विधि का शासन : परिभाषा, डायसी के अनुसार एंव भारत के संविधान में विधि शासन

इस लेख में प्रशासनिक विधि के तहत विधि के शासन से आप क्या समझते है, डायसी का विधि का शासन, विधि का शासन की अवधारणा की व्याख्या एंव भारतीय संविधान में विधि का शासन किस तरह शामिल हुआ है? का उल्लेख किया गया है, यदि आप वकील, विधि के छात्र या न्यायिक प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है, तो ऐसे में आपको प्रशासनिक विधि के बारे में जानना जरुरी है –

विधि का शासन क्या है?

विधि का शासन (Rule of Law) लोकतंत्र की आधारशिला है। विधि के शासन में सरकार व्यक्तियों के सिद्धान्तों पर नहीं, बल्कि विधि के सिद्धान्तों पर आधारित होती है। यह सिद्धान्त सरकार की मनमानी एवं स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाता है तथा शासन को विधि के अनुरूप चलने की प्रेरणा देता है।

विधि का शासन की परिभाषा

विधि के शासन की विभिन्न विधिवेत्ताओं एवं राजनीति शास्त्रियों द्वारा अनेक परिभाषाएँ दी गई है –

सर आइवर जेनिंग्स के अनुसार  विधि का शासन एक ऐसे प्रजातन्त्र के समान है जैसा कि वह उदार विचारधाराओं द्वारा समझा जाता है। विधि के शासन की पहली माँग यह है कि कार्यकारिणी की शक्तियां न केवल विधि से निकली हो, अपितु वे विधि द्वारा सन्निहित यंत्रित भी हो।

प्रो. वेड के अनुसार  विधि के शासन की मुख्य अवधारणा प्रशासन में मनमानेपन (स्वेच्छाचारिता) के अभाव से है अर्थात् सरकार मनमाने तौर पर कार्य न करें।

प्रो. गुडहर्ट के अनुसार विधि के शासन का सार यह है कि लोक प्राधिकारी विधि से प्रशासित हो। सरकार विधि के अधीन है। विधि की सर्वोच्चता विधि को सरकार के ऊपर रखती है न कि सरकार को विधि के ऊपर।

प्रो. डायसी के अनुसार विधि का शासन

विधि के शासन के सम्बन्ध में डायसी (Dicey) के विचार बहुत ही महत्त्वपूर्ण माने जाते है। डायसी के अनुसार, विधि का शासन आंग्ल संवैधानिक पद्धति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है।

प्रो. डायसी ने विधि के शासन के तीन अर्थ बताये है

(1) विधि की सर्वोच्चता,

(2) विधि के समक्ष समानता, एवं

(3) विधिक भावना की प्रबलता।

(i) विधि की सर्वोच्चता –

विधि की सर्वोच्चता से तात्पर्य विधि का सर्वोच्च होना ही है। सरकार द्वारा विधि के अनुसार कार्य किया जाना, ना कि मनमाने तौर पर, सरकार में मनमानी का अभाव ही विधि का शासन है। किसी भी व्यक्ति को विधियों का उल्लंघन करने पर ही दण्डित किया जाना चाहिये तथा न्यायालयों के समक्ष अपराधों का विचारण विधिक प्रक्रिया के अनुसार किया जाना चाहिये।

(ii) विधि के समक्ष समता –

विधि के समक्ष समता से तात्पर्य विधियों के समक्ष सभी व्यक्तियों का समान होना एवं सभी को विधियों का समान संरक्षण प्राप्त होना है। कोई भी व्यक्ति न तो विधि से ऊपर हो सकता है और ना ही विधि से अलग (परे), सभी वर्गों के व्यक्ति देश की सामान्य विधि से शासित होंगे तथा सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता (क्षेत्राधिकार) में आ जायेंगे।

(iii) विधिक भावना की प्रबलता –

विधियाँ मानव अधिकारों के परिणामस्वरूप है, न कि स्रोत के रूप में। विधि प्रशासन का प्रयोग इस तथ्य को प्रकट करने के लिए किया जाता है कि हम लोगों के लिए विधियाँ न्यायालयों द्वारा परिभाषित एवं मान्य मानव अधिकारों के स्रोत रूप नहीं है अपितु परिणामस्वरूप है।

