इस लेख में हम साक्ष्य अधिनियम के अध्याय 7 (सबूत के भार के विषय में) के तहत सबूत का भार क्या है? तथा यह भार एक वाद या कार्यवाही में यह किस पर होता है? और इस कथन की व्याख्या भी करेंगे कि “सबूत का भार एक ऐसी धुरी है जिस पर सम्पूर्ण साक्ष्य विधि घूमती है”, उम्मीद है कि यह लेख आपको जरुर पसंद आऐगा  –

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सबूत का भार – एक परिचय

हमारी न्याय व्यवस्था सबूत पर आधारित है। माननीय न्यायालय के निर्णय सबूत पर ही निर्भर करते है। यही कारण है कि पक्षकारों से सबूत पेश किए जाने की अपेक्षा की जाती है।

साक्ष्य विधि उन सिद्वान्तो का उल्लेख करती है जिनके माध्यम से न्यायालय किसी तथ्य विशेष को स्वीकार या अस्वीकार करता है|

वस्तुतः सबूत पेश करना जितना कठिन नहीं है उतना कठिन यह तय करना है कि सबूत का भार किस पर होगा?  सबूत का भार मामले की परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है, जिस कारण इसका महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। सबूत के भार को सिद्धिभार (Burden of Proof) भी कहा जाता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अध्याय 7, धारा 101 से 114 में सबूत के भार के संबंध मे उपबन्ध किये गए है|  इसमें शब्द ‘सबूत का भार’ का उपयोग दो अर्थो में किया गया है, पहला वाद को स्थापित करने का भार यानि सभी तथ्यों को साबित करने का भारत था दूसरा सबसे पहले सबूत प्रस्तुत करने का भार यानि कार्यवाही के किसी प्रक्रम पर सबूत पेश करने का भार|

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सबूत का भार क्या है?

आमतौर पर ‘सबूत के भार’ से तात्पर्य – किसी पक्षकार पर किसी तथ्य विशेष को साबित करने का भार है। सरल शब्दों में इसका अर्थ है – किसी तथ्य को सिद्ध करने का दायित्व|

जब कोई तथ्य किसी पक्षकार द्वारा साबित किया जाना हो, तब यह कहा जाता है कि उस तथ्य को साबित करने का भार उस पक्षकार पर है।

साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 के अनुसार – जो कोई न्यायालय से यह चाहता है कि वह ऐसे किसी विधिक अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय दे, जो उन तथ्यों के अस्तित्व पर निर्भर है, जिन्हें वह प्रख्यात करता है, उसे साबित करना होगा कि उन तथ्यों का अस्तित्व है।

जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य का अस्तित्व साबित करने के लिए आबद्ध है, तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर ‘सबूतकाभार (Burden of Proof)’ है।

इस परिभाषा के अनुसार – जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य विशेष को साबित करने के लिए बाध्य हो, तब यह कहा जा सकता है कि, उस व्यक्ति पर सबूत का भार है|  सामान्यतः यह बाध्यता या दायित्व उस व्यक्ति का होता है जो न्यायालय के समक्ष किसी बात का अभिकथन करता है और न्यायालय से यह अपेक्षा करता है कि वह उसके अनुरूप अपना निर्णय दे।

दौलत राम बनाम सोढ़ा – यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि कोई वसीयत कूटरचित है अथवा कपट, असम्यक् असर या उत्पीड़न के अधीन लिखी गई है तो इस तथ्य को साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर होगा जो ऐसा कहता है। (ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 233)

अमृत वनस्पति क. लि. बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया –किसी संविधि की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका में इस तथ्य को साबित करने का भार, चुनौती देने वाले व्यक्ति पर होगा। (ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1340)

नामदेव माली बनाम जयराम बर्डे – किसी वसीयत के रजिस्ट्रीकृत होने मात्र के आधार पर उसके असली होने की उपधारणा नहीं की जा सकती। जब उसे चुनौती दी जाती है तो उसे साबित कराया जाना आवश्यक है। (ए.आई.आर. 2009 एन.ओ.सी. 274 मुम्बई)

