हेल्लो दोस्तों, इस लेख में मानहानि क्या है (what is defamation)| मानहानि की परिभाषा, प्रकार एंव इसके आवश्यक तत्व के बारें में बताया गया है| मानहानि, अपकृत्य विधि के साथ-साथ अपराध विधि का भी महत्वपूर्ण विषय है| इस लेख में मानहानि किसे कहते है, अपलेख एंव अपवचन में क्या अन्तर है आदि को आसान भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है|
परिचय – मानहानि
समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन शांति एंव इज्जत, मान, प्रतिष्ठा से व्यतीत करना चाहता है और यही मान, प्रतिष्ठा व्यक्ति की सामाजिक ख्याति भी होती है| मान-सम्मान के पीछे ही व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक एंव राजनैतिक विकास होता है| यह सर्वविदित है कि ख्याति की रक्षा का अधिकार शरीर एवं सम्पत्ति की रक्षा के अधिकार से भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि व्यक्ति शरीर एवं सम्पत्ति की हानि को सहन कर सकता है लेकिन ख्याति की हानि को नहीं।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने शरीर एवं सम्पत्ति की तरह अपनी ख्याति की रक्षा करने का भी अधिकार है। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष किसी के सम्बन्ध में मान-प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाने वाली गलत, मनगड़त, झूठी बाते कहता है, तब वह मानहानि के लिए दायी ठहराया जा सकता है और उसके खिलाफ उसी प्रकार का वाद लाया जा सकता है जिस प्रकार का वाद एक व्यक्ति अपनी सम्पति की हानि होने पर दुसरे के खिलाफ लाता है|
व्यक्ति के मान-सम्मान को महत्वपूर्ण मानने के कारण ही ‘मानहानि’ (defamation) को आपराधिक कृत्य के साथ- साथ अपकृत्य विधि के अन्तर्गत भी अपराध माना गया है।
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मानहानि की परिभाषा
किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में किसी कथन को “शब्दों में, लिखित में, चित्रों में या महत्वपूर्ण संकेतों द्वारा प्रकाशित करना”, जिस कारण उस व्यक्ति के प्रति अन्य लोगों के मन में घृणा, उपहास, अपमान का भाव पैदा हो जाए और उसके मान-सम्मान को क्षति पहुंचे, तब उसे मानहानि कहा जाता है|
मानहानि में ऐसे अपमानजनक शब्दों एंव भाषण का उपयोग किया जाता है, जिन शब्दों एंव भाषण से व्यक्ति विशेष के प्रति समाज में घृणा या अपमान उत्पन्न हो जाता है और उसकी गरिमा को चोट पहुंचती है|
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नूर मोहम्मद बनाम मुहम्मद जयजदीन के वाद में न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि, किसी व्यक्ति की गरिमा का, जिसे भारतीय संविधान के तहत सुनिश्चित किया गया है, अनुचित अतिलंघन को मानहानि कहा जाएगा| (ए.आई.आर. 1992 म.प्र. 244)
उदाहरण – अ व्यक्ति द्वारा मौखिक या लिखित में अथवा संकेतो, चित्रों, पुतला आदि से ब व्यक्ति के खिलाफ जानबूझकर झूठे या कल्पित कथनों, दुर्भावनापूर्वक मिथ्या आधारों पर, उसके चरित्र, इज्जत पर लांछन लगाता है या उसे चोर, शराबी, बईमान आदि कहता है जिस कारण से समाज के व्यक्तियों में ब व्यक्ति के प्रति गलत विचार या भावनाएं पैदा हो जाए, तब यह माना जाएगा की अ व्यक्ति ने मानहानि की है और उसके खिलाफ ब व्यक्ति वाद लाने का अधिकारी है|
