इस आलेख में विधि के स्त्रोत के रूप में रूढ़ि (प्रथा) कि परिभाषा, इसके महत्त्व की समीक्षा एंव प्रथा की वैधता के लिए विभिन्न तत्वों का आसान भाषा में वर्णन किया गया है, यह आलेख कानून के छात्रों के काफी उपयोगी है

परिचय – रूढ़ि

रुढी जिसे प्रथा भी कहा जाता हैं, यह विधि का प्राचीनतम स्रोत है। रॉस्को पाउण्ड के अनुसार रूढ़ि, विधि का स्रोत एवं प्रारूप दोनों है। आदिम समुदायों में जब कोई विधि अस्तित्त्व में नहीं थी, तब रूढ़ियों या रूढ़िजन्य विधि से ही आचरण विनियमित एवं नियंत्रित होता था।

उस समय मानव के प्रत्येक आचरण या व्यवहार के लिए विधि का निर्माण किया जाना सम्भव भी नहीं था इसलिए अनेक कार्यों के औचित्य अनौचित्य का निर्धारण रूढ़ि या प्रथा के आधार पर किया जाता था।

यही कारण है कि समय के साथ-साथ रूढ़ि एवं प्रथा ने विधि का बल प्राप्त कर लिया और आज अनेक विधियाँ ऐसी हैं जो रूढ़ियों एवं प्रथाओं के आधार पर निर्मित हुई हैं।

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रूढ़ि की परिभाषा –

रूढ़ि का अर्थ बहुत ही सरल है, जब कोई कार्य किसी व्यक्ति, समाज, समूह या समुदाय द्वारा दीर्घकाल से निरन्तर एवं नियमित रूप से किया जाता है तो वह उस कार्य को करने का अभ्यस्त हो जाता है और ऐसा कार्य रूढ़ि या प्रथा का रूप धारण कर लेता है।

समाज में ऐसी रूढ़ि या प्रथा को मान्यता मिल जाती है और समाज हमेशा यह अपेक्षा करता है कि ऐसी प्रथा या रूढ़ि के अनुरूप कार्य किया जाता रहे।

इस प्रकार यह कहा जा सकता हैं कि, “समान परिस्थितियों में मानव आचरण की एकरूपता ही रूढ़ि है”।

इस सम्बन्ध में यदि किसी समुदाय विशेष के लोगों द्वारा किसी परम्परा का स्वेच्छा से पालन किया जाता है तो कालान्तर में वही आचरण रूढ़ि का रूप धारण कर लेता है और दीर्घकाल से उसके निरन्तर प्रचलन के कारण वह रूढ़ि अन्ततः विधि का बल प्राप्त कर लेती है।

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रूढ़ि की समय-समय पर विधिवेत्ताओं द्वारा भिन्न-भिन्न परिभाषायें दी जाती रही हैं, जैसे –

सॉमण्ड के अनुसार, “रूढ़ि ऐसे सिद्धान्तों की अभिव्यक्ति है, जिन्हें न्याय और लोकोपयोगिता के सिद्धान्तों के रूप में राष्ट्रीय चेतना के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है।”

ऑस्टिन के अनुसार, “रूढ़ि आचरण सम्बन्धी एक ऐसा नियम है जिसका शासित लोग सहज एवं स्वैच्छिक रूप से पालन करते हैं; किन्तु राजनीतिक प्रवर द्वारा निर्धारित विधि के तौर पर नहीं।”

हॉलैण्ड के अनुसार, “रूढ़ि आचरण की वह प्रणाली है जिसका सामान्यतः पालन किया जाता है। जिस प्रकार किसी घास के मैदान में पैरों के पड़ते-पड़ते एक पगडण्डी बन जाती है, ठीक उसी प्रकार नित्य प्रति के व्यवहारों के अनुकरण से प्रथा या रूढ़ि का जन्म होता है।”

एलेन (Allen) के अनुसार, “रूढी समाज में अन्तर्निहित ताकतों द्वारा विकसित विधिक एवं सामाजिक परिदृश्य है। यह ताकतें भागतः युक्ति और आवश्यकता तथा भागतः सुझाव और अनुकरण से उत्पन्न होती है।”

कार्टर ने रूढी की आसान परिभाषा देते हुए कहा है कि “समान परिस्थितियों में समस्त व्यक्तियों के कार्यों की एकरूपता ही रूढी या प्रथा है।”

हेल्सबरी के अनुसार, “रूढी एक प्रकार का विशिष्ट नियम है जो वास्तविक या सम्भावित रूप से स्मरणातीत समय से विद्यमान है और जिसे एक क्षेत्र विशेष में विधि का बल प्राप्त हो गया है, चाहे ऐसा नियम देश की सामान्य विधि के प्रतिकूल या असंगत ही क्यों न हो।”

