हेल्लो दोस्तों, इस लेख में भारत की प्राचीन न्याय व्यवस्था । अग्रेंजों के आगमन से पूर्व भारत में प्रचलित हिन्दू विधि । ब्रिटिश आगमन से पूर्व भारतीय न्याय व्यवस्था तथा हिन्दूकालीन प्राचीन न्याय व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। उम्मीद है कि यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –
भारत की न्याय व्यवस्था (Judicial System Of India)
भारत की न्याय–व्यवस्था – प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था के बारें मै धर्मग्रन्थों और न्याय प्रशासन के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। उस समय समाज में धर्म को सर्वाधिक महत्व था जिस कारण अधिकांश विधियों मै धार्मिक नियम सम्मलित थे। इस कारण से हमारे प्राचीन वेद-पुराणों, शास्त्रों, उपनिषदों आदि को तत्कालीन विधि का आधार सूत्र माना गया है।
प्राचीनकाल मै भारत की न्याय व्यवस्था
प्राचीन भारत के हिन्दू शासन-काल में न्याय तथा दण्ड-व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व शासक पर होता था। उस समय यह धारणा थी कि राजा ईश्वर का ही अंश (Divine Right of King) है तथा राजा द्वारा दिया गया न्याय ईश्वरीय ईच्छा के अनुसार होने से उसके आदेशों का अनुपालन करना चाहिये।
धार्मिक बन्धन तथा नैतिक सदाचरण पर बल दिये जाने के कारण अधिकांश लोग धर्म का पालन करते थे और वे प्रायः अपकृत्यों या अपराधों से दूर रहते थे।
परिणाम स्वरूप विधि और उस पर आधारित दण्ड व्यवस्था केवल उन्हीं लोगों के लिए आवश्यक होती थी जो दुराचरण करते थे। मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग या मोक्ष प्राप्ति की लालसा लोगों को सदाचारी जीवन व्यतीत करने के लिए प्रोत्साहित करती थी।
राजा या शासक से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह लोकनीति के अनुसार विधि उल्लंघनकारियों तथा अपराधियों को दण्डित करे। प्रत्येक व्यक्ति को समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाना आवश्यक था अन्यथा उसे कर्तव्य पालन न करने के लिए दण्डित किया जाता था।
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वैदिककाल तथा स्मृतिकाल
वेदों में कहीं-कहीं पर विधि के सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है। वैदिक काल में कर्मकाण्ड (rituals) को विशेष महत्व प्राप्त था। यदि वेद और स्मृति में किसी विषय पर विरोधाभास हो, तो वेद में दी गई व्यवस्था ग्राह्य होती थी तथा स्मृति में दी गई तत्सम्बन्धी व्यवस्था को अमान्य किया जाता था। परन्तु स्मृतियों की रचना वेदकाल के पश्चात्वर्ती काल में होने के कारण व्यावहारिक विधि की दृष्टि से उनका महत्व वेदों से अधिक माना गया था।
स्मृतिकालीन विधि – व्यवस्था का स्वरूप धर्मसूत्र, धर्मशास्त्र, पुराण तथा गाथाओं आदि में मिलता है। न्यायालयों द्वारा स्मृतियों को अधिकारपूर्ण माना गया है। मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, बृहस्पति तथा कात्यायन आदि धर्मशास्त्रियों ने विधि सम्बन्धी सभी नियमों को स्वरचित धर्मशास्त्रों में श्लोकबद्ध करने का प्रयास किया। विशेषतः मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति को विधिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
स्मृतियों में धार्मिक, नैतिक और सामान्य विधि के सिद्धान्तों में स्पष्ट भेद नहीं मिलता है क्योंकि उस समय धर्म, नैतिकता तथा विधि-अनुपालन आदि सभी मनुष्य के कर्त्तव्यों पर आधारित थे। परन्तु ऐसे अनेक उदाहरण भी हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि स्मृतिकारों को धार्मिक, नैतिक तथा सामान्य विधि के विभेदों के विषय में जानकारी थी।
कालान्तर में हिन्दू शासकों के संरक्षण में शास्त्रकारों ने इन स्मृतियों पर टीकायें लिखीं जिनका मूल उद्देश्य उनमें दी गई विधि सम्बन्धी व्यवस्था को न्याय संस्थाओं में प्राधिकृत रूप से मान्यता प्राप्त कराना था जिससे वाद-निर्णय में उनका प्रयोग हो सके। स्मृति के अन्य प्रमुख टीकाकारों में ग्यारहवीं शताब्दी में लिखी गई धारेश्वर की मनुस्मृति पर टीका प्रसिद्ध है।
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हैदराबाद में कल्याण के राजा विक्रमादित्य के संरक्षण में विज्ञानेश्वर की याज्ञवल्क्य स्मृति पर सुप्रसिद्ध टीका मिताक्षर लिखी गई जो हिन्दू विधि की मिताक्षरा शाखा की जन्मदात्री है। अकबर के राजस्व मन्त्री टोडरमल के ‘टोडरनामा’ में व्यवहार और धर्म आचरण के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन दी गई है।
