नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में विधि व्यवसाय क्या है, इसकी परिभाषा, विशेषताए एंव भारत मै विधि व्यवसाय का विकास कैसे हुआ तथा यह व्यवसाय करने के अधिकारी कोन है? आदि को आसान शब्दों में बताने का प्रयास किया गया है|
विधि व्यवसाय क्या है (Legal profession)
विधि व्यवसाय एक कठिन विषय है। इसकी भाषा एवं उपबन्ध अत्यन्त क्लिष्ट माने जाते हैं। विधि का अध्ययन कर पाना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। योग्य, अनुभवी एवं प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति ही इसे आसानी से समझ सकते हैं। यही कारण है कि विधि का अपना एक अलग ही अध्याय है जो व्यक्ति इसका अध्ययन करता है, वह व्यक्ति अधिवक्ता (Advocate) कहलाता है।
विधि व्यवसाय की परिभाषा –
अधिवक्ता द्वारा न्यायालय के समक्ष अपने पक्षकार के पक्ष को प्रस्तुत करना तथा उसकी ओर से पैरवी करना विधि व्यवसाय कहलाता है क्योंकि अधिवक्ता का यह एक तरह से व्यवसाय होता है और इसके लिए वह अपने पक्षकार से शुल्क प्राप्त करता है। विधि व्यवसायी को अधिवक्ता, एडवोकेट, वकील, प्लीडर आदि के नामों से जाना जाता है।
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विधि व्यवसाय से अभिप्राय मात्र राय हेतु प्रायिक तौर पर न्यायालय परिसर का भ्रमण करने से नहीं है अपितु न्यायालयों में नियमित रूप से पैरवी करने से है।
बार कौंसिल ऑफ इण्डिया बनाम ए.के. बालाजी के अनुसार न्यायालयों में नियमित रूप से पैरवी अथवा प्रेक्टिस करना ही अधिवक्ता का कार्य है| (ए.आई.आर. 2018 एस.सी. 1382)
भारत में विधिक व्यवसाय की जड़ें अतीत की गहराइयों में छिपी हैं। सामान्यतः भारत में इसका श्रीगणेश ब्रिटिश काल में माना जाता है। इससे पूर्व विधिक व्यवसाय जैसी कोई बात भारत में नहीं थी। हिन्दू काल में इसका अस्तित्व नहीं था, क्योंकि राजा ही न्यायाधीश हुआ करता था। वहाँ किसी प्रकार की विधिक औपचारिकतायें नहीं हुआ करती थीं।
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विधि व्यवसाय की विशेषताएँ
(i) यह एक स्वतन्त्र एवं पवित्र व्यवसाय है।
(ii) इसका विस्तार एवं कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक है।
(iii) जो व्यक्ति यह व्यवसाय करता है वह अधिवक्ता कहलाता है।
(iv) इस व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य है-सेवा भावना।
(v) इस व्यवसाय को करने वाले व्यक्तियों के समूह को बार (Bar) कहा जाता है।
(vi) बार एवं बेंच के बीच मधुर सम्बन्धों की परिकल्पना की जाती है।
(vii) इसमें दलाली, अथवा भ्रष्टाचार के लिए कोई स्थान नहीं है।
(viii) विधि व्यवसायी न्यायालय के अधिकारी माने जाते हैं।
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विधि व्यवसाय का विकास
भारत मै विधि व्यवसाय का विकास निम्नाकित कारणों को माना जा सकता है –
(1) मेयर कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट
भारत में विधि व्यवसाय का आरम्भ सन् 1926 के चार्टर द्वारा प्रथम बार मेयर न्यायालयों की स्थापना के साथ माना जा सकता है। इन न्यायालयों में न्याय प्रशासन का संचालन एक सुनिश्चित प्रक्रिया के अन्तर्गत किया जाता था। इन न्यायालयों का गठन एवं प्रक्रिया इंग्लैण्ड के न्यायालयों के समान थी। सन् 1773 के रेगूलेटिंग एक्ट तथा सन् 1774 के चार्टर द्वारा विधि व्यवसाय को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया गया। इन्हीं के अन्तर्गत भारत में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई थी।
(2) कम्पनी न्यायालयों में विधि व्यवसाय –
