नमस्कार दोस्तों, भारत मै मुस्लिम विधि एक व्यक्तिगत विधि है जो केवल मुस्लिमों पर ही लागु होती है| मुस्लिम विधि संहिताबद्ध एंव असंहिताबद्ध दोनों ही रूपों में है क्योंकि जहाँ एक और मुस्लिम विधि के स्रोत (Sources of Muslim Law) संहिताबद्ध है तो वहीँ दूसरी तरफ अनेक विषयों पर यथा कुरान, हदीस, इज्मा, कियास आदि मै असंहिताबद्ध विधि उपलब्ध है|

हमारा यह आलेख मुस्लिम विधि के स्रोत | Sources of Muslim Law पर आधारित है, जिमसे मुस्लिम विधि के प्रमुख स्त्रोतों का आसान शब्दों में उल्लेख किया गया है|

मुस्लिम विधि के स्रोत

मुस्लिम विधि के स्रोत को मुख्य तौर पर दो भागों में वर्गीकृत किया गया है –

(i) प्राथमिक स्रोत अर्थात् मुख्य स्रोत,    (ii) द्वितीयिक स्रोत अर्थात् गौण स्रोत।

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प्राथमिक स्रोत अर्थात् मुख्य स्रोत

ऐसे स्रोत जिन्हें पैगंबर मोहम्मद साहब ने विधि के रूप में स्थापित किया है और जो प्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम विधि से सम्बंधित होने से उन्हें मुस्लिम विधि की नींव भी माना जाता है, प्राथमिक स्त्रोत कहलाते है, जो मुख्यतः कुरान, अहादिस एवं सुन्नत, इज्मा, कियास है –

कुरान

कुरान मुस्लिम विधि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ तथा प्रथम स्रोत है इसे बुक ऑफ गॉड यानि अल्लाह की किताब भी कहा जाता है। कुरान शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के शब्द ‘कुर्रा’ से हुई है जिसका अर्थ पढ़ना या जो पढ़ना चाहिए है।

इस ग्रन्थ मै 9965 आयातों का संग्रह है| कुरान में खुदा द्वारा पैगम्बर को दिया गया देवी संदेश शामिल है जिसमे धार्मिक, न्यायिक, सामाजिक आदि अनेक बिन्दुओ पर प्रावधान शामिल है|  

पवित्र कुरान को एक बार मै नहीं लिखा गया है| प्रारम्भ में यह ताड़ के पत्तों एवं छालों पर लिखा गया था| इसे संहिताबद्ध करने का श्रेय अबू बकर एवं खलीफा उस्मान को जाता है, जिसके परिणाम आज का कुरान मिलता है जो 30 अध्यायों में विभक्त है। कुरान पर अनेक कमेंट्री पुस्तके भी लिखी गई है जैसे –

(i) सुरुत अली कृत, उर्दू भाषा मै,

(ii) सवरी कृत अनुवादित कुरान,

(iii) वैदवी कृत कुरान पर पुस्तक आदि

कुरान मै सार्वजनिक प्रार्थना, नमाज, यात्रा, उपवास आदि के साथ-साथ विवाह, मद्य निषेध, तलाक, जारता, उत्तराधिकार धर्म, नैतिकता, कानून से संबंधित मामलों के अलावा दुश्मन के साथ व्यवहार तथा सम्पति का विभाजन, युद्ध एंव शांति की विधि तथा उसके साथ व्यवहार आदि विषयों के बारें मै बताया गया है। मुस्लिम विधि के स्त्रोत के रूप में कुरान एक धार्मिक ग्रंथ होने के साथ-साथ यह विधि का भी सार्थक एवं उपादेय ग्रंथ है।

कून्ही मोहम्मद बनाम आयिशाकुट्टी के मामले में कुरान का महत्व पता चलता है जिसमे कहा गया है कि – “यद्यपि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पति द्वारा अपनी पत्नी को एकतरफा तलाक दिया जा सकता है, उसके लिए आधार बताने की भी आवश्यकता नहीं है, तथापि पवित्र कुरान के अनुसार वह स्वैच्छिक अर्थात् मनमाना नहीं होना चाहिए। उसके लिए युक्तियुक्त प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना अपेक्षित है”। (ए.आई.आर. 2010 एन.ओ.सी. 992 केरल)

