इस लेख में अपकृत्य विधि के अन्तर्गत विद्वेषपूर्ण अभियोजन क्या है | इसकी परिभाषा एंव आवश्यक तत्वों | Malicious Prosecution का उल्लेख निर्णित वादों से किया गया है| उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा…….
विद्वेषपूर्ण अभियोजन क्या है ?
प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों की रक्षा करने तथा विधि द्वारा प्रदत्त उपचारों को प्रयोग में लाने का अधिकार है। यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण अथवा उल्लंघन किया जाता है तो ऐसे व्यक्ति को दोषी व्यक्ति के विरुद्ध विधिक कार्यवाही करने का हक है। लेकिन साथ ही उसका यह कर्तव्य भी है कि वह ऐसी विधिक कार्यवाही सद्भावनापूर्वक करें।
विधिक कार्यवाही करने में वह विद्वैष द्वारा प्रेरित न हों। यदि वह ऐसी कार्यवाही सद्भावना पूर्वक नहीं कर विद्वेष से प्रेरित होकर करता है तो उसे विद्वेषपूर्ण कार्यवाही का दोषी माना जायेगा तथा यह एक सिविल दोष (civil wrong) भी है।
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विद्वेषपूर्ण अभियोजन की परिभाषा
विद्वेषपूर्ण अभियोजन की अनेक परिभाषायें दी गई है। प्रचलित शब्दों में – विद्वेषपूर्ण अभियोजन से तात्पर्य किसी एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध विद्वेष भाव से प्रेरित होकर बिना किसी युक्तियुक्त अथवा न्यायसम्मत आधार के असफल अभियोजन चलाना।
सी.एम. अग्रवाल बनाम हलर साल्ट एण्ड केमिकल वक्सं लि. के मामले में कहा गया है कि – विद्वैषपूर्ण अभियोजन के अपकृत्य का विधिक आधार दोषपूर्ण तरीके से विधिक आदेशिका को गति में लाना होता है।
विद्वेषपूर्ण अभियोजन का तात्पर्य एक ऐसी दाण्डिक कार्यवाही से है जो असफल हो गई है जो विद्वेषपूर्ण रीति से तथा बिना किसी युक्तियुक्त और सम्भाव्य कारण के संस्थित की गई थी। इस प्रकार का अभियोजन जब अभियोजित पक्षकार को वास्तविक क्षति कारित करता है तो यह एक अपकृत्य माना जाता है और उसके लिए क्षति पक्षकार विधिक कार्यवाही कर सकता है।
उदाहरण – क एवं ख में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा चलती है और क इस कारण ख से व्यापारिक विद्वेष रखता है। ख के व्यापार को गिराने तथा उसकी प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने के लिए क उसके विरुद्ध चोरी का एक मिथ्या अभियोजन चलाता है जिसमें ख का काफी धन व्यय/खर्च हो जाता है और उसकी प्रतिष्ठा को भी ठेस पहुँचती है। क का ख के विरुद्ध यह अभियोजन अन्त: में खारिज हो जाता है। यहाँ क के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए ख क्षतिपूर्ति की कार्यवाही कर सकता है।
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विद्वेषपूर्ण अभियोजन के तत्व
विद्वेषपूर्ण अभियोजन के प्रकरण में वादी को निम्नलिखित बातें साबित करनी होती है जिन्हें विद्वेषपूर्ण अभियोजन के प्रमुख आवश्यक तत्व भी कहा जाता है|
सूरतसिंह बनाम म्युनिसिपल कॉरपोरेशन, दिल्ली (ए.आई.आर. 1989 दिल्ली 51) एंव टी.वी. कृष्णन बनाम पी. टी. गोविन्दन (ए.आई. आर. 1989 केरल 83) के मामलों में विद्वेषपूर्ण अभियोजन के इन आवश्यक तत्वों की पुष्टि की गई है तथा इन दोनों मामलों में यह कहा गया है कि विषपूर्ण अभियोजन के मामलों में इन तत्वों को साबित किया जाना आवश्यक है –
(1) प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध अभियोजन चलाया जाना
