नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में अधिवक्ता अधिनियम के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद के गठन, कार्यों एंव अधिनियम द्वारा प्रदत्त की गई शक्तियों का उल्लेख किया गया है|
भारतीय विधिज्ञ परिषद क्या है?
भारतीय विधिज्ञ परिषद भारत की एक व्यावसायिक विनियामक संस्था है जो भारत में विधि व्यवसाय एवं विधि शिक्षा का नियमन करती है। यह एक स्वायत्त संस्था भी है जो व्यावसायिक आचरण एवं शिष्टाचार एवं विधि शिक्षा के मानक तय करती है। भारतीय विधिज्ञ परिषद को Bar Council of India के नाम से भी जाना जाता है
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 4 में भारत के राज्य क्षेत्रों के लिए विधिज्ञ परिषद के गठन की व्यवस्था की गई है जिसे भारतीय विधिज्ञ परिषद के नाम से सम्बोधित किया गया है। इस अधिनियम का विस्तार भारत के सभी राज्य क्षेत्रों पर है।
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भारतीय विधिज्ञ परिषद का गठन –
भारतीन विधिज्ञ परिषद् के गठन के बारे में प्रावधान अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 5 में किया गया है। इसके अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद का गठन निम्नलिखित से मिलकर होता है –
(i) प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद द्वारा अपने सदस्यों मे से निर्वाचित एक सदस्य
(ii) भारत का महान्यायवादी पदेन सदस्य।
(iii) भारत का सहासालिसिटर पदेन सदस्य
(iv) भारतीय विधिज्ञ परिषद का सदस्य ऐसा व्यक्ति होगा जो धारा 3 की उपधारा (2) के परन्तुक में विनिर्दिष्ट अर्हता धारण करता हो अर्थात जो राज्य नामावली में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो।
(v) भारतीय विधिज्ञ परिषद् का एक अध्यक्ष एंव एक उपाध्यक्ष होगा।
(vi) भारतीय विधिज्ञ परिषद् के ऐसे सदस्य की दशा में जो राज्य विधिज्ञ परिषद के सदस्य के रूप में पद धारण करता रहे।
लेकिन भारतीय विधिज्ञ परिषद के सदस्य के रूप में वह अपने पद पर तब तक बना रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी निर्वाचित नहीं कर लिया जाता है।
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि, भारतीय विधिज्ञ परिषद् का गठन, दो प्रकार के सदस्यों से मिलकर होता है – पदेन सदत्य एवं राज्य विधिज्ञ परिषद द्वारा निर्वाचित सदस्य|
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भारतीय विधिज्ञ परिषद के कार्य –
अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 7 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् के कार्यों का वर्णन किया गया है, जो निम्नाकित है –
(i) अधिवक्ताओं के लिए वृत्तिक आचार और शिष्टाचार के मानक निर्धारित करना
(ii) अपनी अनुशासन समिति द्वारा और प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित करना।
(iii) अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा करना
(iv) विधि सुधार का उन्नयन और उसका समर्थन करना
(v) इस अधिनियम के अधीन उत्पन्न होने वाले किसी ऐसे मामले में कार्यवाही करना और उसे निपटाना, जो उसे किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्दिष्ट किया जाए,
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(vi) राज्य विधिज्ञ परिषद् का साधारण, पर्यवेक्षण करना और उन पर नियंत्रण रखना,
(vii) विधि शिक्षा का उन्नयन करना और ऐसी शिक्षा प्रदान करने वाले भारत के विश्वविद्यालयों और राज्य विधिज्ञ परिषद् से विचार विमर्श करके ऐसी शिक्षा के मानक निर्धारित करना,
(viii) ऐसे विश्वविद्यालयों को मान्यता देना, जिनकी विधि की उपाधि अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने के लिए अर्हता होगी और उस प्रयोजन के लिए विश्वविद्यालयों में जाना और उसका निरीक्षण करना,
