नमस्कार दोस्तों, इस लेख में विधिक व्यक्ति किसे कहते है, विधिक व्यक्ति की परिभाषा, इसके प्रकार एंव निगमित निकाय के सिद्वान्तो का वर्णन किया गया है| यह आलेख विधि के छात्रो के लिए काफी उपयोगी है|
विधिक व्यक्ति
विधि का निर्माण मानव समुदाय के लिए किया जाता है दुसरे शब्दों में विधि का अस्तित्त्व ही मानव के लिए है। विधि का मुख्य कार्य मानव आचरण को नियंत्रित करना है। ऐसी स्थिति में शब्द ‘व्यक्ति’ (Person) का महत्त्व बढ़ जाता है। अध्ययन की दृष्टि से शब्द व्यक्ति एवं विधिक व्यक्ति दोनों ही बड़े महत्त्वपूर्ण हैं।
विधिक व्यक्ति की परिभाषा
पैटन (Paton) के अनुसार — विधिक व्यक्तित्त्व विधि का एक कृत्रिम सृजन है। इसके अनुसार ‘विधिक व्यक्ति’ (legal person) का प्राकृतिक प्राणी अथवा मनुष्य होना आवश्यक नहीं है। पैटन के शब्दों – “वे सभी अस्तित्त्व जो अधिकार एवं कर्त्तव्य धारण करने योग्य इकाइयाँ हैं, ‘विधिक व्यक्ति’ (legal person) हैं।”
सॉमण्ड के अनुसार — “विधिक व्यक्ति (legal person) से अभिप्राय मानव के अलावा अन्य किसी ऐसी इकाई से है जिसे विधि के अन्तर्गत व्यक्तित्त्व प्राप्त है।” आसान शब्दों में कहा जा सकता है कि “विधिक व्यक्ति एक ऐसा कृत्रिम या काल्पनिक व्यक्ति होता है जो विधि की दृष्टि में व्यक्ति है, किन्तु तथ्यत: वह वास्तविक मनुष्य नहीं है।”
विधिक व्यक्ति को कृत्रिम, काल्पनिक या न्यायिक व्यक्ति भी कहा जाता है।
केल्सन के शब्दों में – “विधिक व्यक्ति एक मिथक है, क्योंकि इसमें अधिकार एवं कर्तव्यों से अधिक और कुछ नहीं होता है।”
विश्लेषणात्मक विचारधारा के अनुसार – “विधिक व्यक्ति (legal person) अधिकारों एवं कर्तव्यों का धारक है।”
हीगेल (Hegal) के अनुसार – “व्यक्तित्त्व न्यायपूर्ण इच्छा की आत्मनिष्ठ सम्भावना है।”
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विधिक व्यक्ति के प्रकार
हिबर्ट के अनुसार विधिक व्यक्ति तीन प्रकार के हो सकते हैं
(i) निगम –
विधि के अन्तर्गत निगम की रचना अधिनियमों के अधीन होती है| निगम एक विधिक व्यक्ति है और विधिक सृजन का एक अच्छा उदाहरण है। निगम व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग या श्रृंखला है जिसे स्वयं एक विधिक मिथक द्वारा मान्यता प्राप्त है। एक पंजीकृत श्रमिक संघ विधिक व्यक्ति है जो यद्यपि शाब्दिक तौर पर उसे निगम नहीं कहा जा सकता है।
केरल उच्च न्यायालय द्वारा ‘एम. परमशिवम् बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ (ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी. 600 केरल) के मामले में स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड को विधिक व्यक्ति (legal person) माना गया है। बोर्ड द्वारा परिवाद पेश किया जा सकता है।
(ii) संस्था —
संस्थायें भी विधिक व्यक्ति (legal person) होती हैं। इन्हें निगमित निकाय के सामान माना जाता है। इनका शाश्वत उत्तराधिकार और सामान्य मुहर भी होती है। इनके द्वारा सम्पत्ति प्राप्त की जा सकती है। इसके विरुद्ध एवं इनके द्वारा वाद लाया जा सकता है।
