नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट में विधिक अधिकार किसे कहते है, इसका अर्थ, परिभाषा एंव आवश्यक तत्व क्या है तथा विधिक अधिकार के प्रमुख सिद्धान्त का वर्णन किया गया है| इस आलेख में विधि के छात्रो के लिए उपयोगी जानकारी दी गई है|
परिचय – विधिक अधिकार
मानव सभ्यता के विकास का वास्तविक श्रेय विधि और उसकी निषेधात्मक प्रक्रिया को जाता है जिसने व्यक्ति को समाज के सदस्यों के रूप में अपने कर्तव्यों और अधिकारों का ज्ञान कराया है। जब से मानव समाज का विकास हुआ है और समाज के व्यक्ति परस्पर एक दुसरे के सम्पर्क में आने लगे हैं, तब उनके मध्य एक दूसरे के प्रति कुछ विधिक अधिकार (Legal right) और कर्तव्य भी उत्पन्न हुए, जिन्हें प्रचलित विधि द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
यह सर्वविदित है कि प्राकृतिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति सुख एंव शांति से अपना जीवनयापन करना चाहता है| इसके लिए आवश्यक है की उसे कुछ आधारभूत अधिकार मिले तथा उसके अधिकारों में कोई अन्य व्यक्ति अवांछनीय हस्तक्षेप ना करें और वह अपेक्षा करता है कि हस्तक्षेप करने वालों को दण्डित किया जाए|
विधि का मूल उद्देश्य मानवीय हितों को संरक्षित करते हुए व्यक्तियों के संव्यवहारों को विनियमित करना है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह जरुरी है कि व्यक्तियों के अधिकारों को प्रवर्तित कराने तथा उनका अतिक्रमण या हस्तक्षेप करने वालों को दण्डित करने के लिए राज्य अपनी भौतिक शक्ति का प्रयोग करे।
यह कार्य राज्य द्वारा किया जाता है जो कानून के प्रवर्तन से लोगों को अपने विधिक कर्तव्य निभाने के लिए बाध्य करते हुए उनके अधिकारों की सुरक्षा करता है।
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विधिक अधिकार का अर्थ
सामण्ड ने विधिक अधिकार को एक ऐसा हित माना है जिसे राज्य की विधि द्वारा मान्यता प्राप्त होती है और जो विधि द्वारा संरक्षित है। इसके अनुसार विधिक अधिकार का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण उस अधिकार के स्वामी के हित के अस्तित्व में है, जिसे विधि द्वारा संरक्षण प्रदान किया जाता है।
सामण्ड के अनुसार – हित वह है जिसका ध्यान रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है तथा जिसकी अवहेलना करना अपकार है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा कि जाती है कि वह दूसरों के अधिकारों का सम्मान करे। किसी व्यक्ति द्वारा अपने विधिक कर्तव्य का पालन न किया जाना या दूसरे के विधिक अधिकार में अनुचित हस्तक्षेप या अतिक्रमण करना अपकृत्य होगा।
सामण्ड के अनुसार मनुष्य का ऐसा कार्य जो अधिकार तथा न्याय के नियम के विपरीत होता है, अपकृत्य कहलाता है।
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विधिक अधिकार की परिभाषा
विधिक अधिकार की सर्वसम्मत परिभाषा दी जानी अत्यंत कठिन है| ए.जे.एम. के अनुसार विधिक एंव न्यायिक शास्त्र में ‘अधिकार’ शब्द से अधिक अस्पष्ट शब्द कोई दूसरा नहीं है| रोमन विधिशास्त्रियों ने अधिकार शब्द को विधि एंव न्याय के भावार्थ में ग्रहण करते हुए इन सभी का बोध कराने वाले शब्द जस (jus) का प्रयोग किया है|
विभिन्न विधिशास्त्रियों द्वारा दी गई विधिक अधिकार की परिभाषा –
