इस आलेख में वृतिक सदाचार किसे कहते है, विधि व्यवसाय में इसका क्या योगदान है एंव इसके उद्देश्य तथा वृतिक सदाचार से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रकरणों का उल्लेख किया गया है|

वृतिक सदाचार –

वृतिक सदाचार ही विधि व्यवसायी के आचरण को विनियमित करता है तथा विधि व्यवसायी के अपने स्वयं के प्रति, अपने पक्षकारों के प्रति एवं न्यायालय के प्रति कर्तव्यों को सुनिश्चित करता है इसलिए विधिक व्यवसाय में वृतिक सदाचार (Professional Ethics) का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

विधि व्यवसाय के सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश नागेश्वर प्रसाद का मत है कि, वृतिक सदाचार वह लिखित अथवा अलिखित संहिता है जो विधि व्यवसायी के अपने प्रति, अपने पक्षकारों के प्रति, अपने विरोधी पक्ष के प्रति एवं न्यायालय के प्रति व्यवहार को संचालित करता है।

सर फ्रांसिस बेकन के मतानुसार, न्यायालय न्याय के पवित्र मन्दिर हैं इनमें अनुशासन एवं शालीनता बनाए रखना अपरिहार्य है। न्याय प्रशासन तभी सुचारु रूप से चल सकता है जब न्यायिक प्रक्रिया का गरिमा के साथ संचालन हो।

जैसा की हम जानते है कि, विधि व्यवसाय एक स्वतन्त्र व्यवसाय है यानि स्वतन्त्रता इस व्यवसाय का प्रमुख लक्षण है। साथ ही ज्ञान, कुशलता, परिश्रम, पारस्परिक स्नेह, क्षमता आदि इस व्यवसाय को शीर्ष की ओर ले जाते हैं और इनसे सदाचार को प्रश्रय मिलता है।

आसान शब्दों में वृतिक सदाचार से आशय है कि, विधि व्यवसायी (अधिवक्ता) अपनी पूर्ण क्षमता, निष्ठा एवं ईमानदारी से अपने व्यावसायिक दायित्वों का निर्वहन करें।

अधिवक्ताओं का व्यवसाय अत्यन्त गरिमा एवं गुणवत्ता का व्यवसाय है। इसकी गरिमा एवं गुणवत्ता को बनाए रखना प्रत्येक विधि व्यवसायी का कर्तव्य है।

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वृतिक सदाचार के उद्देश्य

न्यायमूर्ति मार्शल ने वृतिक सदाचार के निम्नलिखित उद्देश्य बताए हैं, उनके अनुसार –

(i) विधि व्यवसाय की मर्यादा एवं सम्मान को अक्षुण्ण बनाए रखना,

(ii) न्याय के उच्च आदर्शों में अभिवृद्धि के लिए बार एवं बेंच के बीच मधुर सम्बन्ध बनाए रखना,

(iii) अधिवक्ता का अपने पक्षकारों, विरोधी पक्षों एवं न्यायालयों के प्रति वैश्वासिक सम्बन्धों को यथावत् बनाए रखना,

(iv) बार के सदस्यों के बीच बन्धुत्व की भावना का संचार करना, तथा

(v) जन साधारण के प्रति अपने उत्तरदायित्वों के निष्ठापूर्वक निर्वहन के लिए प्रेरित करना, आदि।

इस प्रकार वृतिक सदाचार न्याय प्रशासन की धुरी है। न्याय की अवधारणा वृतिक सदाचार से ही फलीभूत हो सकती है। संविधान के लक्ष्य एवं उच्च आदशों को प्राप्त करने के लिए भी वृतिक सदाचार अर्थात् बार एवं बेंच के बीच मधुर सम्बन्धों का अस्तित्व अपरिहार्य है।

न्यायालयों में कार्यों का बहिष्कार करना अथवा हड़ताल रखना वृतिक सदाचार के खिलाफ है। किसी भी अधिवक्ता को वृतिक सदाचार के विपरीत कार्य करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है।

अधिवक्ता द्वारा फीस के बदले अपने पक्षकार की फाइलों को रोके रखने को भी वृतिक सदाचार का उल्लंघन माना गया है। इसी तरह अधिवक्ता द्वारा अपने पक्षकार के धन के दुर्विनियोग को अधिवक्ता का वृतिक कदाचार अर्थात् वृतिक सदाचार का उल्लंघन माना गया है।

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वृतिक सदाचार के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रकरण –