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अहादिस एवं सुन्नत

अहादिस एवं सुन्नत को द्वितीय महत्वपूर्ण मुस्लिम विधि के स्रोत माना जाता है। ‘अहादिस’ एवं ‘सुन्नत’ पयार्यवाची शब्द है| अहादिस से तात्पर्य परम्पराओं या उपदेशों से है जबकि सुन्नत से तात्पर्य पैगम्बर के आचरण या अभ्यास से है।

ऐसे बिंदु या मामले जिनका कुरान मै स्पष्ट प्रावधान नहीं है तब उन मामलो पर सुन्नत का सहारा लिया जाता है| जब किसी समस्या का समाधान कुरान में मिल जाता है तो उसे ही सर्वोपरि माना जाता है। जब किसी समस्या का समाधान अहादिस अथवा सुन्नत से किया जाता है तो यह ध्यान में रखा जाता है कि वह कुरान की मूल भावना के प्रतिकूल तो नहीं है।

इस प्रकार पैगम्बर जो कार्य स्वयं करते थे या जिनका वे चुपचाप समर्थन कर देते थे, वे ही सुन्नत एवं अहादिस के रूप में प्रख्यात हुए।

पैगम्बर ने मरते समय कहा था, “मैं तुम्हारे पास दो चीजें खुदा का ग्रंथ एवं अपनी सुन्नत छोड़ जाता हूँ। जब तक तुम इनका अनुसरण करते रहोगे, ये तुम्हें भूल से बचायेगी।”

सुन्नत तीन प्रकार की है

(i) सुन्नत – उल-फेल अर्थात् स्वयं पैगम्बर का आचरण एवं व्यवहार

(ii) सुन्नत-उल-कौल अर्थात् पैगम्बर द्वारा की गई व्यवस्था एवं आदेश

(iii) सुन्नत-उल-तकरीर अर्थात् पैगम्बर की उपस्थिति में किये गये वे कार्य जिनका पैगम्बर ने न तो विरोध किया और न ही उन्हें अस्वीकार किया। इसे मदीना की सुन्नत भी कहा जाता है।

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सुन्नत की तरह अहादिस भी तीन प्रकार की है

(i) अहादिस-ए-मुतवारा अर्थात् ऐसी परम्परायें जो सार्वजनिक तौर पर ख्याति प्राप्त हैं और जिन्हें निपरेक्ष रुप से प्रामाणिक माना जाता है।

(ii) अहादिस-ए-मशहूरी अर्थात् ऐसी परम्परायें जिनसे अधिकांश व्यक्ति परिचित हैं लेकिन सर्वाधिक ख्याति प्राप्त नहीं हैं

(iii) अहादिस-ए-वाहिद अर्थात् ऐसी परम्परायें जो कुछ ही लोगों में प्रचलित|

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अहादिस को ‘हदिस’ (Hadis) भी कहा जाता है।

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इज्मा

इज्मा (Ijmaa) तीसरा महत्वपूर्ण मुस्लिम विधि के स्रोत है। इज्मा का अर्थ है  एकमत या बहुमत। समाज के विकास के साथ-साथ तथा इस्लाम के प्रसार के साथ अनेक प्रकार की समस्याए उत्पन्न हो गई जिनका समाधान कुरान, सुन्नत एवं अहादिस से होना सम्भव नहीं था उस स्थिति मै मुस्लिम विद्वानों व विधिवेत्ताओ द्वारा एकमत होकर उस समस्या का समाधान निकाला जाने लगा है, उसे ही इज्मा कहते है|

साधारण तौर इज्मा का अर्थ — विधि के किसी प्रश्न पर युग विशेष के विधिवेत्ताओं का एक मत है।  किसी समस्या के समाधान बाबत कौन सा नियम प्रयोज्य किया जाए इस बिंदु पर एकमत होकर निर्णय लिया जाना इज्मा के सिद्दांत का सार है। सुन्नी शाखा में इज्मा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है।

इज्मा तीन प्रकार का माना जाता है

(i) पैगम्बर के साथियों का इज्मा  पैगम्बर के साथियों का इज्मा को सर्वोपरि एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह कुरान के सिद्धान्तों पर आधारित है।