राबिन्स बनाम नेशनल ट्रस्ट कं. के मामले में वाइकाउन्टडुनीयन द्वारा यह कहा गया है कि – भार सदैव उस व्यक्ति पर होता है जो किसी तथ्य के अस्तित्व में होने का दावा करता है। (1927ए.सी. 575)

इस प्रकार उपरोक्त निर्णयों से यह स्पष्ट हो जाता है कि –किसी तथ्य विशेष के अस्तित्व का कथन करने वाले व्यक्ति पर ही, यह दायित्व होगा कि वह उसे साबित करे।

यानि किसी तथ्य विशेष को साबित करने का दायित्व ही सबूत का भार है। कोई व्यक्ति अपने इस दायित्व से यह कह कर मुक्ति नहीं पा सकता कि वह साक्षी जुटा पाने में असमर्थ है।

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सबूत के भार के प्रकार

फिफ्सन के अनुसार सबूत के भार को जब न्यायिक कार्यवाही में उपयोग किया जाता है तब इसके दो स्पष्ट अर्थ निकलते है –

(i) किसी मामले को स्थापित करने का भार –

इसके अनुसार सबूत का भार उस पक्षकार पर होता है जो न्यायालय से उन अमुक तथ्यों के, जिन्हें वह प्राख्यात करता है अस्तित्व के बारें में कोई विनिश्चय चाहता है|

(ii) साक्ष्य पेश करने के कर्त्तव्य या आवश्यकता के अर्थ में सबूत का भार – किसी तथ्य के सम्बन्ध में सबूत पेश करने के अर्थ में सबूत का भार स्थिर नहीं रहता है, यह पेश किये गए तथ्य तथा विधि की उपधारणा के अनुसार एक पक्षकार से दुसरे पक्षकार पर बदलता रहता है|

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कार्यवाही या वाद में सबूत का भार

साक्ष्य अधिनियम की धारा 102 से 112 तक में उन कार्यवाहियों का उल्लेख किया गया है जिनमें किसी पक्षकार पर सबूत का भार होता है। यह भार एक वाद या कार्यवाही के विचारण के दौरान लगातार बदलता रहता है, जैसे जैसे प्रकरण में कार्यवाही आगे बढती जाती है, वैसे वैसे सबूत का भार एक पक्षकार से दुसरे पक्षकार पर जाता रहता है|

(1) सबूत का भार किस पक्षकार पर होता है (धारा 102)

साक्ष्य विधि की धारा 102 के अनुसार – किसी वाद या कार्यवाही में सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो असफल हो जाएगा, यदि दोनों में से किसी भी पक्षकार की ओर से कोई साक्ष्य न दिया जाये। यह धारा उस पक्षकार को जानने का प्रयास करती है, जिस पर भार होता है|

स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम श्रीकांत के प्रकरण में – अभियुक्त का यह कहना कि घटना में पीड़ित पक्षकार की सहमति थी। इस सहमति को साबित करने का भार अभियुक्त पर होगा, न कि पीड़ित पक्षकार पर। यदि दोनों पक्षकार कोई साक्ष्य नहीं देते है तब यह माना जाएगा कि पीड़ित पक्षकार की सहमति नहीं थी और अभियुक्त का कथन विफल हो जाएगा। (ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 4404)

(2) विशिष्ट तथ्य के बारे में सबूत का भार (धारा 103)

इसके अनुसार – किसी विशिष्ट तथ्य के सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से यह चाहता है कि वह उसके अस्तित्व में विश्वास करे, जब तक कि किसी विधि द्वारा यह उपबंधित न हो कि उस तथ्य के सबूत का भार किसी विशिष्ट व्यक्ति पर होगा।

धारा 103 किसी विशिष्ट तथ्य को सिद्ध करने के विषय में है, ना कि सम्पूर्ण तथ्यों के विषयों में| आपराधिक मामलों में समस्त तथ्यों को जो कि अभियुक्त के अपराध को साबित करते हों, साबित करने का भार अभियोजन पर होता है

लेकिन अभियुक्त किसी विशिष्ट तथ्य को साबित करना चाहता है तो उसे अवश्य साबित करना चाहिए, जैसे अपराध की घटना के समय वह दुसरे स्थान पर था|

उदाहरण के लिए – अ पर ब के घर में चोरी करने का आरोप लगाया गया है। अ कहता है कि घटना के समय वह अन्य स्थान पर था। अ पर इस तथ्य को साबित करने का भार होगा कि वह घटना के समय अन्य स्थान था।

