इस आलेख में मुस्लिम विधि के अन्तर्गत वसीयत (ईच्छा पत्र) क्या होती, परिभाषा, वैध वसीयत के आवश्यक तत्व एंव इससे सम्बंधित प्रावधानों के बारें में बताया गया है, यह आलेख विधि के छात्रो व आमजन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं|
परिचय – वसीयत (Will)
हमारे समाज में सम्पत्ति के अन्तरण की अनेक रीतियाँ है जिनमे विक्रय, दान, विनिमय, वसीयत, हिबा आदि है, लेकिन इन सभी मे वसीयत द्वारा सम्पत्ति के अन्तरण की रीति भिन्न है।
विक्रय, दान, विनिमय आदि में सम्पत्ति के अन्तरण का संव्यवहार दो जीवित व्यक्तियों के मध्य होता है लेकिन वसियत में एक पक्षकार जीवित तथा दूसरा पक्षकार मृतक होता है| यानि वसीयत पक्षकार के मृत्यु के बाद लागु होती है|
वसीयत एक ऐसा दस्तावेज है जिसके माध्यम से कोई भी व्यस्क तथा स्वस्थचित व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद अपनी सम्पति को किसी अन्य व्यक्ति को सौंप सकता है| इसका तात्पर्य यह है कि वसियत करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के बाद ‘वसीयत’ प्रभाव में आती है।
वसीयत विधि किसी भी व्यक्ति को अपने उतराधिकार के अधिकार से रहित कुछ सम्बन्धियों को, अजनबी व्यक्तियों द्वारा की गई सेवा या अपने अंतिम समय में की गई सेवा-शुश्रुषा आदि का उपकार (प्रतिफल) देने का प्रावधान करती है|
इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर मोहम्मद साहब के अनुसार – “प्रत्येक मुसलमान को अपनी मृत्यु के बाद अपनी सम्पति के बंटवारे की व्यवस्था करनी चाहिए तथा जब तक वह वसियत ना लिख ले उसे दो रात भी नहीं सोना चाहिए|
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वसीयत की परिभाषा | definition of will
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 2 (एच) के अनुसार – “वसीयत, इच्छापत्रकर्ता की अपनी सम्पति के सम्बन्ध में आशय की एक घोषणा है जिसकी वह अपनी मृत्यु के पश्चात् व्यवस्था करना चाहता है।” यहाँ इच्छापत्रकर्ता से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अपनी सम्पति की वसीयत करता है| मुस्लिम विधि पर भी यही परिभाषा लागू होती है।
फतवा-ए-आलमगिरी के अनुसार – वसीयतकर्त्ता की मृत्यु हो जाने पर प्रभाव में आने वाले किसी विशेष वस्तु, मुनाफे, लाभ या वृति में सम्पत्ति के अधिकार का अन्तरण वसियत कहलाता है।
इस प्रकार वसियत किसी व्यक्ति की अपनी सम्पति के सम्बन्ध में क़ानूनी घोषणा है जिसे वह व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद लागु करना चाहता है|
मुस्लिम विधि में वसियत समान्यतः एक लिखित पत्र होता है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपनी सम्पत्ति के अन्तरण को अपनी मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होने की व्यवस्था करता है और जो उसके जीवनकाल में परिवर्तनीय एवं विखण्डनीय होता है।
मुस्लिम विधि में वसियत सम्बन्धी कोई औपचारिक अपेक्षा नहीं है – कोई भी मुसलमान जो भारतीय वयस्कता अधिनियम के अंतर्गत व्यस्क हो तथा स्वस्थचित्त का हो, वह वसियत करने के लिए सक्षम है और वसीयतकर्ता द्वारा इस आशय की स्पष्ट घोषणा की जाए की “उसकी मृत्यु के बाद उसकी सम्पति का स्वामित्व वसियतदार को प्राप्त हो जाए”|
वसीयत मौखिक या लिखित किसी तरह से की जा सकती है, यह जरुरी नहीं है की वसीयत लिखित में ही हो| मौखिक वसीयत, बिना किसी प्रारूप या निर्धारित शब्दों के प्रयोग के हो सकती है, इसके अलावा सकेंतो द्वारा भी वसीयत की जा सकती है|
फतवा-ए-आलमगिरी के अनुसार – बोलने में असमर्थ बीमार व्यक्ति संकेतों द्वारा या सिर हिलाकर वसियत कर सकता है और यदि बोलने की सामर्थ्य पाने से पहले उसकी मृत्यु हो जाती है तो की गई वसीयत वैध मानी जाएगी|
