कहता है की उसने घटना को स्वंय नहीं देखा है बल्कि उसने च के मुँह से सुना है कि क ने ख के घर में चोरी की है। ग की यह साक्ष्य अनुश्रुत साक्ष्य है।
(ix) न्यायिक साक्ष्य
न्यायालय के सक्षम प्रस्तुत किया गया प्रत्येक मौखिक एवं दस्तावेजी Evidence न्यायिक साक्ष्य कहलाता है। न्यायिक Evidence सदैव न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया साक्ष्य ही होता है।
(x) न्यायेत्तर साक्ष्य
ऐसा Evidence या कथन जो न्यायालय के अलावा अन्य किसी स्थान पर या अन्य किसी व्यक्ति से किया जाता है, न्यायेत्तर साक्ष्य (Extra judicial ‘evidence) कहलाता है।
उदाहरण – ‘क’ अपने मित्र ‘ख’ के समक्ष, ‘ग’ के साथ मारपीट करने की बात स्वीकार करता है। यह न्यायेत्तर Evidence है, नींद में बड़बड़ाना भी न्यायेत्तर साक्ष्य हो सकती है।
स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश बनाम पलटन मल्लाह के प्रकरण में कहा गया कि, न्यायेत्तर साक्ष्य में संस्वीकृति (Extra judicial confession) भी आती है। लेकिन ऐसी न्यायेत्तर संस्वीकृति सारभूत नहीं मानी जाती है। (ए.आई. आर. 2005 एस.सी. 733)
(xi) पुलिस साक्षी
पुलिस साक्षी से तात्पर्य पुलिस अधिकारी की साक्ष्य से है। जब किसी कारण से स्वतंत्र साक्षी मौजूद नहीं है, तब न्यायालय सावधानी से पुलिस साक्षी के साक्ष्य की परीक्षा एंव उसकी संवीक्षा कर सकता है और यह विश्वसनीय होने पर ऐसे साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्ध किया जा सकता है|
(xii) हितबद्ध साक्षी
हितबद्ध साक्षी में सामान्यतः पक्षकार के रिश्तेदार, मित्र, परिजन आदि आते है और ऐसी Evidence को विश्वसनीय माना गया है।
राजेश कुमार बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश के मामले अनुसार – किसी साक्षी मात्र हितबद्ध होने के कारण उसकी साक्ष्य को अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता। (ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 1)
इसी तरह ‘तकदीर समशुद्दीन शेख बनाम स्टेट ऑफ गुजरात‘ के प्रकरण में कहा गया है कि – हितबद्ध साक्षी से अभिप्राय ऐसे साक्षी से है जिसका अभियुक्त को दोषसिद्ध कराने में सीधा हित निहित हो। (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 37)
(xiii) संयोगि साक्षी (Chance Witness)
ऐसा साक्षी जो संयोगवश अचानक घटनास्थल पर पहुँच गया होता है, उसे सांयोगिक साक्षी कहा गया है, ऐसे साक्षी का पक्षकार एंव विपक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं होता है| वह अक्सर प्रत्यक्षदर्शी साक्षी होता है|
(xiv) पक्षद्रोही साक्षी
पक्षद्रोही साक्षी से तात्पर्य ऐसे साक्षी से है जो अपने ही पक्षकार के खिलाफ Evidence देता है, इसे बागी साक्षी भी कहा जा सकता है। ऐसे साक्षी की साक्ष्य को पूर्ण रूप से अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता।
स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र बनाम हरीश चन्द तुलाराम अवताड़े के मामले अनुसार – पक्षद्रोही साक्षी की Evidence उसी सीमा तक स्वीकार होती है, जहाँ तक वह साक्षी भरोसेमंद प्रतीत होती हो| (1997 क्रि. लॉ ज. 612 (बाम्बे )
इनके अतिरिक्त भी निम्न को साक्ष्य के प्रकार माना गया है –
(i) स्वाभाविक साक्षी, (ii) बालक साक्षी, (iii) बचाव पक्ष के साक्षी, (iv) आपराधिक प्रष्ठभूमि का साक्षी, (v) चिकित्सीय साक्ष्य, (vi) पंच साक्षी, (vii) स्वतंत्र साक्षी आदि|
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