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(3) साक्ष्य को ग्राह्य बनाने के लिए जो तथ्य साबित किया जाना हो, उसे साबित करने का भार (धारा 104)

इस धारा का सामान्य सिद्वांत यह है कि –यदि किसी तथ्य को साबित करना इसलिए आवश्यक है कि प्रकरण में कोई अन्य साक्ष्य ग्राह्य हो सके तब उस तथ्य को साबित करने का भार उस पक्षकार पर होता है जो कि उस अन्य साक्ष्य को देना चाहता है| धारा 104 को धारा 136 के खण्ड (2) के साथ पढ़ना चाहिए|

उदाहरण – यदि किसी वाद या कार्यवाही में क द्वारा किए गए मृत्युकालिक कथन को ख साबित करना चाहे उस स्थिति में ख को क की मृत्यु साबित करनी होगी।

इसी तरह सेठानी बनाम भाना का प्रकरण जिसमे कहा गया कि – विक्रय-विलेख किसी ऐसी वृद्ध, अशिक्षित एवं नेत्रहीन महिला द्वारा निष्पादित किया गया हो जो क्रेता के साथ रही तथा उस पर आश्रित भी हो। विक्रेता की स्वतन्त्र सम्मति को साबित करने का भार क्रेता पर होगा। (ए. आई. आर. 1993 एस. सी. 956)

(4) अपवादों के अन्तर्गत मामला आने पर सबूत का भार (धारा105)

इसके अनुसार – यह साबित करने का भार कि अभियुक्त का मामला भारतीय दण्ड संहिता के अपवादों (exceptions) के अन्तर्गत आता है, अभियुक्त पर होता है अर्थात् उस व्यक्ति पर होता है जो यह कहता है कि उसका मामला अपवादों के अन्तर्गत आता है।

उदाहरण के लिए – क पर हत्या का आरोप है, क यह कहता है कि चित्त विकृति के कारण वह कार्य की प्रकृति को समझने में असमर्थ था। अपनी चित्तविकृति को साबित करने का भार क पर होगा। इस सम्बन्ध में ‘स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम शेराराम (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 1) का मामला प्रमुख है|

वी. सुब्रमन्यम बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडू के मामले में यह कहा गया है कि – निजी बचाव के अधिकार (right of private defence) को साबित करने का भार अभियुक्त पर होता है। (ए.आई.आर. 2005. एस. सी. 1983)

(5) विशेषतः ज्ञात तथ्य को साबित करने का भार (धारा 106)

इसके अनुसार जब किसी तथ्य का ज्ञान विशेष रूप से किसी व्यक्ति को है, तब उसे साबित करने का भार प्रतिपक्षी पर होगा। इस धारा में प्रयुक्त शब्द विशेषतः का तात्पर्य असाधारण ढंग से पक्षकार के ज्ञान में होना है, यदि दोनों पक्ष उस तथ्य को सामान रूप से खोज करने के बाद जान सकते है, तब वह तथ्य विशेषतः पक्षकार के ज्ञान में नहीं कहा जाएगा|

उदाहरण – जहाँ किसी व्यक्ति पर बिना टिकट यात्रा करने का आरोप हो, वहाँ यह साबित करने का भार कि उसके पास टिकट था, उसी पर होगा, क्योंकि यह वही व्यक्ति बता सकता है कि उसके द्वारा टिकट खरीदा गया था या नहीं।

अनिल कुमार बनाम लक्ष्मी देवी के मामले में – पत्नी द्वारा भरण –पोषण की माँग किए जाने पर पति की आय को साबित करने का भार पति पर ही होगा, क्योंकि वही यह बता सकता है कि उसकी आय कितनी है। (ए.आई.आर. 1994 एन.ओ.सी. 61 राजस्थान)

(6) उस व्यक्ति की मृत्यु साबित करने का भार जिसका तीस वर्ष के भीतर जीवित होना ज्ञात है (धारा 107)

जब किसी प्रकरण में कोई प्रश्न मनुष्य के जीवित या मृत्यु का हो और यह दिखाया गया हो कि वह 30 वर्ष के भीतर जीवित था, तब यह साबित करने का भार कि वह मर गया है, उस व्यक्ति पर होगा जो उसे यह कहता है कि वह मर गया है।