अभय प्रकाश सहाय बनाम हाईकोर्ट पटना (ए. आई. आर. 1998 पटना 75)

इस मामले में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी.पी. सिंह द्वारा कहा गया है कि, वकालत के व्यवसाय को शुरुआत से ही एक उच्च स्तरीय बौद्धिक एवं नैतिक व्यवसाय माना जाता रहा है। समाज में भी इस व्यवसाय का अपना अनूठा स्थान रहा है।

विधि व्यवसायी ना केवल अपने पक्षकारों की मदद करता है वरन न्याय प्रशासन में भी न्यायालयों की सहायता भी करता है| जिस कारण इस व्यवसाय की जनता में साख रही है और यह अपेक्षा भी की जाती है कि, यह साख समाज में बनी रहे। यदि विधि व्यवसाय की साख गिरती है तो यह दुःख की बात होगी।

श्रीमाथी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (1997 आर. एल. टी. 1)

इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, न्याय प्रशासन में विधि व्यवसायियों की भूमिका निर्विवाद है। वह अधिवक्ता ही है जो अपने पक्षकार के पक्ष को न्यायालय के समक्ष रखता है। अधिवक्ता एवं पक्षकार के बीच वैश्वासिक सम्बन्ध होते हैं।

इसलिए अधिवक्ता का यह कर्तव्य है कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करें जिससे उनका वैश्वासिक सम्बन्ध टूटने लगे। अधिवक्ताओं का कदाचार अथवा प्रतिकूल आचरण अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अन्तर्गत जाँच का विषय बन जाता है।

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पी. डी. गुप्ता बनाम राममूर्ति (ए.आई.आर. 1998 एस. सी. 283)

इस मामले में माननीय न्यायाधीश सतीशचन्द्र अग्रवाल ने यह मत अभिव्यक्त किया कि – न्याय प्रशासन एक प्रवाह है। इसे स्वच्छ, शुद्ध एवं प्रदूषण मुक्त रखा जाना आवश्यक है। इसका सरोकार केवल न्यायिक अधिकारियों से ही नहीं होकर अधिवकताओं से भी है।

अधिवक्ता न्यायालय के अधिकारी माने जाते हैं इस कारण उनसे ऐसे आचरण की अपेक्षा की जाती है कि उन पर कोई अंगुली नहीं उठा सके। अधिवक्ता को अपने पक्षकार के प्रति ही नहीं, बल्कि न्यायालय के प्रति भी सत्यनिष्ठ रहना चाहिए।

इन रि विनयचन्द्र मिश्रा (ए.आई. आर. 1995 एस. सी. 2348)

वृतिक सदाचार के सम्बन्ध में यह महत्वपूर्ण मामला है, इसमें माननीय न्यायालय द्वारा यह मत व्यक्त किया गया है कि, न्यायालय अधिवक्ता का सम्मान करता है तथा उनकी बात को ध्यान से सुनता है।

अतः अधिवक्ता का भी यह कर्त्तव्य है कि वह भी न्यायालय को समुचित सम्मान दे, न्यायालय के प्रश्नों का शान्ति एवं धैर्य के साथ उत्तर दें और न्यायालय की गरिमा को बनाए रखें।

यदि अधिवक्ता ही न्यायालय में अपना सन्तुलन खो बैठे और उसकी गरिमा को आघात पहुँचाएँ तो इसके दुष्परिणामों की सहज ही परिकल्पना की जा सकती है।

कुल मिलाकर यह कहा कहा जा सकता है कि, अधिवक्ता अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करें, पक्षकारों एवं न्यायालयों के प्रति अपने वैश्वासिक सम्बन्धों को बनाए रखें तथा न्यायालय की गरिमा को नुकसान ना पहुंचाए, यही वृतिक सदाचार है।

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में भी वृतिक सदाचार के बारे में समुचित व्यवस्था की गई है। अधिनियम की धारा 49(1) (ग) के अन्तर्गत विधिज्ञ परिषद् (Bar Council of India) द्वारा अधिवक्ताओं के वृतिक आचरण तथा शिष्टाचार के मानक सुनिश्चित करने वाले नियम बनाए जा सकते हैं तथा इन नियमों का उल्लंघन करने पर दण्ड की व्यवस्था की गई है।

निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि अधिवक्ता का अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठावान रहना, ईमानदारी से कार्य करना तथा विश्वास बनाए रखना ही वृतिक सदाचार है।

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