नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में अधिवक्ता अधिनियम के अन्तर्गत राज्य विधिज्ञ परिषद के गठन, कार्यों एंव अधिनियम द्वारा प्रदत्त की गई शक्तियों का उल्लेख किया गया है|

राज्य विधिज्ञ परिषद

विधि व्यवसाय को प्रशासनिक दृष्टि से संचालित करने हेतु प्रत्येक राज्य में एक निकाय की व्यवस्था की गई है, जिसे राज्य विधिज्ञ परिषद् (State Bar Council) के नाम से जाना जाता है।

अधिवक्ता अधिनियम की धारा 3 राज्य विधिज्ञ परिषद का गठन करती है तथा यह धारा भारत के समस्त राज्य क्षेत्रो का उल्लेख करती है जिनमें विधिज्ञ परिषद का गठन किया जाएगा तथा धारा 6 में इसके द्वारा किये जाने वाल्व कार्य एंव धारा 9, 9क, 10, 12, 28 व 35 परिषद् की शक्तियों से सम्बंधित प्रावधान करती है|

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राज्य विधिज्ञ परिषद् का गठन –

अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 3 (2) भारत संघ के प्रत्येक राज्य क्षेत्र के लिए राज्य विधिज्ञ परिषद का गठन करती है, जो गठन निम्नांकित से मिलकर बनता है –

(i) पाँच हजार तक के निर्वाचक मण्डल वाली राज्य विधिज्ञ परिषद् में 15 सदस्य, पाँच हजार से दस हजार तक के निर्वाचक मण्डल वाली विधिज्ञ परिषद् में 20 सदस्य तथा दस हजार से अधिक निर्वाचक मण्डल वाली विधिज्ञ परिषद् में 25 सदस्य होंगे।

(ii) दिल्ली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में वहाँ का अपर महा-सालिसिटर तथा अन्य राज्य परिषदों की दशा में उस राज्य का महाधिवक्ता पदेन सदस्य होगा और सदस्यों का निर्वाचन राज्य विधिज्ञ परिषद् की निर्वाचक नामावली के अधिवक्ताओं में आनुपातिक प्रतिनिधित पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाएगा।

(iii) निर्वाचित सदस्यों में से यथासंभव आधे के निकट सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जो किसी राज्य नामावली में कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहे हो। इस अवधि में वह अवधि भी शामिल की जाएगी जिसके दौरान ऐसा व्यक्ति भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम 1926 (38) के अधीन नामांकित अधिवक्ता रहा हो ।

(iv) प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् का एक अध्यक्ष एंव एक उपाध्यक्ष होगा तथा इनका निर्वाचन विधिज्ञ परिषद् के सदस्यों द्वारा किया जाएगा और इनके निर्वाचन में मतदान करने तथा सदस्य चुने जाने के लिए ऐसे व्यक्ति को योग्य माना जाएगा जो भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरी करता हो।

(v) राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा समय-समय पर नियमानुसार निर्वाचक नामावली (Electoral Roll) तैयार एवं पुनरीक्षित की जाएगी|

इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि, राज्य विधिज्ञ परिषद का गठन दो प्रकार के सदस्यों यथा – निर्वाचित सदस्य एवं पदेन सदस्यों से मिलकर होता है। निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्वति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाएगा तथा विधिज्ञ परिषद के प्रत्येक सदस्य को मतदान करने का अधिकार दिया गया है।

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महत्वपूर्ण प्रकरण –

जनपद दीवानी एंव फौजदारी बार एसोसियेशन उत्तर प्रदेश बनाम बार कौंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश (A.I.R. 2016 इलाहाबाद 3)

इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि, जहाँ कोई बार एसोसियेशन सोसायटी रजिस्ट्रीकरण अधिनियम के अन्तर्गत रजिस्ट्रीकृत हो, वहाँ उसके चुनाव में बार कौंसिल द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। 

इसी तरह जहाँ किसी अधिवक्ता को न्यायालय के अवमान के लिए दण्डित किया गया हो, लेकिन उसकी सजा रोक दी गई हो वहाँ उसे निर्वाचन से उपवर्जित नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा राज्य विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष को हटाए जाने का अधिकार भी राज्य विधिज्ञ परिषद् को ही है क्योंकि अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 3 में अध्यक्ष को नियुक्त करने की शक्तियों के साथ साथ अध्यक्ष को  हटाए जाने की शक्तियां भी शामिल है|