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अण्डरहिल के अनुसार – “मानहानि ख्याति अर्थात् प्रतिष्ठा को कलंकित करने वाला ऐसा मिथ्या कथन है जिसका प्रकाशन किया जाता है। किसी व्यक्ति की मानहानि शब्दों, संकेतों, चित्रों आदि द्वारा की जा सकती है। इसका उद्देश्य पीड़ित को समाज के विचारशील व्यक्तियों की दृष्टि में गिराना होता है।
“सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार – “किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में बिना किसी क़ानूनी औचित्य के असत्य तथा मानहानिकारक कथनों का प्रकाशन मानहानिजनक अपकृत्य है।”
प्रो. विनफील्ड के अनुसार – जब किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में ऐसे कथन या शब्द प्रकाशित किये जाते है जिससे समाज की दृष्टि में उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिर जाती है एवं लोग उससे घृणा तथा उसकी उपेक्षा करने लगते है तब उसे मानहानि कहा जाएगा तथा ऐसे कथनों एंव शब्दों को मानहानिकारक कहा जाता है|
‘डिक्सन बनाम होल्डन’ के मामले में यह कहा गया है कि – “किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा उस व्यक्ति की अन्य सभी सम्पत्तियों से सर्वाधिक मूल्यवान सम्पति है।” [(1869) 7 एल.आर. 488]
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भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 499 के अनुसार –
“जो कोई या तो बोले गए या पढ़ेके लिए आशयित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्य रूपणों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में कोई लांछन इस आशय से लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि की जाए या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि होगी, एतस्मिन्पश्चात् अपवादित दशाओं के सिवाय उसके बारे में कहा जाता है कि वह व्यक्ति की मानहानि करता है।
योसोपाफ बनाम मेट्रोगोल्डविन मेयर पिक्चर्स लिमिटेड के मामले में हम मानहानि को समझ सकते है। इसमें एक फिल्म में वादी (एक ऐसी राजकुमारी नटाशा) को एक कुख्यात भिक्षु रासपूटीन के साथ बलात्संग की मुद्रा में दिखाया गया था। न्यायालय ने इसे मानहानिकारक माना क्योंकि यह मिथ्या अभ्यारोपण था, इसका उद्देश्य लोगों के मन में वादी के प्रति घृणा पैदा करना था तथा उसकी संगति से लोगों को निवारित करना था। [(1934)50 टी एल आर 581]
उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि, किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में प्रकाशित ऐसे कथनों को मानहानिकारक माना जाता है जिससे –
(क) उस व्यक्ति की समाज में मान-प्रतिष्ठा गिर जाए,
(ख) समाज के लोग उससे घृणा एंव उपहास करने लगे,
(ग) इससे उसके व्यापार, व्यवसाय, कारोबार आदि की प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचे और उन पर विपरीत प्रभाव पड़े,
(घ) समाज में व्यक्ति विशेष की उपेक्षा होनी लगे आदि|
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मानहानि के प्रकार
मानहानि दो प्रकार से की जा सकती है – (i) अपमान-लेख द्वारा एवं (ii) अपमान-वचन द्वारा।
(i) अपमान-लेख (Libel)