हर्बर्ट स्पेन्सर रूढ़ि को पीढ़ी दर पीढ़ी चलाने वाली परम्परा मानते हुए कहते हैं कि “मानव आचरण को नियंत्रित करने वाली परिपाटी का पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाह ही रूढी है।”

‘हर प्रसाद बनाम शिवदयाल’ के मामले में प्रिवी कौंसिल द्वारा रूढी के सम्बन्ध में कहा गया है कि, “रूढी वह नियम है जिसे किसी विशिष्ट परिवार या क्षेत्र विशेष में दीर्घकालीन अनुसरण से विधि का बल प्राप्त हो जाता है।”

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रूढ़ि के आवश्यक तत्त्व –

रूढी की विधि मान्यता के लिए कुछ महत्वपूर्ण शर्तों का पूरा होना आवश्यक है। इन शर्तों को विधिमान्य रूढी के आवश्यकता तत्त्व भी कहा जाता है, यह तत्त्व निम्लिखित हैं –

(i) प्राचीनता

रूढी की विधि मान्यता के लिए उसका अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलन में होना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि विधिमान्य, रूढी के निरन्तरता तथा स्मरणातीत काल से प्रचलन (Continuity and Immemorial antiquity) आवश्यक है।

स्मरणातीत से तात्पर्य यह है कि, रूढी इतनी प्राचीन हो कि मानव स्मरण शक्ति उसके विपरीत या प्रतिकूल कुछ नहीं जानती हो। इसका अभिप्राय यह हुआ कि, रूढ़ि के लिए मात्र आदतन प्रयोग ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसका अत्यन्त प्राचीन होना आवश्यक है।

भारत में रूढी की विधि मान्यता के लिए इंग्लैण्ड की भाँति उसका स्मरणातीत होना आवश्यक नहीं है। यहाँ लम्बे समय तक प्रयोग में लाया जाना मात्र पर्याप्त है।

मामला – मुस. सुभानी बनाम नवाब (ए.आई. आर. 1941 पी.सी. 21)

इस मामले में यह कहा गया है कि, रूढी प्राचीन होनी चाहिए लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह स्मरणातीत हो। यह साबित कर दिया जाना मात्र पर्याप्त है कि कोई प्रचलन इतनी लम्बी अवधि और दृढ़ता से आचरण में है कि सामान्य सहमति से उसे एक क्षेत्र विशेष में स्थापित माना जा सकता है।

(ii) निरन्तरता

विधिमान्य रूढी की दूसरी आवश्यकता उसकी निरन्तरता (Continuity) है यानि रूढी का निरन्तर प्रचलन में होना अपेक्षित है क्योंकि व्यवधान रूढी को अमान्य कर देता है।

ब्लैकस्टोन का कहना है कि यदि कोई अधिकार एक दिन के लिए भी व्यवधानित हो जाता है तो वह रूढी समाप्त हो जाती है। लेकिन ‘हैमर्टन बनाम होनी’ के प्रकरण में कहा गया है कि, किसी रूढी के प्रयोग में आकस्मिक व्यवधान उस रूढी को समाप्त नहीं करता है। [(1873) 24 डब्ल्यू. आर. 603]

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(iii) निश्चितता

रूढी की निरन्तरता के साथ साथ उसका निश्चित (Certain) होना भी आवश्यक है। यदि कोई रूढ़ि निश्चित नहीं है तो उसे स्मरणातीत भी नहीं कहा जा सकता है।

‘विल्सन बनाम विल्स’ [(1806) 7 ईस्ट 121] के मामले में कहा गया है कि “रूढी चाहे कितनी ही पुरानी क्यों न हो, उसे असीमित एवं अनिश्चित नहीं होनी चाहिए।”

मामला – गुरुस्वामी राजा बनाम पीरूमल (ए. आई. आर. 1929 मद्रास 815)

रूढी के विषय पर यह एक अच्छा मामला है इसमें पास के पेड़ की खेतों पर पड़ती छाया के रूढ़िजन्य सुखाधिकार की माँग की गई। न्यायालय ने छाया सम्बन्धी रूढी को अनिश्चित, संदिग्ध व परिवर्तनीय ठहराते हुए उसे रूढ़ि मानने से इन्कार कर दिया।

(iv) युक्तियुक्तता

वैध रूढी का युक्तियुक्त (reasonable) होना आवश्यक है। यदि रूढ़ि या प्रथा सामान्य तर्क के अनुकूल है तो उसे युक्तियुक्त कहा जायेगा। युक्तियुक्तता से अभिप्राय है-रूढ़ि का ऐसा होना कि वह एक विवेकशील एवं प्रज्ञावान व्यक्ति के गले उतर जाये तथा वह उसे अंगीकार कर ले।

