अपकृत्य विधि में संपरिवर्तन क्या है? परिभाषा, प्रकार एंव बचाव व इसके उपचार

हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में संपरिवर्तन का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एंव इसके आवश्यक तत्वों तथा उपचार एंव बचाव के बारें में बताया गया है। संपरिवर्तन अपकृत्य कानून का एक महत्वपूर्ण विषय है ………..

संपरिवर्तन | Conversion or Trover

संपरिवर्तन का तात्पर्य है, जानबूझकर बिना किसी विधिक ओचित्य के किसी व्यक्ति के माल या वस्तु के साथ इस रीती से संव्यवहार करना की, अन्य व्यक्ति जो उस माल के तात्कालिक प्रयोग एंव आधिपत्य का अधिकारी है, उससे वंचित हो जाए|

यानि माल को गैर-कानूनी ढंग से लाना, उसका उपयोग करना, परिवर्तित करना और उसे नष्ट करना आदि संपरिवर्तन कहलाते है|

संपरिवर्तन की परिभाषा

सामण्ड के अनुसार  संपरिवर्तन किसी व्यक्ति के वस्तुओं के सम्बन्ध में ऐसा कार्य है जिसके द्वारा स्वामित्व को औचित्यपूर्ण तरीके से अस्वीकार किया जाता है|

विनफिल्ड के अनुसार  किसी व्यक्ति के अधिकार एंव स्वत्व से बिना किसी विधिपूर्ण न्यायानुमिति के इन्कार करना संपरिवर्तन कहलाता है|

गैरकानूनी कार्य द्वारा किसी व्यक्ति को उसके माल से हमेशा के लिये या अनिश्चित काल के लिये गैरकानूनी ढंग से वंचित कर दिये जाने को संपरिवर्तन कहा जाता है और इस कार्य में अतिचारी भी कभी-कभी सम्मिलित रहता है|

संपरिवर्तन का कारण तब तक उत्पन्न नहीं होता है जब तक एक प्रतिवादी अपने व्यवहार से किसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में वादी के स्वामित्व को अस्वीकार ना कर दे।

यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की जंगम सम्पत्ति के साथ गलत रूप से संव्यवहार करता है तो वह ऐसा संव्यवहार स्वयं अपनी जोखिम पर करता है क्योंकि वह यह प्रतिरक्षा नहीं ले सकता कि उसने यह कार्य इस विश्वास से किया था कि, उसका इस माल के साथ वैसा संव्यवहार करने का अधिकार था या उसे उस माल पर उसके स्वामी के किसी अधिकार की जानकारी नहीं थी।

राधेश्याम राधाकिशन बनाम जगत नारायण फतेहचन्द्र आदि [ए.आई.आर.(1963), एम.पी. 89]

इस सम्बन्ध में यह महत्त्वपूर्ण प्रकरण है, इसमें वादी ने एक संयुक्त हिन्दू परिवार की फर्म का कुछ सामान प्रतिवादी की आढ़त में रख कर कहा कि वह उसे उसके कथनानुसार या उसकी इच्छा के अनुसार उनको लौटा दे। सामान प्रतिवादी के कब्जे में बहुत दिनों तक रहा। कुछ समय बाद संयुक्त परिवार का एक प्रबन्धक सदस्य प्रतिवादी की आढ़त में गया और वादी को लौटाये जाने वाले सामान को वापस माँगा।

प्रतिवादी ने सामान वापस देने से ईन्कार करते हुए कहा कि उनको सामान वापस माँगने का हक नहीं है, जब कि प्रतिवादी यह जानता था कि प्रबन्धक संयुक्त परिवार का सदस्य था।

माननीय न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादी ने सामान को वापस करने से इन्कार करके तथा अपने पास उसका निरोध करके संपरिवर्तन का अपकृत्य किया। संपरिवर्तन बिना किसी विधिक औचित्य के किसी व्यक्ति की वस्तु के साथ जानबूझकर हस्तक्षेप है जो उस व्यक्ति के अधिकारों की उपेक्षा से होता है, जिससे वह व्यक्ति उस वस्तु के प्रयोग तथा स्वामित्व से वंचित हो जाता है।