विद्वेषपूर्ण अभियोजन के वाद में सफलता हेतु सबसे पहले यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध अभियोजन चलाया गया था। ऐसा अभियोजन दाण्डिक प्रकृति का था तथा सक्षम न्यायालय में चलाया गया था। पुलिस के समक्ष कार्यवाही एवं सिविल मामलों में यह व्यवस्था लागू नहीं होती है।
इस सम्बन्ध में नगेन्द्रनाथ राय बनाम बसन्त दास बैनर्जी का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है जिसमे प्रतिवादी के घर चोरी हो जाने पर उसने वादी पर सन्देह व्यक्त करते हुए पुलिस में सूचना दी। पुलिस द्वारा वादी को गिरफ्तार किया जाकर अन्वेषण किया गया। अन्वेषण में वादी के विरुद्ध अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की गई।
न्यायालय ने अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए वादी को रिहा कर दिया। इस पर वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण अभियोजन का वाद संस्थित किया। न्यायालय ने वाद को खारिज करते हुए कहा कि यह अभियोजन नहीं होकर केवल पुलिस के समक्ष की गई कार्यवाही थी। [आई. एल. आर. (1930)57 कलकत्ता35]
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(2) अभियोजन का बिना किसी युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण के चलाया जाना
विद्वेषपूर्ण अभियोजन का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व प्रकरण में युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण का अभाव होना है। विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामलों में वादी को यह साबित करना होता है कि प्रतिवादी ने उसके विरुद्ध अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त अथवा सम्भाव्य कारण के चलाया था।
विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए क्षतिपूर्ति के मामलों में प्रतिवादी के विरुद्ध मात्र यह आरोप लगा देना पर्याप्त नहीं है कि उसके द्वारा वादी के खिलाफ मिथ्या/झूठे अभिकथनो के आधार पर परिवाद पेश किया गया था उसे यह बताना होगा कि परिवाद किस प्रकार बिना किसी युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारणों (Without probable or justifiable cause) के था।
हिक्स बनाम फाकनर के मामले में न्यायालय द्वारा युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि – “युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण से तात्पर्य है ऐसा कोई स्पष्ट कारण या आधार जिससे इस बात का अनुमान लगाया जा सकता था कि वादी अभ्यारोपित अपराध को करना चाहता था।” [(18788 क्यू.बी.डी. 167]
ब्राउन बनाम हाक्स के प्रकरण में यह कहा गया है कि – युक्तियुक्त और सम्भाव्य कारण का अभाव विद्वेषपूर्ण अभियोजन का साक्ष्य माना जाता है। यदि अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त या सम्भाव्य कारण के अर्थात अकारण ही चलाया जाता है तो यह विद्वैषपूर्ण अभियोजन माना जायेगा क्योंकि उसका आधार दुर्भावना है। [(1891) 2क्यू.बी.718]
