इस आलेख में भारतीय विधिज्ञ परिषद के गठन एवं कृत्यों, निधियों का गठन तथा भारतीय विधिक परिषद् की शक्तियों का विस्तार से उल्लेख किया गया है, इसलिए इस आलेख को अन्त तक जरुर पढ़े………..
भारतीय विधिज्ञ परिषद
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 4 में भारत के राज्य क्षेत्रों के लिए विधिज्ञ परिषद् के गठन की व्यवस्था की गई है जिसे भारतीय विधिज्ञ परिषद् (Bar Council of India) के नाम से सम्बोधित किया गया है। इस अधिनियम का विस्तार भारत के सभी राज्य क्षेत्रों पर है।
परिषद का गठन –
भारतीय विधिज्ञ परिषद् के गठन के बारे में प्रावधान अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 5 में किया गया है। इसके अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् का गठन निम्नांकित से मिलकर होता है –
सदस्य
(1) प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित एक सदस्य।
(2) भारत का महान्यायवादी (Attorney General of India) पदेन सदस्य।
(3) भारत का महासालिसिटर (Solicitor General of India) पदेन सदस्य।
(4) भारतीय विधिज्ञ परिषद् का सदस्य ऐसा व्यक्ति हो सकेगा जो धारा 3 की उपधारा (2) के परन्तुक में विनिर्दिष्ट अहर्ता (Qualification) धारण करता हो अर्थात् जो राज्य नामावली में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो।
(5) भारतीय विधिज्ञ परिषद् का एक अध्यक्ष एवं एक उपाध्यक्ष होगा। अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का निर्वाचन भारतीय विधिज्ञ परिषद् के सदस्यों द्वारा किया जाएगा।
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(6) भारतीय विधिज्ञ परिषद के ऐसे सदस्य की दशा में जो राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्वाचित किया गया हो, पदावधि निम्नानुसार होगी-
(i) पदेन सदस्य की दशा में निर्वाचन की तारीख से दो वर्ष या ऐसी अवधि तक. जब तक वह राज्य विधिज्ञ परिषद् का सदस्य रहे, इनमें से जो भी अवधि पहले हो, तथा
(ii) किसी अन्य दशा में उतनी अवधि तक, जब तक वह राज्य विधिज्ञ परिषद् के सदस्य के रूप में पद धारण करता रहे,
लेकिन भारतीय विधिज्ञ परिषद् के सदस्य के रूप में वह अपने पद पर तब तक बना रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी निर्वाचित नहीं कर लिया जाता है।
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् का गठन दो प्रकार के सदस्यों से मिलकर होता है- पदेन सदस्य एवं राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्वाचित सदस्य।
विधिज्ञ परिषद् का निगमित निकाय होना अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 5 के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् को एक निगमित निकाय (Corporate body) माना गया है। इसके अनुसार –
(i) भारतीय विधिज्ञ परिषद् का शाश्वत उत्तराधिकार होगा,
(ii) उसकी एक सामान्य मुद्रा (Seal) होगी,
(iii) उसे स्थावर एवं जंगम दोनों प्रकार की सम्पत्तियाँ अर्जित एवं धारण करने की शक्तियाँ होंगी,
(iv) वह संविदा कर सकेगी, तथा
(v) उसके द्वारा एवं उसके विरुद्ध वाद लाया जा सकेगा।
राधेलाल गुप्ता बनाम बार कौंसिल ऑफ मध्य प्रदेश के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा विधिज्ञ परिषद् को निगमित निकाय माना गया है। (ए.आई.आर. 2002 मध्य प्रदेश 98)
परिषद् के सदस्य, अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष मिलकर विधिज्ञ परिषद् को निगमित निकाय का स्वरूप प्रदान करते हैं।
बार कौंसिल ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम एडवोकेट जनरल (आई. एल. आर. 1973 हिमाचल प्रदेश 319) के मामले में यह कहा गया है कि विधिज्ञ परिषद् के किसी सदस्य की अवधि समाप्त हो जाने मात्र से उसके शाश्वत उत्तराधिकार का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता है।
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भारतीय विधिज्ञ परिषद् के कृत्य –
कृत्य अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 7 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् के कृत्यों (Functions) का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् के निम्नांकित मुख्य कृत्य हैं-
(1) अधिवक्ताओं के लिए वृतिक आचार (Professional ethics) और शिष्टाचार के मानक निर्धारित करना,