न्यायालय के अनुसार संपरिवर्तन के अपकृत्य में दो बातें आवश्यक होती है

(1) वस्तुओं के अधिकारी के अधिकारों के प्रतिकूल वस्तुओं के प्रति व्यवहार करना, तथा

(2) ऐसा करने में उस व्यक्ति के अधिकारों की उपेक्षा करने का आशय होना।

संपरिवर्तन के मामले में वादी द्वारा वस्तुओं को लौटाने की माँग करना तथा प्रतिवादी द्वारा वस्तुओं को लौटाने से इन्कार किया जाना, साबित करना आवश्यक होता है| प्रतिवादी की इन्कारी बिना शर्त के होनी चाहिए और यदि शर्तयुक्त है तब ऐसी शर्त अयुक्तियुक्त होनी चाहिए।

उदाहरण   व्यक्ति सड़क पर कुछ रुपये पाता है, तब  व्यक्ति किसी अजनबी को तब तक रूपये देने से इन्कार कर सकता है, जब तब तक की वह अजनबी व्यक्ति उन रुपयों पर अपना स्वामित्व साबित नहीं कर देता, उस स्थिति में  व्यक्ति की यह शर्त अयुक्तियुक्त नहीं मानी जायेगी।

संपरिवर्तन के प्रकार

संपरिवर्तन का अपकृत्य निम्नलिखित किसी भी तरीके से किया जा सकता है –

(1) सम्पत्ति के ग्रहण द्वारा

जब कोई व्यक्ति बिना किसी अधिकार के किसी व्यक्ति की सम्पत्ति अपने कब्जे में इसलिए लेता है कि उस पर अपने अधिकार का दावा करे, तब ऐसा व्यक्ति संपरिवर्तन के लिए दायी होता है और यदि सम्पत्ति लेने वाला व्यक्ति सम्पत्ति के स्वामी के अधिकार के खिलाफ अपना हित दिखाता करता है तब यह संपरिवर्तन का मामला बनता है।

लेकिन जब सम्पत्ति आन्वयिक रूप में ली जाती है और उसके पीछे सम्पत्ति का स्थायी या अस्थायी अधिकार दिखाने की भावना नहीं होती तब संपरिवर्तन का मामला नहीं बनता।

इसी तरह यदि कोई व्यक्ति अपनी असावधानी के कारण माल खो देता है और उस माल को पाने वाला व्यक्ति वादी को सम्पत्ति देने से इस आधार पर इन्कार कर देता है कि वह अपनी शंका की संतुष्टि के लिये यह जानना चाहता है कि सम्पत्ति का वास्तविक स्वामी कौन है, तब ऐसी स्थिति में भी यह संपरिवर्तन का मामला नहीं बनता।

मामला – एम. काम्बी बनाम डेविस [(1805) 6 ईस्ट 538]

इस प्रकरण में किसी व्यक्ति ने एक अन्य व्यक्ति का माल एक अभिकर्ता से ले लिया था और उसके माँगने पर प्रतिवादी ने प्रधान व्यक्ति को माल देने से इन्कार कर दिया। मुकदमे में यह निर्णय किया गया कि सम्पत्ति लेने वाले व्यक्ति का कार्य संपरिवर्तन था।

यह भी जाने – विधि के स्त्रोत में रूढ़ि की परिभाषा, इसके आवश्यक तत्व एंव महत्त्व

(2) परिदान द्वारा संपरिवर्तन

यदि एक व्यक्ति के पास किसी दूसरे व्यक्ति का माल रखा गया है और वह व्यक्ति उस माल को किसी तीसरे व्यक्ति को देकर उसे माल पर अधिकार दे देता है तो यह कार्य संपरिवर्तन माना जाता है, क्योंकि माल को गलत तरीके से देना संपरिवर्तन माना जाता है।