सैविनी के अनुसार ‘अधिकार एक शक्ति (power) है यानि सैविनी ने अधिकार को एक शक्ति माना है|
हॉलैण्ड के अनुसार ‘अधिकार एक सामर्थ्य या क्षमता के रूप में है| हॉलैण्ड के मतानुसार ‘अधिकार, सामर्थ्य या क्षमता का द्योतक है।
काण्ट (Kant) के अनुसार – ‘विधिक अधिकार व्यक्ति को प्राप्त एक विशेषाधिकार है तथा इहरिंग इसे विधि द्वारा संरक्षित हित मानते हैं।
डॉ. एलेन के मत में, “अधिकार से तात्पर्य किसी हित को प्राप्त करने के लिए विधि द्वारा प्रत्याभूत शक्ति से है|
सामण्ड ने इहरिंग के विचारों का समर्थन करते हुए विधिक अधिकार को विधि द्वारा मान्य तथा संरक्षित कहा है।
ग्रे (Gray) के अनुसार अधिकार स्वयं कोई हित नहीं है, अपितु वह हितों के संरक्षण का एक साधन मात्र है। उनका कहना है कि – “विधिक अधिकार एक ऐसी शक्ति है जिसके माध्यम से कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को कोई कार्य करने या न करने के लिए वैज्ञानिक कर्तव्य द्वारा आबद्ध या बाध्य करता है|
इस कथन की पुष्टि में एक उदाहरण देते हुए ग्रे कहते हैं कि यदि एक व्यक्ति दूसरे को ऋण देता है, तो ऋणदाता का यह हित है कि वह ऋणी व्यक्ति से अपनी ऋण राशि वापस प्राप्त करे, यह उसका वास्तविक विधिक अधिकार नहीं है बल्कि उसे कानून द्वारा दी गई यह शक्ति या क्षमता है कि वह दिया गया ऋण वसूल कर सकता है|
इन सभी परिभाषाओ से यह स्पष्ट होता है कि विधिक अधिकार एक हित में या हितों के सरंक्षण का एक ऐसा माध्यम अथवा साधन है जो विधि द्वारा मान्य एंव सरंक्षित है|
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विधिक अधिकार के आवश्यक तत्व
सामण्ड के अनुसार विधिक अधिकार में निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है –
(1) अधिकार का हक़दार व्यक्ति
यह सभी जानते है कि विधिक अधिकार किसी व्यक्ति में निहित होता है। व्यक्ति के बिना विधिक अधिकार का अस्तित्व नहीं हो सकता। जिस कारण विधिक अधिकार के लिए किसी व्यक्ति का होना अत्यंत आवश्यक हो जाता है और ऐसे व्यक्ति को अधिकार का स्वामी, अधिकार का कर्त्ता या हकदार व्यक्ति (person of inherence) अथवा धारणकर्ता कहा जाता है। अधिकार का हकदार व्यक्ति निर्धारित या अनिर्धारित कैसा भी हो सकता है।
उदाहरण के लिये, अजन्मा बालक (unborn child) भी अधिकार का हकदार हो सकता है, यद्यपि उसके जीवित जन्म लेने के बारे में कोई निश्चितता नहीं रहती है। इसी प्रकार किसी संस्था या समिति के विधिक अधिकार हो सकते हैं भले ही उसके सदस्यों की संख्या अनिर्धारित हो।
(2) अधिकार से आबद्ध व्यक्ति
विधिक अधिकार के अस्तित्व के लिए अधिकार से आबद्ध व्यक्ति होना आवश्यक है| अधिकार से आबद्ध व्यक्ति से आशय ऐसे व्यक्ति से है जिसके विरुद्ध अधिकारों का प्रयोग किया जा सके और जिस पर अधिकारों की पालना का दायित्व या कर्त्तव्य हो|
(3) अधिकार की अन्तर्वस्तु
विधिक अधिकार किसी आबद्ध व्यक्ति को हकदार व्यक्ति के पक्ष में कोई कार्य करने या न करने के लिए बाध्य करता है या कोई दायित्व अधिरोपित करता है। इस प्रकार के कार्य (act) या कार्यलोप (omission) को अधिकार की अन्तर्वस्तु कहते हैं।
(4) अधिकार की विषय–वस्तु