डायसी का यह मत है कि इंग्लैण्ड के नागरिकों को जो अधिकार एवं स्वतन्त्रता प्राप्त है वे किसी संवैधानिक विधि या सामान्य विधि के परिणामस्वरूप नहीं होकर उससे परे एवं आत्मनिर्भर है। डायसी ने विधि के शासन तथा फ्रांस के ‘ड्रायट एडमिनिस्ट्रेटिफ (Droit Administratiff) में विभेद किया है।

डायसी के अनुसार  फ्रान्स में ड्रायट एडमिनिस्ट्रेटिफ के अधीन नागरिकों एवं सरकार के बीच विवादों का निपटारा करने के लिए प्रशासनिक न्यायाधिकरण होते है, जबकि इंग्लैण्ड में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वहाँ सरकार एवं नागरिकों के बीच विवादों का निपटारा सामान्य न्यायालयों द्वारा किया जाता है।

डायसी के विधि शासन की विभिन्न विधिवेत्ताओं द्वारा आलोचना (Criticism) की गई है जिनमे आलोचकों का कहना है कि डायसी की विधि के शासन की अवधारणा प्रशासनिक विधि के अस्तित्व को ही नकार देती है। आधुनिक राज्य व्यवस्था में सरकार की मनमानी पर पूर्ण रूप से रोक लगा दिया जाना सम्भव नहीं है।

केस श्रीमती इन्दिरा नेहरू गाँधी बनाम राजनारायण (ए.आई.आर. 1975. एस.सी. 2299)

इस प्रकरण ले में न्यायमूर्ति मैथ्यू द्वारा यह कहा गया है कि डायसी की विधि के शासन से सम्बन्धित व्याख्या को आगामी संस्करणों में स्थान नहीं दिया गया है क्योंकि उसमें –

(क) सामान्य विधि की सर्वोच्चता,

(ख) सरकार के मनमानेपन का विरोध,

(ग) विशेषाधिकार का अपवर्जन, तथा

(घ) सरकार के विस्तृत विवेकाधिकार का अभाव, समाहित है।

आज विश्व में ऐसी कोई शासन पद्धति नहीं है जिसको विवेकाधिकार प्राप्त न हो। हमेशा ही यह सम्भव नहीं है कि सरकार विधि से ही संरचित हो, व्यक्तियों से नहीं। जबकि वास्तविकता तो यह है कि समस्त सरकारें विधि एवं व्यक्तियों से ही संरचित होती है।

केस दिल्ली एयरटेक सर्विसेज प्रा.लि. बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 573)

इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – विधि के शासन में विधि न्यायोचित, ऋजु एवं युक्तियुक्त होनी चाहिए।

विधि का शासन प्रशासनिक विधि का मित्र एवं शत्रु कैसे है

विधि के शासन के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि –

(1) यह प्रशासनिक विधि का मित्र भी है और शत्रु भी (Rule of law is both a friend and foe of the Administrative Law); तथा

(2) इसने प्रशासनिक विधि के विकास को बाधित किया है (It has blocked the growth of Administrative Law) I

इन धारणाओं का मुख्य कारण डायसी के विधि के शासन की प्रतिपादना रही है। डायसी ने प्रशासनिक विधि को इंग्लैण्ड के लिए एक शत्रु (Alien) के रूप में निरूपित किया है। डायसी का यह मत था कि इंग्लैण्ड में सभी व्यक्तियों के लिए विधि की समता एवं विधियों के समान संरक्षण की भावना रही है।

यहाँ विधि के समक्ष सभी व्यक्तियों को समान समझा जाता रहा है। न्यायिक प्रक्रिया एवं न्याय प्रणाली भी सभी के लिए समान है। ऐसी स्थिति में इंग्लैण्ड में फ्रांस जैसी प्रशासनिक विधि का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है।

लेकिन डायसी का यह मत एकदम सत्य नहीं माना जा सकता है। वर्तमान राज्य को लोक कल्याण के अनेक कार्य करने होते हैं। इसके लिए ऐसी अनेक योजनाएँ भी बनानी पड़ती है जिनसे व्यक्तिगत स्वतन्त्रताएँ अवरुद्ध हो सकती है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि इससे विधि शासन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

वस्तुतः विधि के शासन की यह अपेक्षा है कि प्रशासन विधिनुसार कार्य करें। वह मनमानी एवं स्वेच्छाचारिता से बचें। प्रशासनिक विधि भी यही चाहती है।

प्रशासनिक विधि, विधि शासन की भाँति प्रशासन की निरंकुशवादिता को असम्भव बनाने का यन्त्र प्रदान करती है। प्रशासनिक विधि का यह उद्देश्य है कि प्रशासनिक अधिकारों का समुचित रूप से प्रयोग किया जाये। ऐसी स्थिति में विधि का शासन एवं प्रशासनिक विधि एक-दूसरे के प्रतिकूल नहीं होकर अनुरूप है। (H.V. Jones : Rule of Law and Welfare State).

