इस आलेख में विधि व्यवसाय के सन्दर्भ में वृतिक अवचार किसे कहते है और इस बुराई को समाप्त करने के लिए अधिवक्ता को दण्डित किये जाने की विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति को प्राप्त शक्तियों का आसान शब्दों में उल्लेख दिया गया है,

वृतिक अवचार क्या है?

अधिवक्ताओं की अपनी आचार संहिता (Code of Conduct) है। प्रत्येक अधिवक्ता का यह कर्तव्य है कि वह विधि व्यवसाय की गरिमा के अनुकूल कार्य करें। ऐसा कोई कार्य नहीं करें जिससे अधिवक्ता की साख पर आँच आए।

चूँकि वकालत का व्यवसाय आरम्भ से ही उच्च स्तरीय बौद्धिक एवं नैतिक व्यवसाय माना जाता रहा है इस कारण समाज में अधिवक्ताओं का प्रतिष्ठित स्थान रहा है। इसलिए अधिवक्ता वर्ग से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठावान एंव ईमानदार रहेंगे।

अधिवक्ता का अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठावान एवं ईमानदार रहना ही वृतिक सदाचार कहलाता है और जब अधिवक्ता इसके प्रतिकूल/विपरीत आचरण करता है, तब उसका यह आचरण वृतिक अवचार या कदाचार (Professional misconduct) माना जाता है।

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परिभाषा 

कानून में वृतिक अवचार की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं दी गई है। क्योंकि वृतिक अवचार को किसी परिधि में परिसीमित भी नहीं किया जा सकता है। कौन सा कार्य वृतिक अवचार है और कौनसा नहीं, यह प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

वृतिक अवचार से तात्पर्य अन्य के साथ अनुशासन भंग से है। इसमें यह निर्धारित नहीं है कि कौनसा आचरण अवचार अथवा अनुशासन भंग करने वाला होगा लेकिन सामान्य तौर पर इसमें सदोष चूक अथवा कृत्य सम्मिलित है जिसमें आशय महत्त्वपूर्ण नहीं है।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने अवचार के अन्तर्गत नैतिक ऊद्यमता (Moral turpitude) एवं नैतिक भ्रष्टता, अधिवक्ता द्वारा अपने कर्तव्यों की घोर उपेक्षा, विधि व्यवसाय के साथ अन्य कोई व्यवसाय करना, अधिवक्ताओं के हड़ताल पर जाने तथा न्यायालयों का बहिष्कार करने आदि को सम्मिलित है। यानि इस तरह के कार्यो को वृतिक अवचार माना गया है|

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सामान्यतः निम्नलिखित कार्यों को भी वृतिक अवचार माना गया है –

(i) पक्षकारों को जान बूझकर गलत राय देना,

(ii) पक्षकारों की ओर से न्यायालय में उपस्थिति नहीं देना,

(iii) पक्षकारों के मामलों की निष्ठापूर्वक पैरवी नहीं करना,

(iv) विपक्षी पक्षकार से दुरभिसंधि (collusion) कर लेना,

(v) पक्षकारों से अवैध रूप से फीस या राशि वसूल करना,

(vi) वादग्रस्त सम्पत्ति से संव्यवहार करना अर्थात् उसे अपने लिए खरीद लेना,

(vii) न्यायालय में आपत्तिजनक एंव गलत शब्दों का प्रयोग करना,

(vii) न्यायालय में अनावश्यक रूप से उत्तेजित, गुस्सा होना,

(ix) न्यायाधीशों पर झूठे, मनघडत आरोप लगाना,

(x) न्यायिक निर्णयों, आदेशों आदि पर अनावश्यक टीका-टिप्पणी करना,

(xi) पक्षकारों की राशि को न्यायालय में जमा नहीं कराना या पक्षकारों को नहीं लौटाना और अपने पास रख लेना,

(xii) पक्षकारों की पत्रावली एवं दस्तावेजों को रोक लेना या उन्हें उचित समय पर न्यायालय में पेश नहीं करना,

(xiii) पक्षकारों के धन का गलत तरीके से उपयोग करना,

(xiv) न्यायाधीश, पेशकर, बाबु आदि के नाम से पक्षकार से रिश्वत लेना,

(xv) पक्षकारों को निर्णय या आदेश की यथासमय सूचना नहीं देना, आदि।

इनके अतिरिक्त भी अनेक कार्य हैं जिनको वृतिक कदाचार माना गया है तथा समय-समय पर न्यायालयों द्वारा भी वृतिक अवचार विषयक कार्यों की व्याख्या भी की जाती रही है।

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वृतिक अवचार के महत्वपूर्ण मामले

पवन कुमार शर्मा बनाम गुरुदयाल सिंह (ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 98)

इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – अधिवक्ताओं द्वारा विधि व्यवसाय के साथ अन्य कोई व्यवसाय नहीं किया जा सकता है। ऐसा करना वृतिक अवचार है।