इस सम्बन्ध में मांगीलाल बनाम माणकचन्द का एक महत्त्वपूर्ण मामला है, इसमें वादी एवं प्रतिवादी भागीदारी में व्यवसाय करते थे। दोनों में लेखों को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। प्रतिवादी ने वादी के विरुद्ध आपराधिक न्यास भंग तथा लेखा बहियों की चोरी का परिवाद प्रस्तुत किया। साक्ष्य के दौरान यह आरोप आधारहीन पाये गये। परिवाद के आधार पर वादी के मकान की तलाशी ली गई लेकिन उसमें कुछ नहीं मिला। इन सारी कार्यवाहियों एवं अभियोजन से वादी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची। न्यायालय ने इस अभियोजन को बिना किसी युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण का माना। (ए.आई.आर. 2002 एन ओ सी 215मध्यप्रदेश)
हेतराम बनाम मदनगोपाल के वाद में – प्रतिवादी ने वादी पर यह मिथ्या आरोप लगाया कि उसके द्वारा प्रतिवादी के मकान में आग लगाकर उसे क्षतिग्रस्त कर दिया। लेकिन प्रतिवादी द्वारा इस सम्बन्ध में कोई सबूत पेश नहीं किया गया। प्रतिवादी का कथन युक्तियुक्त कारणों पर आधारित भी नहीं था। परिस्थितियाँ भी विपरीत लग रही थी। न्यायालय ने इसे विद्वेषपूर्ण अभियोजन का मामला मानते हुए वादी को कारित मानसिक पीड़ा व व्यापारिक क्षति के लिए प्रतिवादी पर 55,000/- रूपये का प्रतिकर (क्षतिपूर्ति) अधिरोपित किया। इसमें वाद व्यय भी सम्मिलित था। (ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी. 351 हिमाचल प्रदेश)
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(3) अभियोजन के विद्वेषपूर्ण भाव से प्रेरित होना
यह विद्वेषपूर्ण अभियोजन का तीसरा प्रमुख तत्व है, इसमें वादी को यह भी साबित करना होता है कि प्रतिवादी द्वारा वादी के खिलाफ अभियोजन विद्वेषपूर्ण आशय से संस्थित किया गया था। इसके साथ ही यह भी साबित करना आवश्यक है कि प्रतिवादी का आशय वादी को क्षति पहुँचाने का था।
विद्वैष से तात्पर्य – अनुचित अथवा सदोष हेतुक का होना अर्थात् प्रश्नगत विधिक प्रक्रिया का उसके विधिपूर्वक निश्चित वा समुचित प्रयोजन से भिन्न प्रयोजन के आशय से प्रयोग करना है।
इस सम्बन्ध में फिल्मिस्तान ड्रिस्ट्रीब्यूटर्स (इण्डिया) प्रा.लि. बम्बई बनाम हंसाबेन बलदेवदास शिवलाल का अच्छा प्रकरण है, इसमें वादी के प्रार्थना पर न्यायालय द्वारा प्रतिवादी के खिलाफ इस आशय का व्यादेश जारी किया गया था कि – वादी द्वारा प्रदत्त फिल्मों के आलावा अन्य किसी फिल्म का अपने सिनेमा में प्रदर्शन नहीं करेगा। व्यादेश जारी करते समय वादी द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि वह प्रतिवादी को फिल्मों का प्रदाय निरन्तर करता रहेगा। लेकिन कालान्तर में बिना किसी औचित्य के वादी ने प्रतिवादी को फिल्में देना बन्द कर दिया जिससे प्रतिवादी को काफी नुकसान हुआ। न्यायालय ने वादी के इस कृत्य को विद्वेषपूर्ण माना। (ए.आई.आर. 1986 गुजरात 35)
इस सम्बन्ध में एक और प्रकरण अब्दुल मजीद बनाम हरवंश चौबे का है, जिसमें वादी को भारतीय दण्ड सहिंता की धारा 412 के अन्तर्गत डकैती के मामले में अभिप्राप्त हंसुली को अपने कब्जे में रखने के अपराध में अभियोजित किया गया था। पुलिस अधिकारी ने दो अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर वस्तुतः यह षड़यंत्र रचा कि हंसुली वादी के घर में मिली थी। अन्ततः न्यायालय द्वारा सन्देह का लाभ देते हुए वादी को दोषमुक्त घोषित कर दिया गया। न्यायालय ने यह पाया कि प्रतिवादीगण द्वारा वादी को अभियोजित करने के लिए यह मिथ्या कहानी गढ़ी गई थी जो दोषपूर्ण एवं अप्रत्यक्ष प्रयोजन द्वारा प्रेरित थी। प्रतिवादीगण को विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए उत्तरदायी ठहराया गया। (ए.आई.आर. 1974 इलाहाबाद 129)