किसी कार्य को करने या नहीं करने का किसी वस्तु (object) से सम्बन्ध होता है या अधिकार के हक़दार व्यक्ति के विधिक अधिकार का किसी वस्तु से सम्बन्ध होता है जिसे अधिकार की विषय वस्तु कहा जाता है|
उदाहरणार्थ के लिए ‘ख’ ‘क’ का नौकर है। यहाँ ‘क’ अधिकार का धारणकर्ता है तथा ‘ख’ उस अधिकार से बाध्य व्यक्ति है। ‘ख’ द्वारा ‘क’ की सेवा की जाना अधिकार की अन्तर्वस्तु (contents) है। परन्तु इसमें अधिकार की विषय-वस्तु (subject matter of might) कहीं नहीं है।
विधिक अधिकार की विषय वस्तु निश्चित, अनिश्चित अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष, कैसी भी हो सकती है, जैसे – व्यक्ति की ख्याति, कौशल, ज्ञान, व्यापार चिन्ह आदि|
(5) अधिकार का स्वत्व या हक
प्रत्येक विधिक अधिकार के साथ अधिकार के धारणकर्त्ता का स्वत्व या ‘हक’ जुड़ा होता है। स्वत्व उन तथ्यों अथवा घटनाओं से उत्पन्न होता है जिनके कारण विधिक अधिकार धारणकर्ता में निहित होता है।
अधिकार का स्वत्व या हक को और अधिक स्पष्ट करने के लिए सामण्ड एक उदाहरण प्रस्तुत करते है कि – यदि ‘क’ कोई जमीन ‘ख’ से खरीदता है, तो इसमें ‘क’ अधिकार का धारणकर्ता या स्वामी है। इस प्रकार के अधिकार का प्रयोग समस्त विश्व के विरुद्ध किया जाता है,
अत: इस उदाहरण में समस्त व्यक्ति कर्तव्य से आबद्ध है और ‘क’ को खरीदी हुई भूमि का अनन्य उपयोग करने सम्बन्धी जो अधिकार प्राप्त है, उसे अधिकार की अन्तर्वस्तु कहा जायेगा। क्रय की गई भूमि अधिकार की विषय-वस्तु है तथा उस भूमि के अधिकार का स्वत्व वह अन्तरण पत्र है जिसके द्वारा ‘क’ ने ‘ख’ से जमीन का स्वामित्व अर्जित किया है।
हॉलैण्ड के विचार अनुसार विधिक अधिकार में उपरोक्त तत्वों में से केवल चार तत्व होना ही आवश्यक है तथा वे ‘स्वत्व’ या ‘हक’ को अधिकार का आवश्यक तत्व नहीं मानते हैं। कीटन (Keeton) का भी यही मत है कि स्वत्व या हक अधिकार का साक्ष्य या अधिकार का स्रोत मात्र होता है, अत: इसे अधिकार का स्वत्व नहीं माना जा सकता है।
इन विद्वानों के अनुसार विधिक अधिकार में निम्नलिखित चार तत्व होने चाहिये –
(i) वह व्यक्ति जिसमें अधिकार निहित है
(ii) अधिकार किसी कार्य या कार्य के लोप से सम्बद्ध होता है
(iii) अधिकार की विषय वस्तु
(iv) एक या अनेक व्यक्ति जिनके विरुद्ध अधिकार का प्रयोग किया जा सके; अर्थात् अधिकार द्वाराआबद्ध व्यक्ति।
विधिक अधिकार के प्रमुख सिद्धान्त
विधिक अधिकार के मुख्यतः दो सिद्वांत निम्नाकित है
(1) हित–सिद्धान्त (Interest Theory)
इहरिंग ने विधिक अधिकार को “हित’ पर आधारित माना है। उनके अनुसार विधिक अधिकार विधि द्वारा संरक्षित हित है।’ विधि का मूल उद्देश्य मानवीय हितों का संरक्षण करते हुए मानव के परस्पर विरोधी हितों के संघर्ष को टालना है।
परन्तु सामण्ड ने इहरिंग द्वारा दी गई ‘अधिकार’ की परिभाषा को अपूर्ण मानते हुए कहा है कि विधिक अधिकार के लिए केवल विधिक संरक्षण दिया जाना ही पर्याप्त नहीं है अपितु उसे वैधानिक मान्यता भी प्राप्त होनी चाहिये।
सामण्ड के विचार से पशुओं के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना विधि द्वारा निषिद्ध (prohibited) है तथा इसके लिए दोषी व्यक्ति को दण्डित किये जाने का प्रावधान है। अत: क्या यह कहना उचित होगा कि पशुओं को आत्म सुरक्षा का विधिक अधिकार प्राप्त है?