(ix) विधिक विषयों पर प्रतिष्ठित विधिशास्त्रियों द्वारा परिसंवादों का संचालन और वार्ताओं का आयोजत करना और विधिक रूचि की पत्र-पत्रिकाएँ और लेख प्रकाशित करना,
(x) निर्धनों को विधिक सहायता प्रदान करने के लिए आयोजन करता
(xi) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबंध और उनका विनिधान करना,
(xii) अपने सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करना
निधियों का गठन –
अधिनियम की धारा 7(2) के तहत विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक या अधिक निधियों का गठन किया जा सकेगा, यथा –
(क) निर्धन, निःशक्त या अन्य अधिवक्ताओं के लिए कल्याणकारी स्कीमों के संचालन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु,
(ख) विधिक सहायता या सलाह के लिए, एवं
(ग) पुस्तकालयों की स्थापना के लिए।
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इस प्रकार धारा 7 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् के अनेक कार्य बताए गए हैं। यह अलग बात है कि, विधिज्ञ परिषद् के कृत्यों का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, लेकिन उसके द्वारा किसी न्यायाधीश के आचरण पर टीका टिप्पणी नहीं की जा सकती और ना ही किसी न्यायाधीश को त्याग पत्र देने के लिए विवश किया जा सकता है यदि ऐसा किया जाता है तो यह न्यायालय का अवमान माना जाएगा|
निगमित निकाय होना
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 5 के अधीन भारतीय विधिज्ञ परिषद् को एक निगमित निकाय (Corporate body) माना गया है। इस धारा के अनुसार –
भारतीय विधिज्ञ परिषद् का शाश्वत उतराधिकार होगा तथा उसकी एक सामान्य मुद्रा (Seal) होगी और यह दोनों प्रकार की सम्पत्तियाँ (स्थावर एवं जंगम) अर्जित एवं धारण कर सकती है तथा यह संविदा कर सकेगी और इसके द्वारा या इसके खिलाफ वाद/मुकदमा लाया जा सकता है।
इस सम्बन्ध में राधेलाल गुप्ता बनाम बार कौंसिल ऑफ मध्य प्रदेश एक अच्छा प्रकरण है जिसमे न्यायालय द्वारा विधिज्ञ परिषद् को निगमित निकाय माना गया है। परिषद् के सदस्य, अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष मिलकर विधिज्ञ परिषद् को निगमित निकाय का स्वरूप प्रदान करते हैं। (ए.आई.आर. 2002 मध्य प्रदेश 98)
बार कौंसिल ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम एडवोकेट जनरल के प्रकरण में यह कहा गया है कि, विधिज्ञ परिषद् के किसी सदस्य की अवधि समाप्त हो जाने मात्र से उसके शाश्वत उत्तराधिकार का अतित्व समाप्त नहीं हो जाता है। (आई. एल. आर. 1973 हिमाचल प्रदेश 319)
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भारतीय विधिक परिषद की शक्तियां
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में विधिज्ञ परिषद् की विभिन्न शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इन शक्तियों को हम निम्नांकित भागों में विभाजित कर सकते हैं –
(1) नियम बनाने की शक्तियाँ (धारा 15 एवं 49),
(2) अपने अवचार के लिए अधिवक्ताओं को दण्ड देने की शक्तियाँ (धारा 35 एवं 36),
(3) अपीलीय शक्तियाँ (धारा 37)
(4) अन्य शक्तियाँ (धारा 46क, 47, 48क, 48फक एवं 48 ख)
(1) नियम बनाने की शक्तियाँ –
उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाए जाने वाले नियम इस अधिनियम के अनुरूप होने चाहिए, अधिवक्ताओं के लिए प्रशिक्षण वाला नियम इस अधिनियम के अनुरूप नहीं | जैसे – 45 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों को विधि व्यवसाय से रोकने वाला नियम नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि ऐसा नियम मनमाना, अयुक्तियुक्त एवं विभेदकारी है।