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(4) अभियोजन का असफल रहना
विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामले में वादी को सफलता केवल तभी मिल सकती है जब अभियोजन उसके पक्ष में असफल रहा हो यानि वादी को दोषमुक्त घोषित कर दिया गया हो। यदि अभियोजन में वादी को दोषसिद्धि किया जाता है तो वह विद्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही नहीं कर सकता चाहे दोषारोपण कितना ही विद्वेषपूर्ण एवं निराधार ही क्यों न रहा हो। [विलिन्स बनाम फ्लेचर, (1611) बी. 185]
वादी के पक्ष में अभियोजन के असफल रहने का अर्थ ना केवल वादी की दोषमुक्ति है वरन अभियोजन निम्नांकित कारणों से भी असफल माना जा सकता है –
(i) वादी का दोषमुक्त हो जाना
(ii) अभियोजन का रुक जाना
(iii) वादी को उनमोचित (discharge) कर दिया जाना
(iv) तकनीकी कारणों से दोषसिद्धि को अभिखण्डित कर दिया जाना
(v) अपील में दोषसिद्धि के आदेश को अपास्त कर दिया जाना
(vi) कार्यवाही के तंग या परेशान करने वाली होने के कारण उसे समाप्त कर दिया जाना, आदि।
एवरेस्ट बनाम रिवेन्ड्स के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि – विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामले में सफलता हेतु यह आवश्यक है कि प्रतिवादी द्वारा चलाया गया अभियोजन असफल हो जायें अर्थात् वह वादी के पक्ष में निर्णीत हो जायें। [ (1952)2 क्यू.बी. 198]
(5) अभियोजन से वादी को क्षति कारित होना
विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामले में वादी को अन्ततः यह साबित करना होता है कि, प्रतिवादी द्वारा चलाये गये अभियोजन से वादी को क्षति कारित हुई है। वस्तुतः क्षति ही विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामले का सार है।
क्षति तीन प्रकार की हो सकती है –
(i) शारीरिक क्षति
(ii) सम्पति की क्षति एंव
(iii) प्रतिष्ठा की क्षति
इस सम्बन्ध में सी. एम. अग्रवाल बनाम हलर साल्ट एण्ड केमिकल वर्क्स का एक प्रमुख मामला है। इसमें वादी एक भागीदारी फर्म का भागीदार था। प्रतिवादी द्वारा उस पर विद्वेषपूर्ण अभियोजन चलाया गया। अभियोजन के दौरान वादी को लगभग 20 बार कलकत्ता जाना पड़ा, वहाँ उसे अभियुक्त के कटघरे में खड़ा रहना पड़ा जिससे उसे धन की क्षति के साथ-साथ मानसिक कष्ट भी हुआ। न्यायालय ने उसे 5,000/- रुपये सामान्य नुकसानी के साथ-साथ 15,000/- रुपये विशेष नुकसानी के दिलाये। (ए.आई. आर. 1977 कलकत्ता 356)
श्रीराम बनाम बजरंगलाल के मामले में एक वकील के विरुद्ध मिथ्या आरोप लगाकर उसे अभियोजित किया गया था। न्यायालय ने ऐसे मामलों में पर्याप्त क्षतिपूर्ति दिये जाने के दिशा निर्देश जारी किये। (1949 एन एल जे 57)
बदरीदास बनाम नाथूमल के मामले में यह कहा गया है कि, विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामलों में नुकसानी का निर्धारण करते समय प्रतिवादी के आशय व आचरण तथा वादी को कारित क्षति को ध्यान में रखा जाना चाहिये। (1901 पी.आर.112)
इस प्रकार विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामले में उपरोक्त पाँचों बातों को साबित किया जाना आवश्यक है इसलिए इन्हें विद्वेषपूर्ण अभियोजन के आवश्यक तत्व भी कहा जाता है।
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