नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में विधिशास्त्र क्या है? इसका अर्थ, परिभाषा, प्रकृति तथा विधिशास्त्र का अन्य सामाजिक विज्ञान से किस तरह सम्बन्ध है | Definition Of Jurisprudence In Hindi | समाज में इसकी क्या भूमिका है आदि के बारें में बताया गया है| यह आलेख लॉ स्टूडेंट्स के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। 

परिचय – विधिशास्त्र क्या है

जीवन के प्रारंभ से ही मनुष्य समाज का एक अभिन्न अंग रहा है। समाज के अन्दर रहकर ही मनुष्य एक दूसरे के प्रति सौहार्द, भाईचारा, सव्यवहार व अपने दायित्वों का निर्वहन करता है| क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा समूह में रहना उसकी नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है।

मनुष्य का जीवन इन्हीं सामाजिक आधारों पर आधारित होता है और समाज में मानव के आचरण और व्यवहार को व्यस्थित रखने के लिए मनुष्य के व्यवहार पर उचित नियन्त्रण रखना भी आवश्यक होता है ताकि मनुष्य के आपसी हितों की रक्षा के साथ साथ समाज मै शांति बनी रहे। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए विधिशास्त्र की उत्पत्ति की गई।

विधिशास्त्र एक ऐसा माध्यम है जिसकी सहायता से राज्य नागरिकों के आचरण, व्यवहार-संव्यवहार तथा उनके क्रियाकलापों पर समुचित नियंत्रण रखते हुए समाज में शान्ति व्यवस्था की स्थापना करने के साथ साथ नागरिकों को न्याय प्रदान करता है।

आधुनिक समय में विधि के नियमों का निर्माण राज्य सरकार और केंद्र सरकारों द्वारा किया जाता है और इन विधिक नियमों के माध्यम से राज्य सरकार अपने नागरिकों को उनके अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान कराती हैं और समाज मै मनुष्य के अनुचित कार्य अथवा व्यवहार के लिए उसे दंडित करती है। इसलिए मानव जीवन में विधिशास्त्र का महत्वपूर्ण योगदान है।

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विधिशास्त्र का अर्थ

विधिशास्त्र (Jurisprudence) शब्द की उत्पत्ति लैटिन के दो शब्द ‘ज्यूरिस’ (Juris) एवं ‘प्रूडेंशिया’ (Prudensia) से मिलकर हुई है जिनमें शब्द ‘ज्यूरिस’ (Juris) का अर्थ है ‘विधि’ व शब्द ‘प्रूडेंशिया’ (Prudensia) का अर्थ ‘ज्ञान’।

‘विधिशास्त्र’ शब्द Jurisprudence का हिन्दी रूपान्तरण है, इस प्रकार विधिशास्त्र का अर्थ – विधि का ज्ञान है। यहाँ पर ‘विज्ञान’ से आशय किसी विषय के क्रमबद्ध अध्ययन से है। जेर्मी बेन्थम को आधुनिक विधिशास्त्र का पितामह कहा जाता है। इन्होंने ही सर्वप्रथम विधि को विज्ञान की संज्ञा दी। कुछ विद्वानों ने विधि-शास्त्र को ‘विधानों का विधान’ कहा है

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विधिशास्त्र की परिभाषा

विधि-शास्त्र के सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा अनेक परिभाषायें दी गई है, जिनमे से कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाए निम्नलिखित है –

विख्यात विधिशास्त्री सॉमण्ड के अनुसार – “विधि-शास्त्र नागरिक विधि के प्रथम सिद्धान्तों का विज्ञान है। संक्षेप में इसे ‘विधि का विज्ञान’ (science of law) भी कह सकते हैं।

सॉमण्ड की इस परिभाषा मै तीन आवश्यक तत्त्व हैं – विधि का विज्ञान, प्रथम सिद्धान्त और नागरिक विधि। इसके अनुसार विधि-शास्त्र से अभिप्राय नागरिक विधि के विज्ञान से है, जिसके अन्तर्गत समस्त विधिक सिद्धान्तों का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है।

सिविल विधि अर्थात नागरिक विधि से तात्पर्य उस विधि विशेष से है जो शासन द्वारा अपने निवासियों के प्रति लागू की जाती है और जिसे मानने के लिए उस देश के नागरिक, अधिवक्ता और न्यायालय बाध्य होते हैं।

इस प्रकार सॉमण्ड के अनुसार, विधि-शास्त्र ऐसी विधियों का विज्ञान है, जिन्हें न्यायालयों द्वारा लागू किया जाता है। सामंड ने सिविल विधि के विज्ञान के रूप में –