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राज्य विधिज्ञ परिषद के कार्य –

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 6 में राज्य विधिज्ञ परिषद् के कार्यों का उल्लेख किया गया है, जिसके अंतर्गत राज्य विधिज्ञ परिषद निम्नलिखित कार्य करती है –

(i) अपनी नामावली में अधिवक्ता के रूप में व्यक्तियों को प्रविष्ट करना तथा उनकी नामावली तैयार करना और बनाए रखना|

(ii) विधिज्ञ परिषद की अधिवक्ताओं की नामावली में वर्णित अधिवक्ताओं के विरुद्ध अवचार के मामले ग्रहण करना तथा अवधारण करना और नामावली के अधिवक्ताओं के अधिकारी, विशेषाधिकारों तथा हितों की रक्षा करना

(iii) विधि सुधार का उन्नयन और उसका समर्थन करना तथा विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और उनका विभाजन करना|

(iv) निर्धन व्यक्तियों को विधिक सहायता प्रदान करने के लिए विहित रीति का आयोजन करना तथा परिषद् के सदस्यो के निर्वाचन की व्यवस्था करना

(v) निर्देशानुसार विश्वविद्यालयों की देखभाल एंव निरिक्षण करना और पूर्वोक्त कृत्यों के निर्वाहन के लिए आवश्यक सभी कार्य करना।

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राज्य विधिज्ञ परिषद् की शक्तियां

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अन्तर्गत राज्य विधिज्ञ परिषद् को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गई है –

(1) नियम बनाने की शक्तियाँ –

अधिनियम की धारा 28 राज्य विधिज्ञ परिषद् को नियम बनाने की शक्ति प्रदान करती हैं। राज्य विधिज्ञ परिषद् अधिनियम के उपबन्धों की सफल क्रियान्विति के लिए निम्नांकित के सम्बन्ध में नियम बना सकेगी –

(क) वह समय जिसके भीतर और वह प्ररूप जिसमें कोई अधिवक्ता धारा 20 के अधीन किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में अपना नाम दर्ज कराने का अपना आशय प्रकट करेगा,

(ख) वह प्ररूप जिसमें विधिज्ञ परिषद् को उसकी नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवेदन किया जाएगा और वह रीति जिसमें ऐसे आवेदन का विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति द्वारा निपटारा किया जाएगा,

(ग) वे शर्तें जिनके अधीन रहते हुए कोई व्यक्ति ऐसी किसी नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा  तथा वे किश्तें जिसमें नामांकन फीस दी जा सकेगी।

ऐसे नियमों का भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा अनुमोदन किया जाना आवश्यक होगा। अनुमोदन के पश्चात् ही वे प्रभावशील हो सकेंगे। फिर ऐसे नियम मनमाने एवं स्वेच्छाचारी नहीं होंगे। विधिज्ञ परिषद् द्वारा ऐसा कोई नियम नहीं बनाया जा सकेगा जो 45 वर्ष से अधिक की आयु के व्यक्ति को वकालत करने से निवारित करता हो। (इण्डियन कौंसिल ऑफ लीगल एड एण्ड एडवाइस बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया, ए.आई.आर. 1995 एस. सी. 691)

साथ ही ऐसे नियम उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों को नियंत्रित नहीं करेंगे, क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। (डेमोक्रेटिक बार एसोसियेशन, इलाहाबाद बनाम हाईकोर्ट ऑफ जूडिकेचर एट इलाहाबाद, ए.आई.आर. 2000 इाहाबाद 300)

‘बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र बनाम मनुभाई प्रागजी वाशी’ (ए.आई. आर. 2012 एस.सी. 135) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा मत देने की अर्हता अथवा अनर्हता के बारे में नियम नहीं बनाये जा सकते हैं।

राज्य विधिज्ञ परिषद् केवल अधिनियम के उपबन्धों की क्रियान्विती के लिए नियम बना सकती है। इसके अतिरिक्त उसे नियम बनाने की शक्तियाँ प्राप्त नहीं हैं। राजस्थान हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसियेशन, जोधपुर बनाम बार कौंसिल ऑफ राजस्थान, ए.आई.आर. 2018 एन.ओ.सी. 202 राजस्थान)