अधिनियम की धारा 15 एवं 49 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् को नियम बनाने की शक्तियां प्रदान की गई है| धारा 15 में वर्णित प्रावधानों के अनुसार –
(1) विधिज्ञ परिषद् इस अध्याय के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम बना सकेगी।
(2) विशिष्टतया तथा पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियम निम्नलिखित के लिए उपबन्ध कर सकेंगे –
(क) विधिज्ञ परिषद् के सदस्यों का गुप्त मतदान द्वारा निर्वाचन, जिसके अन्तर्गत वे शतें भी हैं जिनके अधीन रहते हुए व्यक्ति डाक मतपत्र द्वारा मतदान के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, निर्वाचक नामावलियाँ तैयार करना और उनका पुनरीक्षण और वह रीति जिससे निर्वाचन के परिणाम प्रकाशित किए जाएँगे।
(ख) x x x
(ग) विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के निर्वाचन की रीति,
(घ) वह रीति, जिससे और वह प्राधिकारी जिसके द्वारा विधिज्ञ परिषद् के लिए या अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के पद के लिए किसी निर्वाचन की विधिमान्यता के बारे में शंकाओं और विवादों का अन्तिम रूप से विनिश्विय किया जाएगा,
(ड) विधिज्ञ परिषद् में आकस्मिक रिक्तियों का भरना,
(छ) विधित परिषद् के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की शक्तियाँ और कर्तव्य,
(ङ-क) धारा 6 की उपधारा (2) और धारा 7 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट वितीय सहायता देने या विधिक सहायता या सलाह देने के प्रयोजन के लिए विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक या अधिक निधियों का गठन,
(छ-ख) निर्धनों के लिए विधिक सहायता और सलाह देने के लिए आयोजन और उस प्रोजन के लिए समितियों और उपसमितियों का गठन और उनके कृत्य तथा उन कार्यवाहियों का विवरण जिनके सम्बन्ध में विधिक सहायता या सलाह दी जा सकती है,
(ज) विधिज्ञ परिषद् के अधिवेशन बुलाना और उनका आयोजन, उनमें कारबार का संचालन और उनमें गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य- संख्या,
(झ) विधिज्ञ परिषद् की किसी समिति का गठन और उसके कृत्य और किसी ऐसी समिति के सदस्यों की पदावधि,
(ञ) ऐसी किसी समिति के अधिवेशन बुलाना और उनका आयोजन, उनमें कारबार के संव्यवहार और गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य-संख्या,
(ट) विधिज्ञ परिषद् के सचिव, लेखापाल और अन्य कर्मचारियों की अर्हताएँ और उनकी सेवा की शर्तें,
(ठ) विधिज्ञ परिषद् द्वारा लेखा-बहियों तथा अन्य पुस्तकों का रखा जाना,
(ड) लेखापरीक्षकों की नियुक्ति और विधिज्ञ परिषद् के लेखाओं को लेखापरीक्षा,
(ण) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और विनिधान।
(3) किसी राज्य विधिज्ञ परिषद द्वारा इस धारा के अधीन बनाए गए नियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक भारतीय विधिज्ञ परिषद् उनका अनुमोदन न कर दें।
अधिनियम की धारा 49 के अनुसार शक्तियाँ –
(1) भारतीय विधिज्ञ परिषद् इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों के निर्वहन के लिए नियम बना सकेगी और विशिष्टतया ऐसे नियम निम्नलिखित विहित कर सकेंगे, अर्थात्
(क) वे शतें, जिनके अधीन रहते हुए कोई अधिवक्ता राज्य विधिज्ञ परिषद् के किसी निर्वाचन में मतदान करने के लिए हकदार हो सकेगा जिनके अन्तर्गत मतदाताओं को अर्हताएँ मतदाताओं की अर्हताएँ या निरर्हताएँ भी हैं और वह रीति, जिससे मतदाताओं की निर्वाचक नामावली राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा तैयार और पुनरीक्षित की जा सकेगी,
(क-ख) किसो विधिज्ञ परिषद् की सदस्यता के लिए अर्हताएँ और ऐसी सदस्यता के लिए निरहंताएँ,
