इस आलेख में हेंस केल्सन का शुद्ध विधि का सिद्धान्त (pure theory of law) की अवधारणा, इसके आवश्यक तत्व, महत्त्व एंव विभिन्न विधिशास्त्रियों द्वारा की गई आलोचना का आसान शब्दों में उल्लेख किया गया है,

परिचय – शुद्ध विधि का सिद्धान्त

हेंस केल्सन (1881-1973) जो अपने समय के एक विख्यात विधिशास्त्री थे उनका नाम विधिशास्त्र की विश्लेषणात्मक विचारधारा के समर्थकों में प्रथम पंक्ति में लिया जाता है|

हेंस केल्सन से पहले विधि के अनेक पद्वतियाँ थी लेकिन उन्होंने जिस पद्वति पर विचार किया वह पद्वति उनकी अपनी थी और उन्होंने इस पद्वति (शुद्ध विधि का सिद्धान्त) द्वारा विश्लेषणात्मक प्रमाणवाद की विवेचना नए रूप में की तथा इस विवेचना को उन्होंने मनोवैज्ञानिक तत्वों पर आधारित किया|

विधिशास्त्र में केल्सन का सिद्धान्त दो बिन्दुओं में महत्वपूर्ण माना जाता है, प्रथम इसे विश्लेषणात्मक पद्वति के विकास की चरम सीमा माना गया है तथा दूसरी इस सिद्धान्त में उन्नीसवीं शताब्दी के अंत एंव बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ के वर्षों में विधि के प्रति अपनाई जाने वाली निति का स्पष्ट दर्शन होता है|

केल्सन सन 1920-1930 तक ऑस्ट्रिया के सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय के न्यायाधीश थे। उनकी प्रमुख कृतियाँ अंतर्राष्ट्रीय कानून के सिद्धांत और शुद्ध विधि का सिद्धान्त हैं। केल्सन का शुद्ध विधि का सिद्धान्त प्रथम बार सन् 1934 में लॉ क्वार्टरली रिव्यू (Law Quarterly Review) में प्रकाशित हुआ तथा सन 1960 में इसका विस्तार हुआ।

केल्सन का शुद्ध विधि का सिद्धान्त मानको की एक क्रमबद्ध श्रृखला है, उन्होंने विधिक क्रम को मानको का स्तूप माना है| शुद्ध विधि का सिद्धान्त समझने के लिए इसकी व्याख्या, उद्देश्य, महत्त्व एंव आलोचना का अध्ययन करना होगा है|

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शुद्ध विधि का सिद्धान्त की व्याख्या

हेंस केल्सन को बेन्थम तथा ऑस्टिन की विश्लेषणात्मक विचारधारा की प्रतिक्रियास्वरूप उदित हुए ‘वियना शाखा’ (Vienna school) का प्रमुख माना जाता है और उन्हें एंव उनके समर्थकों को सामूहिक रूप में विधिशास्त्र की वियना शाखा के नाम से सम्बोधित किया गया|

इस विचारधारा के विधिशास्त्रियों ने ‘शुद्ध विधि का सिद्धान्त’ (Pure theory of Law) का प्रतिपादन किया जिसमें केल्सन का नाम प्रथम पंक्ति में है। केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु मानकों की व्युत्पत्ति माना जाता है। उनके अनुसार विधिक क्रम (legal order) मानकों का स्तूप (Pyramid of norms) है।

केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त को समझने के लिए सबसे पहले हमें विज्ञान एंव विधि के आधार स्त्रोत के अन्तर को समझना जरुरी है यानि (i) विज्ञान का आधार स्त्रोत (ii) विधि का आधार स्त्रोत, केल्सन के अनुसार विज्ञान का आधार स्त्रोत प्राकृतिक विज्ञान है एंव विधि का आधार स्त्रोत विधिशास्त्र है|

प्राकृतिक विज्ञान का आधार स्रोत उन कार्य और कारण के सम्बन्धों का बोध कराता है जो कार्यों एंव कारण के रूप में घटित होते है, जबकि विधि का आधार स्रोत इस बात का ज्ञान कराता है कि किस परिस्थिति में क्या होना चाहिये। इस ‘चाहिये’ को केल्सन ने ‘सोलन’ (Sollen) कहा है।

उदाहरण के लिए – न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त हमें या बताता है कि, ऊपर फेंकी गई कोई भी वस्तु नीचे यानि भूमि पर ही आएगी ना की आकाश में जायेगी|