(i) विधिक प्रतिपादन (Legal exposition),

(ii) विधिक इतिहास (Legal history) व

(iii) विधायन विज्ञान (Science of legislation), विधिशास्त्र के तीन रूप बताये हैं|

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कीटन के अनुसार – विधि के सामान्य सिद्धान्तों का अध्ययन एवं उनकी क्रमबद्ध व्यवस्था विधिशास्त्र का विज्ञान है।” इस प्रकार कीटन विधि-शास्त्र को विधि के सामान्य सिद्धान्तों का ज्ञान मानते हैं। उनके मत में विधिशास्त्र विधि के सामान्य सिद्धान्तों के विस्तृत अध्ययन तथा क्रमबद्ध व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करता है।

पैटन के अनुसार विधि-शास्त्र विधि से सम्बन्धित एक अध्ययन है” अर्थात् “विधिशास्त्र विधि अथवा विधि के विभिन्न प्रकारों का अध्ययन है।

आंग्ल विधिशास्त्री जॉन ऑस्टिन (John Austin) के अनुसार, “विधि-शास्त्र विध्यात्मक विधि का दर्शन है।” आसान शब्दों में इसे “वास्तविक विधि का दर्शन” भी कह सकते हैं।

ऑस्टिन के अनुसार विधिशास्त्र का वास्तविक अर्थ है विधिक संकल्पनाओं का प्रारूपिक विश्लेशण करना है| इसका तात्पर्य कई विधि व्यवस्थाओं में पाये जाने वाले सिद्धान्तों, मनोभावों तथा विभेदों से है तथा ‘दर्शन’ शब्द से अभिप्राय विधि के सामान्य सिद्धान्तों से है।

परन्तु बकलैंड ने ऑस्टिन की इस परिभाषा को अत्यन्त संकीर्ण मानते हुए कहा है कि वर्तमान समय में विधि-शास्त्र की परिभाषा अधिक विस्तृत होनी चाहिए।

ऑस्टिन की परिभाषा से निम्न तथ्य स्पष्ट होते हैं

(i) विभिन्न विध्यात्मक प्रणालियों से एकत्रित या निस्सारित किये गये सिद्धान्त सामान्य विधि-शास्त्र की विषय-वस्तु है।

(ii) विधिशास्त्र का विधि के गुण-दोषों से कोई तात्कालिक सरोकार या सम्बन्ध नहीं है।

(iii) विशिष्ट विधि-शास्त्र किसी निश्चित विधिक प्रणाली अथवा उसके किसी अनुभाग का विज्ञान है और इस दृष्टि से केवल विधिशास्त्र ही व्यावहारिक है

(iv) प्रौढ एवं विकसित विधिक प्रणालियों का अध्ययन सामान्य विधि-शास्त्र के विज्ञान की विषय सामग्री है।

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हॉलैण्ड ने ऑस्टिन द्वारा प्रयुक्त शब्द दर्शन के स्थान पर औपचारिक विज्ञान का उपयोग करते हुए कहा की – “विधिशास्त्र विध्यात्मक विधि का औपचारिक विज्ञान है।” इस परिभाषा से विधि-शास्त्र के, विध्यात्मक विधि (positive law), विज्ञान (science) तथा औपचारिक (formal) तीन तत्त्व स्पष्ट होते हैं।

इसके अनुसार हॉलैण्ड ने विधि-शास्त्र को विधि के प्रचलित नियमों, विचारों तथा सुधारों से सम्बन्धित शास्त्र माना है। यहाँ विध्यात्मक (वास्तविक) विधि का अर्थ सामयिक सम्बन्धों को विनियमित करने वाली ऐसी विधियों से है जिनका राज्यों द्वारा निर्माण होता है तथा न्यायालयों द्वारा उन्हें लागू किया जाता है।

इस संदर्भ में यह सॉमण्ड की परिभाषा में प्रयुक्त शब्द ‘सिविल अर्थात् नागरिक विधि’ से मेल करती है। इसको ‘औपचारिक विज्ञान’ इसलिये कहा है की इसमें उन सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है जो विधिपूर्ण नियमों द्वारा क्रमबद्ध रूप से संचालित किये जाते हैं। इस प्रकार यह विज्ञान भौतिक विज्ञान से भिन्न है।

रॉस्को पाउण्ड (Roscoe Pound) ने विधि-शास्त्र की समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से परिभाषा दी है। पाउण्ड के अनुसार-“विधिशास्त्र विधि का विज्ञान है।” यहाँ विधि के विज्ञान से तात्पर्य विधिक संस्थाओं एवं विधिक कल्पनाओं और विधिक व्यवस्था दोनों के सुव्यवस्थित और नियंत्रित ज्ञान के समूह से है।

विधि-शास्त्र ऐसे सिद्धान्तों का संग्रहण है जो न्याय की स्थापना के लिये निर्मित किये जाते हैं और उन्हें न्यायालयों द्वारा मान्य और लागू किया जाता है।

