इस आलेख में अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 3 के तहत स्थापित राज्य विधिज्ञ परिषद् के कार्यों एंव शक्तियों का उल्लेख किया गया है, इसी तरह अधिवक्ता अधिनियम के अन्तर्गत राज्य विधिज्ञ परिषद् को अनेक शक्तियां भी दी गई है जिसके तहत वह अपने लिए नियम, समितियों का गठन तथा अपने अवचार के लिए दण्ड भी दे सकती है, यह आलेख प्रत्येकजन के लिए उपयोगी है-
राज्य विधिज्ञ परिषद्
विधि व्यवसाय को प्रशासनिक दृष्टि से संचालित करने के लिए प्रत्येक राज्य में एक निकाय की व्यवस्था की गई है, जिसे विधिक परिषद् (Bar Council) के नाम से जाना जाता है। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 3 में इसके गठन एवं धारा 6 में इसके कार्यों का उल्लेख किया गया है।
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राज्य विधिज्ञ परिषद् का गठन –
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 3(2) में राज्य विधिज्ञ परिषद् के गठन के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् का गठन निम्नलिखित से मिलकर होगा –
(1) पाँच हजार तक के निर्वाचक मण्डल वाली राज्य विधिक परिषद् में 15 सदस्य, पाँच हजार से दस हजार तक के निर्वाचक मण्डल वाली विधिज्ञ परिषद् में 20 सदस्य, एवं दस हजार से अधिक निर्वाचक मण्डल वाली विधिज्ञ परिषद् में 25 सदस्य होंगे।
(2) दिल्ली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में वहाँ का अपर महा सालिसिटर तथा अन्य राज्य विधिज्ञ परिषदों की दशा में उस राज्य का महाधिवक्ता (Advocate General) पदेन (ex-officio) सदस्य होगा।
(3) सदस्यों का निर्वाचन राज्य विधिज्ञ परिषद् की निर्वाचक नामावली के अधिवक्ताओं में से आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाएगा।
(4) निर्वाचित सदस्यों में से यथासम्भव आधे के निकट सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जो किसी राज्य नामावली में कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) रहे हों। इस अवधि में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान ऐसा व्यक्ति भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 के अधीन नामांकित अधिवक्ता रहा हो।
(5) प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् का एक अध्यक्ष एवं एक उपाध्यक्ष होगा। अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का निर्वाचन विधिज्ञ परिषद् के सदस्यों द्वारा किया जाएगा।
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(6) राज्य विधिज्ञ परिषद् के निर्वाचन में मतदान करने तथा सदस्य चुने जाने के लिए ऐसा व्यक्ति पात्र समझा जाएगा जो भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा विहित शर्तों को पूरी करता हो।
(7) राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा समय-समय पर नियमानुसार निर्वाचक नामावली (Electroal roll) तैयार एवं पुनरीक्षित की जाएगी।
इस प्रकार राज्य विधिज्ञ परिषद् का गठन दो प्रकार के सदस्यों से मिलकर होता है – निर्वाचित सदस्य एवं पदेन सदस्य। निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है और विधिज्ञ परिषद् के प्रत्येक सदस्य को मतदान करने का अधिकार प्राप्त है।
यदि कोई बार एसोसियेशन सोसायटी रजिस्ट्रीकरण अधिनियम के अन्तर्गत रजिस्ट्रीकृत है, तब वहाँ उसके चुनाव में बार कौंसिल द्वारा किसी भी तरह से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।
मामला – अमरेन्द्रनाथ सिंह बनाम बार कौंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश (ए.आई.आर. 2000 इलाहाबाद 224)
इसमें न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, जहाँ किसी अधिवक्ता को मताधिकार से वंचित किया जाता है, वहाँ ऐसा करने से पूर्व तत्सम्बन्धी नियमों की अनुपालना की जानी चाहिए। जहाँ किसी अधिवक्ता को न्यायालय के अवमान के लिए दण्डित किया गया हो, लेकिन सजा निलम्बित कर दी गई हो, वहाँ उसे निर्वाचन से उपवर्जित नहीं किया जाना चाहिए।
विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष को हटाने का अधिकार भी राज्य विधिज्ञ परिषद् को ही है। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 3 के अन्तर्गत अध्यक्ष को नियुक्त करने की शक्तियों में अध्यक्ष को हटाए जाने की शक्तियाँ भी शामिल हैं।
