हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 2(1)(य) में वारन्ट मामला एंव धारा 261 से 273 में वारन्ट मामला के विचारण की प्रक्रिया (Explain the process of trial of Warrant case) का उल्लेख किया गया है, उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –
जैसा की हम जानते है कि प्रकृति एवं प्रक्रिया की दृष्टि से आपराधिक मामलें दो तरह के होते है –
(क) समन मामला (Summons Case)
(ख) वारन्ट मामला (Warrant Case)
वारन्ट मामला क्या है | What is Warrant Case
वारन्ट मामला की परिभाषा भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 2(1)(य) में दी गई है। इसके अनुसार – वारन्ट मामला से तात्पर्य ऐसे मामलों से है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध से सम्बन्धित होते है|
सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि ऐसे अपराधों से संबंधित समस्त मामले, जो 2 वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय है, वारन्ट मामला/मामले होते हैं।
उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि वारन्ट मामला से अभिप्राय ऐसे मामले से है जो –
(क) मृत्यु दण्ड या
(ख) आजीवन कारावास, या
(ग) दो वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध से सम्बन्धित है।
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वारन्ट मामला के विचारण की प्रक्रिया
पूर्व की दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 238 से 250 जो वर्तमान में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 261 से 273 है, में वारन्ट मामला (Warrant Case) के विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है| विचारण की प्रक्रिया की दृष्टि से इसको दो भागों में विभाजित किया गया है –
(क) पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित मामले
(ख) पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित मामले
(क) पुलिस रिपोर्ट पर सस्थित वारन्ट केस में प्रक्रिया
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 261 से 266 तक में पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारन्ट मामला में विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। इनके अनुसार विचारण की प्रक्रिया निम्नानुसार है –
(1) अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट तथा अन्य दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ दिया जाना
संहिता की धारा 261 के तहत जब पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित किसी वारन्ट मामला में अभियुक्त को विचारण के प्रारम्भ में मजिस्ट्रेट के समक्ष लाया जाता है या वह हाजिर होता है तब सर्वप्रथम उसे पुलिस रिपोर्ट की एवं अन्य दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ दी जायेगी और मजिस्ट्रेट द्वारा इस बात का समाधान कर लिया जायेगा कि अभियुक्त को ऐसी प्रतिलिपियाँ दे दी गई है।
आम भाषा में इसे ‘चालान’ अथवा ‘चार्जशीट’ (आरोप–पत्र) की नकल कहा जाता है।
(2) आरोप निराधार होने पर अभियुक्त को उन्मोचित किया जाना –
अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट तथा दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ दे देने के पश्चात् मजिस्ट्रेट द्वारा –
(i) ऐसी रिपोर्ट पर विचार किया जायेगा
(ii) आवश्यक होने पर अभियुक्त की परीक्षा की जा सकेगी
(iii) अभियुक्त व अभियोजन को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जायेगा। इसे प्रचलित भाषा में ‘बहस चार्ज’ कहा जाता है।
इन सबके पश्चात् यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध आरोप निराधार है तो कारण लेखबद्ध करते हुए उसे उन्मोचित (discharge) कर दिया जायेगा। (धारा 262)
इन सबका मुख्य उद्देश्य इस बात का पता लगाना है कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्रथम दृष्ट्या मामला बनता है या नहीं। (स्टेट बनाम सीताराम दयाराम, ए. आई. आर. 1959, मध्यप्रदेश 99)
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(3) आरोप की विरचना –
लेकिन यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध यह उपधारणा किये जाने के आधार है कि –
(i) उसके द्वारा कोई अपराध कारित किया गया है
(ii) ऐसे अपराध का विचारण करने के लिए वह सक्षम है
(iii) उसकी राय में अभियुक्त को पर्याप्त रूप से दण्डित किया जा सकता है, तब अभियुक्त के विरुद्ध आरोप की लिखित में विरचना की जायेगी तथा ऐसा आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाया व समझाया जायेगा। अभियुक्त से यह भी पूछा जायेगा कि वह अपने आरोप को स्वीकार करता है या उसका विचारण चाहता है। (धारा 263) (कर्नल एस. कश्यप बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, ए.आई. आर. 1971, एस. सी. 1120)