अपमान लेख जिसे अपलेख भी कहा जाता है, यह लिखित रूप से कारित मानहानि का स्वरूप है। इसमें लेखों, आलेखों, चित्रों, छाया चित्रों, सिनेमा, फिल्मों, कार्टूनों, व्यंग चित्रों, संकेतों, किसी के दरवाजे पर कुछ लिख कर चिपकाना आदि के माध्यम से किसी व्यक्ति की मानहानि कारित की जाती है। विनफील्ड ने अपमान-लेख को मानहानि का एक स्थायी रूप माना है।
मानसन बनाम टूसाड्रास लिमिटेड के प्रकरण में एक व्यक्ति के खिलाफ क़त्ल का आरोप लगाया गया लेकिन वह निर्दोष साबित हुआ| कम्पनी में उसका मोम का पुतला अपराधियों के साथ रखकर दिखाया गया था| इस प्रकरण में कम्पनी का यह प्रदर्शन कार्य मानहानिकारक था, क्योंकि वह व्यक्ति क़त्ल के मुकदमे में निर्दोष था, फिर भी उसका पुतला अपराधियों के साथ रखकर प्रदर्शित करना अपमानकारक था|
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इसी तरह एस. एन.एम. अब्दी बनाम प्रफुल कुमार महन्ता के मामले में, उच्च न्यायालय द्वारा वादी को अपमानित करने वाले समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख को अपलेख माना गया और यह कहा गया कि प्रतिवादी से वादी क्षतिपूर्ति पाने का अधिकारी है। (ए.आई. आर. 2002 उड़ीसा 75)
अपमान-लेख की दशा में तीन बातों को साबित किया जाना आवश्यक है –
(a) कि प्रतिवादी द्वारा प्रकाशित कथन असत्य था,
(b) कि ऐसा कथन स्थायी था, और
(c) कि वह लेख, चित्र, पुतला आदि अपमानजनक था।
(ii) अपमान-वचन (slander)
अपवचन से तात्पर्य बोले गये शब्दों, कथनों या वचनों द्वारा मानहानि से है। आसान भाषा में यह कहा जा सकता है कि, किसी व्यक्ति विशेष के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग या उच्चारण करना जो शब्द मानहानि में आते है, अपमान-वचन कहलाते है, इसे अपवचन भी कहा जाता है|
सिर हिलाना, आँख मटकाना, मुस्कुराना, मुख से फुसफुस करना आदि अपमान-वचन के अच्छे उदाहरण है| संकेतों द्वारा किया गया अपमान-जनक कथन जो आँखों को दिखाई देता है लेकिन कानों को सुनाई नहीं देता है, अपमान-वचन की श्रेणी में आता है|
अपमान-वचन स्वतः अनुयोज्य नहीं होता है। इसमें विशेष नुकसान को सिद्ध करना होता है जबकि अपमान-लेख स्वत: अनुयोज्य होते है| स्वतः अनुयोज्य के मामलों में वादी को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं होती है कि, उसे नुकसान हुआ है|
अपमान-लेख एवं अपमान-वचन में अन्तर
(i) अपमान-लेख लिखित अथवा मुद्रित होता है जिसका सम्बन्ध आँखों से है यानि जिसको पढ़ा एवं देखा जा सकता है, जबकि अपमान-वचन बोले गये शब्दों द्वारा होता है जिसका सम्बन्ध कानों से है और जिसे सुना जा सकता है।
(ii) अपमान-लेख स्थायी प्रकृति का मानहानिकार कथन होता है जबकि अपमान-वचन अस्थायी प्रकृति का कथन होता है।
(iii) अपमान-लेख, अपकृत्य एवं अपराध दोनों श्रेणियों में आता है जबकि अपमान-वचन को केवल अपकृत्य माना जाता है, यह अलग बात है कि, भारत में अपवचन को भी अपराध एवं अपकृत्य दोनों श्रेणियों में रखा गया है।
(iv) अपमान-लेख में मानहानि जानबूझकर विद्वेष भाव से की जाती है क्योंकि यह लिखित होता है, जबकि अपमान-वचन द्वारा मानहानि क्रोधवश अथवा भावावेश में भी हो सकती है।
(v) अपमान-लेख स्वतः अनुयोज्य होता है यानि इसमें विशेष हानि को साबित किया जाना आवश्यक नहीं होता है, जबकि कुछ दशाओं को छोड़कर अपमान-वचन स्वतः अनुयोज्य नहीं होता है इसमें विशेष हानि को साबित करनी होती है। यह अलग बात है कि, भारत में ऐसी विशेष क्षति को साबित किया जाना आवश्यक नहीं है।
