इस आलेख में विधि व्यवसाय के अन्तर्गत माध्यस्थ अधिकरण किसे कहा जाता है एंव माध्यस्थ की नियुक्ति कैसे की जाती है? क्या विदेशी माध्यस्थ नियुक्त हो सकता है तथा माध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने की प्रक्रिया को आसान शब्दों में समझाया गया, इसलिए आलेख को अन्त तक जरुर पढ़े –

परिचय – माध्यस्थ अधिकरण

माध्यस्थ अधिकरण को जानने से पहले हमें माध्यस्थ को जानना जरुरी है, विधि व्यवसाय के अंतर्गत माध्यस्थ (Arbitrator) ऐसे व्यक्ति को कहा जाता हैं, जो पक्षकारान द्वारा माध्यस्थम् को सौंपे गये विवादों का निपटारा करता है। अर्थात माध्यस्थ (Arbitrator) वह तटस्थ व्यक्ति होता है जिसे पक्षकारों द्वारा विवाद का समाधान करने के लिए चुना जाता है।

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम के प्रयोजनार्थ माध्यस्थ एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता है इस कारण माध्यस्थ (Arbitrator) को माध्यस्थम् की धुरी भी कहा जा सकता है और जब माध्यस्थ मामले की सुनवाई कर रहे होते है तब उन्हें माध्यस्थ अधिकरण के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

भारत में माध्यस्थ अधिकरणों का कानूनी आधार मुख्य रूप से माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 है, जो इस प्रक्रिया को विधिक मान्यता और संरचना प्रदान करता है। आइये माध्यस्थ अधिकरण को विस्तार से जानते है –

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माध्यस्थ अधिकरण का अर्थ –

माध्यस्थ के साथ-साथ ‘माध्यस्थ अधिकरण’ (Arbitral tribunal) का भी अपना महत्त्व है। विधि व्यवसाय के अंतर्गत माध्यस्थ अधिकरण (Arbitration Tribunal) उस निकाय या संस्था को कहा जाता है, जो पक्षकारों के मध्य विवादों का समाधान करने के लिए गठित की जाती है।

यह निकाय पारंपरिक न्यायालयों से अलग होता है और यह मुख्य रूप से अनुबंध या सहमति के आधार पर कार्य करता है। जब दो या दो से अधिक पक्ष किसी अनुबंध या सहमति-पत्र (करार) के अंतर्गत विवाद में उलझ जाते हैं, तो वे इस अधिकरण को विवाद के निपटारे के लिए चुन सकते हैं।

माध्यस्थ अधिकरण, भारतीय न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो विवादों को शीघ्रता से हल करने के उद्देश्य से कार्य करता है। पारंपरिक न्यायालयों में चलने वाली लंबी प्रक्रियाओं के समाधान के रूप में, इन अधिकरणों (माध्यस्थ अधिकरणों) की स्थापना की गई है, जहां पक्षकार अपने निर्णय की प्रक्रिया में समय और खर्च दोनों की बचत कर सकते हैं।

माध्यस्थ अधिकरण का गठन पक्षकारों की सहमति से एक मात्र माध्यस्थ (Sole arbitrator) या अनेक माध्यस्थों से होता है, जिनका चयन पक्षकार करते हैं। माध्यस्थ अधिकरण के अंतर्गत आने वाले निर्णयों को न्यायालय में चुनौती देने की सीमित गुंजाइश होती है, जिससे इनके फैसले अत्यधिक प्रभावी होते हैं।

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माध्यस्थ की नियुक्ति की प्रक्रिया –

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (उपधारा 1 से 14) में माध्यस्थ की नियुक्ति के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार माध्यस्थ की नियुक्ति विवाद के पक्षकारों द्वारा की जाएगी तथा माध्यस्थ कितनी ही संख्या में हो सकते हैं लेकिन यह संख्या सम (even) संख्या नहीं होगी। विवाद के पक्षकार किसी भी व्यक्ति को माध्यस्थ नियुक्त करने के लिए स्वतंत्र होते हैं।

उपधारा (1) में यह स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि- “किसी भी राष्ट्रीयता का कोई भी व्यक्ति माध्यस्थ हो सकेगा, जब तक पक्षकारों द्वारा अन्यथा सम्मति न दी गई हो।”

माध्यस्थ की नियुक्ति के बारे में विवाद के पक्षकारों द्वारा करार किया जा सकता है और उसी करार के अनुरूप माध्यस्थ की नियुक्ति किया जाना आवश्यक होता है। यदि पक्षकारों के बीच ऐसा कोई करार नहीं है या उनका करार विफल हो जाता है उस स्थिति में,

धारा 11 (3) के अनुसार प्रत्येक पक्षकार द्वारा एक-एक माध्यस्थ की नियुक्ति करेगा और इस प्रकार नियुक्त किये गये दो माध्यस्थ तीसरे माध्यस्थ की नियुक्ति करेगें, जो पीठासीन माध्यस्थ के रूप में कार्य करेगा।