इसमें व्यक्तित्त्व संस्था से सम्बद्ध व्यक्तियों के किसी वर्ग को प्रदान न कर स्वयं संस्था को प्रदान किया जाता है। इसके उदाहरण – विश्वविद्यालय, पुस्तकालय, चिकित्सालय, चर्च आदि हैं।
(iii) निधि या सम्पदा –
कुछ विशिष्ट प्रयोजनों में प्रयुक्त निधि या सम्पदा को भी विधिक व्यक्ति माना गया है। पूर्व निधि, न्यास सम्पदा, मृतक या दिवालिया व्यक्ति की सम्पत्ति आदि इसके अच्छे उदाहरण हैं।
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निगमित व्यक्तित्त्व (corporate personality)
निगमित निकाय अथवा व्यक्तित्त्व (corporate personality) विधिक व्यक्ति का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। निगमित व्यक्तित्त्व जीवित प्राणी नहीं होते हुए भी विधि की दृष्टि में उसकी वह प्रास्थिति है जो एक जीवित प्राणी की होती है। निगमित व्यक्तित्त्व की संरचना अधिनियमित विधि के अधीन होती है।
सॉमण्ड के अनुसार – “निगम व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो विधिक कल्पना द्वारा विधिक व्यक्ति के रूप में मान्य किया गया है।” इस प्रकार निगम की संरचना मनुष्य के वर्गों एवं श्रेणियों के मानवीकरण से होती है। इस विधिक व्यक्ति (legal person) की काय (corpus) इसके सदस्य होते हैं।
निगम का विधिक व्यक्तित्त्व कल्पना पर आधारित होने के कारण इसे कल्पित या कृत्रिम व्यक्ति भी कहा जाता है। विश्वविद्यालय, चिकित्सालय, पुस्तकालय, मन्दिर, बैंक, रेलवे आदि विधिक व्यक्ति (legal person) होकर निगमित व्यक्तित्त्व की तरह प्रस्थिति रखते हैं। भारत संघ (Union of India) को भी विधिक व्यक्ति का स्थान प्राप्त है।
निगमित निकाय के कुछ महत्त्वपूर्ण लक्षण –
(i) इसका शाश्वत उत्तराधिकार होता है। निगमित निकाय की कभी मृत्यु नहीं होती है। निगमित निकाय के किसी सदस्य की मत्य हो जाने या उसके हट जाने से निकाय का समापन नहीं हो जाता है अपितु ऐसे व्यक्ति का स्थान उसके वारिस या अन्य प्राधिकृत व्यक्ति द्वारा ले लिया जाता है।
(ii) इसकी अपनी एक सामान्य मुहर (Seal) होती है।
(iii) यह सम्पत्ति धारण कर सकता है।
(iv) इसके विरुद्ध वाद लाया जा सकता है एवं इसकी ओर से वाद लाया जा सकता है।
विधि के अन्तर्गत निगम दो प्रकार के होते हैं –
(i) एकल निगम (Corporation sole)
एकल निगम क्रमवर्ती व्यक्तियों की एक निगमित श्रृंखला है। एकल निगम एक के बाद एक आने वाले व्यक्तियों की ऐसी निगमित श्रृंखला है जिसमें एक समय में एक ही व्यक्ति होता है।
विधि के अनुसार एकल निगम का उद्देश्य वही है जो समाह्रत निगम का है एकल निगम में एक की मृत्यु के बाद वह पद तथा उससे सम्बंधित सम्पति, दायित्व आदि समाप्त नहीं होते है बल्कि वे उस पद को ग्रहण करने वाले अगले व्यक्ति में समाहित हो जाते है|
उदाहरण – इंग्लैण्ड का सम्राट, पोस्ट मास्टर जनरल, किसी विभाग का मंत्री आदि ऐसे एकल निगम हैं जिन्हें विधिक व्यक्तित्त्व प्राप्त है। ये व्यक्ति किसी ऐसे लोक पद के धारक होते है जो निगम के रूप में विधि द्वारा मान्य होते है|
(ii) समाह्रत निगम (Corporation aggregate)
