नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत (Origin of The State) के बारें में बताया है की किस प्रकार राज्य की उत्पत्ति और विकास हुआ है? तथा विद्वानों ने राज्य की उत्पत्ति के कोन कोनसे सिद्धांत की व्याख्या की है? यह पोस्ट LL.B Students के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं इसे जरुर पढ़े।
राज्य की उत्पत्ति
विद्वानों के लिए राज्य की उत्पत्ति सदैव ही जिज्ञासा का विषय रही है। राज्य की उत्पत्ति (Origin of The State) के विषय में कोई भी प्रमाणिक साक्ष्य या ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता है जिससे यह ज्ञान होता हो कि राज्य की उत्पत्ति निश्चित रूप से कब व कैसे हुई।
ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में विचारकों ने कल्पना के आधार पर राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं जिनके आधार पर राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त को अनेक भागों में विभक्त किया गया है –
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राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त
(1) दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त (Theory of Divine Origin)
(2) बल का सिद्धान्त (The Force Theory)
(3) सामाजिक संविदा सिद्धान्त (Social Contract Theory)
(4) आनुवंशिक सिद्धान्त (Hereditary Theory)
(5) विकासवादी सिद्धान्त (Evolutionary Theory)
दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त
राज्य की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त बहुत पुराना है। राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में किसी निश्चित प्रमाण या ऐतिहासिक सामग्री के अभाव में विद्वानों ने इस बात को स्वीकार किया कि राज्य ईश्वर की देन है और अनेक धार्मिक ग्रंथो में तथा जैलीनेक स्टुअर्ट जेम्स, रॉबर्ट फिल्मर आदि विद्वान इस सिद्धांत के समर्थक रहे हैं।
जेम्स प्रथम के अनुसार शासक लोग पृथ्वी पर परमात्मा की श्वास लेती हुई मूर्तियाँ हैं। ईसाई धर्म के अनुयायी, मिस्र देश तथा चीन ने भी राजा की दैवी शक्ति को स्वीकार किया।
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इस सिद्धांत की प्रमुख मान्यता थी कि राज्य या शासक की आज्ञा का उल्लंघन करना ईश्वर के प्रति पापकर्म के समान था तथा इस सिद्धांत के मानने वालो का कहना था की यदि राजा दुष्ट व पतित भी हो तो यह समझना चाहिए कि ईश्वर ने उसे प्रजा को अपने पाप-कर्मों का प्रायश्चित करने के लिए भेजा है और उसके खिलाफ विद्रोह करना भी ईश्वर के प्रति विद्रोह करने के सामान माना जाता था|
लेकिन सत्रहवीं शताब्दी में राजनैतिक चेतना तथा बुद्धिवाद का विकास होने के साथ लोगों का धार्मिक अन्धश्रद्धा पर से विश्वास उठने लगा तथा राजनीति को धर्म से अलग किया गया और राज्य के लौकिक स्वरूप को प्राथमिकता दी जाने लगी
बल का सिद्धान्त
बल के सिद्धान्त के अनुसार यह माना गया की राज्य शक्ति के बल पर विकसित हुए हैं। शक्तिशाली समूहों ने निर्बल समूहों को बल के आधार पर अपने अधीन कर लिया। इस प्रकार कुलों (clans) के पारस्परिक संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटे जन-समुदाय अस्तित्व में आये और धीरे धीरे ये कबीलों (tribes) में परिवर्तित हो गये।
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इन कबीलों के क्रमिक विकास, संघर्ष और सम्मिश्रण से बड़े जन समुदाय बने और इस प्रकार राज्य की उत्पत्ति हुई। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् ओपेनहाइम, अंग्रेज समाजशास्त्री जेंक्स (Jenks) तथा अमरीकी विद्वान स्मोल और वार्ड इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक हैं। हरबर्ट स्पेंसर तथा मार्क्स ने भी इस सिद्धान्त को मान्यता दी है।