इसके अलावा रूढी का निष्पक्ष एवं उचित होना चाहिये ताकि युक्तियुक्त, ईमानदार और निष्पक्ष मस्तिष्क के लोग इसे स्वीकार कर लें। युक्तियुक्तता का निर्धारण समय एवं परिस्थितियों के अनुसार किया जाता है। इस सम्बन्ध में कुछ मामले प्रमुख हैं –

(क) हिन्दू समुदाय में पुत्रियों को विरासत से वंचित करने की रूढी को अयुक्तियुक्त नहीं माना गया है।

(ख) किसी जाति विशेष द्वारा मन्दिर के प्रयोग और उसमें पूजा करने के अधिकार से सम्बन्धित रूढी को अयुक्तियुक्त नहीं माना गया है।

(ग) मुस्लिम समुदाय में गाय के बलिदान की रूढी को युक्तियुक्त नहीं माना गया है।

(v) अनुरूपता

रूढी का अधिनियमित विधि के अनुरूप अर्थात् संगत (consistent) होना आवश्यक है। यदि कोई रूढ़ि लिखित अथवा अधिनियमित विधि के प्रतिकूल है तो उसे वैध नहीं माना जायेगा। कोई भी रूढ़ि संसद अथवा विधान मण्डल द्वारा निर्मित विधि को न्यून या निराकृत नहीं कर सकती है।

भारत में ऐसी अनेक रूढ़ियाँ हैं जिन्हें विधि द्वारा अमान्य एवं विषिद्ध कर दिया गया है, जैसे –

(क) सती-प्रथा

(ख) बाल-विवाह

(ग) दहेज प्रथा

(घ) लड़कियों की भ्रूण हत्या

(ङ) दास प्रथा

(च) देवदासी प्रथा, आदि।

मामला – सूर्यनारायण चौधरी बनाम स्टेट बनाम राजस्थान (ए.आई.आर. 1989 राजस्थान 99) –

इस प्रकरण में नाथद्वारा के श्रीनाथ जी के मन्दिर में प्रवेश के पूर्व हरिजनों के गंगाजल द्वारा शुद्धिकरण की प्रथा को मानव अधिकार के विरुद्ध मानते हुए अवैध घोषित कर दिया गया।

(vi) शान्तिपूर्ण एवं अधिकार के रूप में उपयोग –

किसी रूढी की विधि मान्यता के लिए उसमे दो बातों का होना आवश्यक हैं, पहला उसका शान्तिपूर्वक (peaceful) उपभोग किया जा रहा हो तथा दूसरा उसका एक अधिकार के रूप में (as a right) उपभोग किया जा रहा हो।

रूढ़ि पर आधारित अधिकार का प्रयोग स्पष्ट, शर्त रहित एवं अविवादित तौर पर होना अपेक्षित है। रूढी का प्रयोग किसी अनुमति अथवा अनुज्ञप्ति (licence) पर आधारित नहीं होना चाहिये।

एलेन (Allen) के मतानुसार, रूढ़ि जो सशक्त हाथों द्वारा जनता से छीन ली जाये, वह रूढी विधिमान्य नहीं हो सकती है।

सॉमण्ड के अनुसार “रूढ़ि ऐसी होनी चाहिए कि उन लोगों में जो रूढी का प्रयोग करते हैं, यह धारणा होनी चाहिये कि वह रूढी उनके लिए आबद्धकर है, वैकल्पिक नहीं।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि विधिमान्य रूढी के लिए यह आवश्यक है कि सभी व्यक्तियों द्वारा उसका अनुपालन किया जाये और उसे मानना या न मानना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर न हो।”

(vii) बाध्यकारी बल

रूढी में बाध्यकारी बल (Obligatory force) का होना इसका महत्वपूर्ण तत्व है यानि रूढी का पालन सभी के लिए आबद्ध कर होना चाहिये ना की दुसरे वैकल्पिक में। इस संदर्भ में विधिमान्य रूढी के लिए दो बातें आवश्यक हैं –

(क) सभी व्यक्तियों द्वारा ऐसी रूढ़ि का पालन किया जाये; तथा

(ख) उसे मानना या न मानना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर न हो।

(viii) लोकनीति के विरुद्ध एवं अनैतिक नहीं होना

विधिमान्य प्रथा का लोकनीति के विरुद्ध एवं अनैतिक नहीं होना भी आवश्यक है अर्थात् रूढी या प्रथा का साम्या, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण तथा लोकनीति के अनुकूल होना अपेक्षित है। रूढी अनैतिक भी नहीं होनी चाहिए। कोई रूढ़ि अनैतिक है या नहीं, इसका अवधारण समुदाय की भावनाओं के आधार पर किया जायेगा।