(क-ग) वह समय, जिसके भीतर और वह रीति जिससे धारा 3 की उपधारा (2) के परन्तुक को प्रभावी किया जा सके,
(क-घ) वह रोति जिससे किसी अधिवक्ता के नाम को एक से अधिक राज्यों की नामावली में दर्ज किए जाने से रोका जा सकेगा,
(क-ड़) वह रीति जिससे अधिवक्ताओं की परस्पर ज्येष्ठता अवधारित की जा सकेगी,
(क-च) किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय में, विधि की उपाधि के पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने के लिए अपेक्षित न्यूनतम अर्हताएँ,
(क-छ) अधिवक्ताओं के रूप में नामांकित किए जाने के लिए हकदार व्यक्तियों का वर्ग या प्रवर्ग,
(क-ज) वे शर्तें जिनके अधीन रहते हुए किसी अधिवक्ता को विधि व्यवसाय करने का अधिकार होगा और वे परिस्थितियाँ जिनमें किसी व्यक्ति के बारे में यह समझा जाएगा कि वह किसी न्यायालय में विधि व्यवसाय करता है,
(ख) वह प्रारूप जिसमें एक राज्य की नामावली से दूसरे में किसी अधिवक्ता के नाम के अन्तरण के लिए आवेदन किया जाएगा,
(ग) अधिवक्ताओं द्वारा अनुपालन किए जाने वाले वृतिक आवरण और शिष्टाचार के मानक,
(घ) भारत में विश्वविद्यालयों द्वारा अनुपालन किया जाने वाला विधि शिक्षा का स्तर और उस प्रयोजन के लिए विश्वविद्यालयों का निरीक्षण,
(ङ) भारत के नागरिकों से भिन्न व्यक्तियों द्वारा विधि विषय में प्राप्त ऐस विदेशी अहंताएँ, जिन्हें इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप। प्रवेश पाने के प्रयोजन के लिए मान्यता दी जाएगी।
(च) किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा और अप- ( अनुशासन समिति द्वारा अनुसरित की जाने वाली प्रक्रिया,
(छ) विधि व्यवसाय के मामले में वे निर्बन्धन जिनके अधीन वरिष्ठ अधिवक होंगे,
(छ-छ) जलवायु को ध्यान में रखते हुए, किसी न्यायालय या अधिकरण के सम हाजिर होने वाले अधिवक्ताओं द्वारा, पहनी जाने वाली पोशाकें परिधान,
(ज) इस अधिनियम के अधीन किसी मामले की बाबत उद्गृहीत की सकने वाली फीस,
(झ) राज्य विधिज्ञ परिषदों के मार्गदर्शन के लिए साधारण सिद्धान्त और व रीति जिससे भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा जारी किए गए निर्देशों या दिए गए आदेशों को प्रवर्तित किया जा सकेगा,
( ) कोई अन्य बात, जो विहित की जाए,
लेकिन खण्ड (ग) या खण्ड (छ-छ) के प्रति निर्देश से बनाए गए कोई नियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक वे भारत के मुख्य न्यायाधिपति द्वारा अनुमोदित न कर दिए गए हों,
तथा खण्ड (ङ) के प्रति निर्देश से बनाए गए कोई भी बियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक ये केन्द्रीय सरकार द्वारा अनुमोदित न कर दिए गए हों।
(2) उपधारा (1) के प्रथम परन्तुक में किसी बात के होते हुए भी, उस उपधारा के खण्ड (ग) या खण्ड (छ-छ) के प्रति निर्देश से बनाए गए कोई नियम और जो अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1973 (1973 का 60) के प्रारम्भ से ठीक पूर्व प्रवृत्त थे, तब तक प्रभावी बने रहेंगे, जब तक वे इस अधिनियम के उपबन्ध के अनुसार या परिवर्तित, निरसित या संशोधित नहीं कर दिए जाते।
(2) अवचार के लिए दण्ड देने की शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 36 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अवचार (Misconduct) के लिए अधिवक्ताओं को दण्डित किए जाने की शक्ति का प्रावधान किया गया है और धारा 36 के अधीन दण्ड देने से पूर्व भारत के महान्यायवादी (Attorney General of India) को सुना जाता है।
(3) अपीलीय शक्तियाँ –