धारा 11 (4) के अनुसार, एक पक्षकार द्वारा माध्यस्थ नियुक्त करने के बाद दूसरा पक्षकार 30 दिनों के भीतर माध्यस्थ नियुक्त करने में असफल रहता है या दोनों पक्षकारों द्वारा माध्यस्थों की नियुक्ति करने बाद, नियुक्त किये गए दोनों माध्यस्थ, उनकी नियुक्ति की तारीख से 30 दिनों के भीतर तीसरे माध्यस्थ को नियुक्त करने में असफल रहते है, तब एक पक्षकार की प्रार्थना पर यथास्थिति, उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय या ऐसे न्यायालय द्वारा पदाभिहित किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा, माध्यस्थ की नियुक्ति की जायेगी।

नोट – किसी अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् की दशा में उच्चतम न्यायालय द्वारा पदाभिहित माध्यस्थम् संस्था द्वारा एवं उससे भिन्न किसी अन्य माध्यस्थम् की दशा में उच्च न्यायालय द्वारा पदाभिहित माध्यस्थम् संस्था द्वारा, माध्यस्थ की नियुक्ति की जायेगी।

यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि, यदि एक पक्षकार के अनुरोध पर दूसरे पक्षकार द्वारा 30 दिन के भीतर माध्यस्थ की नियुक्ति नहीं की जाती है तो इससे माध्यस्थ नियुक्त करने का उसका अधिकार समाप्त नहीं हो जाता है बल्कि वह तब तक माध्यस्थ की नियुक्ति कर सकता है जब तक पहले पक्षकार द्वारा धारा 11 (6) के अन्तर्गत माध्यस्थ की नियुक्ति हेतु न्यायालय को आवेदन नहीं कर दिया जाता है। इस सम्बन्ध में न्यूकन इण्डिया प्रा.लि.बनाम दिल्ली विद्युत बोर्ड (ए.आई. आर. 2001 दिल्ली 227) का मामला प्रमुख है|

लेकिन यदि माध्यस्थ की नियुक्ति बाबत सूचना मिलने के बाद भी पक्षकार द्वारा माध्यस्थ की नियुक्ति नहीं की जाती है और पदाभिहित न्यायाधीश द्वारा माध्यस्थ की नियुक्ति कर दी जाती है, तब पक्षकार का माध्यस्थ की नियुक्ति करने का अधिकार समाप्त हो जायेगा।

जहाँ विवाद के पक्षकारों में यह स्पष्ट तौर पर करार हो कि, वे किसी विनिर्दिष्ट व्यक्ति या संस्था के मध्यस्थ नियुक्त होने पर ही माध्यस्थम् कार्यवाही में भाग लेंगे उस दशा में करार के अनुरूप ही मध्यस्थ नियुक्त किया जा सकेगा इसके अलावा मध्यस्थ के तौर पर किसी की भी नियुक्ति अवैध मानी जाएगी|

इस सम्बन्ध में ‘नीरज कुमार बोहरा बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ (ए.आई. आर. 2009 कोलकाता 59) का मामल प्रमुख है, इसमें यह कहा गया है कि, मध्यस्थ की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश द्वारा किये जाने पर भी उसका करार के अनुरूप होना अपेक्षित है। जहाँ पक्षकारों में यह करार हो कि वे माध्यस्थम् कार्यवाही में तभी भाग लेंगे जब मध्यस्थ कोई रेलवे का राजपत्रित अधिकारी हो। मुख्य न्यायाधीश द्वारा ऐसे राजपत्रित अधिकारी को ही मध्यस्थ नियुक्त किया जा सकेगा। किसी सेवानिवृत न्यायाधीश की मध्यस्थ के तौर पर नियुक्ति अवैध होगी।

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माध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 12 (3) में उन आधारों का उल्लेख किया गया है जिन पर किसी माध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है। यह आधार निम्नांकित है-

(i) जहाँ ऐसी परिस्थतियाँ विद्यमान् हो जो माध्यस्थ की स्वतन्त्रता या निष्पक्षता पर युक्तियुक्त सन्देह उत्पन्न करती हो, अथवा

(ii) जहाँ माध्यस्थ पक्षकारों द्वारा निर्धारित योग्यता नहीं रखता हो।

इस प्रकार उपरोक्त आधारों पर ही किसी माध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है, अन्य आधारों पर नहीं। फिर यह चुनौती भी केवल नियुक्ति के बाद तब दी जा सकती है जब पक्षकारों को उपरोक्त दोनों या दोनों में से किसी का पता चले। यदि नियुक्ति से पूर्व पक्षकार इन दोनों बातों अवगत थे तो नियुक्ति के बाद उसे चुनौती नहीं दी जा सकती।

‘अमर चन्द्र बनाम अम्बिका जूट मिल्स‘ के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – माध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने की अनुमति केवल तभी दी जा सकती है जब वह न्याय के लिए आवश्यक हो। केवल उपरोक्त चुनौती का बहाना बनाकर कोई पक्षकार माध्यस्थ के प्राधिकार की बाध्यता से बच नहीं सकता। (ए.आई. आर. 1963 एस.सी. 1036)

इसके अलावा माध्यस्थ की निष्पक्षता पर केवल सन्देह होना मात्र पर्याप्त नहीं है बल्कि इसे साबित भी किया जाना चाहिए।