इसी तरह न्यायालय द्वारा अपने निर्णय में अपीलार्थी को चिकित्सा व्यवसाय के साथ साथ विधि व्यवसाय करने की ईजाजत नहीं दी गई है। डॉ. हनीराज एल. चुलानी बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र (ए. आई. आर. 1996 एस. सी. 2076)

बलजीत सिंह बनाम प्रताप सिंह (ए.आई.आर. 2017 इलाहाबाद 165)

इस प्रकरण में अपने पक्षकार की ओर से उससे सम्बन्धित तथ्यों के बारे में अधिवक्ता द्वारा स्वयं अपने नाम से शपथपत्र दिया गया था, अधिवक्ता के इस कृत्य को न्यायालय ने वृतिक अवचार माना है। इसी तरह अधिवक्ता द्वारा फीस के बदले पक्षकार की पत्रावली रोक लेने को भी वृतिक अवचार माना गया है। न्यू इण्डिया एश्योरेन्स क. लि. बनाम ए. के. सक्सेना (ए.आई. आर. 2004 एस. सौ. 311)

हरीशचन्द्र तिवाड़ी बनाम बैजू (ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 548)

इस मामले में भू-अवाप्ति के प्रकरण में अधिवक्ता द्वारा प्रतिकर की राशि उठा लेने तथा उसे पक्षकार को नहीं लौटाने को वृतिक अवचार माना गया था।

बार कौंसिल ऑफ आन्ध्र प्रदेश बनाम के. सत्यनारायण (ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 175) के मामले में पक्षकार के धन के दुर्विनियोग को घोर वृतिक अवचार माना गया है।

चन्द्रप्रकाश त्यागी बनाम बनारसी दास (ए.आई.आर. 2015 एस.सी. 2297)

इस मामले में किसी अधिवक्ता द्वारा दोनों पक्षों की ओर से पैरवी की गई थी, जिसे न्यायालय द्वारा वृत्तिक अवचार (Professional misconduct) माना गया है।

इस प्रकार ऐसे और भी अनेक मामले हैं जिनमें अधिवक्ताओं के ऐसे कृत्यों को वृतिक अवचार माना गया है जो विधि व्यवसाय की पवित्रता एंव उसकी गरिमा को नुकसान पहुँचाते हैं।

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वृतिक अवचार के लिए दण्ड देने की शक्तियां

वृतिक अवचार एक बुराई है जिसको समाप्त किया जाना अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई अधिवक्ता वृतिक अवचार का दोषी पाया जाता है तब उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही कर अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 35 एंव 36 के तहत दण्ड देने का प्रावधान किया गया है|

वृतिक अवचार के लिए अधिवक्ता को दण्डित किए जाने की अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 35 में राज्य विधिज्ञ परिषद् को एंव धारा 36 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् की शक्तियों का उल्लेख कीजिए।

अवचार के लिए राज्य विधिज्ञ परिषद् की शक्तियां

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 वृतिक अवचार के विरुद्ध उपचार देने की व्यवस्था करती है। यह धारा राज्य विधिज्ञ परिषद् को अवचार के लिए अधिवक्ताओं को दण्ड देने की निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान करती है –

(1) जहाँ राज्य विधिज्ञ परिषद् को शिकायत पर या अन्यथा यह प्रतीत होता है कि कोई अधिवक्ता वृतिक अवचार का दोषी है या उसके पास विश्वास करने का कारण है कि उसकी नामावली का कोई अधिवक्ता वृतिक अवचार का दोषी है तो वह मामले को निपटारे हेतु अनुशासन समिति को निर्दिष्ट करेगी।

(2) राज्य विधिज्ञ परिषद् ऐसे मामले को स्वप्रेरणा से या हितबद्ध व्यक्ति के आवेदन पर ऐसी अनुशासन समिति से वापस लेकर उसे किसी अन्य अनुशासन समिति को सौंप सकेगी।

(3) ऐसी शिकायत मिलने पर अनुशासन समिति द्वारा सुनवाई के लिए तारीख नियत की जाएगी और इसकी सूचना सम्बन्धित अधिवक्ता एवं राज्य के महाधिवक्ता (Advocate General) को दी जाएगी।

(4) दोनों पक्षों को सुनवाई का समुचित अवसर देने के पश्चात् राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा निम्नांकित में से कोई आदेश पारित किया जा सकेगा –

(क) शिकायत खारिज कर सकेगी या जहाँ राज्य विधिज्ञ की प्रेरणा पर कार्यवाहियाँ आरम्भ की गई थी, वहाँ यह निर्देश दे सकेगी कि कार्यवाहियाँ फाइल कर दी जाए,

(ख) अधिवक्ता को धिग्दण्ड दे सकेगी,

(ग) अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से उतनी अवधि के लिए निलम्बित कर सकेगी जितनी वह ठीक समझे,