भारत की न्याय व्यवस्था (judicial system of india)
पुराणकाल –
वेद, स्मृतियों तथा उनकी टीकाओं के अतिरिक्त पुराणों में भी प्राचीन न्याय व्यवस्था की परछाई दिखलाई पड़ती है। वैसे तो पुराण अनेक हैं परन्तु उनमें वेद व्यास द्वारा रचित अठारह पुराण मुख्य हैं जो महापुराण के नाम से प्रसिद्ध हैं।
प्राचीन रूढ़ियाँ –
प्राचीन भारत में प्रचलित रीतियों, रूढ़ियों तथा परम्पराओं को हिन्दू-कालीन न्याय व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था तथा उन्हें धर्म के प्रमख स्रोतों के रूप में मान्यता दी गई है। न्यायालयों ने भी रूढ़ियों को विधि से बढ़कर माना है। रामनद के मुकदमे में प्रिवी कौंसिल ने यह अभिनिर्धारित किया था कि “प्रथा के स्पष्ट सबूत का महत्व (वजन) विधि के लिपिबद्ध पाठ से कहीं अधिक है।” रूढ़ियों का जनसाधारण से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।
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प्रथायें स्वयं में सुव्यवस्थित होती हैं तथा उनका जनसाधारण में प्रचलित रहना स्वयं में यह प्रमाण होता है कि समाज उन्हें मान्य करने का इच्छुक व तैयार है। विधि के रूप में प्रथाओं को वेद तथा स्मृतियों से भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है क्योंकि वेदों को ईश्वर प्रदत्त तथा स्मतियों को आर्षवाणी पर आधारित माना गया है ।
ईश्वर के द्वारा प्रदत्त धर्म निर्देशन के कुछ अंश ऋषियों को याद नहीं रहे परन्तु व्यवहार में उन्होंने इन्हें अपना लिया, जो कालान्तर में रूढ़ि या प्रथाओं के रूप में स्थापित हो गये।
मीमांसा, भाष्य तथा निबन्ध –
प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था में मीमांसा शास्त्रों का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इनमें श्रुतियों के विवादास्पद अंशों को समस्या के रूप में प्रस्तुत कर उनका निष्कर्ष उत्तर के रूप में दिया गया है। सारांश यह है कि हिन्दू विधि की अनेक समस्याओं का स्पष्टीकरण मीमांसकों द्वारा लिखे गये सूत्रों में उपलब्ध है। मीमांसकों में कुमारिल भट्ट, माधवाचार्य तथा भगवान उपवर्ष आदि प्रमुख हैं।
मनु के अनुसार केवल श्रुति तथा स्मृतियाँ ही प्राचीन न्याय व्यवस्था के प्रमुख प्रामाणिक स्रोत थे परन्तु युग-परिवर्तन तथा विधि के उत्तरोत्तर विकास के कारण अन्य स्रोतों का अध्ययन अनिवार्य हो गया। स्मृतियों में दिये गये विधि सम्बन्धी नियम मूल प्रमाण-ग्रन्थ हैं तथा भाष्यों में इन्हीं स्मृतियों की टीका अथवा व्याख्या की गई है। निबन्धों में किसी विषय-विशेष पर अनेक स्मृतियों के पाठों को उद्धृत कर निबन्ध के रूप में लिपिबद्ध किया गया है जिससे उस सम्बन्ध में विधि स्पष्ट हो जाये।
मेक्समूलर के अनुसार प्राचीन भारतीय विधि–दर्शन में मानव आचरण में धर्म, कर्म, अर्थ और मोक्ष को सर्वाधिक बल दिया गया था जिसमें शासक का हस्तक्षेप न्यूनप्राय था क्योंकि, प्रजा स्वयं अपने कर्तव्यों तथा दायित्वों के प्रति जाग्रत थी।
भारत की न्याय व्यवस्था में कौटिल्य का अर्थशास्त्र
भारत की न्याय व्यवस्था मै कौटिल्य के अर्थशास्त्र का योगदान अभूतपूर्व है| अर्थव्यवस्था मानव जीवन की समृद्धि से सम्बद्ध होने के कारण उसका राज्य प्रशासन तथा विधि-व्यवस्था से हमेशा निकट सम्बन्ध रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से अर्थशास्त्र की रचना प्राचीन भारत के धर्मशास्त्र काल में ही हुई थी। परन्तु इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान चन्द्रगुप्त मौर्य के मन्त्री कौटिल्य (चाणक्य) का रहा है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उत्तम राज्य व्यवस्था, राजनैतिक दाँव-पेंच तथा अनुशासन व्यवस्था के लिए विधि सम्बन्धी विस्तृत नियम दिये गये हैं।
कौटिल्य ने धर्मशास्त्र को आधार स्तंभ मानते हुये शासक (king) को न्याय का स्रोत (fountain of Justice) माना है तथा शासक से यह अपेक्षा की कि वह अपनी प्रजा का संरक्षण मातृतुल्य भावना से करे। प्राचीन धर्म कर्तव्य पर आधारित होने के कारण इसके अन्तर्गत जाति धर्म, संप्रदाय आदि के भेदभाव को कोई स्थान नहीं था।
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