उदाहरण   ने बी के संरक्षण में माल जमा किया लेकिन बी के सेवक ने माल भूलवंश सी को दे दिया। बी ने इस तथ्य से अनभिज्ञ होने के कारण डी से कहा कि अभी तक उसके पास  का माल रखा है, डी ने  से माल खरीद कर बी से माल माँगा।

इसमें बी को संपरिवर्तन का दोषी माना जाएगा क्योंकि प्रतिवादी ने असावधानीपूर्वक माल के स्वामित्व की सूचना दी और इस कारण वादी ने माल खरीदा और उसे हानि उठानी पड़ी।

मामला – श्रीराम फाइनेन्स कार्पोरेशन बनाम चातला बार्ड रेड्डी [(1976) 1 आन्ध्र डब्ल्यू. आर.]

इस प्रकरण में एक ऋणदाता ने रुक्के पर दी गयी रकम के एवज में की गयी प्रतिभूति को जब्त करके उसे अवैध रूप से विक्रय कर दिया था। ऋणदाता को प्रतिभूति को जब्त करने का अधिकार तो था, लेकिन बेचने का नहीं था। इसमें यह अभिकथित किया गया कि, ऋणदाता द्वारा इस प्रकार सम्पत्ति बेच दिया संपरिवर्तन का अपकृत्य है और वादी ऋण तथा ब्याज अदा करके उस अन्तरित सम्पत्ति को वापस ले सकता है।

(3) माल का गैरकानूनी विक्रय

जब एक व्यक्ति अनभिज्ञता के कारण किसी ऐसे व्यक्ति का पा लेता है, जिसे धोखे से अपने माल से वंचित कर दिया गया है और वह उस माल को अपने या किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिए विक्रय कर देता है, तब वह व्यक्ति संपरिवर्तन के लिए अपराधी माना जाएगा।

उदाहरण के लिए –  ने कपट द्वारा  की कुछ रूई पर कब्जा कर उस रूई को  को बेच दी जो रूई का दलाल था और उसे  के कपट के विषय में कोई जानकारी नहीं थी, उसके बाद  ने कमीशन लेकर रूई  को विक्रय कर दी| यहाँ  को संपरिवर्तन के लिए दायी माना जाएगा क्योंकि माल को गैर-कानूनी ढंग से विक्रय कर देना भी संपरिवर्तन माना जाता है|

(4) निरोध द्वारा संपरिवर्तन

यदि निरोध कब्जा के लिए हकदार व्यक्ति के अधिकार के खिलाफ है तब इस निरोध द्वारा संपरिवर्तन का मामला उसी प्रकार बनता है जिस तरह किसी उपनिधाता द्वारा माल मांगे जाने पर कोई उपनिहिती (bailee) माल देना अस्वीकार कर देता है। संपरिवर्तन के इस रूप का मुख्य तत्व माल माँगने पर देने से इन्कार करना है।

(5) विनाश द्वारा संपरिवर्तन

गैर-कानूनी ढंग से किसी वस्तु को स्वेच्छा से बरबाद करना अथवा स्वेच्छा और अनुचित ढंग से वस्तु को हानि पहुँचाना संपरिवर्तन माना जाता है। इसमें यह देखना आवश्यक है कि वस्तु के स्वामी को उसकी वस्तु के मूल रूप के प्रयोग के अधिकार से वंचित कर दिया गया हो।

उदाहरण के लिये – किसी बर्तन से शराब निकाल कर उसमें पानी भर देना संपरिवर्तन माना जाता है। इस सम्बन्ध में रिचार्डसन बनाम एटकिन्सन [(1723) 1 स्ट्र. 576] का प्रमुख मामला है जिसमे प्रतिवादों ने वादी की शराब की बोतल से कुछ शराब निकाल कर उस बोतल में उतना ही पानी भर दिया था। इसमें प्रतिवादी को संपरिवर्तन के लिये दोषी माना गया था।