भारत के संविधान में विधि का शासन

भारत के संविधान में भी विधि के शासन को पूर्णरूपेण अंगीकृत किया गया है। हमारा संविधान विधि के शासन के धरातल पर खड़ा है। संविधान में ऐसे अनेक उपबन्ध है जो विधि के शासन को परिलक्षित करते हैं, जैसे –

(1) संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय का अवगाहन किया गया है,

(2) प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान की गई है

(3) व्यक्ति की गरिमा को महत्त्व दिया गया है,

(4) संविधान देश की सर्वोच्च विधि है,

(5) विधि के समक्ष सभी व्यक्ति समान है तथा सभी को विधियों का समान संरक्षण प्राप्त है,

(6) मूल अधिकारों का अतिक्रमण किये जाने पर अनुच्छेद 32 एवं 226 के अन्तर्गत क्रमशः उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में दस्तक दी जा सकती है,

(7) प्रशासनिक नीतियों एवं निर्णयों के विरुद्ध न्यायिक पुनर्विलोकन (Judicial Review) की व्यवस्था है

(8) मूल अधिकारों एवं मानवाधिकारों को पर्याप्त स्थान दिया गया है,

(9) राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में अनेक कल्याणकारी योजनायें प्रतिपादित की गई है,

(10) अनुच्छेद 39 क में निर्धन व्यक्तियों के लिए निःशुल्क विधिक सहायता का प्रावधान किया गया है।

ऐसे और भी अनेक उपबन्ध है जो संविधान में विधि शासन के सन्निहित होने का संकेत देते हैं।

विधि का शासन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रकरण

केस डी.सी. वाधवा बनाम स्टेट ऑफ बिहार (ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 579)

इस प्रकरण ले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, विधि शासन हमारे संविधान का अन्तरंग भाग है जिसका सार यह है कि राज्य के अधिकारियों द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग विधिनुसार किया जाना चाहिये। राज्य के स्वेच्छाचारी कृत्यों को रिट के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है।

केस श्रीमती इन्दिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण (ए.आई.आर. 1975 एस.सी. 2299)

इस प्रकरण ले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यही अभिनिर्धारित किया गया है कि, विधि शासन भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक भाग है। विधि शासन विधि की सार्वभौमिकता की प्रतिपादना करता है तथा सरकारी क्षेत्र में अधिकारियों की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाता है। संविधान के उपबन्ध विधि शासन की प्रयोज्यता के लिए ही निर्मित किये गये है।

केस स्टेट ऑफ बिहार बनाम सोनावती (ए.आई. आर. 1961 एस.सी. 221)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, राज्य के प्रत्येक प्राधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह विधि के अनुसार कार्य करें तथा अपने आपको विधि के प्रति कटिबद्ध समझे। न्यायालय द्वारा प्रशासनिक कार्यों का पुनर्विलोकन किया जा सकता है।

केस ए. के. कैपक बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया [(1970) 1 एस.सी.आर. 457]

ऐसे ही विचार इस मामले में अभिव्यक्त किये गये है। इसमें यह कहा गया है कि, हमारे संविधान में विधि शासन प्रशासन के सम्पूर्ण विस्तार को आच्छादित करता है। राज्य का प्रत्येक अंग विधि शासन से विनियमित एवं नियन्त्रित होता है।

केस सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 268)

इस मामले में यह कहा गया है कि, विधि शासन में कुछ विवेकाधिकार को स्थान दिया जाना अपेक्षित है। ऐसे विवेकाधिकार को समुचित मानकों, मूल्यों एवं निर्देशनों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है और उसे स्वेच्छाचारिता से बचाया जा सकता है।

केस डिविजनल फोरेस्ट ऑफिसर बनाम भीम दत्त पाण्डे (ए.आई. आर. 2016 एन.ओ.सी. 230 उत्तराखण्ड)

इस प्रकरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उच्च अधिकारियों के आदेशों की पालना करना अधीनस्थ अधिकारियों का कर्तव्य है। ऐसे आदेशों की अवहेलना करना अवज्ञा एवं कदाचार है।

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संदर्भ – बुक प्रशासनिक विधि (डॉ. गंगा सहाय शर्मा)

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