मेयर कोर्ट की स्थापना के साथ विधि व्यवसाय का सूत्रपात हो गया था लेकिन नियमित एवं व्यवस्थित स्वरूप मै नहीं होने के कारण सन् 1793 में एक रेगूलेशन पारित किया गया जिसमें बंगाल में सदर दीवानी अदालत के लिए वकीलों को प्रथम बार सूचीबद्ध किया गया। कालान्तर में सन् 1814 के बंगाल रेगूलेशन में विधिक व्यवसाय के सम्बन्ध में कतिपय उपबन्ध किये गये जिन्हें सन् 1833 के रेगूलेशन द्वारा परिष्कृत किया गया।
(3) भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम, 1861 के अधीन –
सन 1861 में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम (Indian High Courts Act) पारित किया गया और इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रत्येक प्रेसीडेन्सी नगर में एक उच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इस अधिनियम द्वारा सुप्रीम कोर्ट एवं सदर अदालतों को समाप्त कर दिया गया।
इस अधिनियम तथा अन्य चार्टरों द्वारा उच्च न्यायालयों को वकील, एटार्नी, एडवोकेट आदि को सूचीबद्ध करने तथा अनुमोदित करने की शक्तियाँ प्रदान की गईं। इन न्यायालयों में सूचीबद्ध व्यक्तियों को ही वकालत करने का अधिकार था।
(4) लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट के अधीन –
विधि व्यवसाय को बढ़ाने के लिए समय-समय पर लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट पारित किये गये, यथा – लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट, 1846, लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट, 1853, लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट 1879 आदि। सन् 1846 के एक्ट के अनुसार केवल सूचीबद्ध वकील ही न्यायालयों में प्रेक्टिस कर सकते थे।
सन् 1853 के एक्ट द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एटार्नी तथा बैरिस्टर को कम्पनी की सदर न्यायालयों में पैरवी करने की इजाजत प्रदान की गई, लेकिन भारतीय वकील सुप्रीम कोर्ट में पैरवी नहीं कर सकते थे। इस एक्ट द्वारा विधि व्यवसायियों को दो वर्गों मै रखा गया था –
(i) एडवोकेट – एडवोकेट आयरलैण्ड या इंग्लैण्ड का बैरिस्टर या स्कॉटलैण्ड के प्लीडर संकाय का सदस्य होता था|
(ii) वकील – वकील भारतीय विश्वविद्यालयों के विधि स्नातक हुआ करते थे।
(5) इण्डियन बार कौंसिल एक्ट, 1926 के अधीन –
सन् 1923 में सर एडवर्ड चामियार की अध्यक्षता में एक इण्डियन बार कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी को निम्नांकित के बारे में सुझाव देने का काम सौंपा गया –
(i) बार का गठन
(ii) हाईकोर्ट के लिए अखिल भारतीय स्तर पर बार कौंसिल की स्थापना।
इस कमेटी द्वारा अनेक सुझाव दिये गये| कमेटी के सुझावों को लागू करने के लिए सन् 1926 में इण्डियन बार कौंसिल एक्ट पारित किया गया। मुफस्सिल कोर्ट में कार्य करने वाले वकील एवं मुख्तार इस एक्ट की परिधि में नहीं आते थे।
(6) स्वतन्त्र भारत में विधि व्यवसाय –
विधि व्यवसाय को संगठित एवं व्यवस्थित स्वरूप स्वतन्त्र भारत में मिला। सन् 1951 में न्यायमूर्ति एस.आर. दास की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय विधिक कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी द्वारा निम्न सुझाव दिये गये –
(i) भारतीय विधिज्ञ परिषद् (Bar Council of India);
(ii) राज्य विधिज्ञ परिषद् (State Bar Council)
कमेटी ने इन परिषदों को और अधिक शक्तियाँ प्रदान करने की सिफारिश की। इसी अनुक्रम में सन् 1961 में अधिवक्ता अधिनियम (Advocate Act, 1961) पारित किया गया जिसमें अधिवक्ताओं की आचार संहिता, पंजीयन, भारतीय विधिज्ञ परिषद्, राज्य विधिज्ञ परिषद् के बारे में विस्तृत व्यवस्था की गई है।
विधि व्यवसाय करने का अधिकार किसको है?