इस परिभाषा के अनुसार, विधि-शास्त्र के अन्तर्गत विधि के कार्य एवं साधन, दोनों अध्ययन अपेक्षित हैं। इसका उद्देश्य सामाजिक अभियंत्रण (Social engineering) कायम करना है| रास्को पाउण्ड ने विधिशास्त्र के सामाजिक पहलू पर विशेष जोर दिया है। मानव-समाज में न्याय का अपना अलग ही स्थान है।

न्यायविहीन समाज में मनुष्य का जीवन निर्वाह करना कठिन हो जायेगा, इसलिये रास्को पाउण्ड ने विधि-शास्त्र को महत्वपूर्ण मानते हुए इसे न्याय की स्थापना करने वाले सिद्धान्तों का विज्ञान माना है।

स्टोन के अनुसार “विधि-शास्त्र विधिवेत्ता की बाह्यदर्शिता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि – “विधिशास्त्र वकीलों की बहिर्मुखी अभिव्यक्ति है।” इससे अभिप्राय यह है कि, वर्तमान ज्ञान के अन्य स्रोतों के आधार पर अधिवक्तागण विधि की अवधाराणाओं, आदर्शों एवं पद्धतियों का जो परीक्षण करते हैं वही विधि-शास्त्र की विषय-वस्तु है।

प्रो. स्टोन ने विधिशास्त्र की विषय-वस्तु को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया है –

(i) विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र (Analytical Jurisprudence),

(ii) क्रियात्मक विधिशास्त्र (Functional Jurisprudence) तथा

(iii) न्याय के सिद्धान्त (Principles of Justice)।

ग्रे (Gray) के अनुसार विधि-शास्त्र न्यायालय द्वारा अनुसरण किये जाने वाले नियमों के अभिकथन एवं क्रमबद्ध व्यवस्था तथा उन नियमों में अन्तर्निहित सिद्धान्तों की विधि का विज्ञान है।

ग्रे विधिशास्त्र को विधि का एक ऐसा विज्ञान मानते हैं जिसके अन्तर्गत न्यायालय द्वारा लागू किये जाने वाले क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित नियमों और उनमें सन्निहित सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है।

ग्रे की परिभाषा से दो बातें स्पष्ट होती हैं – प्रथम यह कि विधिशास्त्र न्यायालय द्वारा अपनाये गये नियमों के वैज्ञानिक अभिकथन और क्रमबद्ध व्यवस्था से सम्बन्ध है तथा दूसरा यह कि न्यायालय द्वारा अपनाये गये नियमों में अन्तर्निहित सिद्धान्त विधि-शास्त्र के अध्ययन की विषय-वस्तु है।

रोम के विख्यात दार्शनिक सिसरो के अनुसार – “विधि-शास्त्र विधि के ज्ञान का दार्शनिक पक्ष है।” इसके अन्तर्गत विधि के आदर्श तत्त्वों की खोज की जा सकती है तथा समादेशों की दार्शनिक व्याख्या की जा सकती है।

रोमन विधिशास्त्री अल्पियन के अनुसार – “विधि-शास्त्र मानवीय एवं दैवी विषयों का ज्ञान तथा न्यायपूर्ण एवं अन्यायपूर्ण का विज्ञान है।”

प्रो. एम.जे. सेठना के अनुसार “विधि-शास्त्र सामाजिक ऐतिहासिक एवं दार्शनिक आधारों के साथ मूलभूत विधिक सिद्धान्तों का अध्ययन है तथा विधिक अवधारणाओं का विश्लेषण है।”

विधिशास्त्र की प्रकृति (Nature of Jurisprudence)

विधि-शास्त्र की विषय वस्तु कानुन के अन्य विषयों से अलग है। जिस प्रकार संविदा, अपकृत्य विधि, दण्ड प्रक्रिया विधि, न्यास या आयकर आदि कानूनों का प्रयोग विशिष्ट परिस्थितियों में समस्याओं का हल निकालने के लिये किया जाता है, विधि-शास्त्र का प्रयोग इस प्रकार से नहीं किया जाता है।

यही कारण है कि अन्य विधियों से सम्बन्धित कानून की पुस्तक में एकरूपता होती है। परन्तु विधि-शास्त्र अधिनियमित विधि न होने के कारण विधिवेत्ताओं को इसकी विषय-वस्तु को अपने वैयक्तिक विचारों के अनुसार प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता होती है।

विधि-शास्त्र के अन्तर्गत विभिन्न कानून-सम्बन्धी अवधारणाओं की विवेचना की जाती है जिनमें अधिकार, दायित्व, स्वामित्व, आधिपत्य, वैधानिक व्यक्तित्व, आशय, उपेक्षा आदि के सामान्य एवं व्यापक स्वरूप का निरूपण किया जाता है।