(2) अपनी अनुशासन समिति द्वारा और प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया (Procedure) निर्धारित करना,
(3) अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा करना,
(4) विधि सुधार का उन्नयन और उसका समर्थन करना,
(5) इस अधिनियम के अधीन उत्पन्न होने वाले किसी ऐसे मामले में कार्यवाही करना और उसे निपटाना, जो उसे किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्दिष्ट किया जाए,
(6) राज्य विधिज्ञ परिषद् का साधारण पर्यवेक्षण (Supervision) और उन पर नियन्त्रण रखना,
(7) विधि शिक्षा का उन्नयन करना और ऐसी शिक्षा प्रदान करने वाले भारत के विश्वविद्यालयों और राज्य विधिज्ञ परिषद् से विचार-विमर्श करके ऐसी शिक्षा के मानक निर्धारित करना,
(8) ऐसे विश्वविद्यालयों को मान्यता देना, जिनकी विधि की उपाधि अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने के लिए अर्हता होगी और उस प्रयोजन के लिए विश्वविद्यालयों में जाना और उनका निरीक्षण करना,
(9) विधिक विषयों पर प्रतिष्ठित विधिशास्त्रियों द्वारा परिसंवादों का संचालन और वार्ताओं का आयोजन करना और विधिक रुचि की पत्र- पत्रिकाएँ और लेख प्रकाशित करना,
(10) निर्धनों को विधिक सहायता प्रदान करने के लिए आयोजन करना,
(11) भारत के बाहर प्राप्त विधि की विदेशी अर्हताओं को इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में प्रवेश पाने के प्रयोजन के लिए पारस्परिक आधार पर मान्यता देना,
(12) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और उनका विनिधान करना,
(13) अपने सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करना,
(14) इस अधिनियम या उसके अधीन विधिज्ञ परिषद् को प्रदत्त अन्य सभी कृत्यों का पालन करना,
(15) पूर्वोक्त कृत्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक अन्य सभी कार्य करना।
निधियों का गठन –
अधिनियम की धारा 7(2) के अन्तर्गत विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक या अधिक निधियों का गठन किया जा सकेगा, यथा-
(क) निर्धन, निःशक्त या अन्य अधिवक्ताओं के लिए कल्याणकारी स्कीमों के संचालन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु,
(ख) विधिक सहायता या सलाह के लिए, एवं
(ग) पुस्तकालयों की स्थापना के लिए।
इस प्रकार धारा 7 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् के अनेक कृत्य बताए गए हैं। यद्यपि विधिज्ञ परिषद् के कृत्यों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है, लेकिन उसके द्वारा किसी न्यायाधीश के आचरण पर टीका-टिप्पणी नहीं की जा सकती और न किसी न्यायाधीश को त्याग-पत्र देने के लिए विवश किया जा सकता है। ऐसा किया जाना न्यायालय का अवमान है।
भारतीय विधिक परिषद् की शक्तियां
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में विधिज्ञ परिषद् की विभिन्न शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इन शक्तियों को हम निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत रख सकते हैं-
(1) नियम बनाने की शक्तियाँ (धारा 15 एवं 49),
(2) अवचार के लिए अधिवक्ताओं को दण्ड देने की शक्तियाँ (धारा 35)
(3) अपीलीय शक्तियाँ (धारा 37) एवं
(4) अन्य शक्तियाँ (धारा 46क, 47, 48, 48 कक एवं 48 ख)
इनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है –
(1) नियम बनाने की शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 15 एवं 49 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् को नियम बनाने की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इस तरह धारा 15 के अन्तर्गत उपबन्धित प्रावधानों के अनुसार –
(i) विधिज्ञ परिषद् इस अध्याय के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम बना सकेगी।
(ii) विशिष्टतया तथा पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियम निम्नलिखित के लिए उपबन्ध कर सकेंगे-
(क) विधिज्ञ परिषद् के सदस्यों का गुप्त मतदान द्वारा निर्वाचन, जिसके अन्तर्गत वे शर्ते भी हैं जिनके अधीन रहते हुए व्यक्ति डाक मतपत्र द्वारा मतदान के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, निर्वाचक नामावलियाँ तैयार करना और उनका पुनरीक्षण और वह रीति जिससे निर्वाचन के परिणाम प्रकाशित किए जाएँगे।
(ख) x X X X X X
(ग) विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के निर्वाचन की रीति,