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 29 में यह प्रावधान किया गया है कि “विधि व्यवसाय करने के लिए हकदार व्यक्तियों का एक ही वर्ग होगा अर्थात् अधिवक्ता।” इससे स्पष्ट है कि विधि व्यवसाय करने का हक केवल अधिवक्ताओं (Advocates) को ही है, अन्य किसी को नहीं। अधिवक्ताओं का विधि व्यवसाय करने का अधिकार केवल मात्र एक सांविधिक अधिकार है, मूल अधिकार नहीं।
विधि व्यवसाय के लिए दो बातें आवश्यक हैं –
(i) विधि स्नातक होना,
(ii) अधिवक्ताओं की नामावली में नाम दर्ज होना।
अधिनियम की धारा 30 में यह उपबन्ध किया गया है कि इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों के अधीन रहते हुए ऐसा व्यक्ति जिसका नाम अधिवक्ता नामावली में दर्ज है –
(i) उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालयों में,
(ii) किसी न्यायाधिकरण (Tribunal) अथवा साक्ष्य लेने हेतु विधिक रूप से – प्राधिकृत व्यक्ति के समक्ष,
(iii) ऐसे किसी व्यक्ति अथवा प्राधिकारी के समक्ष, जहाँ कोई अधिवक्ता तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन विधि व्यवसाय करने के लिए अधिकृत हो, मै विधि व्यवसाय करने का हकदार है।
उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार होता है की वह अपने समक्ष वकालत करने तथा कार्य करने बाबत नियम बना सकता है तथा वह वकालत करने की शर्ते भी तय कर सकता है (‘बलराज सिंह मलिक बनाम सुप्रीम कोर्ट ऑफ इण्डिया’ ए.आई.आर. 2012 दिल्ली 79)|
अधिनियम की धारा 33 में प्रावधान किया गया है कि “ऐसा कोई भी व्यक्ति किसी न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं होगा, जिसका नाम इस अधिनियम के अन्तर्गत अधिवक्ता नामावली में प्रविष्ट न किया गया हो”।
अधिनियम की धारा 45 में प्रावधान किया गया है कि “कोई भी ऐसा व्यक्ति जो इस अधिनियम के अन्तर्गत विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं है, किसी न्यायालय अथवा प्राधिकारी के समक्ष विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा विधि व्यवसाय करता है तो उसका यह कृत्य अवैधानिक माना जाएगा और उसे छः माह तक की अवधि के कारावास से दण्डित किया जा सकेगा”।
केस – नीलगिरी बार एसोसिएशन बनाम टी. के महालिंगम (1998 क्रि. लॉ रि. 247 एस.सी.)