अब्दुल मन्नान खां बनाम मुरतजा खान के वाद में उच्च न्यायालय ने कहा की “ प्रत्येक मुस्लिम जो स्वस्थचित्त व व्यस्क है अपनी सम्पति को वसियत द्वारा अंतरित कर सकता है और जहाँ वसियत पत्र का सम्बन्ध है, विधि कोई निर्धारित प्रारूप या औपचारिकता का प्रावधान नहीं करती है| एक वसीयतकर्ता की स्पष्ट अभिव्यक्ति इस उद्देश्य को पूरा कर सकती है”| (ए.आई.आर. 1991 पटना 155)
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वैध वसीयत के आवश्यक तत्व
मुस्लिम विधि में एक वैध वसियत के आवश्यक तत्व निम्नलिखित है
(1) वसीयतकर्त्ता का सक्षम होना
जैसा की हम जानते है कि वसियत में दो पक्षकार वसीयतकर्त्ता व वसीयतदार होते है, वसीयत करने वाले व्यक्ति को ‘वसीयतकर्त्ता’ कहा जाता है। वैध वसीयत के लिए वसीयतकर्ता का सक्षम होना आवश्यक है यानि ऐसे व्यक्ति का –
(i) मुसलमान,
(ii) वयस्क, एवं
(iii) स्वस्थचित्त होना आवश्यक है
अवयस्क तथा पागल व्यक्ति वसीयत करने में सक्षम नहीं होता है और कोई दिवालिया व्यक्ति अपनी सम्पत्ति की वसियत तब तक नहीं कर सकता जब तक कि ऋणों का भुगतान ना कर दिया जाये या ऋणदाता द्वारा ऋण माफ ना कर दिया जाये।
अवयस्क व्यक्ति द्वारा भी इस शर्त के साथ वसीयत की जा सकती है कि उसके वयस्क होने पर की गई वसीयत का अनुसमर्थन कर दिया जाये। वसियत स्वंतत्र ईच्छा से की जानी चाहिए, यह किसी भी प्रकार के भय, दबाव, कपट या मिथ्या भाषण के अधीन नहीं होनी चाहिए।
शिया विधि के अन्तर्गत आत्महत्या का प्रयास करने वाला व्यक्ति वसियत नहीं कर सकता है क्योंकि उस समय वह स्वस्थचित्त नहीं होता। लेकिन वसीयत यदि आत्महत्या के प्रयास से पूर्व कर दी गई है तो वह वैध मानी जाती है। अमीर अली के अनुसार – आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति द्वारा की गई वसियत अवैध होती है।
मुस्लिम विधि में वयस्कता की आयु 15 वर्ष मानी जाती है लेकिन वसियत के सम्बन्ध में भारतीय वयस्कता अधिनियम के पारित होने के कारण वयस्कता की आयु 18 वर्ष की आयु मानी गई है और यदि अवयस्क का सरंक्षक न्यायालय द्वारा नियुक्त किया हुआ है तब उसकी अवयस्कता 21 वर्ष की आयु पूरी होने पर समाप्त होगी|
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(2) वसीयतदार (रिक्थग्राही) का सक्षम होना
जिसके पक्ष में वसीयत की जाती है उसे ‘वसीयतदार’ कहा जाता है, एक वैध वसियत के लिए वसीयतदार का भी सक्षम होना आवश्यक है। मुस्लिम विधि के अन्तर्गत सम्पति धारण करने में समर्थ कोई भी व्यक्ति वसीयतदार हो सकता है चाहे वह किसी भी लिंग, आयु, निष्ठा या धर्म का क्यों न हो।
इससे यह स्पष्ट है कि वसियत किसी गैर मुसलमान को भी की जा सकती है क्योंकि मुस्लिम विधि में इस पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
सुन्नी विधि के अनुसार – वसीयत करते समय वसियतदार का अस्तित्व में होना और शिया विधि में – वसीयतकर्ता की मृत्यु से पहले वसियतदार का अस्तित्व में होना आवश्यक है
मुस्लिम विधि में अजन्मे व्यक्ति (Unborn Child) के पक्ष में भी वसियत की जा सकती है | इस सम्बन्ध में सुन्नी एवं शिया विधि में भिन्न-भिन्न व्यवस्था है।
केस – इन दि मेटर ऑफ एस्टेट ऑफ लेट श्री मुस्लिम सिद्दिकी भाईलाल शुक्ला (ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी. 645 इलाहाबाद)
इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि – “किसी भी मुस्लिम व्यक्ति द्वारा किसी गैर-मुस्लिम व्यक्ति के पक्ष में अपनी सम्पति की वसियत की जा सकती है तथा किसी भी गैर-मुस्लिम व्यक्ति को उसका निष्पादक (Executor) नियुक्त किया जा सकता है।