(6) स्वामित्व की स्वीकृति द्वारा संपरिवर्तन

प्रतिवादी के माल पर वास्तविक अधिकार न रखने पर भी माल का संपरिवर्तन हो सकता है। ओके बनाम लोस्टर के मामले अनुसार, जब वादी के स्वामित्व और अधिकार को प्रतिवादी पूर्ण रूप से अस्वीकार कर देता है तब वह संपरिवर्तन के अपकृत्य के लिये दोषी होगा [(1931) के.बी. 148]

किसी दूसरे व्यक्ति की वस्तु को अवैध ढंग से इस प्रकार प्रयोग करना कि सामान की जब्ती हो जाये तब वह भी संपरिवर्तन कहलायेगा

संपरिवर्तन का मामला कैसे बनता है?

संपरिवर्तन की कार्यवाही के लिये दो तत्वों का होना आवश्यक है –

(1) माल के सम्बन्ध में हस्तक्षेप करना, जो किसी व्यक्ति के माल के स्वामित्व सम्बन्धी अधिकार के विपरीत हो। इसमें यह साबित करना होता है कि माल अतिचार में किसी व्यक्ति को अधिकार से इस सीमा तक वंचित कर दिया गया है कि उसका स्वामित्व या कब्जा ही नहीं रह गया।

(2) हस्तक्षेप इस आशय का हो, जिससे वादी के अधिकार को अस्वीकार किया जाये या उसकी सम्पत्ति पर अपना अधिकार बलपूर्वक दिखाया जाये। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें अवलोकन योग्य है

(i) यह आवश्यक नहीं है कि ऐसा कार्य जान-बूझकर गलत ढंग से किया गया हो। माल के सम्बन्ध में हस्तक्षेप करने वाले के लिए कानून या तथ्य सम्बन्धी त्रुटि बचाव का कारण नहीं होती।

(ii) ऐसे कार्य में यह दलील व्यर्थ होती है कि जान-बूझ कर किसी प्रकार की क्षति नहीं की गयी है। जहाँ अनुचित हस्तक्षेप किया जाता है वहाँ क्षति ही होती है।

(iii) यह आवश्यक नहीं है कि प्रतिवादी ने अपने प्रयास से जान-बूझ कर अपने उपयोग के लिए माल को संपरिवर्तित किया हो। दूसरे के अभिकर्ता या सेवक के रूप में व्यवहार करने पर भी प्रतिवादी समान रूप से दायी होता है।

(iv) वादों का माल से स्थायी रूप से बेदखल होना आवश्यक नहीं होता।

(v) संपरिवर्तन के मामले में सामान/माल पर वादी का स्वामित्व साबित करना होता है और जब वह प्रतिवादी से सामान माँगता है, उस समय उसे उस पर कब्जे का अधिकार होना चाहिये।

संपरिवर्तन की कार्यवाही के लिये यह आवश्यक है कि वादी को माल के संपरिवर्तन की कार्यवाही के समय माल पर तात्कालिक कब्जे का अधिकार अवश्य प्राप्त हो।

चूँकि संपरिवर्तन की कार्यवाही के लिये आवश्यक कब्जा या कब्जे का तात्कालिक अधिकार वादी को हो, इसलिए माल का ऐसा स्वामी, जिसने अपना कब्जा किसी प्रकार से निलम्बित कर दिया है, संपरिवर्तन की कार्यवाही नहीं कर सकता।

उदाहरण के लिए, ऐसा व्यक्ति जिसने अपने माल को किराये पर दे दिया है, संपरिवर्तन की कार्यवाही नहीं कर सकता।

संपरिवर्तन की कार्यवाही के लिए यह आवश्यक है कि प्रतिवादी की नीयत में माल को जबरन लेने का भाव हो। विश्वासपूर्वक किसी माल को गिरवी रख लेना. अनभिज्ञता से माल ऐसे व्यक्ति से खरीद लेना जी उसका स्वामी नहीं था, आदि बातें संपरिवर्तन में नहीं आती हैं, जब तक कि माल गलत ढंग से बेचा न जाय।

