मध्यस्थ कार्यवाही
माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 18 से 27 तक में मध्यस्थ कार्यवाही के संचालन सम्बन्धी नियमों का उल्लेख किया गया है।
इन नियमों का अध्ययन करने से पूर्व यहाँ यह बता देना उचित होगा कि मध्यस्थ कार्यवाही में सभी पक्षकारों के साथ समानता का व्यवहार किया जाना तथा उन्हें िपअपना पक्ष प्रस्तुत करने का समुचित अवसर प्रदान किया जाना सुनिश्चित है। (धारा 18)
इसका अभिप्राय यह हुआ कि माध्यस्थ स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता से कार्य करने के लिए आबद्ध है। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह कदाचरण (Misconduct) का दोषी न बने। उससे पक्षकारों की अनुपस्थिति में भी कोई कार्य करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। वस्तुतः यह स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष कार्यवाहियों का मूल मन्त्र है।
मध्यस्थ कार्यवाही के संचालन सम्बन्धी मुख्य नियम
(1) नियमों की अवधारणा
अधिनियम की धारा 19 के अन्तर्गत मध्यस्थ कार्यवाही के संचालन की प्रक्रिया सुनिश्चित करने का अधिकार पक्षकारों को प्रदान किया गया है। पक्षकार करार द्वारा प्रक्रिया के नियम तय कर सकते हैं।
माध्यस्थ अधिकरण द्वारा ऐसे नियमों का अनुसरण किया जाना आवश्यक है। यदि पक्षकारों द्वारा प्रक्रिया के नियम तय नहीं किये जाते हैं तो माध्यस्थ अधिकरण द्वारा कार्यवाहियों का संचालन ऐसी रीति से किया जा सकेगा जो ग्रह उचित समझे।
मध्यस्थ कार्यवाही के संचालन पर सिविल प्रक्रिया सहिता 1908 तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के उपबन्ध लागू नहीं होते हैं। माध्यस्थ सिविल प्रक्रिया संहिता तथा साक्ष्य विधि के तकनीको नियमों को मानने के लिए आबद्ध नहीं है।
आवश्यक मात्र यह है कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों (Principles of Natural justice) का अनुसरण किया जाये। (दिल्ली नगर निगम बनाम जगन्नाथ अशोक कुमार, ए. आई. आर 1987 एस.सी. 2316)
पी.आर.शाह, शेयर्स एण्ड स्टॉक ब्रोकर प्राइवेट लिमिटेड बनाम मै.बी.एच. एच. सिक्यूरिटीज प्राइवेट लिमिटेड (ए. आई. आर. 2012 एस. सी. 1866) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि माध्यस्थ को कार्यवाही के दौरान विवाद बाबत अपनी निजी जानकारी का उपयोग नहीं करना चाहिये।
वह किसों व्यापार विशेष के सम्बन्ध में अपने तकनीकी ज्ञान का उपयोग कर सकता है। माध्यस्थम् अधिकरण को साक्ष्य की ग्राह्यता, सुसंगतता, तात्त्विकता एवं महत्त्व आदि का अवधारण करने की शक्तियाँ प्राप्त हैं। न्यायालय द्वारा इन मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
(2) माध्यस्थम् का स्थान
माध्यस्थम् का स्थान सुनिश्चित करने का पहला अधिकार पक्षकारों को दिया गया है। पक्षकार करार द्वारा माध्यस्थम् का स्थान तय कर सकते हैं। यदि पक्षकार ऐसा करने में असफल रहते हैं तो माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा निम्नांकित बातों को ध्यान में रखते हुए माध्यस्थम् का स्थान सुनिश्चित किया जा सकता है –
(i) पक्षकारों की सुविधा, एवं
(ii) नामले की परिस्थितियाँ।
माध्यस्थ अधिकरण द्वारा निम्नांकित प्रयोजनों के लिए किसी भी स्थान पर बैठकें आयोजित की जा सकती हैं-
(क) सदस्यों से परामर्श करने के लिए,
(ख) साक्षियों, विशेषज्ञों एवं पक्षकारों को सुनने के लिए:
(ग) दस्तावेजों, चीजों, सम्पत्तियों आदि का निरीक्षण करने के लिए आदि। (धारा 20)
माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा जो भी स्थान तय किया जाये उसकी सूचना पक्षकारों को दिया जाना आवश्यक है तथा माध्यस्थ द्वारा पक्षकारों की सुविधा के लिए माध्यस्थम् के स्थान में परिवर्तन भी किया जा सकता है।
(3) कार्यवाहियों का प्रारम्भ