समाह्रत निगम सह विद्यमान व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संगठित होता है। इसे समादृत निगम भी कहा जाता है| लिमिटेड कंपनिया समाह्रत निगम का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
इसमें कम्पनी के प्रत्येक अंशधारी का दायित्व उसके द्वारा धारित अंशों की अदत्त पूँजी राशि तक ही सीमित रहता है।
‘सोलोमन बनाम सोलोमन एण्ड कम्पनी’ (1887 ए.सी. 22) इसका एक अच्छा उदाहरण है, इसमें यह कहा गया है कि समाह्रत निगम का मुख्य लक्षण है – “कतिपय प्रयोजनों के लिए अपने सदस्यों से पृथक् अस्तित्त्व रखना।”
उदाहरण – निगमित कंपनी की अस्तियों तथा सम्पति पर उसका स्वंय का अधिकार होता है| अंशधारियों का अधिकार केवल लाभांश तक ही सीमित होता है।” यही कारण है कि कम्पनी दिवालिया हो जाने पर भी अंशाधारी की आर्थिक स्थिति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।
इसी प्रकार किसी अंशधारी के दिवालिया हो जाने पर भी कम्पनी की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनी रहती है| इसके अलावा कम्पनी के सभी अंशाधारियों की मृत्यु हो जाने पर भी उसका अस्तित्त्व समाप्त नहीं होता है।”
निगमित निकाय के सिद्धान्त
निगमित व्यक्तित्त्व के स्वरूप के सम्बन्ध में विधिवेत्ताओं के भिन्न-भिन्न विचार रहे हैं।
(1) परिकल्पना का सिद्धान्त —
इसे मिथकीय या कल्पितार्थ सिद्धान्त (Fiction theory) भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के प्रबल समर्थकों में सैविनी, सॉमण्ड, ग्रे, हॉलैण्ड, केल्सन आदि के नाम प्रमुख हैं। परिकल्पना के सिद्धान्त के अनुसार निगमित व्यक्तित्त्व एक विधिक कल्पना मात्र है जिसका मुख्य उद्देश्य सामूहिक रूप से एकत्रित हुए व्यक्तियों के अस्थिर संगठन में एकता लाना है।
अतः यह कल्पित व्यक्तित्त्व उन व्यक्तियों के वास्तविक व्यक्ति से अलग होता है जो इसका सृजन करते है। इसमें निगम के सदस्यों में परिवर्तन का निगम के अस्तित्त्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
सॉमण्ड की धारणा अनुसार – निगमित निकाय अपने सदस्यों से भिन्न होता है तथा सभी सदस्यों द्वारा त्याग दिए जाने पर भी निगम का अस्तित्त्व बना रहता है। संसद के अधिनियम के अन्तर्गत निगमित किसी निगम का समापन केवल अधिनियमित विधि द्वारा ही किया जा सकता है।
(2) यथार्थवादी सिद्धान्त —
इस सिद्धान्त के प्रमुख प्रणेता जर्मन विधिशास्त्री गियर्के (Gierke) थे एवं पोलक, डायसी व मेटलैण्ड को इसका समर्थक माना जाता है। इसे यथार्थता का सिद्धान्त (Realist theory) भी कहा जाता हैं।
इस सिद्धान्त के अनुसार निगम का अस्तित्त्व अपने सदस्यों के सामूहिक स्वरूप से भिन्न होता है। निगमित व्यक्तित्त्व कल्पना पर आधारित नहीं होता वरन इसका एक वास्तविक अस्तित्त्व होता है जिसे विधि एवं राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होती है।
जब अनेक व्यक्ति सामूहिक रूप से मिलकर निगम की स्थापना करते है तो ऐसी स्थापना से एक नवीन इच्छा का अभ्युदय होता है जो उस निगम की इच्छा कहलाती है और ऐसी इच्छा निगम के निदेशकों, संचालकों, अधिकारियों एवं कर्मचारियों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है।