इसी प्रकार अनेक विद्वानों ने बल के सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा है कि बल प्रयोग द्वारा लोगों को आज्ञापालन के लिए मजबूर तो किया जा सकता है, लेकिन इससे राज्य के प्रति श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा उत्पन्न नहीं की जा सकती है। केवल मात्र बल के आधार पर राज्य को अधिक बलशाली तथा सुदृढ़ नहीं बनाया जा सकता।
वस्तुत: राज्य को बलशाली तथा सुदृढ़ बनाने के लिए जन सामान्य की राज्य के प्रति श्रद्धा और निष्ठा होनी आवश्यक है और यह तभी संभव हो सकता है जब राज्य लोकहित को ध्यान में रखते हुए प्रजा की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करता हो।
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सामाजिक संविदा सिद्धान्त
सामाजिक संविदा का सिद्धान्त पूर्णत: कल्पना पर आधारित सिद्धान्त है। इसकी प्रमुख मान्यता है कि राज्य की उत्पत्ति मनुष्यों के पारस्परिक समझौते के कारण हुई है और हॉब्स, लॉक तथा रूसो इस सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक माने जाते हैं| इनके अनुसार एक समय ऐसा था जब मनुष्य राज्य के बिना रहता था।
समाज की इस अवस्था को उन्होंने ‘प्राकृतिक अवस्था’ (state of nature) कहा है। सामाजिक संविदा सिद्धान्त के अनुसार मानव जीवन की प्राकृतिक अवस्था में न तो कोई राज्य था और ना ही कोई सरकार थी|
परन्तु किन्हीं कठिनाइयों के कारण मानव ने सामाजिक जीवन में प्रवेश करने पर आपस में यह संविदा की, कि वे सभी आपस में शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करेंगे जिस पर लोगों ने आपसी समझोते के आधार पर राज्य की स्थापना की जिसके मुखिया को राजा बनाया गया, इस प्रकार संविदा के आधार पर ‘राज्य’ का जन्म हुआ।
रूसो (Rousseau: 1712-1788) ने प्राकृतिक अवस्था को और अधिक सुखमय बताया। उन्होंने अपनी सामाजिक संविदा जनता की सामान्य इच्छा (General will) पर आधारित करते हुए कहा कि राज्य की वास्तविक शक्ति जनता की सामान्य इच्छा में ही निहित है।
सामाजिक संविदा के सिद्धान्त की अनेक विद्वानों ने आलोचना की है। उनका मानना था कि यह सिद्धान्त कोरी कपोल कल्पना पर आधारित है तथा इसका कोई वास्तविक ऐतिहासिक आधार नहीं है।
विख्यात विधिशास्त्री ऑस्टिन ने भी सामाजिक संविदा की आलोचना करते हुए कहा है कि कोई भी संविदा तभी सम्भव है जब उसके लिए निश्चित विधि पहले से विद्यमान हो। गार्नर के अनुसार इस प्रकार की संविदा का कोई तार्किक या दार्शनिक आधार नहीं है।
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आनुवंशिक सिद्धान्त
अनेक विद्वानों ने राज्य को मानव समुदाय के लिए स्वाभाविक और आवश्यक बताया है। विख्यात विधिशास्त्री प्लेटो के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का सामान्य कारण यह है कि मनुष्य स्वयं में पूर्ण नहीं है।
जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य व्यक्तियों के साथ सहयोग करना पड़ता है और इस प्रकार धीरे-धीरे राज्य का विकास होता है। अरस्तु के अनुसार, आनुवंशिक सिद्धान्त मनुष्य के सामाजिक संगठनों का एक स्वाभाविक चरम-बिन्दु है।
जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सबसे पहले परिवार का जन्म होता है किन्तु जब परिवार पर्याप्त सिद्ध नहीं होते तो धीरे-धीरे मानव द्वारा वृहत्तर समाजों की रचना की जाती है जिनमें पहले ‘ग्राम’ और तत्पश्चात् ‘ग्राम समूह’ बनते हैं और आगे चलकर इन्हीं ‘ग्राम-समूहों’ के आपस में मिलने से राज्य की उत्पत्ति होती है।
राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी इस विचारधारा को आनुवंशिकता का सिद्धान्त’ कहा गया है इसके अनुसार मानव का पहला समुदाय परिवार था और धीरे धीरे परिवार का विकास होने से कुल, गोत्र, कबीले आदि बने फिर इसके बाद नगर व राज्य की उत्पत्ति हुई|