अब्दुल रहीम के अनुसार — पैगम्बर मोहम्मद साहब के साथियों के इज्मा को ही सर्वाधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए, क्योंकि ये साथी पैगम्बर मोहम्मद साहब के दृष्टिकोण से नियुक्त किये गये थे और पैगम्बर मोहम्मद साहब के निकट रहने के कारण वे लगभग उन्हीं के समान तर्क की रीति ग्रहण करते थे।

(ii) विधिवेत्ताओं का इज्मा  विधिवेत्ताओं के समूह द्वारा दिये गये इज्मा को एक विधायी शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है, इस प्रकार के इज्मा पर विभिन्न शाखाओं में विभिन्न धारणायें प्रचलित हैं।

अब्दुल रहीम के अनुसार—ऐसे विधिवेत्ताओं का इज्मा तभी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है जब वे इसके लिए पूर्ण रूप से अर्हतावान् हो और अपनी जिन्दगी में राय को नहीं बदलते हो।

(iii) जनता का इज्मा  जनता का इज्मा किसी प्रश्न विषय पर जनसाधारण का एकमत होना है। प्रार्थना, उपवास आदि धार्मिक मामलों में जनसाधारण के इज्मा को महत्त्व प्राप्त है। इसका उपयोग धार्मिक, राजनैतिक, वैधानिक आदि कई तरह के प्रश्नों को हल करने मै किया जाता है। पैगम्बर मोहमद साहब की मृत्यु के पश्चात् प्रथम खलीफा के रूप में अबू बकर की नियुक्ति इसका एक अच्छा उदाहरण है।

कियास

यज स्त्रोत तार्किक विश्लेषण पर आधारित है| जब किसी विषय या समस्या का समाधान कुरान, सुन्नत, अहादिस एवं इज्मा मै नहीं मिलता है ऐसी स्थिति में उक्त तीनों स्रोतों का तुलनात्मक अध्ययन कर समस्या का समाधान किया जाता है|

कियास मै इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कियास मै लिए गए निर्णय कुरान, सुन्नत, अहादिस या इज्मा के विपरीत नहीं हो। कियास के अन्तर्गत समस्याओं का हल विवेक, तर्क शक्ति एवं तार्किक साम्य के आधार पर किया जाता है।

इसका एक अच्छा उदाहरण है, एक बार पैगम्बर ने मौज को किसी स्थान का गवर्नर एवं न्यायाधीश बनाकर भेजा था। उस समय पैगम्बर ने मौज से पूछा कि जब तुम्हारे सामने ऐसा कोई प्रश्न आ जाये जिन पर कुरान व परम्परायें मौन हो तो तुम उस प्रश्न का निराकरण कैसे करोगे? मौज ने कहा- “अपनी ही बुद्धि के आधार पर।” पैगम्बर ने कहा – “यह खुदा की तारीफ है जो अपने पैगम्बर के दूतों को मार्ग बताती है।”

यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि कियास का उद्देश्य विधि के किसी नये सिद्धान्त को जन्म देना नहीं है, अपितु उपरोक्त तीनों स्रोतों का तुलनात्मक अध्ययन कर किसी सही निष्कर्ष पर पहुँचना है।

मुस्लिम विधि के द्वितीयक स्त्रोत

मुस्लिम विधि के प्राथमिक स्त्रोत की तरह द्वितीयक स्त्रोत भी चार प्रकार के है, जो निम्नलिखित है –

रिवाज एवं प्रथायें

प्रथायें आरम्भ से ही मुस्लिम विधि का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत मानी जाती रही हैं। मुस्लिम विधि का अधिकांश भाग आज भी इस्लाम-पूर्व प्रथाओं पर आधारित है। ऐसी प्रथाओं एवं रिवाजों को जिन्हें पैगम्बर के जीवन काल में निरस्त नहीं किया गया, विधिवेत्ताओं ने उन्हें विधि के रूप में स्वीकार कर लिया।

रूढ़ि (रिवाज) को मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में कभी मान्यता नहीं दी गई, यद्यपि अनुपूरक (Supplementary) के रूप में उसका कभी–कभी उल्लेख पाया जाता है।

हेदाया के अनुसार  अभिव्यक्त सूत्रों के अभाव में प्रथाओं का स्थान इज्मा के समान है। विधिमान्य प्रथा के लिए निम्न बातें आवश्यक है –

