नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट में विधिक कर्तव्य किसे कहते है एंव विधिशास्त्र के अनुसार इसका वर्गीकरण तथा वस्तुलक्षी – न्यायसंगत अधिकार या जस एड रेम’ (Jus ad rem) का अध्ययन किया गया है| यह पोस्ट विधि के छात्रों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं इसे जरुर पढ़े।
परिचय: विधिक कर्तव्य
विधिक कर्तव्य (Legal Duty) कानूनी व्यवस्था का एक मूलभूत सिद्धांत है, जो व्यक्तियों, संगठनों या संस्थाओं को कानून द्वारा निर्धारित दायित्वों का पालन करने के लिए बाध्य करता है। भारतीय कानून के संदर्भ में, विधिक कर्तव्य का अर्थ है, वह कानूनी बाध्यता, जिसके तहत व्यक्ति, संस्था, समाज या समूह को कुछ कार्य करने या ना करने की आवश्यकता होती है।
यह अवधारणा विधिशास्त्र (Jurisprudence) में महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने में सहायक है।
जैसा की हम जानते है कि, विधिक अधिकार (legal right) और विधिक कर्तव्य (legal duty) दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है अर्थात विधिक अधिकार एंव विधिक कर्तव्य एक ही नियम एंव घटनाओं के अलग – अलग पहलू है| सभी विधिशास्त्रियों का यह मत रहा है कि प्रत्येक अधिकार के साथ एक सहवर्ती कर्तव्य जुड़ा रहता है और इन दोनों के अलग अलग अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती|
विधिक अधिकार एंव विधिक कर्तव्य को एक दूसरे के सहवर्ती निरूपित करते हुए उच्चतम न्यायालय ने पंजाब राज्य बनाम रामलुभाया के मामले में कहा है कि, एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य होता है। यानि स्वस्थ जीवन का अधिकार प्रत्येक नागरिक का अधिकार है और राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों की स्वास्थ्य सेवाओं की उचित व्यवस्था करे।
एलेन के अनुसार विधिक विश्लेषण में इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि अधिकार एंव कर्तव्य के किस पहलू पर विचार किया जा रहा है, क्योंकि एक का परीक्षण करना आवश्यक रूप से दोनों का परिक्षण करना है|
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विधिक कर्तव्य की परिभाषा
विधिक कर्तव्य वह कानूनी दायित्व है, जो किसी व्यक्ति को कानून के प्रति जवाबदेह बनाता है। यह कर्तव्य संविधान, संहिताओं, अधिनियमों, और न्यायिक निर्णयों के माध्यम से परिभाषित किए जाते हैं।
विधिक कर्तव्य का पालन नहीं करने पर कानूनी दंड या सजा का प्रावधान किया गया है। उदाहरण के लिए, भारतीय दंड संहिता (IPC) वर्तमान भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत अपराध नहीं करने का कर्तव्य प्रत्येक नागरिक पर लागू होता है।
विधिक अधिकार और विधिक कर्तव्य के पारस्परिक सम्बन्धो के तीन दृष्टिकोण है –
(i) अधिकार एंव कर्तव्य दोनों एक दुसरे से अन्योन्याचित रूप से जुड़े हुए है|
(ii) अधिकारों के सहवर्ती कर्तव्य होते है किन्तु कुछ कर्तव्य निरपेक्ष होते है जो सहवर्ती अधिकार उत्पन्न करते है|
(iii) कर्तव्यों के सहवर्ती अधिकार होते है किन्तु कुछ अधिकार निरपेक्ष होते है जो बिना किसी अपवाद के कर्तव्य का पालन की अपेक्षा करते है|
विधिक कर्तव्य के प्रकार (types of legal duty)
विधिक कर्तव्य को मुख्यतः दो भागो में विभाजित किया जा सकता है
(1) सकारात्मक तथा नकारात्मक कर्त्तव्य
सकारात्मक कर्त्तव्य व्यक्ति को कुछ कार्य करने हेतु अधिरोपित होते हैं, जैसे – ऋणी व्यक्ति का ऋणदाता को ऋण की अदायगी का कर्तव्य सकारात्मक है। नकारात्मक कर्तव्य के अधीन व्यक्ति, जिस पर कर्तव्य अधिरोपित हैं किसी कार्य को करने से प्रविरत (forbearance) रहता है।
उदाहरण – यदि कोई व्यक्ति किसी भूमि का स्वामी है, तो अन्य व्यक्ति उस व्यक्ति के भूमि के उपयोग में हस्तक्षेप न करने के लिए कर्त्तव्याधीन है। अत: यह एक नकारात्मक कर्तव्य है।