आनुवंशिक सिद्धान्त के दो रूप हैं –
(i) पितृसत्तात्मक सिद्धान्त (Patriarchal Theory) –
पितृसत्तात्मक सिद्धान्त के समर्थकों में सर हेनरी मेन का नाम प्रमुख है। प्राचीन समाजों का अध्ययन करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि राज्य का निर्माण परिवार के विकास से हुआ। उनके विचारानुसार आदिकालीन परिवारो की वंशगणना पुरुषों के नाम से होती थी और परिवार के सबसे वृद्ध पुरुष को असीमित अधिकार प्राप्त थे जिसके फलस्वरूप वह परिवार के सदस्यों को मृत्यु दण्ड भी दे सकता था|
धीरे-धीरे परिवार स्वाभाविक गति से या दूसरे समुदायों को जीतकर बढ़ने लगे तथा धीरे-धीरे एक परिवार से अनेक परिवार बने और ये सब मिलकर एक कुनबे (clan) के रूप में परिवर्तित हो गये।
कुनबे का प्रधान भी प्राय: सबसे वयोवृद्ध पुरुष ही होता था। इस प्रकार कई कुनबों (tribe) को मिलाकर कबीले बने और कहीं-कहीं पर इन कबीलों के संघ बने तथा संघो ने धीरे धीरे राज्य का रूप ग्रहण कर लिया।
इस प्रकार पितृसत्तात्मक सिद्धान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव समाज प्राथमिक अवस्था में व्यक्तियों का समूह न होकर परिवारों का समूह हुआ करता था अर्थात् समाज की इकाई ‘परिवार’ थी।
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(ii) मातृसत्तात्मक सिद्धान्त (Matriarchal Theory) —
मैक्लेनन, मोर्गन और जेंक्स आदि इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक माने जाते हैं। इन विद्वानों का मत है कि प्राथमिक परिवार का रूप पितृसत्तात्मक न होकर मातृसत्तात्मक होता था। इनके अनुसार जब तक पति-पत्नी युक्त परिवारों का जन्म नहीं हुआ, पितृसत्तात्मक परिवार नहीं बने।
प्रारम्भिक समाजों में मानव यौन स्वतंत्र थे। ऐसी दशा में केवल माता के सम्बन्ध को ही निश्चित रूप से जाना जा सकता था, इसीलिए वंश-गणना माता के नाम से चलती थी ना की पिता के नाम से। इन परिवारों का मुखिया पुरुष न होकर वयोवृद्ध स्त्री ही हुआ करती थी। इसी कारण परिवारों को मातृसत्तात्मक कहा गया है।
जैक्स ने आस्ट्रेलिया के आदिम निवासियों के जीवन का अध्ययन करने के पश्चात् हेनरी मेन (Henry Maine) की इस धारणा का खण्डन किया कि समाज के विकास का प्रारम्भ पितृसत्तात्मक परिवार से होता है जिनके विस्तार से आगे चल कर कबीले और राज्य बनते हैं। जैक्स के अनुसार प्राथमिक जन-समूह परिवार न होकर ‘टोटम’ अथवा कबीला होता था।
बाद में ये कबीले विभाजित होकर कुनबों में रहने लगे और इन कुनबों के अतर्गत विवाहों का सूत्रपात हुआ। पितृसत्तात्मक परिवार इसके पश्चात् ही अस्तित्व में आये। इस प्रकार जेंक्स के विचार से सर्वप्रथम सम्मिलित विवाहों का युग आया जिसमें वंश गणना माता के नाम से होती थी और सत्ता भी माता के नाम से ही चलती थी।
विकासवादी सिद्धान्त
विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति न तो दैवी शक्ति के कारण हुई और ना ही यह मनुष्य द्वारा जानबूझकर बनाई गई है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति उसके प्राकृतिक विकास के क्रम पर आधारित है।
इसीलिए इसे ऐतिहासिक सिद्धान्त (Historical Theory) भी कहा गया है। राज्य के विकास सम्बन्धी इस सिद्धान्त का सारांश यही है कि जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया वैसे वैसे लोगों के हितों में वृद्धि होती चली गई।
जिसके परिणाम स्वरूप: लोगों के विभिन्न वर्गों को अलग-अलग अधिकार प्राप्त हो गये। इसी क्रमानुसार आगे चलकर राजनीतिक संगठन बने जिन्हें ‘राज्य’ कहा गया।