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विधिक परिषद् का निगमित निकाय होना –
राज्य विधिज्ञ परिषद् एक निगमित निकाय है इसका शाश्वत उत्तराधिकार है। किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् के सदस्यों की अवधि समाप्त हो जाने मात्र से उसका शाश्वत उत्तराधिकार का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता है। अधिवक्ता अधिनियम की धारा 5 के अन्तर्गत विधिक परिषद् को निगमित निकाय (Corporate body) माना गया है। इसके अनुसार प्रत्येक विधिज्ञ परिषद् का –
(i) शाश्वत उत्तराधिकार होगा,
(ii) एक सामान्य मुद्रा (Seal) होगी,
(iii) उसे स्थावर एवं जंगम दोनों प्रकार की सम्पत्तियाँ अर्जित एवं धारण करने की शक्तियाँ होंगी,
(iv) वह संविदा कर सकेगी, तथा
(v) उसके द्वारा एवं उसके विरुद्ध वाद लाया जा सकेगा।
निगमित निकाय के सम्बन्ध में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, राज्य विधिज्ञ परिषद् से तात्पर्य उसके सदस्यों, अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष से नहीं है बल्कि सदस्य, जिनसे विधिज्ञ परिषद् का गठन होता है, एक निगमित निकाय है। इसमें सदस्यों, अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का वैयक्तिक अस्तित्व नहीं होता है। सभी मिलकर विधिज्ञ परिषद् का गठन करते हैं।
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राज्य विधिज्ञ परिषद् के कार्य –
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 6 में राज्य विधिज्ञ परिषद् के कृत्यों (functions) का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् के निम्नांकित कृत्य हैं-
(1) विधिज्ञ परिषद् की नामावली में अधिवक्ता के रूप में व्यक्तियों को प्रविष्ट करना,
(2) अधिवक्ताओं की नामावली तैयार करना और बनाए रखना,
(3) विधिज्ञ परिषद् के अधिवक्ताओं की नामावली में वर्णित अधिवक्ताओं के विरुद्ध अवचार (Misconduct) के मामले ग्रहण करना तथा अवधारण करना,
(4) अपनी नामावली के अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों एवं हितों की रक्षा करना,
(5) धारा 6 एवं धारा 7 की उपधारा 2 के खण्ड (क) में निर्देशित कल्याण योजनाओं के प्रभावकारी संचालन के प्रयोजनार्थ अधिवक्ता संघ के विकास में अभिवृद्धि करना,
(6) विधि सुधार का उन्नयन और उसका समर्थन करना,
(7) विधिक विषयों पर प्रतिष्ठित विधिशास्त्रियों द्वारा परिसंवादों का संचालन करना, वार्ताओं का आयोजन करना तथा विधिक रुचि की पत्र-पत्रिकाएँ और लेख प्रकाशित करना,
(8) निर्धन व्यक्तियों को विधिक सहायता प्रदान करने के लिए विहित रीति से आयोजन करना,
(9) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और उनका विनिधान करना,
(10) परिषद् के सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करना,
(11) निर्देशानुसार विश्वविद्यालयों की देखभाल एवं निरीक्षण करना,
(12) इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन विर्धिज्ञ परिषद् को प्रदत्त अन्य सभी कृत्यों का पालन करना,
(13) पूर्वोक्त कृत्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक सभी कार्य करना।
निधियों का गठन अधिनियम की धारा 6 (2) के अन्तर्गत राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक या अधिक निधियों का गठन किया जा सकेगा, यथा-
(क) निर्धन, निःशक्त या अन्य अधिवक्ताओं के लिए कल्याणकारी स्कीमों के संचालन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु,
(ख) विधिक सहायता या सलाह के लिए, तथा
(ग) पुस्तकालयों की स्थापना के लिए।
यद्यपि राज्य विधिज्ञ परिषद् के कृत्य अत्यन्त विस्तृत हैं, लेकिन विधिज्ञ परिषद् द्वारा किसी न्यायाधीश के आचरण पर टोका-टिप्पणी नहीं की जा सकती और न किसी न्यायाधीश को त्याग-पत्र देने के लिए वियप्त किया जा सकता है। ऐसा किया जाना न्यायालय का अवमान है। इस प्रकार धारा 6 में राज्य विधिज्ञ परिषद् के अनेक कृत्य बताए गए हैं।
राज्य विधिज्ञ परिषद् की शक्तियां