इसका तात्पर्य यह है कि, विज्ञान का आधार स्त्रोत किसी भी कार्य का अनिवार्य रूप से ‘घटित होना’ सूचित करता है इसे केल्सन ने ‘जो है’ (stern) कहा है। इसके विपरीत विधि के आधार स्रोत का सम्बन्ध इस बात से है कि, किस परिस्थिति में क्या होना ‘चाहिए’ यानि किससे क्या घटित होना चाहिये|

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उदाहरणार्थ – यदि कोई व्यक्ति चोरी करता है तो उसे दण्ड मिलना चाहिये। इस प्रकार केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त का सार यह है कि प्राकृतिक विज्ञान ‘कारणता’ (casuality) से सम्बन्धित है जबकि विधि समाजिक विज्ञान होने के नाते ‘मानवत्व’ (normativity) से सम्बन्धित है।

केल्सन ने ‘विधिक चाहिये’ और ‘नैतिक चाहिये’ के अन्तर को भी स्पष्ट किया है। उनके अनुसार ‘विधिक चाहिये’ को बाह्य जगत से प्राप्त किया जा सकता है। जबकि ‘नैतिक चाहिये’ को वैयक्तिक भावना और विचारों से प्राप्त किया जा सकता है। “विधिक चाहिये” वस्तुनिष्ठ (Objective) है जबकि “नैतिक चाहिये” आत्मनिष्ठ (Subjective)।

केल्सन ने शुद्ध विधि के सिद्धान्त के बारे में यह कहा है कि – शुद्ध विधि का सिद्धान्त निश्चयात्मक विधि का एक सिद्धान्त है। यह विधि का सामान्य सिद्धान्त है।

केल्सन ने अपने शुद्ध विधि के सिद्धान्त में विधि के आदर्शस्वरूप तत्त्वों को अलग कर इसकी शुद्धता को बनाये रखने का प्रयास किया है और ‘विधि जो है’ की व्याख्या की है; न कि “विधि जो होनी चाहिए” की।

केल्सन का यह सिद्धान्त प्राकृतिक विज्ञान “कारणता” (casuality) से सम्बन्धित है, जबकि विधि, जो एक सामाजिक विज्ञान है मानकत्व (normativity) से सम्बन्धित है, लेकिन केल्सन आगे कहते हैं कि विधि के इस “चाहिये” और नैतिकता के “चाहिये” में अन्तर है क्योंकि विधिक “चाहिये” के पीछे राज्य की शक्ति कार्य करती है।

इस प्रकार केल्सन के अनुसार विधिक मानक और नैतिक मानक में अन्तर है। नैतिक मानक का एक उदाहरण यह है कि सभी को हमेशा सच बोलना चाहिए| यहाँ केल्सन नैतिक चाहिये के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं करते है, बल्कि केल्सन ‘विधिक चाहिये’ और ‘नैतिक चाहिये’ को अलग रखना चाहते है।

यह सम्भव है कि कुछ ऐसे ‘विधिक चाहिये’ हो सकते है जिनकी उत्पत्ति ‘नैतिक चाहिये’ से ही हो लेकिन कानून के अध्ययन के लिये हमें स्वयं को केवल “विधिक चाहिये” तक ही सीमित रखना होगा।

इसका तात्पर्य यह हुआ कि, विधि को न्याय के संदर्भ में परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि कुछ कानून अन्यायपूर्ण होते हुए भी विधि की श्रेणी में रखे जा सकते हैं, जैसे गर्भपात को छूट देने सम्बन्धी कानून| केल्सन के अनुसार “न्याय” एक अतार्किक आदर्श है, इसे तर्क के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है।

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विधिक चाहिये और नैतिक चाहिए में अन्तर

केल्सन ने “विधिक चाहिये” और “नैतिक चाहिए” के अन्तर को और अधिक स्पष्ट हुए कहा है कि, विधिक चाहिए को बाह्य जगत से प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि यह वस्तुनिष्ठ (objective) तथ्यों पर आधारित है।

लेकिन नैतिक चाहिए स्वयं के मूल्यांकन पर आधारित होने के कारण उसका स्वरूप आत्मनिष्ठ (subjective) होता है इसलिए इसको वैयक्तिक भावना और विचारों से प्रास किया जाता है, ना की बाह्य जगत से।