इस प्रकार राज्य का विकास क्रमिक और स्वाभाविक गति से हुआ है तथा इसका प्रारम्भ विगत इतिहास की परतों में छिपा पड़ा है। ऐतिहासिक दृष्टि से राज्य की उत्पत्ति में संघर्ष एवं युद्धों का काफी योगदान रहा है क्योंकि ये एकता और सामान्य भावना को जन्म देते हैं।
राज्य को वैधानिक व्यक्तित्व की मान्यता प्राप्त होने के कारण इसे समाज, सरकार तथा राष्ट्र से भिन्न माना जाना चाहिये, तथा यह भिन्नताएं निम्नलिखित हैं –
राज्य और समाज –
राज्य की तुलना में समाज अधिक विस्तृत होता है। मैक आइवर के अनुसार समाज, सामाजिक सम्बन्धों के बदलते हुये रूपों का अध्ययन है। समाज के अन्तर्गत समस्त मानवीय समुदाय आते हैं – चाहे वे सुव्यवस्थित हों अथवा न हों।
परन्तु राज्य के अन्तर्गत केवल राजनीतिक रूप से सुव्यवस्थित समुदाय ही आते हैं, अन्य प्रकार के समुदाय नहीं। मानव इतिहास में राज्य की स्थापना समाज के बहुत बाद में हुई है।
मानव जीवन के लिए समाज अत्यंत आवश्यक है क्योंकि मनुष्य अपनी रक्षा, लालन पालन, शिक्षा, सुख आदि के लिए समाज पर निर्भर रहता है। परन्तु राज्य का कार्य समाज में शांति-व्यवस्था बनाये रखते हुए जनता के हितों का संरक्षण तथा संवर्धन करना है और इसके लिए राज्य अपने कानूनों द्वारा मनुष्य को आज्ञा-पालन के लिए बाध्य करता है|
राज्य और सरकार –
वर्तमान समय में राज्य और सरकार के भेद को प्रायः भुला दिया गया है। जैसा कि कथन किया जा चुका है कि ‘सरकार’ राज्य का एक आवश्यक तत्व है जिसके माध्यम से राज्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयास करता है। ‘सरकार’ के माध्यम से राज्य की इच्छा निर्मित होती है, अभिव्यक्त होती है और पूर्ण होती है।
प्रोफेसर कोल (Cole) के अनुसार राज्य जन-समुदाय के शासन की राजनीतिक मशीनरी के अलावा और कुछ नहीं है, परन्तु राज्य और सरकार को एक ही समझना भ्रान्ति उत्पन्न कर सकता है। राज्य और सरकार के भेद को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है कि सरकारें अस्थिर होती हैं, वे आती-जाती या बदलती रहती हैं किन्तु राज्य अपेक्षाकृत स्थाई होते है।
इससे यह स्पष्ट है कि ‘प्रभुसत्ता’ सरकार का लक्षण नहीं बल्कि राज्य का लक्षण है। सरकार राज्य के अभिकर्ता (agent) के रूप में कार्य करती है, यदि राज्य के अभिकर्ता की हैसियत से वह अपने उत्तरदायित्व को निभाने में असमर्थ दिखाई दे तो निर्धारित प्रक्रिया द्वारा उसे बदला जा सकता है।
राज्य और राष्ट्र (State and Nation) –
एक ही सरकार के अन्तर्गत रहने वाले व्यक्तियों के समाज को राज्य कहा जाता है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि ये व्यक्ति एक ही जाति या एक ही धर्म को मानते हों इनके जाती, धर्म अलग अलग हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में अफ्रीकन, आइरिश, इटैलियन, ट्यूटोनिक आदि विभिन्न जातियों के लोग रहते हए भी उसे ‘राज्य’ कहा जाता है।
ओपेनहाइम के अनुसार राष्ट्रीय चेतना राष्ट्र को जन्म देती है। राष्ट्र के विकास के लिए जाति तथा भाषा की एकता के अतिरिक्त धार्मिक एवं भौगोलिक एकता होना भी बहुत आवश्यक है। कोई जन समुदाय उस समय तक राष्ट्र नहीं बन सकता जब तक कि वह सामान्य रूढ़ियों से आबद्ध न हो।
प्रोफेसर सिजविक (Sidgwick) का कथन है कि राष्ट्र के लिए केवल इतना ही पर्याप्त है कि व्यक्तियों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध की एक सामान्य भावना हो और वे सभी अपने को एक सूत्र में बंधे हुए समझते हों।
राज्य और राष्ट्र में एक अन्तर यह भी है कि राज्य एक कृत्रिम बन्धन है जो राजनीतिक चेतना से अपने नागरिकों को आपस में संगठित रखता है। परन्तु राष्ट्र एक प्राकृतिक बन्धन है जो वंश, भाषा, रूढ़ि के आधार पर अपने सदस्यों को आपस में एक सूत्र में बांधे रखता है।
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Reference – Jurisprudence & Legal Theory (14th Version, 2005)