अधिनियम की धारा 37 में भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अपीलीय शक्ति का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार- राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति की धारा 35 के अन्तर्गत किए गए किसी आदेश या राज्य के महाधिवक्ता के आदेश से व्यथित व्यक्ति द्वारा ऐसे आदेश के विरुद्ध भारतीय विधिज्ञ परिषद् में अपील की जा सकती है। ऐसी अपील आदेश की संसूचना की तारीख से 60 दिन के भीतर की जा सकती है।
अपील की सुनवाई भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा की जाएगी और वह अपील में जैसा वह ठीक समझे वैसा आदेश पारित कर सकता है। अपील में राज्य विधिज्ञ परिषद की अनुशासन समिति द्वारा अधिनिर्णीत दण्ड को बदला भी जा सकता है।
लेकिन भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा राज्य विधिज्ञ परिषद की अनुशासन समिति द्वारा पारित आदेश में ऐसा कोई परिवर्तन जिससे व्यथित व्यक्ति के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो, ऐसे व्यथित व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिए बिना पारित नहीं किया जाएगा।
(4) अन्य शक्तियाँ –
अधिवक्ता अधिनियम की धारा 46क, 47, 48 कक एवं 48 ख के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् को कुछ अन्य शक्तियाँ भी दी गई हैं, जो निम्नांकित हैं –
(क) धारा 46क भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अनुदान के रूप में या अन्य वित्तीय सहायता प्रदान करने की शक्तियाँ प्रदान करती हैं। इसके अनुसार जब भारतीय विधिज्ञ परिषद् का यह समाधान हो जाता है कि राज्य विधिज्ञ परिषद् को इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों का पालन करने के लिए निधि की आवश्यकता है तो भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा उसे अनुदान के तौर पर या अन्यथा वित्तीय सहायता दी जा सकती है।
(ख) धारा 47(2) के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् ऐसी शर्तें लागू कर सकेगी जिनके अधीन रहते हुए भारत के नागरिकों से भिन्न व्यक्तियों द्वारा विधि विषय में प्राप्त विदेशी अर्हत्ताओं को, इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के प्रयोजन के लिए मान्यता दी जाएगी।
(ग) धारा 48क के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् को पुनरीक्षण (Revision) को शक्तियाँ प्रदान को गई हैं। इसके अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् किसी भी समय इस अधिनियम के अधीन किसी ऐसी कार्यवाही के अभिलेख की मांग कर सकती जो किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् या उसको किसी समिति द्वारा निपटाई गई है और जिसके विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती है।
(ब) धारा 48कक के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् को पुनर्विलोकन (Review) की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। भारतीय विधिज्ञ परिषद् या उसकी अनुशासन समिति से भिन्न उसको समितियों में से कोई भी समिति इस अधिनियम के अधीन अपने द्वारा पारित किसी आदेश का, उस आदेश की तारीख से 60 दिन के भीतर स्वप्रेरणा से या अन्यथा पुनर्विलोकन कर सकेगी।
(ड) धारा 48ख के अन्तर्गत किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् या उसको किसी समिति के कृत्यों के उचित और दक्षतापूर्ण निर्वहन के लिए यह परिषद् अपने साधारण अधीक्षण और नियन्त्रण की शक्तियों का प्रयोग करते हुए राज्य विधिज्ञ परिषद या उसकी किसी समिति को ऐसे निर्देश दे सकेगी जो उसे आवश्यक प्रतीत हो और राज्य विधिज्ञ परिषद् या समिति ऐसे निर्देशों का अनुपालन करेगी|
इस तरह अधिवक्ता अधिनियम 1961 के तहत भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अनेक शक्तियां प्रदान की गई है|
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