रेक्स बनाम कार्सन’ के मामले में एक ऐसी प्रथा को अनैतिक होने के कारण शून्य या निष्प्रभावी माना गया जिसके अन्तर्गत कोई भी विवाहिता स्त्री अपने पति को त्यागकर उसकी सहमति के बिना किसी भी पुरुष से दूसरा विवाह कर सकती थी।

इस प्रकार विधि मान्य रूढी का प्राचीन, निरन्तर, निश्चित, युक्तियुक्त, अपरिवर्तनीय एवं लोकनीति के अनुकूल होना आवश्यक है।

विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ि का महत्त्व

विधि के स्रोत के रूप में रूढी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन काल में जब विधि लिपिबद्ध नहीं थी, तब रूढी ही विधि का स्रोत हुआ करती थी। इंग्लैण्ड में इसे ‘कॉमन लॉ’ (Common law) अथवा ‘रूढ़िजन्य विधि’ (Customary law) कहा जाता था।

यह अलग बात है कि, रूढ़िजन्य विधि भी अलिखित थी, फिर भी औचित्यपूर्ण आचरण के निर्धारक के रूप में वह समाज में अच्छी तरह प्रतिस्थापित हो चुकी थी। न्याय प्रशासन में भी रूढ़िगत नियमों को विधिक मान्यता प्रदान की गई।

भारत के धर्मशास्त्रों में भी रूढी का महत्त्व परिलक्षित होता है। नारद के अनुसार, ‘व्यवहारों हि बलवान धर्मस्तेनवहीयते’ अर्थात् रूढी बलवती है और वह पवित्र विधि को भी निराकृत कर सकती है।

कलेक्टर ऑफ मदुरा बनाम मोटू रामलिंगम (13 एम.आई.ए. 397) के मामले में प्रिवी कौंसिल ने रूढी को लिखित विधि पर पूर्वता प्रदान की है।

सॉमण्ड के अनुसार, समाज के लिए रूढ़ि का वही महत्त्व है जो राज्य के लिए विधि का है। वहीँ दूसरी और कोक ने कहा है कि, रूढ़ि इंग्लैण्ड की विधियों की त्रिकोण में एक है तथा सेंट जर्मेन ने अपनी कृति ‘डॉक्टर एण्ड स्टूडेन्ट’ में कॉमन लॉ को रुढी पर आधारित विधि कहा है।

विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ि के महत्त्व को निम्नांकित कारण अथवा आधार हैं –

(i) रूढ़ि में उन सिद्धान्तों अथवा नियमों के लिए स्थान रहता है जो न्यायसंगत, जनोपयोगी एवं राष्ट्रीय चेतना के अनुकूल होते हैं। न्यायालयों द्वारा भी अपने निर्णयों में इन नियमों का अनुसरण इसलिए किया जाता है, क्योंकि वे नियम दीर्घकाल तक व्यवहार में रहने के कारण अधिकृत एवं प्रस्थापित हो जाते हैं।

(ii) रूढ़ियों को लोकमत का समर्थन प्राप्त होता है इसलिए समाज में प्रचलित रूढ़ियों को न्याय प्रशासन में विधि के तौर पर स्वीकार कर लिया जाता है।

(iii) रूढ़ियाँ प्रत्येक समय में प्रयोज्य होती हैं। सॉमण्ड ने तो यहाँ तक कहा है कि रूढ़ियाँ न्यायसंगत एवं युक्तियुक्त नहीं होने पर भी स्वीकार्य होनी चाहिए।

(iv) रूढ़ियाँ विधि निर्माण के लिए विषय-वस्तु प्रदान करती हैं, नई विधियों के निर्माण में रूढ़ियों की अहम् भूमिका रहती है।

(v) रूढ़ियाँ भविष्य के लिए सुरक्षित दिशा निर्देश प्रदान कर सकती है, क्योंकि दीर्घकाल से अनुपालन के कारण वे समाज में अच्छी तरह प्रस्थापित हो जाती हैं।

मामला – गौरीशंकर प्रसाद सिंह बनाम वैदनाथ प्रसाद सिंह (ए.आई. आर. 2007 पटना 78) –

इस मामले में पटना उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, जहाँ किसी परिवार में किसी प्रथा के अस्तित्त्व का अभिवाक् किया गया हो, वहाँ ऐसी प्रथा को साबित किये जाने की आवश्यकता नहीं होती, यदि अभिवचनों में उसका विरोध अथवा खण्डन नहीं किया गया हो।

इस प्रकार विधि के एक स्रोत के रूप में रूढ़ियों के महत्त्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

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