विधिक चाहिये का मुख्य तत्व उसमें शामिल शास्ति (sanction) है जिसका आशय ऐसे दण्डादेश से है, जो किसी कृत्य को करने या न करने की दशा में प्रदान किया जाता है,

उदाहरण के लिए, विधि का यह नियम है कि यदि कोई व्यक्ति चोरी करता है तो उसे दण्ड मिलना चाहिये। इसमें केल्सन का पहला नियम कहता है की उसे अवश्य दण्ड मिलना चाहिए,

दूसरा नियम यह कहता है कि, उसे दण्डित करने से पूर्व न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिये। फिर तीसरा नियम यह कहता है कि न्यायालय के समक्ष उसकी सुनवाई की जानी चाहिये।

चौथा नियम यह कहता है कि यदि अपराध साबित हो जाए तो उसे दण्ड मिलना चाहिए और पांचवा नियम कहता है कि, अभियुक्त के दण्ड को कुछ विशिष्ट अधिकारियों द्वारा लागू किया जाना चाहिये|

केल्सन ने ऑस्टिन के इस विचार को स्वीकार नहीं किया कि ‘विधि’ के क्रियान्वयन के पीछे शास्ति की शक्ति होती है। केल्सन के विचार से कानून को अपने से ऊपर के कानून के नियम से शक्ति मिलती है, केल्सन के अनुसार “शास्ति” का अपना कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है, वह स्वयं अन्य नियमों पर आधारित है।

इस प्रकार कैल्सन ने कानून को प्रादर्शता पर आधारित करते हुए प्रादशों के ऊर्ध्वगामी सोपानों का एक ढाँचा-सा तैयार कर दिया है जिसके प्रत्येक अन्तर्गत प्रादर्श (norms) अपने से ऊपर प्रादर्श से शक्ति प्राप्त करता है।

प्रादर्शों की इस श्रृंखला में सबसे ऊपर वाले प्रादर्श को केल्सन ने मूल प्रादर्श (Grundnorm) की संज्ञा दी है जिसे मूलभूत प्रदर्श (Basic norm) भी कहा जा सकता है।

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केल्सन के मूल प्रादर्श की संकल्पना

केल्सन के अनुसार सभी प्रादर्श, मूल प्रादर्श से अपनी वैधता प्रास करते हैं, यानि कोई प्रादर्श वैध है या नहीं इसका निर्धारण मूल प्रादर्श के आधार पर किया जाना चाहिये। मूल-प्रादर्श अपनी स्वयं की वैधता किसी अन्य उच्चतर प्रादर्श से प्राप्त नहीं करता है।

केल्सन ने मूल प्रादर्श को प्रारम्भिक परिकल्पना माना है और मूल-प्रादर्श स्वयमेव मान्य समझा जाता है इसलिए विधि इसकी मान्यता पर विचार नहीं करती क्योंकि यह एक प्रारम्भिक संकल्पना है जिसका तर्क पर आधारित कोई उत्तर नहीं है।

केल्सन ने इसे विधि के क्षेत्र से परे का विषय माना है। उनके अनुसार विधिक सिद्धान्त (legal theory) का कार्य केवल मूल प्रादर्श और अन्य प्रादर्शों के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करना है।

केल्सन के अनुसार सभी विधि व्यवस्थाओं में कोई न कोई मूल प्रादर्श अवश्य रहता है लेकिन यह जरुरी नहीं है कि सभी विधिव्यवस्थाओं में एक ही प्रकार का मूल प्रादर्श हो।

उदाहरण ले लिए, भारत और इंग्लैण्ड की विधि व्यवस्था में संसद्, अमेरिका की विधि व्यवस्था में ‘संविधान’ तथा हिटलरकालीन जर्मनी की विधि व्यवस्था में तानाशाह की इच्छा मूल प्रादर्श थी।

अब प्रश्न यह आता है कि मूल प्रादर्श का निर्धारण किस प्रकार किया जाए? इसके उत्तर में केल्सन का मानना हैं कि ‘सामर्थ्य’ से ही मूल प्रादर्श के चयन का निर्धारण होता है।

किसी विशिष्ट प्रादर्श की वैधता की परख इस आधार पर की जा सकती है कि अन्ततः वह किस मूल प्रादर्श से निकला है। प्रादर्शों को मूर्त रूप देने की प्रक्रिया को केल्सन ने राज्य का विधिक क्रम कहा है|