अधिनियम की धारा 21 में माध्यस्थम् कार्यवाहियों के प्रारम्भ की तिथि के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार यदि माध्यस्थम् करार में माध्यस्थम् कार्यवाहियों के प्रारम्भ की तिथि का उल्लेख नहीं किया गया है तो मध्यस्थ कार्यवाही को प्रारम्भ उस तिथि से माना जायेगा जिस तिथि पर माध्यस्थम् के लिए निर्दिष्ट किये जाने वाले उस विवाद के सन्दर्भ की सूचना माध्यस्य को प्राप्त होती है।
‘वजीर चन्द्र बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ (ए.आई.आर. 1973 गुवाहाटी 100) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मध्यस्थ कार्यवाही को प्रारम्भ करने से पूर्व माध्यस्य को यह समाधान कर लेना चाहिये कि उसे किया गया सन्दर्भ निर्धारित समयावधि में है या नहीं।
(4) भाषा
माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा मध्यस्थ कार्यवाही के लिए अंगीकृत की जाने वाली भाषा वह होगी जो पक्षकारों द्वारा करारित की जावे। ऐसा करार नहीं होने पर भाषा का अवधारण माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा किया जायेगा। (धारा 22) भाषा ऐसी होनी चाहिये जिसे माध्यस्थ समझते हो।
‘ई. रोथरे एण्ड संस बनाम कार्लो बेडरीडा एण्ड क.’ [(1961)1 लायड्स रिपोर्ट 220] के मामले में यह कहा गया है कि यदि कोई दस्तावेज विदेशी भाषा में है जिसे माध्यस्थ नहीं समझते हैं तो ऐसे दस्तावेज का उस भाषा में अनुवाद किया जाना आवश्यक है जिसे माध्यस्य समझता है।
(5) दावा या प्रतिरक्षा के कथन
अधिनियम की धारा 23 में यह प्रावधान किया गया है कि-
(i) दावाकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह निर्धारित कालावधि में अपने दावे का समर्थन करने वाले तथ्यों, विवादित बिन्दुओं और वांछित अनुतोष या उपचार का कथन करें और इसी प्रकार प्रतिवादी दावे की विशिष्टियों के सम्बन्ध में अपनी प्रतिरक्षा का कथन करें,
(ii) पक्षकारों का यह भी कर्तव्य है कि वे अपने दावे या प्रतिरक्षा के समर्थन में दस्तावेज प्रस्तुत करें; तथा
प्रत्यर्थी भी अपने मामले के समर्थन में प्रतिदावा प्रस्तुत कर सकेगा या सुनवाई का अभिवाक कर सकेगा जिसका व्याय निर्णयन, यदि ऐसा प्रतिदावा या ऐसी मुजराई माध्यस्थम करार की परिधि के अन्तर्गत आती है, माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा किया जायेगा।
(iii) पक्षकार आवश्यकतानुसार दावे या प्रतिरक्षा में संशोधन के लिए आवेदन करें।
धारा 23 के अधीन दावों एवं प्रतिरक्षा का विवरण, उस तारीख से, जिसकी यथास्थिति मध्यस्थ या उन सभी मध्यस्थों की, उनकी नियुक्ति का लिखित में नोटिस प्राप्त होता है, छह माह की अवधि के भीतर पूरा किया जायेगा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संशोधन की अनुमति देना या न देना अधिकरण के विवेक का विषय है। ऐसी अनुमति किसी भी प्रक्रम पर दी जा सकती है। (यूनियन स्टेटी नेयरी बनाम लंजा एण्ड विनीयर (1917) 2 के बी. 558)
(6) सुनवाई
अधिनियम की धारा 24 में सुनवाई एवं लिखित कार्यवाहियों के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा यह विनिश्चित किया जायेगा कि साक्ष्य की प्रस्तुती के लिए मौखिक सुनवाई की जाये या मौखिक बहस की जाये या कार्यवाहियों का संचालन दस्तावेजों एवं अन्य सामग्रियों के आधार पर किया जाये। पर पक्षकारों के बीच अन्यथा करार नहीं होने पर किसी पक्षकार की प्रार्थना मौखिक सुनवाई की जा सकेगी।
जहाँ माध्यस्थम् अधिकरण को दस्तावेजों, मालों या सम्पत्ति के निरीक्षण के लिए बैठक आयोजित करना हो, वहाँ ऐसी बैठक की सूचना पक्षकारों को दी जायेगी। पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत कथनों, दस्तावेजों, आवेदन पत्रों, विशेषज्ञों की रिपोटौँ, साध्यात्मक दस्तावेजों आदि से पक्षकारों को अवगत कराया जायेगा।
माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा सुनवाई दिन-प्रतिदिन की जायेगी तथा पर्याप्त हेतुक के बिना स्थगम् मंजूर नहीं किया जायेगा। बिना पर्याप्त कारण के स्थगन खर्चे पर मंजूर किया जा सकेगा।