(घ) अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की राज्य नामावली में से हटा सकेगी।

जहाँ किसी मामले में अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से निलम्बित कर दिया जाता है, तब ऐसा अधिवक्ता किसी न्यायालय, प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है|

इस प्रकार अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 वृतिक अवचार के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाही करने तथा दोषी अधिवक्ता को दण्डित किए जाने के बारे में प्रावधान करती है।

ऐसे मामले जिनमे वृतिक अवचार के लिए कठोर दण्ड दिया गया है –

(i) पक्षकार की प्रतिकर (Compensation) की राशि नहीं लौटाने पर अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की नामावली से हटा दिया गया। (हरीशचन्द्र तिवाड़ी बनाम बैजू, ए.आई. आर. 2002 एस. सी. 548)

(ii) पक्षकार के धन के दुर्विनियोग को घोर वृतिक अवचार मानते हुए दोषी अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की नामावली से हटाने का आदेश दिया गया। (बार कौंसिल ऑफ आन्ध्र प्रदेश बनाम के. सत्यनारायण, ए.आई.आर. 2003 एस. सी. 175)

वृतिक अवचार के लिए अधिवक्ताओं के खिलाफ कार्यवाही करना राज्य विधिज्ञ परिषद् के अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन यदि राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की जाती है तब उस दशा में उच्चतम न्यायालय द्वारा उचित कदम उठाया जा सकता है।

आदेश के खिलाफ अपील –

धारा 35 के अधीन पारित राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति अथवा महाधिवक्ता के आदेश से कोई व्यक्ति व्यथित है तो उसके द्वारा ऐसे आदेश के खिलाफ अधिवक्ता अधिनियम 1961, धारा 37 के अधीन भारतीय विधिज्ञ परिषद् के समक्ष अपील पेश की जा सकती है। ऐसी अपील के लिए 60 दिन की अवधि निर्धारित है। इस अवधि की संगणना आदेश की संसूचना की तारीख से की जाएगी।

अवचार के लिए भारतीय विधिज्ञ परिषद् की शक्तियां

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 36 में वृतिक अवचार करने वाले अधिवक्ताओं के खिलाफ भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की शक्तियों का उल्लेख किया गया है।

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 36 (1) में यह प्रावधान किया गया है कि, जब किसी शिकायत पर या अन्यथा भारतीय विधिज्ञ परिषद् के पास यह विश्वास करने का कारण होता है कि कोई ऐसा अधिवक्ता जिसका नाम किसी राज्य नामावली में दर्ज नहीं है, वृतिक या अन्य अवचार का दोषी है, तब वह उस मामले को अपनी अनुशासन समिति को निपटारे के लिए निर्दिष्ट करेगी।

अधिनियम की धारा 36(2) के अधीन भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के समक्ष किसी अधिवक्ता के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही के लिए लम्बितं किन्हीं कार्यवाहियों को या तो स्वप्रेरणा से या किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की रिपोर्ट पर या किसी हितबद्ध व्यक्ति द्वारा उसको किए गए आवेदन पर, जाँच करने के लिए अपने पास वापस ले सकेगी और उसका निपटारा कर सकेगी।

शिकायत प्राप्त होने पर भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा मामले की सुनवाई के लिए तारीख निर्धारित की जाएगी और उसकी सूचना सम्बन्धित अधिवक्ता को और भारत के महान्यायवादी (Attorney General of India) को दी जाएगी।

उसके पश्चात् भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा सम्बन्धित अधिवक्ता एवं महान्यायवादी को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात् निम्नलिखित आदेशों में से कोई आदेश दिया जा सकेगा, अर्थात्

(क) शिकायत खारिज कर सकेगी,

(ख) अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से उतनी अवधि के लिए निलम्बित कर सकेगी जितनी वह ठीक समझे,

(ग) अधिवक्ता को धिग्दण्ड दे सकेगी, अथवा

(घ) अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की नामावली में से हटा सकेगी।

जहाँ किसी अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से निलम्बित कर दिया जाता है, वहाँ ऐसा अधिवक्ता किसी न्यायालय में या प्राधिकरण में या किसी व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है।

यहाँ यह महत्वपूर्ण बिन्दु है कि, माननीय न्यायालय ने मघराज कल्ला बनाम कजोड़ीमल के मामले में कहा है कि, जब किसी अधिवक्ता पर कर्त्तव्य निर्वहन में लापरवाही बरतने की विधिज्ञ परिषद् को शिकायत की जाती है और उस शिकायत पर गुणागुण पर विधिज्ञ परिषद् द्वारा आदेश पारित कर दिया जाता है तब ऐसा आदेश पश्चातवर्ती सिविल वाद पर प्राङ्ग्याय का प्रभाव रखेगा। (ए.आई.आर. 1994 राजस्थान 11)

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