सुरजीत कौर बनाम जुंजार सिंह के मामले में कहा गया है कि – जहाँ किसी व्यक्ति को 30 वर्षों में जीवित देखा गया हो, वहाँ यह साबित करने का भार कि वह मर गया है, उसी व्यक्ति पर होगा जो यह कहता है कि वह मर गया है। (ए.आई.आर. 1980 पंजाब एण्ड हरियाणा 274)

(7) यह साबित करने का भार कि वह व्यक्ति जिसके बारे में सात वर्ष से कुछ नहीं सुना गया है, जीवित है (धारा 108)

धारा 108 के अनुसार – यदि किसी मनुष्य के बारे में सात वर्ष तक कुछ भी सुना नहीं गया है, तब यह उपधारणा की जाती है उसकी मृत्यु हो चुकी है| यदि कोई व्यक्ति यह कहता है की वह मनुष्य अब भी जीवित है तब यह बात उसे ही साबित करनी होगी|

धारा 108 बहुत ही गंभीर रूप से धारा 107 को प्रतिबन्धित करती है तथा इन दोनों धाराओं में प्रतिपादित सिद्वांत एक ही है| यहाँ यह बताना उचित होगा की इनमे केवल मृत्यु की उपधारणा की जाती है ना की मृत्यु के समय की|

चार्ड बनाम चार्ड के प्रकरण में यह कहा गया है कि – जहाँ किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य के बारे में या अन्यथा सात वर्षों के भीतर कुछ नहीं सुना गया हो, जबकि यदि वह जीवित होता तो उसके बारे में कुछ न कुछ अवश्य सुना जाता, वहाँ यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि वह जीवित है तो इसे साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर होगा।

(8) भागीदारों, भू-स्वामी और अभिधारी, मालिक और अभिकर्ता के मामलों में सबूत का भार (धारा 109)

धारा 109 के अनुसार – जब कुछ व्यक्तियों ने भागीदार की तरह कार्य किया है या अभिधारी या भूस्वामी रहे है, तब यह साबित करने का भार की वह सम्बन्ध समाप्त हो गया है, उस व्यक्ति पर होगा जो उसे प्रतिज्ञात करता है|

धारा 109 तीन मानवीय सम्बन्धो यथा –

(i) भागीदारों,

(ii) भू-स्वामी व अभिधारी

(iii) मालिक व अभिकर्ता, के मध्य सम्बन्धो के बारे में उपधारणा का उल्लेख करती है|

हरीश चन्द्र बनाम घोषराम के प्रकरण में न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि – जहाँ यह दर्शित किया गया हो कि कुछ व्यक्ति भागीदार थे या अभिकर्ता एवं मालिक थे या भू-स्वामी व किरायेदार थे, वहाँ यह उपधारणा की जाती है कि उनके बीच वही सम्बन्ध अस्तित्व में है।

अब यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि उनमें कभी ऐसे सम्बन्ध नहीं थे या ऐसे सम्बन्ध समाप्त हो चुके हैं तो उसे ही यह बात साबित करनी होगी। (ए.आई.आर. 1981 एस. सी. 695)

(9) स्वामित्व के बारे में सबूत का भार (धारा 110)

इसके अनुसार, जब प्रश्न यह हो कि क्या कोई व्यक्ति ऐसी किसी चीज का स्वामी हैं, जिस पर उसका कब्जा होना दर्शित किया गया है, तब यह साबित करने का भार कि वह स्वामी नहीं है, उस व्यक्ति पर होगा जो यह कहता है कि वह स्वामी नहीं है।

धारा 110 यह बताती है कि, यदि कोई सम्पति किसी के कब्जे में है तो वही उसका मालिक या स्वामी है| साधारण तौर पर कब्ज़ा स्वामित्व का सबूत माना जाता है और जिस व्यक्ति के कब्ज़ा में कोई वस्तु या सम्पति है उसे वही व्यक्ति बेकब्जा कर सकता है जो उस प्रश्नगत सम्पति पर अपना हक़ साबित कर दे|