(घ) वह रीति, जिससे और वह प्राधिकारी जिसके द्वारा विधिज्ञ परिषद् के लिए या अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के पद के लिए किसी निर्वाचन की विधिमान्यता के बारे में शंकाओं और विवादों का अन्तिम रूप से विनिश्चिय किया जाएगा,
(ङ) विधिज्ञ परिषद् में आकस्मिक रिक्तियों का भरना,
(छ) विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की शक्तियाँ और कर्तव्य,
(छ-क) धारा 6 की उपधारा (2) और धारा 7 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट वित्तीय सहायता देने या विधिक सहायता या सलाह देने के प्रयोजन के लिए विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक या अधिक निधियों का गठन,
(छ-ख) निर्धनों के लिए विधिक सहायता और सलाह देने के लिए आयोजन और उस प्रयोजन के लिए समितियों और उपसमितियों का गठन और उनके कृत्य तथा उन कार्यवाहियों का विवरण जिनके सम्बन्ध में विधिक सहायता या सलाह दी जा सकती है,
(ज) विधिज्ञ परिषद् के अधिवेशन बुलाना और उनका आयोजन, उनमें कारबार का संचालन और उनमें गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य- संख्या,
(झ) विधिज्ञ परिषद् की किसी समिति का गठन और उसके कृत्य और किसी ऐसी समिति के सदस्यों की पदावधि,
(ञ) ऐसी किसी समिति के अधिवेशन बुलाना और उनका आयोजन, उनमें कारबार के संव्यवहार और गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य-संख्या,
(ट) विधिज्ञ परिषद् के सचिव, लेखापाल और अन्य कर्मचारियों की – अर्हताएँ और उनकी सेवा की शर्तें,
(ठ) विधिज्ञ परिषद् द्वारा लेखा-बहियों तथा अन्य पुस्तकों का रखा जाना,
(ड) लेखापरीक्षकों की नियुक्ति और विधिज्ञ परिषद् के लेखाओं की लेखापरीक्षा,
(ण) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और विनिधान।
(iii) किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस धारा के अधीन बनाए गए नियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक भारतीय विधिज्ञ परिषद् उनका अनुमोदन न कर दे।
इन नियमों के अन्तर्गत यदि चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी द्वारा अपने नामांकन- पत्र में उस पद का नाम अंकित नहीं किया जाता है जिसके लिए वह चुनाव लड़ रहा है तो ऐसे नामांकन पत्र को रद्द किया जा सकता है।
नियमों के सन्दर्भ में यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विधि महाविद्यालय प्रारम्भ करने के लिए विधिज्ञ परिषद् के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता मात्र एल.एल.बी. पाठ्यक्रम के अनुमोदन की है।
अधिनियम की धारा 49 के अन्तर्गत
अधिनियम की धारा 49 के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् की नियम बनाने की शक्तियाँ इस प्रकार हैं –
(1) भारतीय विधिज्ञ परिषद् इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों के निर्वहन के लिए नियम बना सकेगी और विशिष्टतया ऐसे नियम निम्नलिखित विहित कर सकेंगे, अर्थात्
(क) वे शर्तें, जिनके अधीन रहते हुए कोई अधिवक्ता राज्य विधिज्ञ परिषद् के किसी निर्वाचन में मतदान करने के लिए हकदार हो सकेगा जिनके अन्तर्गत मतदाताओं की अर्हताएँ मतदाताओं की अर्हताएँ या निरर्हताएँ भी हैं और वह रीति, जिससे मतदाताओं की निर्वाचक नामावली राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा तैयार और पुनरीक्षित की जा सकेगी,
(क-ख) किसी विधिज्ञ परिषद् की सदस्यता के लिए अर्हताएँ और ऐसी सदस्यता के लिए निरर्हताएँ,
(क-ग) वह समय, जिसके भीतर और वह रीति जिससे धारा 3 की उपधारा
(2) के परन्तुक को प्रभावी किया जा सके,
(क-घ) वह रीति जिससे किसी अधिवक्ता के नाम को एक से अधिक राज्यों की नामावली में दर्ज किए जाने से रोका जा सकेगा,
(क-ङ) वह रीति जिससे अधिवक्ताओं की परस्पर ज्येष्ठता अवधारित की जा सकेगी,
(क-च) किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय में, विधि की उपाधि के पाठ्यक्रम. में प्रवेश पाने के लिए अपेक्षित न्यूनतम अर्हताएँ,
(क-छ) अधिवक्ताओं के रूप में नामांकित किए जाने के लिए हकदार व्यक्तियों का वर्ग या प्रवर्ग,
(क-ज) वे शर्तें जिनके अधीन रहते हुए किसी अधिवक्ता को विधि व्यवसाय करने का अधिकार होगा और वे परिस्थितियाँ जिनमें किसी व्यक्ति के बारे में यह समझा जाएगा कि वह किसी न्यायालय में विधि व्यवसाय करता है,
(ख) वह प्रारूप जिसमें एक राज्य की नामावली से दूसरे में किसी अधिवक्ता के नाम के अन्तरण के लिए आवेदन किया जाएगा.