आशय यह है कि पशुओं सम्बन्धी इस अधिकार को विधिक संरक्षण प्राप्त है, परन्तु विधिक मान्यता प्राप्त न होने के कारण इसे ‘विधिक अधिकार” की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। यही कारण है कि सामण्ड ने पशुओं के इस अधिकार को केवल नैतिक अधिकार के रूप में ही स्वीकार किया है।
सुविख्यात विधिशास्त्री ग्रे ने भी इसे केवल आंशिक रूप में स्वीकार करना ही उचित समझा। ग्रे के अनुसार ‘अधिकार’ स्वयं हित नहीं है अपितु ‘हित’ को संरक्षित करने वाला एक साधन मात्र है।
ग्रे (Gray) के मतानुसार “यह वह शक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को किसी कार्य या कार्यों को करने या न करने के लिए उस सीमा तक बाध्य कर सकता है, जहाँ तक समाज से उसे यह शक्ति अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों पर लागू करते हुए प्राप्त होती है।”
(2) इच्छा सिद्धान्त (Will Theory)
हीगल, कान्ट तथा ह्यम आदि विधिशास्त्रियों ने विधिक अधिकार सम्बन्धी हित सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा है कि किसी व्यक्ति का अधिकार उसकी इच्छा को प्रदर्शित करता है। पुश्ता (Puchta) ने यह विचार व्यक्त किया कि अधिकार के माध्यम से व्यक्ति किसी वस्तु पर अपनी इच्छा शक्ति को अभिव्यक्त करता है। जर्मनी के ऐतिहासिक विधिशास्त्र के समर्थकों ने अधिकार सम्बन्धी इच्छा सिद्धान्त को स्वीकार किया है।
ड्यूगिट ने इच्छा सिद्धान्त की आलोचना करते हुए सामाजिक समेकता (social solidarity) को ही अधिकार का मूल स्रोत माना है। वे इच्छा को अधिकार का एक महत्वपूर्ण तत्व मात्र मानते हैं। पैटन ने भी इच्छा को अधिकार के एक तत्व के रूप में ही स्वीकार किया है।
हॉलैण्ड ने मत अनुसार “विधिक अधिकार किसी व्यक्ति में निहित वह क्षमता है जिससे वह राज्य की सहमति और सहायता से अन्य व्यक्तियों के कृत्यों को नियंत्रित करा सकता है।”
ऑस्टिन के अनुसार किसी व्यक्ति के अधिकार का अर्थ यह है कि दूसरे व्यक्ति उसके सम्बन्ध में कुछ करने या न करने के लिए विधि द्वारा बाध्य हैं। ऑस्टिन द्वारा दी गई अधिकार की यह परिभाषा राज्य की प्रभताशक्ति पर आधारित है। ऑस्टिन ने कर्त्तव्य की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह एक ऐसा दायित्व है जिसकी अवहेलना की जाने पर इसके साथ सम्बद्ध शास्ति के कारण यह दण्डनीय है।
परन्तु जॉन स्टुअर्ट मिल (Stuart Mill) ने ऑस्टिन के उपर्युक्त विचार की आलोचना इस आधार पर की है कि अधिकार के साथ हित सन्निहित होना प्राय: अनिवार्य है।
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Reference – Jurisprudence & Legal Theory (14th Version, 2005)