(2) लेखा परीक्षा की शक्तियाँ –

अधिनियम की धारा 12 में विधिज्ञ परिषद् की लेखा सम्बन्धी शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार-

(क) प्रत्येक विधिज्ञ परिषद् ऐसी लेखा बहियाँ और अन्य बहियाँ ऐसे पुरुष में और ऐसी रीति में रखवाएगी जो विहित की जाए।

(ख) विधिज्ञ परिषद् के लेखाओं की लेखा परीक्षा, कम्पनी अधिनियम, 1956 के अधीन कम्पनियों के लेखा परीक्षकों के रूप में कार्य करने के लिए सम्यक् रूप से अर्हित लेखा परीक्षकों द्वारा ऐसे समयों पर और ऐसी रीति से की जाएगी जो विहित किए जाएँ या की जाएँ।

(ग) प्रत्येक वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर, यथासाध्य शीघ्रता से, किन्तु ठीक अगले वर्ष के दिसम्बर के 31वें दिन के पश्चात् नहीं, राज्य विधिज्ञ परिषद् अपने लेखाओं की एक प्रति, लेखा परीक्षकों की रिपोर्ट की एक प्रति सहित, भारतीय सरकार को भेजेगी और उसे राजपत्र में प्रकाशित करवाएगी।

(3) समितियाँ गठित करने की शक्तियाँ –

अधिनियम की धारा 9, धारा 9क व धारा 10 के अन्तर्गत विधिज्ञ परिषद् को विभिन्न समितियों के गठन की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। विधिज्ञ परिषद् द्वारा निम्नांकित समितियों का गठन किया जा सकेगा –

(क) अनुशासन समितियाँ,

(ख) विधिक सहायता समितियाँ,

(ग) कार्यकारिणी समिति,

(घ) नामांकन समिति, तथा

(ङ) अन्य ऐसी समितियाँ जिसे राज्य विधिज्ञ परिषद् इस अधिनियम के उपबन्धों को कार्यान्वित करने के प्रयोजन के लिए आवश्यक समझें।

विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक सचिव, एक लेखापाल एवं अन्य कर्मचारीवृन्द की नियुक्ति की जा सकेगी। सचिव एवं लेखापाल की अर्हताएँ (Qualifications) वे होंगी जो विहित की जाए। (धारा 11)

(4) अवचार के लिए दण्ड देने की शक्तियाँ –

अधिनियम की धारा 35 के अन्तर्गत विधिज्ञ परिषद् को अवचार (Misconduct) के लिए अधिवक्ताओं को दण्ड देने की शक्तियों का उल्लेख किया गया है।

हरीश उप्पल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 739) के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अधिवक्ताओं के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की शक्तियाँ विधिज्ञ परिषद् में विहित हैं।

यदि विधिज्ञ परिषद् द्वारा कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की जाती है तो उच्चतम न्यायालय द्वारा इस दिशा में कदम उठाया जा सकता है। इस प्रकार इस सम्बन्ध में अन्तिम प्राधिकारी उच्चतम न्यायालय है।

इसी प्रकार विकास देशपाण्डे बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 2003 एस. सी. 308) के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि “वृत्तिक कदाचार एक ऐसी बुराई है जिसे समाप्त किया जाना आवश्यक है।” (It is necessary to nip the evil or curse in the bud).

यही कारण है कि अधिनियम की धारा 35 में अवचार के लिए अधिवक्ताओं को दण्डित किए जाने का प्रावधान किया गया है।

अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35(4) के अन्तर्गत यह उपबन्ध किया गया है कि राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा सम्बन्धित अधिवक्ता एवं महाधिवक्ता को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात् निम्नांकित आदेशों में से कोई आदेश पारित किया जा सकेगा –

(क) शिकायत को खारिज कर सकेगी और जहाँ राज्य विधिज्ञ परिषद् की प्रेरणा पर कार्यवाहियाँ आरम्भ की गई थीं वहाँ यह निर्देश दे सकेगी कि कार्यवाहियाँ फाइल कर दी जाएँ,

(ख) अधिवक्ता को धिग्दण्ड दे सकेगी,

(ग) अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से उतनी अवधि के लिए निलम्बित कर सकेगी जितनी वह ठीक समझे, अथवा

(घ) अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की राज्य नामावली में से हटा सकेगी !