‘दामोदर प्रसाद गुप्ता बनाम सक्सेना एण्ड कम्पनी’ (ए. आई आर. 1959 पंजाब 476) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि पक्षकारों को माध्यस्थम् अधिकरण के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत करने का पूर्ण अधिकार है। उन्हें सुनवाई के स्थान एवं समय की संसूचना का भी अधिकार है। यदि पक्षकारों को इन अधिकारों से वंचित कर पंचाट दिया जाता है तो वह अपास्त किये जाने योग्य होगा।
आर.एस. अवतार सिंह एण्ड क.बनाम एन.पी.सी.सी. लि. (ए.आई.आर. 1993 दिल्ली 230) के मामले में भी यह कहा गया है कि किसी पक्षकार को अपना पक्ष प्रस्तुत करने तथा किसी तथ्य को स्पष्ट करने का समुचित अवसर प्रदान किया जाना आवश्यक है। इसकी उपेक्षा करना कदाचार होगा।
‘यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम सोहनसिंह सेठी’ (1996)1 आचिंटूशन लॉ रिपोर्ट 504 दिल्ली के मामले में तो यहाँ तक कहा गया है कि साक्षियों को सुनने का वचन देकर उन्हें नहीं सुनना पंचाट को अपास्त किये जाने का एक अच्छा आधार है।
(7) एक पक्षीय कार्यवाही
धारा 25 के अन्तर्गत यह कहा गया है कि जहाँ दावाकर्ता दावे के अपने कथनों की संसूचना देने में असफल रहता है, वहाँ माध्यस्थम् कार्यवाहियों को समाप्त कर दिया जायेगा।
जहाँ प्रत्यर्थी धारा 23(1) के अनुसार प्रतिरक्षा का अपना कथन संसूचित करने में असफल रहता है, माध्यस्थम् अधिकरण दावेदार द्वारा अभिकथन की स्वीकृति के रूप में स्वयं उस असफलता को माने बिना कार्यवाहियों को चालू रखेगा और प्रत्यर्थी के ऐसे प्रतिरक्षा कथन को फाइल करने के अधिकार को उस रूप में मानने का विशेषाधिकार होगा मानो कि वह समपहृत हो गया हो।
जहाँ एक पक्षकार मौखिक सुनवाई पर उपसंजात होने या दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहता है, वहाँ माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा कार्यवाहियों को चालू रखते हुए अपने समक्ष उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर पंचाट निर्मित किया जा सकेगा।
‘अनिल जैन बनाम मधुनान एप्लायेसिस प्रा.लि.’ [(1997)2 आर्बिट्रेशन लौ रिपोर्ट 325 दिल्ली)] के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि सूचना के पश्चात् भी पक्षकार उपस्थित नहीं रहते हैं तो माध्यस्थ को उनके विरुद्ध एक पक्षीय कार्यवाही करने का अधिकार है।
‘मैं. सेनवो इन्जीनियरिंग लि.बनाम स्टेट ऑफ बिहार’ (ए. आई आर. 2004 पटना 33) के मामले में पटना उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि माध्यस्थम् अधिकरण को धारा 25(क) के अन्तर्गत कार्यवाहियों को समाप्त करने तथा पर्याप्त आधार होने पर ऐसे आदेश को पुनः निरस्त करने का अधिकार है।
(8) विशेषज्ञों की नियुक्ति
विवादों के सही निपटारे के लिए धारा 26 के अन्तर्गत माध्यस्थ अधिकरणों को विशेषज्ञों की नियुक्ति किये जाने का अधिकार प्रदान किया गया है। पक्षकारों का यह दायित्व होगा कि वे विशेषज्ञों को सुसंगत सूचनायें दें, निरीक्षण के लिए दस्तावेज, माल या सम्पत्ति प्रस्तुत करें तथा विशेषज्ञों को वहाँ तक पहुँचने दें।
(9) साक्ष्य ग्रहण करने में न्यायालय की सहायता
अधिनियम की धारा 27 के अन्तर्गत माध्यस्थ अधिकरण या मध्यस्थ कार्यवाही के पक्षकार साक्ष्य लेने या साक्ष्य देने में न्यायालय की सहायता ले सकते हैं। इसके लिए माध्यस्थम् अधिकरण या अधिकरण के अनुमोदन से एक पक्षकार को साक्ष्य ग्रहण करने में सहायता के लिए न्यायालय के समृक्ष आवेदन करना होगा। आवेदन- पत्र में निम्नांकित बातों का उल्लेख किया जायेगा-
(i) पक्षकारों तथा मध्यस्थों के नाम व पते,
(ii) दावे की सामान्य प्रकृति तथा चाहा गया अनुतोष, तथा
(iii) प्राप्त किया जाने वाला साक्ष्य आदि।
मुख्य रूप से यही मध्यस्थ कार्यवाही के बिंदु है जिनका क्रमवार उल्लेख किया गया है?
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