इस सम्बन्ध में पार्वती बनाम मन्नार का एक अच्छा मामला है जिसमे प्रतिवादी ने वादी को गालियां निकाली और कहा की वह अपने पति की विधिवत: विवाहिता पत्नी नहीं है तथा अनेक स्थानों से दुश्चरित्रता के कारण निकाली जा चुकी है| न्यायालय ने प्रतिवादी को नुकसानी के लिए जिम्मेदार ठहराया हालाँकि इसमें कोई विशेष क्षति साबित नहीं की गई थी| [आई.एल. आर. (1884) 4 मद्रास 175]
मानहानि के आवश्यक तत्व
मानहानि के वाद में सफलता के लिए वादी द्वारा निम्नलिखित बातों को साबित किया जाना आवश्यक है –
कथनों का अपमानजनक होना
मानहानि का पहला आवश्यक तत्व शब्दों अथवा कथनों का अपमानजनक होना है। ऐसे शब्दों अथवा कथनों को अपमानजनक माना जा सकता है जिससे किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा समाज में गिर जाती है तथा लोग उससे घृणा एंव उसकी उपेक्षा करने लगते है। इससे व्यक्ति के व्यापार, व्यवसाय, वृति या कारोबार पर विपरीत असर पड़ता है।
सामान्यतया निम्न शब्दों को अपमानजनक माना गया है –
(i) ऐसे शब्द जिनसे वादी के प्रति अन्य लोगों के मन में घृणा या प्रतिकूल धारणा उत्पन्न हो जाये,
(ii) ऐसे शब्द जिनसे लोग वादी का उपहास करने लगे तथा उसकी प्रतिष्ठा गिर जाये,
(iii) ऐसे शब्द जो व्यक्ति के चरित्र या साख पर आक्रमण करें,
(iv) ऐसे शब्द जो व्यक्ति के व्यापार, व्यवसाय वृति या कारबार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले,
(v) ऐसे शब्द जो ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दें जिससे लोग ऐसे व्यक्ति से भयभीत रहें तथा उसके सम्पर्क में आना बन्द कर दें।
इस सम्बन्ध में ‘मारीसन बनाम रिची एण्डक’ का एक अच्छा प्रकरण है, इसमें प्रतिवादी ने अनजाने में यह समाचार प्रकाशित कर दिया था कि वादिया के दो जुड़वा बच्चे हुए है, जबकि वादिया का विवाह अभी दो माह पूर्व ही हुआ था। वादिया ने प्रतिवादी के खिलाफ मानहानि का वाद पेश किया जिसे स्वीकार करते हुए न्यायालय द्वारा कहा गया कि, तथ्यों की सत्यता का पता लगाये बिना प्रकाशित समाचार मानहानि के क्षेत्र में आता है। इससे यह स्पष्ट है कि, मानहानि में अज्ञानता अथवा अनजाने से किया गया कार्य बचाव का आधार नहीं हो सकता तथा इसमें आशय का भी कोई महत्व नहीं होता। [(1902) 4 एफ 645]
कथनों का सम्बन्ध वादी से होना
मानहानि के प्रत्येक वाद में वादी को यह साबित करना होता है कि अपमानजनक शब्द केवल वादी से ही सम्बंधित है यानि कि प्रतिवादी के कथन वादी के प्रति किये गये कथन है। ऐसा सम्पूर्ण नाम, संक्षिप्त नाम, मिथ्या नाम, कल्पित नाम आदि किसी भी प्रकार से सम्बोधित कर किया जा सकता है। आवश्यक मात्र यह है कि ऐसे शब्दों या कथनों से यह आभास हो जाये कि वे वादी के प्रति किये गये है।
इस सम्बन्ध में ‘हल्टन एण्ड क. बनाम जोन्स‘ का एक अच्छा मामला है, इसमें प्रतिवादी ने अपने समाचार पत्र में ‘डिप्पी’ के मोटर उत्सव के सम्बन्ध में एक हास्य लेख प्रकाशित किया था। इसमें ‘आमटस जोन्स’ नामक एक काल्पनिक व्यक्ति को चर्च का वार्डन बताते हुए उस पर फ्रांस में एक अध्यापिका के साथ अवैध रूप से रहने का आरोप लगाया गया था।