उदाहरण के लिए – एक वाहक अ पर माल को खो देने का आरोप था। अ का अपने बचाव में यह कहना था कि वादी उस माल का स्वामी नहीं था। यह साबित करने का भार कि वादी माल का स्वामी नहीं था, अ पर होगा। (ग्रेटइण्डिया ट्रेडिंग क. बनाम नैरंगराज, ए.आई.आर. 1983 कलकत्ता 237)

(10) उन संव्यवहारों में सद्भाव का साबित किया जाना जिनमें एक पक्षकार का सम्बन्ध सक्रिय विश्वास का है (धारा 111)

इसके अनुसार – जहाँ उन पक्षकारों के बीच के संव्यवहार के सद्भाव के बारे में प्रश्न हो जिनमें से एक –दूसरे के प्रति सक्रिय विश्वास की स्थिति में है, वहाँ उस संव्यवहार के सद्भाव को साबित करने का भार उस पक्षकार पर होगा जो सक्रिय विश्वास की स्थिति में है।

धारा 111 में प्रतिपादित सिद्वांत साम्य, न्याय एंव शुद्ध अंत-करण पर आधारित है, इस कारण इसे न्यायालय का महान नियम कहा जाता है|

उदाहरण के लिए – यदि किन्ही व्यक्तियों के मध्य मालिक और नौकर, पिता और पुत्र, भू-स्वामी और किरायेदार, डाक्टर और मरीज, धर्मगुरु और शिष्य आदि का है और प्रश्न यह उठता है कि, संव्यवहार सद्भावपूर्वक किया गया था अथवा नहीं, तब यह सिद्ध करने का भार कि संव्यवहार सद्भावपूर्वक किया गया था उस व्यक्ति पर होगा जो प्रभावकारी स्थिति में है|

(11) विवाहित स्थिति के दौरान में जन्म होना धर्मजत्व का निश्चायक सबूत (धारा 112)

यह सभी जानते है की मातृत्व एक निश्चित तथ्य है और पितृत्व एक संदेह का विषय है लेकिन धारा 112 सामान्यतया पितृत्व को भी निश्चित बनाना चाहती है|

आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है किसी बच्चे को किस माता–पिता ने जन्म दिया है लेकिन यह बता पाना मुश्किल है की उस बच्चे का वास्तविक पिता कोन है, धारा 112 किसी बच्चे के पितृत्व को निश्चित करने का नियम बताती है|

धारा 112 केअधीन यह तथ्य की किसी बच्चे का जन्म

(क) उसकी माता और किसी पुरुष के बीच विधि मान्य विवाह के कायम रहते हुए या.

(ख) उसका विघटन होने के उपरान्त माता के अविवाहित रहते हुए दो सौ अस्सी दिन के भीतर हुआ था,

इस बात का निश्चायक सबूत होगा कि वह उस पुरुष का धर्मज, औरस या वैध पुत्र है, जब तक कि यह दर्शित न किया जा सके कि विवाह के पक्षकारों की परस्पर पहुँच ऐसे किसी समय नहीं थी जब उसका गर्भाधान किया जा सकता था। यहाँ पहुँच का तात्पर्य वास्तविक सम्भोग से है|

सोभा हेमवती देवी बनाम एस. गंगाधर स्वामी के प्रकरण में विधिमान्य विवाह की उपधारणा करते हुए न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि – जहाँ कोई पुरुष व स्त्री वर्षों से पति-पत्नी के रूप में रह रहे हों, उनके बीच सहवास हो रहा हो और लोग उन्हें वर्षों से पति-पत्नी के रूप में मान रहे हो, वहाँ उनके बीच विभिमान्य विवाह होने की उपधारणा की जाएगी। ऐसे पति-पत्नी की संतान के धर्मज होने की उपधारणा भी होगी। (ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 800)

इस प्रकार धारा 101 से 112 तक में सबूत के भार के बारे में प्रावधान किया गया है। वस्तुतः सबूत के भार पर ही सम्पूर्ण साक्ष्य विधि आधारित है या यह कह सकते है कि सबूत का भार एक ऐसी धुरी है जिस पर सम्पूर्ण साक्ष्य विधि घूमती है।

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संदर्भ – भारतीय साक्ष्य अधिनियम 17वां संस्करण (राजाराम यादव)