विधिशास्त्र का अन्य विज्ञान से सम्बन्ध

विधि-शास्त्र का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध मै पाउण्ड (Pound) का कथन है कि – “विधिशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र अन्तरम में पर्याप्त विभेद रखते हैं लेकिन एक-दूसरे के क्षेत्र के आवरण को दूर करते हुए अपनी आभा बिखेरते हैं।”

इससे यह स्पष्ट होता है कि विधिशास्त्र का अन्य सामाजिक विज्ञानों से काफी गहरा सम्बन्ध है।

(1) विधिशास्त्र एवं समाजशास्त्र में सम्बन्ध

विधि-शास्त्र एवं समाजशास्त्र दोनों के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु मनुष्य होने से दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। विधि-शास्त्र मानव आचरण के नियंत्रित करने से सम्बन्धित विधि होने के कारण विधि का विज्ञान है तो समाजशास्त्र मानवीय अन्तःसम्बन्धों के स्वरूपों का विज्ञान है।

विधिशास्त्र के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु विधि है और समाज का अध्ययन विधि के परिप्रेक्ष्य में किया जाना अपेक्षित है।

(2) विधिशास्त्र एवं मनोविज्ञान में अन्तर

मानव मस्तिष्क का गहन अध्ययन मनोविज्ञान की विषय-वस्तु होने से विधि-शास्त्र एवं मनोविज्ञान में सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। विधिशास्त्र पर मनोविज्ञान का प्रभाव इसलिये भी है कि मनोविज्ञान और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण विधि के पूर्वाभास में काफी हद तक सहायक होते है तथा मनोविज्ञान और विधि-शास्त्र मिलकर अपराध के आशय, आपराधिक प्रवृत्ति एवं दाण्डिक प्रक्रिया से जुड़ी समस्यओं को सुलझाते हैं।

मनोवैज्ञानिकों की अवधारणा है कि अपराधियों की मानसिकता का विशेष अध्ययन किया जाना आवश्यक है और अपराधियों को दण्ड इस प्रकार से दिया जाना वांछनीय है जैसे किसी रोगी को रोग के निस्तारण के लिए दवाई दी जाती है।

(3) विधिशास्त्र एवं इतिहास में सम्बन्ध

विधि-शास्त्र एवं इतिहास में भी सम्बन्ध इतना गहरा है कि विधिशास्त्र के अध्ययन की एक नई शाखा ‘ऐतिहासिक विधिशास्त्र’ का उद्भव होना है। इतिहास पूर्व से घटित घटनाओं का क्रमबद्ध ज्ञान प्रस्तुत करता है। इतिहास एक ऐसी पृष्ठभूमि दिखाता है जिसमें विधि-शास्त्र के विचारों का सही सही मूल्यांकन किया जा सके।

इतिहास से यह पता चलता है कि वर्तमान विधिक प्रणाली का विकास किन-किन परिस्थितियों एवं चरणों में हुआ है और पूर्व की कमियों को किस प्रकार से दूर किया जा सकता है। विधि-शास्त्र एवं इतिहास के सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हुए जीन बोदां (Jean Bodan) ने कहा कि – “विधिशास्त्र इतिहास के बिना अंधा है।”

(4) विधिशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र में सम्बन्ध

विधि-शास्त्र से दर्शनशास्त्र का आरम्भ से ही सम्बन्ध रहा है। विधिशास्त्र विधि का क्रमबद्ध ज्ञान है तथा यह निश्चित विधिक सिद्धान्तों और विधिक प्रणालियों का अध्ययन करता है।

दर्शन सबका अध्ययन करता है। दर्शनशास्त्र विधिक संस्थाओं, सिद्धान्तों और इनके आदर्श तत्त्वों के अध्ययन का दार्शनिक मार्ग प्रशस्त करता है। विधि का दर्शन विधि के उद्देश्य, न्याय या वास्तविक विधि की विवेकशील व्याख्या पर बल देता है।

यह विधिक व्यवस्था के दार्शनिक पूर्वानुमान तक पहुँचने का प्रयास करता है और दर्शन के माध्यम से उनमें पाये जाने वाले आदर्श तत्त्वों को समझने तथा व्यवस्थित करने का प्रयास करता है।

(5) विधिशास्त्र एवं विज्ञान में सम्बन्ध

विज्ञान किसी विषय का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन अथवा ज्ञान है। विधि-प्रशासन किस तरह से किया जाना चाहिये; किन माध्यमों से किया जाना चाहिये और उसके क्या परिणाम हो सकते हैं; यह विज्ञान की विषय-वस्तु है और यही विषय-वस्तु विज्ञान को विधिशास्त्र से जोड़ती है। इस प्रकार विधि-शास्त्र का समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास, दर्शनशास्त्र एवं विज्ञान से अत्यन्त निकट का सम्बन्ध है।

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