प्रकाशक ने यह लेख काल्पनिक व्यक्ति के नाम से प्रकाशित किया था तथा उसे यह बिलकुल भी ज्ञान नहीं था कि इस नाम का कोई वास्तविक व्यक्ति भी हो सकता है। लेकिन उस नाम का एक वास्तविक व्यक्ति बैरिस्टर निकला जो न तो वह चर्च का वार्डन था और ना ही डिप्पी के उत्सव में शामिल हुआ था।
वादी ने समाचार पत्र के प्रकाशक के खिलाफ मानहानि का वाद पेश किया और कहा कि जिस व्यक्ति ने वह लेख पढ़ा उसने यही समझा कि वह वादी के बारे में लिखा गया है। न्यायालय ने इसे मानहानि माना ।
कथन का प्रकाशित होना
यह मानहानि का तीसरा आवश्यक तत्व है। प्रकाशन का अर्थ किसी विषय को अन्य व्यक्तियों की दृष्टि में लाना| आसन भाषा में इसका अर्थ है कि, ऐसे कथन वादी के अलावा अन्य व्यक्तियों की जानकारी में आ जायें। यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति विशेष के सम्बन्ध में अपमानजनक लेख लिखकर अपने पास रख ले तो वह लेख प्रकाशित हुआ नहीं माना जाएगा और इस स्थिति में वह किसी मुकदमे के लिए जिम्मेदार भी नहीं होगा|
उदाहरण – ‘क’ एक मानहानिकारक पत्र ‘ख’ को लिखता है। ‘ख’ उसे पढ़कर फाड़ देता है या अपने घर में रख देता है। इसे प्रकाशन नहीं माना जायेगा क्योंकि वह पत्र केवल वादी (‘ख’) की जानकारी में ही था। लेकिन यदि ‘क’ पत्र की बजाय ‘ख’ को तार भेजता तब इसे प्रकाशन माना जाता क्योंकि वह कई व्यक्तियों (तार बाबू, डाकिया) की जानकारी में आ जाता।
इसी तरह का ‘क्वीन बनाम एडम्स‘ का एक अच्छा प्रकरण है, इसमें प्रतिवादी ने अभद्र भावों को प्रदर्शित करते हुए एक पत्र लिखा तथा उसे एक लिफाफे में बन्द करके उस पर पता लिखकर एक महिला के पास भेज दिया। इसे प्रकाशन नहीं माना गया क्योंकि इस पत्र का ज्ञान किसी अन्य व्यक्ति को होना सम्भावित नहीं था। [(1888) एल. आर. 22 क्यू.बी.डी. 66]
कै. महानसिंह बनाम के. नाथासिंह के मामले में न्यायिक कार्यवाही के दौरान किए गए कथनों को मानहानिकारक नहीं माना गया है क्योंकि वे न्यायालय के अभिलेख का भाग होने से उनका जनसाधारण के लिए प्रकाशन नहीं किया जा सकता। (ए.आई. आर. 2016 पंजाब एण्ड हरियाणा 71)
कथनों का असत्य होना
मानहानि के वाद में वादी को यह भी साबित करना होता है कि प्रकाशित कथन असत्य था। यदि ऐसा कथन सत्य है तो वह मानहानि की परिभाषा में नहीं आता है। वस्तुतः सत्य कथनों का प्रकाशन मानहानि का एक अच्छा बचाव भी है।
प्रतिवादी द्वारा कथनों का प्रकाशन किया जाना
मानहानिकारक कथनों का प्रकाशन प्रतिवादी द्वारा किया जाना आवश्यक है। यदि ऐसे कथन प्रतिवादी के नाम से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रकाशित किये जाते है तो वे मानहानि कारक नहीं माने जायेंगे।
इस सम्बन्ध में ‘रितनन्द बल्वेद ऐज्यूकेशन फाउण्डेशन बनाम आलोक कुमार‘ का एक अच्छा मामला है जिसमें प्रतिवादी द्वारा बोर्ड सदस्यों के बारे में मिथ्या एवं विद्वैषपूर्ण कथन किये गये तथा कुछ व्यक्तियों को उसके बारे में गुप्त सूचनाएँ दी गई। यह कथन वादी समिति के कार्यकारी बोर्ड के सदस्यों के सम्बन्ध में किये गये थे, न कि वादी समिति के बारे में। वादी का वाद खारिज कर दिया गया क्योंकि इन कथनों से वादी समिति को न तो कोई क्षति कारित हुई और न ही उसकी प्रतिष्ठा को आघात लगा। (ए.आई.आर. 2007 दिल्ली 9)
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