चुनौती की प्रक्रिया

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 13 में माध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। ऐसी प्रक्रिया बाबत पक्षकारों द्वारा करार किया जा सकता है।

जो व्यक्ति माध्यस्थम् की नियुक्ति को चुनौती देना चाहता है वह –

(i) माध्यस्थम् अधिकरण के गठन की जानकारी होने के पश्चात् 15 दिनों के भीतर, या

(ii) धारा 12(3) में वर्णित परिस्थितियों की जानकारी होने के पश्चात्। माध्यस्थम् अधिकरण को चुनौती देने के लिए कारणों का एक लिखित पत्र प्रेषित करेगा।

माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा ऐसी चुनौती पर विचार किया जाकर उस पर निर्णय दिया जायेगा। यदि चुनौती अस्वीकार की जाती है तो माध्यस्थम् कार्यवाही चालू रखते हुए पंचाट दिया जायेगा।

ऐसे पंचाट को अधिनियम की धारा 34 के अन्तर्गत अपास्त (Set aside) करने के लिए आवेदन किया जा सकेगा। यदि पंचाट को न्यायालय के समक्ष चुनौती दिये जाने पर न्यायालय द्वारा पंचाट को अपास्त कर दिया जाता है तब माध्यस्थ को शुल्क का भुगतान करने या न करने का निर्णय न्यायालय द्वारा किया जायेगा।

माध्यस्थ अधिकरणों का क्षेत्राधिकार

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 16 एवं 17 में माध्यस्थ अधिकरणों के क्षेत्राधिकार (Jurisdiction) के बारे में प्रावधान किया गया है।

यहाँ यह बता देना उचित होगा कि, माध्यस्थ अधिकरण की शक्तियाँ सीमित होती हैं। वह अपने समक्ष मामले में मांगे गए अनुतोष से हटकर अन्य कोई निदेश जारी नहीं कर सकता। धारा 16 एवं 17 के अन्तर्गत प्रदत्त माध्यस्थ अधिकरण की अधिकारिता इस प्रकार है –

(1) माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा निम्नांकित प्रश्नों पर निर्णय दिया जा सकता है –

(क) क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर, तथा (ख) माध्यस्थम् करार के अस्तित्व एवं वैधता से सम्बन्धित प्रश्न पर माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा स्वयं को अधिकारिता के सम्बन्ध में नियम बनाये जा सकते हैं।

‘मै. एस.एस. फास्टनर्स बनाम सत्यपाल वर्मा’ के मामले में यह कहा गया है कि, माध्यस्थम् अधिकरण को अपने ही क्षेत्राधिकार तथा माध्यस्थम् करार के अस्तित्व एवं उसकी वैधता के प्रश्न पर निर्णय देने की अधिकारिता है। (ए.आई.आर. 2000 पंजाब एण्ड हरियाणा 301)

(2) धारा 16 (2) में उपबन्धित प्रावधानों के अनुसार माध्यस्थ अधिकरण के क्षेत्राधिकार के सम्बन्ध में आपत्ति लिखित कथन (प्रतिरक्षा के कथन) प्रस्तुत करने से पूर्व की जा सकती है। लेकिन धारा 16(4) के अन्तर्गत माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा विलम्ब को क्षमा कर उस समय सीमा में अभिवृद्धि की जा सकती है।

(3) यदि कोई पक्षकार यह पाता है कि माध्यस्थ अधिकरण द्वारा सीमा से परे जाकर कार्य किया जा रहा है तो इस सम्बन्ध में आपत्ति माध्यस्थम् कार्यवाही के दौरान यथाशीघ्र की जायेगी। माध्यस्थ अधिकरण द्वारा ऐसी आपत्ति का निपटारा किया जायेगा।

(4) माध्यस्थ अधिकरण द्वारा क्षेत्राधिकार सम्बन्धी आपत्ति को निरस्त या अस्वीकृत किया जा सकेगा और ऐसी स्थिति में माध्यस्थम् कार्यवाही को जारी रखते हुए पंचाट निर्मित किया जायेगा। [ (धारा 16 (5) ]

(5) अधिनियम की धारा 17(1) के अनुसार कोई पक्षकार माध्यस्थम् की कार्यवाहियों के दौरान माध्यस्थम अधिकरण को –

(i) माध्यस्थम् की कार्यवाहियों के प्रयोजनों के लिए किसी अवयस्क या विकृत चित्त व्यक्ति के लिए संरक्षक की नियुक्ति करने के लिए, या

(ii) किसी ऐसे माल को, जो माध्यस्थम् करार की विषय-वस्तु है, परिरक्षण, अन्तरिम अभिरक्षा या विक्रय के लिए, या

(iii) माध्यस्थम् में विवादित रकम प्रतिभूत करने के लिए, या

(iv) अन्तरिम व्यादेश या रिसीवर की नियुक्ति के लिए आवेदन कर सकेगा।

लेकिन ऐसा अन्तरिम आदेश केवल माध्यस्थम् करार के पक्षकारों के लिए ही दिया जा सकेगा, अन्य पक्षकारों के विरुद्ध नहीं।

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