(3) वसीयत की जाने वाली सम्पति की विषय–वस्तु
वैध वसियत के लिए यह आवश्यक है कि जिस सम्पत्ति या वस्तु की वसीयत की जा रही है, वह सम्पति या वस्तु –
(i) अन्तरण योग्य हो
(ii) वसियतकर्त्ता के स्वामित्व की हो तथा
(iii) वसियकर्त्ता की मृत्यु के समय अस्तित्व में हो।
ऐसी कोई भी चल या अचल, मूर्त या अमूर्त सम्पति जो अन्तरण योग्य हो और वसियतकर्ता की मृत्यु के समय विद्यमान तथा उनके स्वामित्व, अनन्य आधिपत्य की हो, की वसीयत की जा सकती है यानि वसियत में दी जाने वाली सम्पति किसी अन्य व्यक्ति के स्वामित्व की नहीं होनी चाहिये और एक मुसलमान द्वारा अपनी एक तिहाई सम्पति से अधिक की वसियत नहीं की जा सकती है|
एक तिहाई सम्पति की वसियत के सम्बन्ध में यह कहा जाता है की – जब एक मुसलमान व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तब उस व्यक्ति का यदि कोई ऋण है तो सबसे पहले उसे अदा करना चाहिए फिर मृतक के अंतिम संस्कार में जो खर्च होता है उसका भुगतान करना चिहिए| इस प्रकार के सभी खर्चों की कटोती के बाद बची हुई सम्पति में एक तिहाई सम्पति को वसियत में दिया जा सकता है|
ऐसी सम्पति या वस्तु की वसियत को शून्य माना गया है जो वसियतकर्त्ता की मृत्यु के समय विद्यमान नहीं है या जो घटनापेक्ष अर्थात् समाश्रित है| वसियतकर्ता की मृत्यु के समय सम्पति का विद्यमान होना जरुरी है, इसमें यह जरुरी नहीं है की वसियत के समय सम्पति विद्यमान हो|
उदाहरण – क अपनी समस्त सम्पतियों को ख के पक्ष में वसियत करता है और वसीयत के समय क केवल मात्र एक मकान का स्वामी होता है| लेकिन कुछ दिनों के बाद ग अपना एक बगीचा क के पक्ष में दान करता है और क मृत्यु के समय मकान व बगीचा दोनों का स्वामी बना रहता है | इस प्रकार क की मृत्यु के बाद ख को वसियत में मकान और बगीचा दोनों प्राप्त होगें, यह अलग बात है की वसियत के समय क के पास केवल एक मकान था, बगीचा नहीं था|
मुल्ला का भी यही मत है कि- “A bequest in future is void and a contingent bequest is void.” (Mulla’s Priciples of Mahomedan Law, Note 124 & 125)
(4) वसीयत की शक्ति और सीमा
मुस्लिम विधि में मुसलमान की वसियत शक्ति दो प्रकार से सिमित होती है, उसे वसियत द्वारा सम्पति अन्तरण की असीमित शक्ति नहीं होती है
(i) वसीयतदार व्यक्ति से सम्बंधित सीमा – एक मुसलमान द्वारा एक ऐसे व्यक्ति के पक्ष में वसियत नहीं कर सकती जो उतराधिकार प्राप्त करने का अधिकार रखता हो|
सुन्नी एंव फातिमिद विधि के अनुसार – “जब तक अन्य उतराधिकारियों द्वारा सहमती ना दी गई हो किसी उतराधिकारी को वसियत नहीं की जा सकती है|
केस – गुलाम मोहम्मद बनाम गुलाम हुसैन (ए.आई.आर. 1971 राज. 149)
इस मामले में यह निर्णय दिया गया कि “कोई भी मुसलमान व्यक्ति अपने उत्तराधिकारी के पक्ष में तब तक वसियत नहीं कर सकता है, जब तक कि अन्य उत्तराधिकारी इसके लिए अपनी सहमति नहीं दे देते और ऐसी सहमति का वसियतकर्त्ता की मृत्यु के पश्चात् दिया जाना आवश्यक है।
केस – श्रीमती मुनवर बेगम बनाम आसिफ अली (ए.आई. आर. 2016 एन.ओ.सी. 259 कलकत्ता)
इस प्रकरण में उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि “किसी एक उत्तराधिकारी के पक्ष में वसियत तब तक विधिमान्य नहीं होगी जब तक अन्य सभी उत्तराधिकारी अपनी सहमति नहीं दे देते।
उतराधिकारी कोन होता है –
वसीयतकर्ता के उतराधिकारी के सम्बन्ध में कोई व्यक्ति उतराधिकारी है या नहीं, पर ध्यान वसीयतकर्ता की मृत्यु के समय दिया जाना चाहिए ना की वसियत के निष्पादन के समय पर, क्योंकि एक व्यक्ति जो वसीयत के समय उतराधिकारी हो जरुरी नहीं है की वह व्यक्ति वसीयतकर्ता की मृत्यु के समय भी उतराधिकारी हो और जो वसियत के समय उतराधिकारी ना हो वह उसके मृत्यु पर उतराधिकारी हो जाए|