उदाहरण के लिए – हमारे भारत देश का संविधान हमारा मूल प्रादर्श (Grundnorm) है तथा अन्य सभी कानून जैसे, आईपीसी, सीआरपीसी, सीपीसी, समय समय पर पारित होने वाले कानून  मूल प्रादर्श (संविधान) से अपनी वैधता की जांच करते है।

यदि इनमे से कोई कानून ऐसा बना हुआ है जो मूल प्रादर्श (संविधान) के खिलाफ है तो वह अमान्य हो माना जाएगा तथा उसे अस्वीकार कर दिया जाएगा।

वर्तमान स्थिति में यह कहा जा सकता है कि मूल प्रादर्श भी देश की राजनैतिक एवं आवश्यकता के अनुसार परिवर्तनशील है और चाहे अनचाहे, प्रजा को उसे विधिक रूप से स्वीकार करना ही पड़ता है।

केल्सन ने विधि को सामाजिक संगठन की एक तकनीक मात्र निरूपित किया है। उनके अनुसार वह स्वयमेव अंतिम लक्ष्य न होकर लोगों को सदाचरण के लिए बाध्य रखने का एक प्रभावी साधन मात्र है जिसका कोई राजनीतिक या नैतिक मूल्य नहीं है।

केल्सन का विचार है कि विधि कोई शास्वत व्यवस्था नहीं होकर संघर्षरत सामाजिक प्रभावों से बचने हेतु एक मात्र रास्ता है, इसलिए विधि की अवधारणा में नैतिकता का कोई स्थान नहीं है|

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शुद्ध विधि सिद्धान्त के आवश्यक तत्त्व

केल्सन का शुद्ध विधि का सिद्धान्त निम्नांकित तत्त्वों पर आधारित है –

(i) विधि के सिद्धान्त के अन्तर्गत वास्तविक विधि का विवेचन होना चाहिए, न कि आदर्शात्मक विधि का। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि विधि के सिद्धान्तों में “विधि जैसी कि वह है” का वर्णन होना चाहिए न कि “जैसी कि वह होनी चाहिये” का।

(ii) विधि के सिद्धान्तों का निरूपण इस प्रकार होना चाहिए ताकि विधि के माध्यम से समस्त विषय- वस्तुओं का प्रस्तुतीकरण हो सकें।

(iii) विधि के सिद्धान्तों को समय और स्थान की परिसीमाओं से मुक्त रखते हुए सभी स्थानों एवं समय पर समान रूप से लागू किया जाना चाहिये।

(iv) विधि का सिद्धान्त ‘विशुद्ध’ (Pure) होना चाहिए। उसे समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, इतिहास आदि के प्रभाव से मुक्त रखा जाना चाहिए।

(v) विधिशास्त्र सिद्धान्तमूलक अथवा मानकीय (normative) विज्ञान है न कि प्राकृतिक विज्ञान।

(vi) विधि के सिद्धान्त की प्रकृति वैज्ञानिक है, न कि संकल्पनात्मक (Volitional) अर्थात् यह एक विज्ञान है न कि संकल्प या इच्छा की अभिव्यक्ति।

शुद्ध विधि सिद्धान्त का महत्त्व

ऐसा माना जाता है कि केल्सन के शुद्ध विधि सिद्धान्त ने विश्लेषणात्मक पद्धति के कारण विधि पर छाये हुए कुहरे को हटा दिया था तथा एक ऐसे तर्कसंगत विधि सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसे किसी भी विधि व्यवस्था पर आसानी से लागू किया जा सकता है, केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त का महत्त्व निम्नांकित कारणों से है –

(i) यह सिद्धान्त राज्य और विधि के बीच कोई अन्तर नहीं करता है यानि राज्य और विधि के बीच कोई द्वैधता नहीं है। केल्सन ने राज्य एवं विधि को एक ही वस्तु के दो अलग अलग पहलू माना है। इसने ऑस्टिन के समक्ष उत्पन्न हुई इस समस्या का समाधान कर दिया कि संवैधानिक विधि को वास्तव में विधि माना जाये या नहीं।

(ii) केल्सन का शुद्ध विधि का सिद्धान्त यह आवश्यक नहीं समझता है कि विधि का स्वरूप आदेशात्मक ही हो। इसका अर्थ यह नहीं है कि केल्सन के अनुसार शास्ति की आवश्यकता नहीं हो। उनके सिद्धान्त में भी शास्ति उतनी ही आवश्यक जितनी ऑस्टिन के आदेशात्मक विधि सिद्धान्त में थी।