(ग) अधिवक्ताओं द्वारा अनुपालन किए जाने वाले वृतिक आचरण और शिष्टाचार के मानक,
(घ) भारत में विश्वविद्यालयों द्वारा अनुपालन किया जाने वाला विधि शिक्षा का स्तर और उस प्रयोजन के लिए विश्वविद्यालयों का निरीक्षण,
(ङ) भारत के नागरिकों से भिन्न व्यक्तियों द्वारा विधि विषय में प्राप्त ऐस विदेशी अर्हताएँ, जिन्हें इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप प्रवेश पाने के प्रयोजन के लिए मान्यता दी जाएगी।
(च) किसीं राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा और अपन अनुशासन समिति द्वारा अनुसरित की जाने वाली प्रक्रिया,
(छ) विधि व्यवसाय के मामले में वे निर्बन्धन जिनके अधीन वरिष्ठ अधिवक होंगे,
(छ-छ) जलवायु को ध्यान में रखते हुए, किसी न्यायालय या अधिकरण के सम हाजिर होने वाले अधिवक्ताओं द्वारा, पहनी जाने वाली पोशाकें परिधान,
(ज) इस अधिनियम के अधीन किसी मामले की बाबत उद्गृहीत की सकने वाली फीस,
(झ) राज्य विधिज्ञ परिषदों के मार्गदर्शन के लिए साधारण सिद्धान्त और व रीति जिससे भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा जारी किए गए निर्देशों या वि गए आदेशों को प्रवर्तित किया जा सकेगा,
(ञ) कोई अन्य बात, जो विहित की जाए, परन्तु खण्ड (ग) या खण्ड (छछ) के प्रति निर्देश से बनाए गए कोई नियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक वे भारत के मुख्य न्यायाधिपति द्व अनुमोदित न कर दिए गए हों,
परन्तु यह और कि खण्ड (ङ) के प्रति निर्देश से बनाए गए कोई भी निय तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक ये केन्द्रीय सरकार द्वारा अनुमोदित न कर गए हों।
(2) उपधारा (1) के प्रथम परन्तुक में किसी बात के होते हुए भी, उ उपधारा के खण्ड (ग) या खण्ड (छछ) के प्रति निर्देश से बनाए गए कोई निय और जो अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1973 (1973 का 60) के प्रारम्भ ठीक पूर्व प्रवृत्त थे, तब तक प्रभावी बने रहेंगे, जब तक वे इस अधिनियम के उपबन के अनुसार या परिवर्तित, निरसित या संशोधित नहीं कर दिए जाते।
मामला – वी. सुदीर बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाए जाने वाले नियम इस अधिनियम के अनुरूप होने चाहि अधिवक्ताओं के लिए प्रशिक्षण वाला नियम इस अधिनियम के अनुरूप नहीं (ए, आई.आर. 1999 एस. र 1167)
इसी प्रकार इण्डियन कौंसिल ऑफ लीगल एड एण्ड एडवाइस बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया के मामले में यह कहा गया है कि 45 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों को विधि व्यवसाय से रोकने वाला नियम नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि ऐसा नियम मनमाना, अयुक्तियुक्त एवं विभेदकारी है। लेकिन विधिज्ञ परिषद् द्वारा विधि स्नातक की उपाधि की मान्यता के सम्बन्ध में शर्तें सुनिश्चित करने वाले नियम बनाए जा सकते हैं
(2) अवचार के लिए अधिवक्ताओं को दण्ड देने की शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 36 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अवचार (Misconduct) के लिए अधिवक्ताओं को दण्डित किए जाने की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। यह शक्तियाँ वैसी ही हैं जैसी धारा 35 में वर्णित राज्य विधिज्ञ परिषद् की हैं। अन्तर केवल यही है कि धारा 35 के अन्तर्गत ‘महाधिवक्ता’ (Advocate General) को सुना जाता है जबकि धारा 36 के अन्तर्गत (महान्यायवादी) (Attorney General of India) को।
(3) अपीलीय शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 37 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अपीलीय शक्तियों के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार- राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति की धारा 35 के अन्तर्गत किए गए किसी आदेश या राज्य के महाधिवक्ता के आदेश से व्यथित व्यक्ति द्वारा ऐसे आदेश के विरुद्ध भारतीय विधिज्ञ परिषद् में अपील की जा सकती है। ऐसी अपील आदेश की संसूचना की तारीख से 60 दिन के भीतर की जा सकती है।