अनिश्चितकालीन औद्योगिक कार्यवाही के दौरान वादी के माल को लौटाने से इन्कार करने के बारे में अभिनिर्धारित हुआ कि वह सम्परिवर्तन था। प्रतिवादी की मनःस्थिति सुसंगत तथ्य होगी।

जहाँ कोई व्यक्ति गलती से दूसरे व्यक्ति की कार उठा लेता है और उसे थोड़ी दूर तक चला कर ले जाता है और उसे वापस कर देता है, तो संपरिवर्तन नहीं होगा किन्तु कोई चोर संपरिवर्तन करेगा चाहे उसने मोटर कार कुछ गज दूर तक ही चलाई हो और उसे वापस कर दिया हो क्योंकि पुलिस आस पास ही में मौजूद थी।

केस – रूपलाल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया [ए.आई.आर. (1972) जे. एण्ड के. 22]

इस प्रकरण में कुछ सैनिकों ने एक नदी के किनारे कुछ जलाने योग्य लकड़ी पड़ी पाया और उसे इस विचार से उठा कर ले गये कि वह सरकार की लकड़ी थी तथा उन सैनिकों द्वारा वह लकड़ी कैम्प फायर तथा ईंधन में जला दी गयी। लकड़ी के स्वामी ने यूनियन आफ इंडिया के खिलाफ इस आशय की नुकसानी का वाद पेश किया कि उसके सेवकों ने लकड़ी का संपरिवर्तन किया था।

इस प्रकरण में यह निर्णय किया गया कि, भारत संघ पर वादी को नुकसानी करने के लिये प्रतिकर देने का दायित्व था तथा भारत संघ का यह प्रतिवाद/बचाव था कि उसके सेवकों ने चोरी के आशय से लकड़ियों को नहीं लिया था, असफल रहा।

संपरिवर्तन के उपचार

जिस व्यक्ति का माल गैर-कानूनी ढंग से संपरिवर्तित कर दिया गया है, यानि जो संपरिवर्तन के किसी कार्य से पीड़ित हो उसको निम्नलिखित उपाय उपलब्ध रहते है –

(i) माल की बलात् वापसी (Reception) – यदि कोई व्यक्ति किसी सामान पर स्वामित्व रखने का अधिकारी है और उसे गैर-कानूनी ढंग से सामान से वंचित कर दिया गया है तो वह सामान को वापस प्राप्त कर सकता है और आवश्यकता पड़ने पर वह आवश्यक बल प्रयोग भी कर सकता है।

(ii) सम्पत्ति की वापसी के आदेश – यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसी व्यक्ति की सम्पत्ति को वापस देने का आदेश करे या इन्कार कर दे। यदि प्रतिवादी ने सम्पत्ति के मूल्य में वृद्धि की है तो न्यायालय इस बात पर विचार करके सम्पत्ति देने या न देने का आदेश दे सकता है।

(iii) क्षतिपूर्ति का दावा – यदि स्वामी को माल वापस नहीं दिलाया जाता है, तब उसे माल का पूरा मूल्य और नुकसानी प्राप्त करने का अधिकार है।

संपरिवर्तन की कार्यवाही में प्रतिवाद/बचाव

जब वादी द्वारा प्रतिवादी के खिलाफ संपरिवर्तन की कार्यवाही की जाती है, तब प्रतिवादी को पाने पक्ष में निम्नलिखित बचाव प्रस्तुत करने का अधिकार होता है –

(1) सम्पत्ति पर कब्जा रखने का अधिकार (Lien)

माल ले जाने वाले विक्रेता तथा सराय चलाने वाले व्यक्ति को सामान्य या विशेष धारणाधिकार (Lien) प्राप्त होता है। जब तक वादी द्वारा उनके ऋण या देय धन का भुगतान नहीं कर दिया जाये, तब तक वे उस सम्पत्ति को अपने अधिकार में रख सकते है।