(iii) केल्सन ने अन्तर्राष्ट्रीय कानून को राज्य के कानून से श्रेष्ठ माना है। ऑस्टिन ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को विधि ही नहीं माना, क्योंकि उसके पीछे शास्ति का अभाव है लेकिन केल्सन के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय कानून के मानक राज्य पर बंधनकारी प्रभाव रखते है|

(iv) केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त में रूड़िगत विधि (customary law) को वास्तविक विधि के रूप में मान्यता प्रदान की गई है जबकि ऑस्टिन ने अपने आदेशात्मक सिद्धान्त में रूढ़ि को स्थान नहीं दिया था।

(v) विश्लेषणात्मक विधिशास्त्रियों ने लोक विधि एंव प्राइवेट विधि में अन्तर माना था| लोक विधि, राज्य (संप्रभुताधारी) के एकतरफा समादेश द्वारा प्रभाव में आती है तथा जनसमुदाय के प्रति बाध्यकारी होती है, जबकि प्राइवेट विधि में बाध्यताएं आपस में करार (संविदा) द्वारा उत्पन्न होती है|

केल्सन ने प्राइवेट एवं लोक विधि के अन्तर को नहीं माना और कहा की इनमे कोई विभाजन नहीं हो सकता है क्योंकी केल्सन प्राइवेट विधि को विधिक शक्ति का प्रत्यायोजन मानते है जिसकी प्रभावशीलता मूल प्रदर्श से उत्पन्न होती है|

(vi) केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त का इसलिए भी महत्त्व है क्योंकि इससे से विधिक व्यक्तित्व के सिद्धान्त से सम्बंधित समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है|

आलोचना –

केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त की आलोचकों द्वारा अपने-अपने स्तर पर आलोचना की गई है। शुद्ध विधि का सिद्धान्त की आलोचना के मुख्य आधार बिन्दु निम्नाकिंत है –

(i) केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त द्वारा राज्य एवं विधि के द्वैधता (dualism) को समाप्त कर दिया गया जो उचित नहीं है, क्योंकि इससे राज्य की शक्ति अत्यधिक सीमित हो गई है।

(ii) केल्सन के शुद्ध विधि का सिद्धान्त द्वारा प्राइवेट एवं लोक विधि के बीच अन्तर को भी समाप्त कर दिया गया जो उचित नहीं था और ऐसा करते समय राज्य के विधिक दायित्व के निर्धारण की आवश्यकता की ओर भी ध्यान नहीं दिया गया।

कल्याणकारी राज्य में राज्य के प्राधिकारियों की अधिकार शक्ति के निर्धारण हेतु इन दोनों विधियों के बीच अन्तर किया जाना आवश्यक है।

(iii) केल्सन ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को राष्ट्रीय विधि पर पूर्वता देकर प्राकृतिक विधि को पिछले द्वार से प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है।

(iv) केल्सन का शुद्ध विधि का सिद्धान्त एक व्यर्थ की कसरत है जिसका वास्तविक जीवन में कोई व्यावहारिक महत्त्व नहीं है। कुछ आलोचक केल्सन को कल्पना लोक में विचरण करने वाला तर्कशास्त्री मानते हैं।

(v) फ्रीडमेन का तो यहाँ तक कहना है कि केल्सन का शुद्ध विधि का सिद्धान्त आधुनिक विधिक समस्याओं का समाधान तलाशने में असमर्थ है। लेकिन इन सबके बावजूद भी केल्सन का शुद्ध विधि का सिद्धान्त विधिशास्त्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाये हुए है।

निष्कर्ष – शुद्ध विधि का सिद्धान्त

केल्सन द्वारा प्रतिपादित शुद्ध विधि का सिद्धान्त से यह निष्कर्ष निकलता है कि विधि के अन्तर्गत व्यक्तिगत अधिकार जैसी कोई वस्तु नहीं है क्योंकि वे विधिक कर्तव्य को ही विधि का सार मानते हैं। केल्सन विधिक अधिकार को, उस व्यक्ति का जो कि उसकी पूर्ति की अपेक्षा करता है, केवल कर्त्तव्य मात्र निरूपित करते हैं।

यह बात आपराधिक विधि के संदर्भ में अधिक स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है जहाँ कथित व्यक्ति का कोई विधिक अधिकार नहीं होता वरन् राज्य स्वयं ही अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही संस्थित करता है।

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