जब किसी अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से निलम्बित किया जाता है तो ऐसा अधिवक्ता किसी न्यायालय या प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय नहीं कर सकेगा। इस प्रकार धारा 35 कदाचार (Misconduct) के लिए दण्ड का प्रावधान करती है।

अधिवक्ता का यह कर्तव्य है कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करें जो वृतिक सदाचार (professional ethics) के प्रतिकूल हो तथा न्यायालय की गरिमा को आघात पहुँचाने वाला हो।

बैजनाथ प्रसाद गुप्ता बनाम सीनियर रीजनल मैनेजर, एस. सी. आई. पटना (ए.आई.आर. 2000 पटना 139) के मामले में एक अधिवक्ता द्वारा न्यायालय के समक्ष मिथ्या तथ्य रखकर आदेश प्राप्त कर लिया गया। न्यायालय ने इसे अवचार माना और कहा कि अधिवक्ताओं को ऐसे आचरण से बचना चाहिए।

वृतिक कदाचार के महत्वपूर्ण प्रकरण –

(i) न्यायाधीश पर मिथ्या आरोप लगाना, (ललित मोहनदास बनाम एडवोकेट जनरल, उड़ीसा, ए.आई.आर. 1957 एस. सी. 250)

(ii) न्यायालय के समक्ष सत्य को छिपाकर गलत तथ्य रखना, (ले. क. जे. एस. चौधरी बनाम स्टेट, ए.आई.आर. 1984 एस. सी. 618)

(iii) पक्षकार को उसके दसतावेज नहीं लौटाना, (जॉन डिसूजा बनाम एडवर्ड एनी, ए.आई.आर. 1994 एस. सी. 975)

(iv) वादग्रस्त सम्पत्ति को बेनामी संव्यवहार द्वारा अपने लिए क्रय करना, (बृजेन्द्रनाथ भार्गव बनाम रामचन्द्र कासलीवाल, (1998)9 एस. सी. सी. 169)

(v) शुल्क लेकर भी वाद या रिट याचिका दायर नहीं करना, (प्रेमनाथ बनाम कपिल देव सिंह, (1995)3 एस. सी. 717) आदि।

वृतिक कदाचार के ऐसे और भी अनेक मामले हैं जिनमें दोषी अधिवक्ताओं को कठोर दण्ड से दण्डित किया गया है।

हरीशचन्द्र तिवाड़ी बनाम बैजू (ए.आई.आर. 2002 एस. सी. 548) के मामले में अपने पक्षकार की प्रतिकर की राशि को न्यायालय से उठाना तथा उसे पक्षकार को नहीं देना वृतिक कदाचार माना गया है।

बार कौंसिल ऑफ आन्ध्र प्रदेश बनाम के. सत्यनारायण (ए.आई.आर. 2003 ए.आई.आर. 2003 एस. सी. 175) के मामले में पक्षकार के धन के दुर्विनियोग को गम्भीर कदाचार मानते हुए दोषी अधिवक्ता के नाम को विधिज्ञ परिषद् की नामावली से हटा दिए जाने को उचित दण्ड माना गया।

इसी प्रकार न्यू इण्डिया एश्योरेनस कं. लि. बनाम ए. के. सक्सेना (ए.आई.आर. 2004 एस. सी. 311) के मामले में फीस के बदले पक्षकार की फाइलों को रोकने को कदाचार माना गया है।

(5) नामांकन की शक्तियाँ –

अधिवक्ताओं के नामांकन की शक्तियाँ राज्य विधिक परिषद् को है, लोक सेवा आयोग को नहीं।

इसी प्रकार किसी अधिवक्ता की वृत्ति को समाप्त करने की शक्तियाँ भी विधिज्ञ परिषद् में विहित है। (एस. मुखर्जी बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल, ए.आई.आर. 2014 कलकत्ता 85)

राज्य विधिज्ञ परिषद् की उपरोक्त महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ हैं। राज्य विधिज्ञ परिषद्, से अपेक्षा की जाती है कि वह इन शक्तियों को प्रयोग स्वेच्छाचारिता एवं मनमाने तौर पर नहीं कर समुचित रूप से करें।

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