(2) अभिवहन (Transit) में रोकने का अधिकार

जब कोई विक्रेता सम्पत्ति का विक्रय कर देता है तथा उसका मूल्य प्राप्त नहीं होता और क्रेता दिवालिया हो जाता है, तब उसे सम्पत्ति को अभिवहन में ही रोकने का विक्रेता को अधिकार होता है। इसका उपयोग या तो माल को वास्तविक कब्जे में लेकर किया जाता है या जिन व्यक्तियों का माल पर नियन्त्रण होता है, उन्हें विक्रेता के दावे की नोटिस देकर किया जाता है।

नोटिस प्राप्त करने के पश्चात् भी यदि वाहक (Carrier) क्रेता को गैर-कानूनी ढंग से माल दे देता है, तो वाहक माल संपरिवर्तन के लिए दायी माना जाएगा। लेकिन ऐसा कार्य वाहक नोटिस प्राप्त करने के पश्चात् किसी सद्विश्वास के साथ गलती के कारण कर देता है और क्रेता माल वापस करना अस्वीकार कर देता है, तब क्रेता को माल संपरिवर्तन के लिए दायी माना जाएगा। भारतीय माल विक्रय अधिनियम की धारा 50 और 52 में इस विषय की व्याख्या की गई है।

(3) वादी के स्वामित्व से इन्कार

जहाँ कोई सम्पति वादी के कब्जे में नही है लेकिन वादी सम्पत्ति के स्वामित्व के अधिकार के आधार पर दावा करता है, तब प्रतिवादी यह बचाव ले सकता है कि उस पर एक तीसरे व्यक्ति का कब्जा है। इस प्रकार वादी अपने स्वामित्व के आधार पर या प्रतिवादी द्वारा स्वामित्व की इन्कारी पर कार्यवाही कर सकता है|

(4) बाजार में विक्रय

कोई भी सम्पति विक्रय करने पर वह सम्पत्ति क्रेता के पास चली जाती है| चूँकि इंग्लैण्ड की सामान्य विधि (Common Law) के तहत ऐसी सम्पत्ति के विक्रय को स्वामित्व का अन्तरण (Transfer) माना जाता है| ऐसे मामले में क्रेता की बजाए विक्रेता संपरिवर्तन के लिये दायी माना जाता है।

इंग्लैण्ड की सामान्य विधि का यह सिद्धान्त भारत में लागू नहीं होता। भारतीय माल विक्रय अधिनियम, 1930 में यह व्यवस्था की गई है कि, कोई भी विक्रेता किसी क्रेता को माल पर सुदृढ़ अधिकार तब तक नहीं दे सकता है, जब तक माल पर उसका अपना अधिकार सुदृढ़ न हो।

इसके अलावा तीन व्यवस्थाएँ ऐसी भी है, जिनमें विक्रेता स्वयं सुदृढ़ अधिकार न रखते हुए भी क्रेता को सुदृढ़ अधिकार दे सकता है| भारत में जब कोई व्यक्ति ऐसे माल का विक्रय करता जिस पर उसका अधिकार नहीं है, तब उस मामले पर भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 108 लागू होगी।

(5) करस्थम

यदि माल किसी डिक्री के निष्पादन में या करस्थम में लिया गया है तब यह बिंदु प्रतिवादी द्वारा अपने बचाव में पेश किया जा सकता है। लेकिन Torts (Interference with Goods) Act, 1977 की धारा 11 के अनुसार संपरिवर्तन या माल के प्रति जानबूझकर अतिचार की कार्यवाही में अंशदायी उपेक्षा प्रतिवाद नहीं होगी।

संपरिवर्तन और अतिचार में अन्तर

यद्यपि संपरिवर्तन और अतिचार में काफी समानता होती है लेकिन फिर भी निम्नलिखित बातें दोनों में अन्तर स्पष्ट करती है –