(i) प्रथा का प्राचीन, निरन्तर, युक्तियुक्त, तर्क संगत होना चाहिए

(ii) प्रथा का लोक नीति एवं लोकाचार के अनुकूल होना आवश्यक है।

प्रथा का प्राचीन, निश्चित, युक्तियुक्त, अपरिवर्तनीय एवं निरन्तर अस्तित्व में होना आवश्यक है। इनमें से किसी के भी अभाव में प्रथा विधिमान्य प्रथा नहीं हो सकती।

श्रीमती बीबी बनाम श्रीमती रामकली’ (.आई.आर. 1982 इलाहाबाद 248) – इसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा कहा गया है कि जाति अथवा उप जाति की प्रथाओं की विधिमान्यता के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि ऐसी प्रथायें प्राचीन, निश्चित एवं युक्तियुक्त हों।

विधान

इस स्रोत के अन्तर्गत समय-समय पर विधायिका द्वारा पारित विधियाँ आती हैं। विधायिका द्वारा समय-समय पर कई महत्त्वपूर्ण अधिनियम पारित किये गये हैं; यथा वक्फ मान्यीकरण अधिनियम, 1913 एवं 1930, वक्फ अंधिनियम 1954, शरियत अधिनियम 1937, मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम 1939, वक्फ अधिनियम 1955 आदि। देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार विधायिका द्वारा इन विधियों में परिवर्तन, परिवर्द्धन एवं संशोधन आदि भी किये जाते हैं।

फतवा – मुस्लिम समुदाय में फतवा जारी करने की परम्परा है। लेकिन फतवा मान्य नहीं है। इसका कोई विधिक महत्त्व नहीं है। इसे किसी भी विधिक प्रक्रिया द्वारा लागू नहीं किया जा सकता।

न्यायिक निर्णय

समय-समय पर उद्घोषित न्यायिक निर्णय विधि का निर्माण करते हैं। इन न्यायिक निर्णयों में विधि का बल होता है तथा अधीनस्थ न्यायालय अपने ऊपर के न्यायालयों के निर्णयों का अनुसरण करने के लिए आबद्ध होते हैं। जब भी किसी अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष कोई विवादग्रस्त विषय आता है तो ऐसे विषय के निराकरण में उस विषय पर उद्घोषित पूर्व-निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों का मार्ग-दर्शन करते हैं।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर तथा उच्च न्यायालय के निर्णय उस राज्य के अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं।

न्यायालय के निर्णयों के अनुसरण में ‘निर्णयाधार’ (Ratio decidandi) का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक निर्णय को पूर्ण रूप से पढ़ा जाकर उसमें से निर्णयाधार को तलाशने की अपेक्षा की जाती है।

केस – पाण्डुरंग कालू पाटिल बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 733)

इस मामले  में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रिवी कौंसिल के निर्णय उच्च न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं यदि वे उच्चतम न्यायालय द्वारा नहीं उलट दिये गये हों।

साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के सिद्धान्त

जब किसी विषय पर कोई विधि उपलब्ध नहीं होती है तब न्यायालय साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के सिद्धान्तों के आधार पर न्याय निर्णयन करते हैं। यह सिद्धान्त नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों पर आधारित होते हैं।

शिया शाखा के अनुसार मुस्लिम विधि के स्रोत

शिया शाखा में मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में (1) कुरान, (2) अहादिस एंव (3) इजमा को माना जाता है|

सुन्नीयों के समान ही शिया लोग भी ‘कुरान‘ को मुस्लिम विधि के स्रोत में प्रथम स्रोत मानते हैं। शिया लोग उसी अहादिस को प्रमाणिक समझते हैं जो पैगम्बर या उनके वंशजों से आयी है। इस कारण शिया सम्प्रदाय की अहादिस की  संख्या बहुत  कम है।

जब ‘कुरान‘ और अहादिस से सहायता नहीं मिलती तो शिया लोग तर्क का सहारा लेते हैं और विशेष तौर पर जबकि इमाम से परामर्श नहीं हो सकता था। शिया लोग कियास को मान्य स्रोत की तरह स्वीकार नहीं करते और इमाम की उपस्थिति में साम्य, लोक नीति या तर्क को कोई स्थान नहीं देते हैं।

इस प्रकार मुस्लिम विधि के उपरोक्त महत्त्वपूर्ण स्रोत अस्तित्व में हैं।

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