इस प्रक्रम पर न्यायालय को मात्र यह देखना होता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्ट्या मामला बनता है और उसे आरोप सुनाये जाने के पर्याप्त आधार विद्यमान हैं। इस प्रक्रम पर साक्ष्य के मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं होती। (स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम सोमनाथ थापा, ए. आई. आर. 1996, एस, सी. 1744)
(4) दोषी होने के कथन पर दोषसिद्ध किया जाना –
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 264 के अनुसार यदि आरोप सुनाये जाने के पश्चात् अभियुक्त अपने दोषी होने का अभिवाक करता है अर्थात् आरोप को स्वीकार करता है तो मजिस्ट्रेट ऐसी स्वीकारोक्ति को लेखबद्ध करते हुए उसके आधार पर स्वविवेकानुसार उसे दोषसिद्ध कर सकेगा।
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(5) अभियोजन की साक्ष्य लेना –
जहाँ आरोप सुनाये जाने के पश्चात् अभियुक्त दोषी होने का अभिवाक् नहीं करता है और विचारण चाहता है, वहाँ मजिस्ट्रेट द्वारा अभियोजन पक्ष की साक्ष्य लेखबद्ध की जायेगी। (धारा 265)
स्टेट बनाम सुवा के प्रकरण अनुसार – मजिस्ट्रेट द्वारा उस समस्त साक्ष्य को लेखबद्ध किया जायेगा जो अभियोजन के समर्थन में उसके समक्ष प्रस्तुत की जाये। (ए.आई. आर. 1962, राजस्थान 134 )
“मजिस्ट्रेट अभियुक्त को पुलिस द्वारा अन्वेषण के दौरान अभिलिखित किए गए साक्षियों के कथन अग्रिम रूप से प्रदान करेगा।”
(6) प्रतिरक्षा की साक्ष्य लेना –
अभियोजन की साक्ष्य पूर्ण हो जाने पर अभियुक्त की प्रतिरक्षा (defence) को साक्ष्य ली जायेगी और यदि अभियुक्त कोई लिखित कथन देना चाहे तो उसे अभिलेख पर फाइल किया जायेगा।
अभियुक्त किसी साक्षी को न्यायालय की आदेशिका से हाजिर कराने की अपेक्षा कर सकेगा। ऐसे साक्षियों का व्यय अभियुक्त को वहन करना होगा। (धारा 266)
(7) दोषसिद्धि या दोषमुक्ति का निर्णय –
अन्त में मजिस्ट्रेट द्वारा दोनों पक्षों को सुना जायेगा और सुनवाई के पश्चात् यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है तो उसे ‘दोषमुक्त’ (Acquit) कर दिया जायेगा।
लेकिन यदि मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अभियुक्त दोषी है तो उसे तदनुसार ‘दोषसिद्ध’ (Convict) किया जायेगा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दण्डादेश पारित करने से पूर्व अभियुक्त को ‘दण्ड के प्रश्न’ पर सुना जायेगा बशर्ते कि उसे परिवीक्षा का लाभ नहीं दिया जाना हो।
यदि अभियुक्त पर ‘पूर्व दोषसिद्धि’ का आरोप है तो उस पर साक्ष्य ली जाकर निष्कर्ष अभिलिखित किया जायेगा। (धारा 271)
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(ख) पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थितं वारन्ट मामला में विचारण की प्रक्रिया –
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 267 से 270 तक में पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित वारन्ट केस (Warrant Case) में विचारण की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है।
वस्तुतः पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारन्ट मामला तथा पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित वारन्ट मामलों में विचारण की प्रक्रिया लगभग एक समान ही है। ऐसे मामलों में भी अभियुक्त को मामले तथा उससे सम्बन्धित दस्तावेजों की प्रतिलिपियाँ देने से लेकर निर्णय तक उसी प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है जिसका पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारन्ट केस में किया जाता है।
अन्तर केवल यही है कि ऐसे मामलों में संहिता की धारा 267 के अन्तर्गत आरोप विरचित किये जाने से पूर्व अभियोजन पक्ष की साक्ष्य लेखबद्ध की जाती है। इसे ‘आरोप पूर्व की साक्ष्य’ (Evidence before charge) कहा जाता है। ऐसी साक्ष्य लेखबद्ध करने के पश्चात् ही आरोप विरचित किये जाने के प्रश्न पर विचार किया जाता है।
इस व्यवस्था का मुख्य कारण यह है कि पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित मामलों में अभियोजन की प्रथमदृष्ट्या साक्ष्य अन्वेषण के दौरान एकत्रित अथवा संगृहीत कर ली जाती है जबकि पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित मामलों में ऐसी साक्ष्य अभिलेख पर नहीं होती है।
प्रथम दृष्ट्या वारन्ट मामला सुनिश्चित करने के लिए ऐसी साक्ष्य आवश्यक होती है, इसीलिये ऐसे मामलों में धारा 267 में अभियोजन की साक्ष्य लेखबद्ध किये जाने का प्रावधान किया गया है। विचारण की शेष सारी प्रक्रिया दोनों प्रकार के मामलों में समान है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ऐसे मामलों में अभियुक्त को मात्र इस आधार पर उन्मोचित नहीं किया जा सकता है कि –
(क) परिवाद 25 दिन के विलम्ब से पेश किया गया था, (राकेश कुमार जैन बनाम स्टेट, ए, आई. आर. 2000 एस. सी. 2754) अथवा
(ख) मामला सात वर्षों से लम्बित है। (स्टेट ऑफ बिहार बनाम बैदनाथ प्रसाद, ए. आई. आर 2002 एस. सी. 64)
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