ऐसी अपील की सुनवाई भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा की जाएगी और वह अपील में ऐसा आदेश पारित कर सकेगी जैसा वह ठीक समझे। अपील में राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा अधिनिर्णीत दण्ड को परिवर्तित भी किया जा सकेगा।
लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा पारित आदेश में ऐसा कोई परिवर्तन जिससे व्यवस्थित व्यक्ति के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो, ऐसे व्यवस्थित व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिए विना पारित नहीं किया जाएगा।
(4) अन्य शक्तियाँ –
भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अधिवक्ता अधिनियम की धारा 46क, 47, 48 कक एवं 48 ख के अन्तर्गत कतिपय अन्य शक्तियाँ भी हैं। यह शक्तियाँ निम्नांकित हैं –
प्रदत्त की गई सह भारतीय विधिज्ञ परिषद को राज्य विधिज्ञ परिषद् को अनुदान के रूप में या अन्य वित्तीय सहायता प्रदान करने की शक्तियाँ हैं।
अधिनियम की धारा 46 क में यह प्रावधान किया गया है कि यदि भारतीय विधिज्ञ परिषद् का यह समाधान हो जाता है कि राज्य विधिज्ञ परिषद् को इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों का पालन करने के लिए निधि की आवश्यकता है तो भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा उसे अनुदान के तौर पर या अन्यथा वित्तीय सहायता दी जा सकती है।
(ख) धारा 47(2) के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् ऐसी शर्तें विहित कर सकेगी जिनके अधीन रहते हुए भारत के नागरिकों से भिन्न व्यक्तियों द्वारा विधि विषय में प्राप्त विदेशी अर्हत्ताओं को, इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के प्रयोजन के लिए मान्यता दी जाएगी।
(ग) धारा 48 क के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् को पुनरीक्षण (Revision) की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इसके अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् किसी भी समय इस अधिनियम के अधीन किसी ऐसी कार्यवाही का अभिलेख मँगा सकेगी जो किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् या उसकी किसी समिति द्वारा निपटाई गई है और जिसके विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती है।
ऐसा भारतीय विधिज्ञ परिषद् ऐसे निपटारे की वैधता या औचित्य के बारे में अपना समाधान करने के प्रयोजन के लिए करेगी और उसके सम्बन्ध में ऐसे आदेश पारित कर सकेगी जो वह ठीक समझे।
इस धारा के अधीन ऐसा कोई आदेश, जो किसी व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता हो, उसे सुनवाई का उचित अवसर दिए बिना पारित नहीं किया जाएगा।
(घ) धारा 48 कक के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् को पुनर्विलोकन (Review) की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। भारतीय विधिज्ञ परिषद् या उसकी अनुशासन समिति से भिन्न उसकी समितियों में से कोई भी समिति इस अधिनियम के अधीन अपने द्वारा पारित किसी आदेश का, उस आदेश की तारीख से 60 दिन के भीतर स्वप्रेरणा से या अन्यथा पुनर्विलोकन कर सकेगी।
(ङ) धारा 48 ख के अन्तर्गत किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् या उसकी किसी समिति के कृत्यों के उचित और दक्षतापूर्ण निर्वहन के लिए भारतीय विधिज्ञ परिषद् अपने साधारण अधीक्षण और नियन्त्रण की शक्तियों का प्रयोग करते हुए राज्य विधिज्ञ परिषद् या उसकी किसी समिति को ऐसे निर्देश दे सकेगी जो उसे आवश्यक प्रतीता हों और राज्य विधिज्ञ परिषद् या समिति ऐसे निर्देशों का अनुपालन करेगी।
इस प्रकार भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अधिवक्ता अधिनियम के अधीन विपुल शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
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