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(2) प्राथमिक तथा द्वितीयक कर्त्तव्य
प्राथमिक कर्त्तव्य ऐसा कर्तव्य है जो बिना किसी अन्य कर्तव्य के स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में है। उदाहरणार्थ, किसी को चोट न पहुँचाने का कर्तव्य प्राथमिक कर्तव्य है।
द्वितीयक कर्त्तव्य वह कर्त्तव्य है, जिसका प्रयोजन किसी अन्य कर्त्तव्य को प्रवर्तित करना है।
उदाहरण – यदि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को क्षति पहुँचाता है, तो प्रथम व्यक्ति का दूसरे की क्षतिपूर्ति करने का कर्त्तव्य द्वितीयक कर्तव्य है।
वस्तुलक्षी – न्यायसंगत अधिकार या जस एड रेम (Jus ad rem)
किसी अधिकार से उत्पन्न अधिकार को ‘जस एड रेम’ कहते हैं। इसका आशय यह है कि अधिकार के धारणकर्ता या स्वामी को यह अधिकार रहता है कि वह कोई अन्य अधिकार स्वयं को अन्तरित करा सकता है।
उदाहरण – यदि ‘क’ अपनी भूमि ‘ख’ को बेचने की संविदा करता है, तो ‘ख’ को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह ‘क’ से वह भूमि स्वयं के नाम अन्तरित करा सकता है। यहाँ भूमि को स्वयं के नाम अन्तरित करा लेने का ‘ख’ का अधिकार ‘जस एड रेम’ कहलायेगा क्योंकि यह अधिकार उसे ‘क’ से की गई संविदा से उत्पन्न अधिकार के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ है। इसे वस्तुलक्षी न्यायसंगत अधिकार कहा गया है।
विधिशास्त्र में विधिक अधिकारों तथा कर्तव्यों का विशिष्ट महत्व है क्योंकि इनके आधार पर व्यक्ति की प्रास्थिति या हैसियत का निर्धारण होता है।
सर हेनरी मेन ने व्यक्ति की प्रास्थिति (status) के विषय में कहा है कि “मनुष्य की वह विधिक स्थिति जिसमें विधि के प्रवर्तन द्वारा उस पर अधिकारों और कर्तव्यों का आरोपण किया जाता है, उसकी ‘प्रास्थिति’ कहलाती है।
यह उस स्थिति से भिन्न है, जो व्यक्ति स्वयं के स्वैच्छिक कार्यों द्वारा प्राप्त करता है। सारांश यह है कि व्यक्ति अपने अधिकारों और कर्तव्यों के योग से समाज के वर्ग-विशेष में जो प्रास्थिति प्राप्त करता है, वह विधि द्वारा प्रदत्त होने के कारण अन्य व्यक्ति उसे उस प्रास्थिति से वंचित नहीं कर सकते हैं।
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डायसी ने विभिन्न प्रकार की प्रास्थिति (हैसियतों) का उल्लेख किया है उनमें –
(1) शैशव (Infancy)
(2) संरक्षकता (Guardianship)
(3) औरसता (Legitimacy)
(4) पति-पत्नी संबंध (Husband-Wife relationship)
(5) विक्षिप्त और संग्रहालयाध्यक्ष (Insane and Curator)
(6) निगम (Corporation) आदि का समावेश है।
अन्त में यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि विभिन्न प्रकार के अधिकारों का विश्लेषण उस विधि के संदर्भ में ही किया जाना चाहिये जिसके अंतर्गत इन अधिकारों का सृजन हुआ है और जिसने उन्हें संरक्षण दिया है। जो व्यक्ति किसी अधिकार का दावा करता है, उसे उस अधिकार के प्रति अपना स्वत्व (title) स्थापित करना आवश्यक होता है।
अधिकार और कर्तव्यों की धारणाओं के कारण ही विधिक क्षेत्र में वैधानिक व्यक्तित्व की संकल्पना प्रतिस्थापित हुई क्योंकि व्यक्तियों के अधिकारों और कर्त्तव्यों को सुनियोजित करने की समस्या को हल करने के लिए वैधानिक व्यक्तित्व ही एकमात्र वैधानिक साधन है।
निष्कर्ष
भारत के कानून के अनुसार विधिक कर्तव्य सामाजिक और कानूनी व्यवस्था का आधार हैं। ये कर्तव्य न केवल व्यक्तियों को जवाबदेह बनाते हैं, बल्कि समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में भी सहायक हैं। भारतीय संविधान और विभिन्न कानूनों के माध्यम से इन कर्तव्यों को लागू किया जाता है, जो नागरिकों और संस्थाओं को एक जिम्मेदार समाज का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित करते हैं।
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