उदाहरण – क अपने भाई ख के पक्ष में जो उस समय एक सम्भाव्य उतराधिकारी है वसीयती दान करता है| इसके बाद में क के एक सन्तान ग उत्पन्न हो जाती है| ख व ग के जीवनकाल में क की मृत्यु हो जाती है, उस स्थिति में सन्तान ग अपने पिता क से उतराधिकार प्राप्त करेगा और ख अब उतराधिकारी नहीं रहेगा जिससे उसके पक्ष में किया गया वसियती दान मान्य होगा क्योंकि क (वसियतकर्ता) की मृत्यु के समय ख उतराधिकारी नहीं था|
शिया विधि के अनुसार – वसियतकर्ता किसी उतराधिकारी को वसीयती दान अपनी सम्पति के एक तिहाई हिस्सा तक कर सकता है जिसके लिए दुसरे उतराधिकारियों की सहमती की भी आवश्यकता नहीं है| लेकिन यदि वसियतकर्ता द्वारा वसीयती दान एक तिहाई हिस्से से अधिक की सम्पति का किया जाए और दुसरे उतराधिकारी उसके लिए सहमत ना हो, तब वसियती दान मान्य नहीं होगा और वसियती दान के मान्य के लिए दुसरे उतराधिकारियों द्वारा ऐसी सहमती, वसीयतकर्ता की मृत्यु से पहले या बाद में भी दी जा सकती है|
(ii) सम्पत्ति से सम्बंधित सीमा – ‘महबूब बी बनाम शरफुन्निस्सा’ के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ वसियत के अन्तर्गत सभी वारिस सम्पत्ति के अपने-अपने हिस्से पर भौतिक कब्जा प्राप्त कर लेते हैं और उसका उपयोग करने लग जाते हैं, वहाँ उनकी विवक्षित सम्मति मान ली जाती है। (ए.आई.आर. 2015 एन.ओ.सी. 432 कर्नाटक)
इसी प्रकार कोई भी मुसलमान अपनी विशुद्ध सम्पत्ति, जो कि ऋणों के भुगतान एवं अंत्येष्टि के खर्चों के बाद शेष रहती है, के “एक-तिहाई” से अधिक की वसियत तब तक नहीं कर सकता है जब तक वसीयतकर्त्ता की मृत्यु के पश्चात् उसे उत्तराधिकारियों द्वारा इस निमित्त सहमति नहीं दे दी जाती है। [ खजूरन्निसा बनाम रोशन जहाँ, (1876)2 कलकत्ता 184]
मुस्लिम विधि के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति अपने किसी एक उत्तराधिकारी के पक्ष में तब तक वसियत नहीं कर सकता है जब तक कि वसीयतकर्त्ता की मृत्यु के पश्चात् उसके अन्य उत्तराधिकारियों द्वारा इस निमित्त अपनी सहमति नहीं दे दी जाती है। किसी कार्यवाही में उत्तराधिकारियों के मौन रहने, भाग नहीं लेने अथवा उनके विरुद्ध एकपक्षीय कार्यवाही किये जाने को उनकी विवक्षित सहमति नहीं माना जा सकता।
‘यासीन इमाम भाई शेख बनाम हाजरा बी’ के मामले में भी बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा यही अभिनिर्धारित किया गया है कि- “मुस्लिम विधि के अन्तर्गत वसियत के प्रयोजनार्थ सम्पत्ति की सीमा के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि कोई भी मुसलमान अपनी परिसम्पत्ति में से कफन-दफन के खर्च एवं ऋणों के भुगतान के बाद बची हुई परिसम्पत्ति के एक- तिहाई से अधिक की वसियत नहीं कर सकता है।” (ए.आई.आर. 1986 बम्बई 357)
(5) वसीयत का उद्देश्य –
विधिमान्य वसियत के लिए उसके उद्देश्यों का भी विधिपूर्ण (Lawful) होना आवश्यक है और यह उद्देश्य सामाजिक, धार्मिक, खैराती किसी भी रूप में हो सकते है। आवश्यक मात्र यह है कि ऐसा उद्देश्य इस्लाम के विरुद्ध नहीं होना चाहिये।
बदरू लाल इस्लाम अलीखान बनाम अली बेगम के अनुसार – यदि वसीयतकर्ता किसी पवित्र या धार्मिक उद्देश्य के लिए अपनी सम्पति को वसियत करने की ईच्छा रखता है उस सुरत में वसियतकर्ता अपने स्वामित्व की सम्पति में एक तिहाई भाग तक ही सम्पति की वसियत कर सकता है| (ए.आई.आर. 1935 लाहौर 251)
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