(1) कब्जा रखने का अधिकार

संपरिवर्तन अतिचार से अधिक विस्तृत है, क्योंकि संपरिवर्तन में वादी को वास्तविक कब्जा साबित नहीं करना पड़ता है, इसमें शीघ्र कब्जा करने के अधिकार होने से वादी वाद ला सकता है। लेकिन अतिचार कब्जा के सम्बन्ध में की गई गैर-कानूनी कार्यवाही होती है। जिस कारण वास्तविक कब्जा रखने वाला व्यक्ति कभी अतिचार नहीं करता है।

(2) कब्जा रखने की नीयत

सम्पत्ति पर आत्यन्तिक स्वामित्व रखने वाले व्यक्ति के अधिकार में बाधा पहुँचाना एवं गैर-कानूनी ढंग से अपना कब्जा स्थापित करना संपरिवर्तन होता है। लेकिन सम्पत्ति पर जबरन कब्जा न रखने की नीयत वाला व्यक्ति भी किसी व्यक्ति की सम्पत्ति पर हस्तक्षेप करके या क्षति पहुँचा कर अतिचार करता है।

(3) कार्यवाही का सार

संपरिवर्तन में कार्यवाही का सार सम्पत्ति के स्वामी को उसके उपयोग से वंचित करना, इसमें सम्पत्ति में भौतिक रूप से परिवर्तन करना या माल को लेना आवश्यक नहीं होता है, लेकिन अतिचार में कार्यवाही का सार प्रत्यक्ष आघात होता है|

संपरिवर्तन तथा निरोध में प्रभेद

(1) भारत में संपरिवर्तन तथा निरोध में भेद अब भी मान्य है। वादी के अधिकार में हस्तक्षेप करने को संपरिवर्तन कहा जाता है। इसमें कब्जा पाने या किसी माल पर अधिकार रखने की नीयत भी होती है।

लेकिन निरोध में वादी के माल को गैर-कानूनी ढंग से रोका जाता है। इसमें यह नहीं देखा जाता की माल किस रूप में प्रतिवादी के पास आया है| इस प्रकार के अपकृत्य का निर्माण तब होता है जब, वादी के गैर-कानूनी ढंग से रोके हुए माल को वादी के मांगने पर भी प्रतिवादी देने से इन्कार कर देता है।

(2) उपचार – संपरिवर्तन और निरोध का मुख्य अन्तर इनमे दिया जाने वाला उपचार है| संपरिवर्तन के वाद में नुकसानी देनी होती है और निरोध के वाद में माल को वापस करना होता है।

सामान्यतः जब प्रतिवादी किसी विशेष माल को गैर-कानूनी रूप से अपने कब्जे में रखता है, तब निरोध के विरुद्ध कार्यवाही की जाती है और जब वादी का माल प्रतिवादी के कब्जे में होता है तब वादी नुकसानी/क्षतिपूर्ति के रूप में माल की कीमत वसूल करने की कार्यवाही करता है।

(3) संपरिवर्तन में अपकृत्य तभी पूरा माना जाता है जब प्रतिवादी गैर-कानूनी रूप से माल को संपरिवर्तित करता है और निरोध में कार्यवाही का कारण तब उत्पन्न होता है जब वादी के द्वारा माल मांगे जाने पर भी प्रतिवादी माल देने से इन्कार कर देता है।

केस – ध्यानसिंह शोभा सिंह बनाम यूनियन आफ इण्डिया [ए.आई.आर. 1958 एस.सी. 274]

इस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा संपरिवर्तन और निरोध के अपकृत्य पर विचार करते हुए यह कहा गया की  संपरिवर्तन एक स्वेच्छया किया गया हस्तक्षेप है, जिसका कोई कानूनी औचित्य नहीं होता तथा जो किसी भी वस्तु या माल के स्वामित्व के खिलाफ किया जाता है,

लेकिन निरोध में कार्यवाही उस स्थिति में की जाती है जब वादी के माल को प्रतिवादी रोके रखता है और माँगने पर देने से इन्कार कर देता है। इसमें नुकसानी का दावा ना कर माल की वापसी या मूल्य का दावा किया जाता है।

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