यह मामला विधि व्यवसाय से सम्बंधित था, इसमें प्रत्यर्थी के पास न तो विधि स्नातक की उपाधि थी और न ही उसका नाम अधिवक्ता की नामावली में अंकित था, फिर भी वह लगातार 8 वर्षों तक न्यायालयों में वकालत करता रहा। जब उसे अभियोजित किया गया तो उसने अपने अपराध को स्वीकार कर लिया।
विचारण न्यायालय ने उसे दोषसिद्ध ठहराते हुए परिवीक्षा (Probation) का लाभ दिया। उच्च न्यायालय द्वारा भी परिवीक्षा के आदेश को यथावत् रखा गया। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्थी को 6 माह के कठोर कारावास एवं 5000/- रुपए के जुर्माने से दण्डित किया। जुर्माना जमा नहीं कराए जाने पर तीन माह के अतिरिक्त कारावास का आदेश दिया गया।
माननीय न्यायालय ने कहा – “विधि व्यवसाय एक पवित्र एवं आदर्श व्यवसाय है। अधिवक्ताओं का समाज में विशिष्ट स्थान भी है। जनसाधारण में अधिवक्ताओं को आदर की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति इस व्यवसाय की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने वाला कोई कार्य करता है तो ऐसा व्यक्ति किसी भी प्रकार की सहानुभूति का पात्र नहीं रह जाता है। ऐसे व्यक्तियों के लिए कठोर दण्ड ही उचित दण्ड है।”
ऐसे व्यक्ति अधिवक्ता की नामावली में बतौर अधिवक्ता नाम दर्ज करवा सकते है जो विधि स्नातक है तथा किसी विश्वविद्यालय में विधि अधिकारी के रूप में कार्यरत है (‘लक्ष्मीनारायण बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया’ ए.आई.आर. 1999 राजस्थान 325)|
इसी प्रकार का प्रकरण परमानन्द शर्मा बनाम बार कौंसिल ऑफ राजस्थान (ए.आई.आर. 1999 राजस्थान 171) का है जिसमें ऐसे व्यक्ति को विधिज्ञ परिषद् की नामावली में वृत्तिक सदाचार, बार-बेंच सम्बन्ध एवं मूट कोर्ट प्रविष्ट कराने का हकदार माना गया है जो केन्द्रीय या राज्य सरकार के अधीन विधि अधिकारी के रूप में कार्यरत रहा हो।
इस प्रकार स्पष्ट है की विधि व्यवसाय करने के लिए उसका विधि स्नातक होने के साथ साथ उसका अधिवक्ताओं की नामावली में नाम बतौर अधिवक्ता दर्ज होना चाहिए। इसके अलावा ऐसा व्यक्ति जो किसी अन्य व्यवसाय, व्यापार या कारोबार में लिप्त या संलग्न है वह विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है।
केस – डॉ. हनीराज एल चुलानी बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर, 1996 एस.सी. 2076)
इस मामले में अपीलार्थी एक चिकित्सक था और वह अपना नाम अधिवक्ताओं की नामावली में प्रविष्ट कराना चाहता था। इस मामले मै उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – “विधि व्यवसाय एक पूर्णकालिक व्यवसाय है। अधिवक्ताओं को अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित होकर कार्य करना होता है। उन्हें अपने पक्षकारों को पूरा समय भी देना होता है।
अतः यह आवश्यक है कि कोई अधिवक्ता विधि व्यवसाय के अलावा अन्य कोई व्यवसाय करता है तो वह अपने पक्षकारों के साथ न्याय नहीं कर पाएगा।”
ऐसा ही एक अन्य प्रकरण है जिसमे पक्षकार जो एस.टी.डी. बूथ चला रहा है, को तब तक विधि व्यवसाय करने का हकदार नहीं माना गया जब तक वह एस.टी.डी. बूथ को छोड़ नहीं देता (डॉ. सांई बाबा बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 2502)।
वकालतनामे – न्यायालय में पैरवी करने के लिए वकालतनामे को आवश्यक माना गया है। वकालतनामे के अभाव में अधिवक्ता केवल न्यायालय की अनुमति से ही पैरवी कर सकता है (को-ऑपरेटिव एग्रीकल्चरल बैंक लि. बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक, ए.आई.आर. 2003 कर्नाटक 30)
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि विधि व्यवसाय करने का अधिकार केवल अधिवक्ता वर्ग को ही है, अन्य किसी वर्ग को नहीं। इसके लिए अधिवक्ता ऐसा हो –
(i) जिसके पास विधि स्नातक की उपाधि हो|
(ii) जिसका नाम अधिवक्ता की नामावली में दर्ज हो।
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