यथार्थवादी सिद्धान्त के समर्थकों का मत है कि सामूहिक व्यक्तित्त्व एक कल्पना मात्र नहीं होकर वास्तविकता है। यहाँ वास्तविकता से तात्पर्य – वास्तविक व्यक्ति अथवा भौतिक वास्तविकता से नहीं होकर मनोवैज्ञानिक वास्तविकता से है। आधुनिक यथार्थवादी सिद्धान्त मानव व्यक्तित्त्व के विश्लेषण पर टिका हुआ है|
(3) कोष्ठक सिद्धान्त –
जर्मन विधिशास्त्री इहरिंग इसके प्रबल समर्थक माने जाते हैं, उनका मत था कि, केवल निगम के सदस्य ही वास्तविक व्यक्ति हैं और निगम के रूप में सृजित विधिक व्यक्तित्त्व की स्थिति एक कोष्ठक (bracket) के समान है जो सदस्यों के सामूहिक स्वरूप को प्रदर्शित करता है। निगम के माध्यम से उसके सदस्यों के सामान्य हितों को क्रियान्वित किया जाता है।
कोष्ठक सिद्धान्त के समर्थकों का मत है कि जिस प्रकार किसी शब्द के पर्यायवाची शब्दों को कोष्ठक में रखकर अभिव्यक्त किया जाता है, उसी प्रकार विभिन्न व्यक्तियों के सामूहिक स्वरूप को ‘निगम’ के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है और उन्हें एकरूपता प्रदान की जाती है| कोष्ठक सिद्धान्त (Bracket theory) को प्रतीकवादी सिद्धान्त भी कहा जाता है।
(4) रियायत का सिद्धान्त —
प्रमुख विधिशास्त्री सैविनी, सॉमण्ड, डायसी आदि इस सिद्धान्त के समर्थक माने जाते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार-विधिक व्यक्ति के रूप में निगम का महत्त्व इसलिये है, क्योंकि इसे राज्य या विधि द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि निगम का विधिक व्यक्तित्त्व राज्य द्वारा उसे प्रदत्त की गई एक रियायत है जिसे विधि स्वीकार करती है।
रियायत का सिद्धान्त (Concession theory) नेशन स्टेट की शक्ति के उदय की ऊपज है। इसमें राज्य की सर्वोच्चता पर बल दिया गया और उसे सुदृढ़ बनाना इसका लक्ष्य रहा है।
किसी भी नियम या निकाय को व्यक्ति का स्वरूप प्रदान करना राज्य के विवेकाधिकार की विषय-वस्तु है। राज्य चाहे तो व्यक्तित्त्व का स्वरूप प्रदान कर सकता है और चाहे तो ऐसा करने से मना कर सकता है। यह सिद्धान्त परिकल्पना के सिद्धान्त से मिलता जुलता है।
(5) प्रयोजन सिद्धान्त —
प्रयोजन सिद्धान्त (Purpose theory) का मूल या प्रारम्भिक आधार प्रतीकवादी सिद्धान्त के समान ही है। यह सिद्धान्त इस मूलभूत अवधारणा पर आधारित है कि अधिकारों एवं कर्तव्यों की विषय-वस्तु केवल वास्तविक जीवित मनुष्य ही होते हैं। यह किसी निर्जीव वस्तु में व्यक्तित्त्व अधिरोपित करने में विश्वास नहीं रखता है।
निगमों का व्यक्तित्त्व वास्तविक नहीं होने के कारण उनमें कर्तव्यों एवं अधिकारों को धारणा करने की सामर्थ्य नहीं होती है। वे केवल विषय रहित अस्तित्त्व रखते हैं जिन्हें कतिपय विशेष प्रयोजनों के लिए विधिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है।
प्रयोजन सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक जर्मन विधिशास्त्री ब्रिन्झ (Brinz) माने जाते हैं। डेमेलियस, बेक्सर तथा प्लानीयोल इसके प्रबल समर्थकों में हैं। इंग्लैण्ड में इस सिद्धान्त को विकसित करने का श्रेय बार्कर को जाता है।