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अन्तर्गत राज्य विधिज्ञ परिषद् को अनेक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इन शक्तियों को मुख्य तौर पर चार (4) भागों में विभाजित किया जा सकता है, जो निम्नांकित हैं –
(1) नियम बनाने की शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 28 के अन्तर्गत राज्य विधिज्ञ परिषद् को नियम बनाने की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। राज्य विधिज्ञ परिषद् अधिनियम के उपबन्धों की सफल क्रियान्विति के लिए निम्नांकित के सम्बन्ध में नियम बना सकेगी-
(क) वह समय जिसके भीतर और वह प्ररूप जिसमें कोई अधिवक्ता धारा 20 के अधीन किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् को नामावली में अपना नाम दर्ज कराने का अपना आशय प्रकट करेगा,
(ख) वह प्ररूप जिसमें विधिज्ञ परिषद् को उसकी नामावली में अधिवंक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवेदन किया जाएगा और वह रीति जिसमें ऐसे आवेदन का विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति द्वारा निपटारा किया जाएगा,
(ग) ये शर्तें जिनके अधीन रहते हुए कोई व्यक्ति ऐसी किसी नामावलौ में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा, तथा
(घ) वे ‘कश्तें जिसमें नामांकन फीस दी जा सकेगी।
ऐसे नियमों का भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा अनुमोदन किया जाना आवरणक होगा। अनुमोदन के पश्चात् ही वे प्रभावशील हो सकेंगे।
फिर ऐसे नियम मनमाने एवं स्वेच्छाचारी नहीं होंगे। विधिज्ञ परिषद् द्वारा ऐसा कोई नियम नहीं बनाया जा सकेगा जो 45 वर्ष से अधिक की आयु के व्यक्ति को वकालत करने से निवारित करता हो। (इण्डियन कौंसिल ऑफ लीगल एड एण्ड एडवाइस बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया, ए.आई.आर. 1995 एस. सी. 691)
साथ ही ऐसे नियम उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों को नियंत्रित नहीं करेंगे, क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। (डेमोक्रेटिक बार एसोसियेशन, इलाहाबाद बनाम हाईकोर्ट ऑफ जूडिकेचर एट इलाहाबाद, ए.आई.आर. 2000 डाहाबाद 300)
‘बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र बनाम मनुभाई प्रागजी वाशी’ (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 135) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा मत देने की अर्हता अथवा अनर्हत्ता के बारे में नियम नहीं बनाये जा सकते हैं।
राज्य विधिज्ञ परिषद् केवल अधिनियम के उपबन्धों की क्रियान्विती के लिए नियम बना सकती है। इसके अतिरिक्त उसे नियम बनाने की शक्तियाँ प्राप्त नहीं हैं। राजस्थान हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसियेशन, जोधपुर बनाम बार कौंसिल ऑफ राजस्थान, ए.आई.आर. 2018 एन.ओ.सी. 202 राजस्थान)
(2) लेखा परीक्षा की शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 12 में विधिज्ञ परिषद् की लेखा सम्बन्धी शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार-
(क) प्रत्येक विधिज्ञ परिषद् ऐसी लेखा बहियाँ और अन्य बहियाँ ऐसे पुरुष में और ऐसी रीति में रखवाएगी जो विहित की जाए।
(ख) विधिज्ञ परिषद् के लेखाओं की लेखा परीक्षा, कम्पनी अधिनियम, 1956 के अधीन कम्पनियों के लेखा परीक्षकों के रूप में कार्य करने के लिए सम्यक् रूप से अर्हित लेखा परीक्षकों द्वारा ऐसे समयों पर और ऐसी रीति से की जाएगी जो विहित किए जाएँ या की जाएँ।
(ग) प्रत्येक वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर, यधासाध्य शीघ्रता से, किन्तु ठीक अगले वर्ष के दिसम्बर के 31वें दिन के पश्चात् नहीं, राज्य विधिज्ञ परिषद् अपने लेखाओं की एक प्रति, लेखा परीक्षकों की रिपोर्ट की एक प्रति सहित, भारतीय सरकार को भेजेगी और उसे राजपत्र में प्रकाशित करवाएगी।
(3) समितियाँ गठित करने की शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 9, धारा 9 क व धारा 10 के अन्तर्गत विधिज्ञ परिषद् को विभिन्न समितियों के गठन की शक्तियाँ प्रदान की गई है। विधिज्ञ परिषद् द्वारा निम्नांकित समितियों का गठन किया। जा सकेगा-
(क) अनुशासन समितियाँ,
(ख) विधिक सहायता समितियाँ,
(ग) कार्यकारिणी समिति,
(घ) नामांकन समिति, तथा
(ङ) अन्य ऐसी समितियाँ जिसे राज्य विधिज्ञ परिषद् इस अधिनियम के उपबन्धों को कार्यान्वित करने के प्रयोजन के लिए आवश्यक समझें।
विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक सचिव, एक लेखापाल एवं अन्य कर्मचारीवृन्द को नियुक्ति की जा सकेगी। सचिव एवं लेखापाल की अर्हताएँ (Qualifications) दे होंगी जो विहित की जाए। (धारा 11)
(4) अवचार के लिए दण्ड देने की शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 35 के अन्तर्गत विधिज्ञ परिषद् को अवचार (Misconduct) के लिए अधिवक्ताओं को दण्ड देने की शक्तियों का उल्लेख किया गया है।
हरीश उप्पल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 2003 एस. सी. 739) के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि अधिवक्ताओं के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की शक्तियाँ विधिज्ञ परिषद् में विहित हैं। यदि विधिज्ञ परिषद् द्वारा कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की जाती है तो उच्चतम न्यायालय द्वारा इस दिशा में कदम उठाया जा सकता है। इस प्रकार इस सम्बन्ध में अन्तिम प्राधिकारी उच्चतम न्यायालय है।
विधि व्यवसाय में वृत्तिक कदाचार को एक बुराई माना गया है जिसे समाप्त किया जाना अति-आवश्यक है। इसी कारण अधिनियम की धारा 35 में अवचार के लिए अधिवक्ताओं को दण्डित किए जाने का प्रावधान किया गया है।
अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35(4) के अन्तर्गत यह उपबन्ध किया गया है कि राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा सम्बन्धित अधिवक्ता एवं महाधिवक्ता को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात् निम्नांकित आदेशों में से कोई आदेश पारित किया जा सकेगा-
(क) शिकायत को खारिज कर सकेगी और जहाँ राज्य विधिज्ञ परिषद् की प्रेरणा पर कार्यवाहियाँ आरम्भ की गई थीं वहाँ यह निर्देश दे सकेगी कि कार्यवाहियाँ फाइल कर दी जाएँ,
(ख) अधिवक्ता को धिग्दण्ड दे सकेगी,
(ग) अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से उतनी अवधि के लिए निलम्बित कर सकेगी जितनी वह ठीक समझे, अथवा
(घ) अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की राज्य नामावली में से हटा सकेगी:
जब किसी अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से निलम्बित किया जाता है तो ऐसा अधिवक्ता किसी न्यायालय या प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय नहीं कर सकेगा। इस प्रकार धारा 35 कदाचार (Misconduct) के लिए दण्ड का प्रावधान करती है।
अधिवक्ता का यह कर्त्तव्य है कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करें जो वृतिक सदाचार के प्रतिकूल हो तथा न्यायालय की गरिमा को आघात पहुंचाने वाला हो| एक अधिवक्ता द्वारा न्यायालय के समक्ष मिथ्या तथ्य रखकर आदेश प्राप्त करना, उसका अवचार माना जाता है और अधिवक्ता को अपने ऐसे आचरण से बचना चाहिए|
वृतिक कदाचार में निम्नलिखित मामले भी शामिल हैं –
(i) न्यायाधीश पर मिथ्या आरोप लगाना,
(ii) न्यायालय के समक्ष सत्य को छिपाकर गलत तथ्य रखना,
(Hi) पक्षकार को उसके दसतावेज नहीं लौटाना,
(iv) वादग्रस्त सम्पत्ति को बेनामी संव्यवहार द्वारा अपने लिए क्रय करना,
(v) शुल्क लेकर भी वाद या रिट याचिका दायर नहीं करना,
(vi) अपने पक्षकार की प्रतिकर की राशि को न्यायालय से उठाना तथा उसे पक्षकार को नहीं देना
(vii) पक्षकार के धन का दुर्विनियोग करना| न्यायालय ने इसको गम्भीर कदाचार मानते हुए दोषी अधिवक्ता के नाम को विधिज्ञ परिषद् की नामावली से हटा दिए जाने को उचित दण्ड माना।
(viii) फीस के बदले पक्षकार की फाइलों को रोकना,
(5) नामांकन की शक्तियाँ –
अधिवक्ताओं के नामांकन की शक्तियाँ राज्य विधिक परिषद् को है, लोक सेवा आयोग को नहीं। इसी प्रकार किसी अधिवक्ता की वृत्ति को समाप्त करने की शक्तियाँ भी विधिज्ञ परिषद् में विहित है।
राज्य विधिज्ञ परिषद् की उपरोक्त महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ हैं। राज्य विधिज्ञ परिषद् से हमेंशा यह आशा की जाती है कि, वह इन शक्तियों का प्रयोग स्वेच्छाचारिता एवं मनमाने तौर पर नहीं कर अधिवक्ता, न्यायालय एंव समाज के हितों को ध्यान में रखकर समुचित रूप से करेगा।
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