हेल्लो दोस्तों, इस लेख में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद पत्र पेश करने पर (what is the complaint procedure) अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है| उम्मीद है कि, यह आलेख आपको जरुर पसंद आएगा –
समाज में जब किसी व्यक्ति पर अपराध कारित होता है यानि विधि द्वारा दण्डनीय कोई कार्य किया जाता है तब पीड़ित व्यक्ति के पास उस अपराध करने वाले व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही चलाने के दो रास्ते (एफ.आई.आर. व परिवाद पत्र) है जिनसे पीड़ित व्यक्ति न्याय प्राप्त कर सकता है।
जैसा की हम जानते है कि, संज्ञेय अपराध मे पीड़ित व्यक्ति CrPC की धारा 154 के तहत पुलिस को सूचना देकर एफ.आई.आर. दर्ज करवा सकता है। हालांकि अपराध की रिपोर्ट पक्षकार ही दर्ज करवाए यह जरुरी नहीं है।
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परिवाद पत्र क्या है –
जब पुलिस CrPC की धारा 154 के तहत एफ.आई.आर. दर्ज नहीं करती है, तब पीड़ित व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि, वह मजिस्ट्रेट को लिखित या मौखिक रूप से अपनी शिकायत पेश कर, आरोपी व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही की मांग कर सकता है। यह भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट को प्राप्त एक अद्भुत शक्ति ही नहीं वरन पीड़ित व्यक्ति को प्राप्त एक अद्भुत अधिकार भी है जो न्याय का महत्वपूर्ण भाग है।
इस आलेख में भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अधीन मजिस्ट्रेट के समक्ष कौन सी धाराओं के तहत परिवाद पत्र पेश किया जाता है और उसके बाद परिवाद के सम्बन्ध में क्या प्रक्रिया अपनाई जाती है, का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है, यह आलेख विधि के छात्रो के अलावा आम नागरिक के लिए भी आवश्यक है|
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परिवाद पत्र की प्रक्रिया क्या है?
भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 200 से 203 में मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद पत्र पेश किये जाने पर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का चरण दर चरण उल्लेख किया गया है| यथा –
(i) परिवादी की परीक्षा –
CrPC की धारा 200 के अनुसार, जब भी मजिस्ट्रेट के समक्ष कोई परिवाद पत्र प्रस्तुत किया जाता है तब मजिस्ट्रेट द्वारा उस पर –
(i) परिवादी एवं उसके साक्षियों की परीक्षा करेगा,
(ii) ऐसी परीक्षा का सारांश लेखबद्ध करेगा, तथा
(iii) उस पर मजिस्ट्रेट अपने हस्ताक्षर करेगा।
लेकिन कुछ ऐसी परिस्थितियां है जिनमें मजिस्ट्रेट के लिए परिवादी एवं उसके साक्षियों का परीक्षण किया जाना आवश्यक नहीं है –
(क) यदि ऐसा परिवाद पत्र लिखित रूप में किसी लोक सेवक द्वारा अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में किया जाता है अथवा न्यायालय द्वारा किया जाता है, या
(ख) यदि मजिस्ट्रेट ऐसे परिवाद पत्र को जाँच या विचारण के लिए धारा 192 के अन्तर्गत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को भेज देता है।
धारा 200 के तहत यदि, मजिस्ट्रेट द्वारा किसी परिवाद पत्र को धारा 192 के अन्तर्गत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को परिवादी या साक्षियों का परीक्षण करने के पश्चात् भेजा जाता है तो वह मजिस्ट्रेट जिसके पास परिवाद पत्र भेजा गया है, उस परिवाद पर परिवादी एवं साक्षियों का परीक्षण पुनः करने के लिए बाध्य नहीं होगा।
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(ii) संज्ञान के लिए सक्षम नहीं होने पर प्रक्रिया –
पीड़ित पक्ष द्वारा यदि कोई परिवाद पत्र ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश कर दिया जाता है जो उसमें संज्ञान (cognizance) लेने के लिए सक्षम नहीं है अथवा अपनी अधिकारिता नहीं रखता है, तब वह मजिस्ट्रेट उस पर कोई कार्रवाई नहीं करेगा|
CrPC की धारा 201 के तहत, ऐसा मजिस्ट्रेट यदि परिवाद लिखित में है तो उसे समुचित न्यायालय में पेश करने के लिए पृष्ठांकन सहित लौटा देगा और यदि परिवाद लिखित में नहीं है तो वह परिवादी को उचित न्यायालय में जाने का निर्देश देगा।
इस सम्बन्ध में राजेन्द्र सिंह बनाम बिहार राज्य का प्रकरण प्रमुख है इसमें न्यायलय ने अभियुक्त को इस आधार पर दोषमुक्त किया कि उसे परिवाद का संज्ञान करने की अधिकारिता नहीं थी| इस प्रकरण में कहा गया कि, अभियुक्त को दोषमुक्त करने जी बजाए न्यायालय को परिवाद पत्र उचित न्यायालय में प्रेषित करने के लोटा देना था| (1989 क्रि. लॉ. ज. 2277 पटना)
विशेष – क्वीन एम्प्रेस बनाम कुनीयल में यह अभिनिर्धारित किया गया कि, यदि परिवाद पत्र सक्षम प्राधिकारी की अनुमति से पुन: उसी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाता है तो वह उसे ग्रहण करने के लिए वर्जित नहीं होगा। (आई.एल.आर. 24 मद्रास 337)
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(iii) आदेशिका मुल्तवी करना –
CrPC की धारा 202 के तहत, जब मजिस्ट्रेट के समक्ष ऐसा कोई परिवाद पेश किया जाता है जिस पर संज्ञान लेने के लिए वह सक्षम है या धारा 192 के अन्तर्गत उसके हवाले किया जाता है, लेकिन अभियुक्त उसके न्याय क्षेत्र से बाहर निवास करता है, तब वह मजिस्ट्रेट अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका जारी करना मुल्तवी कर सकेगा और यह विनिश्चित करने के लिए कि ऐसे परिवाद में कार्रवाई किये जाने के पर्याप्त आधार है या नहीं, वह –
(क) या तो स्वयं उस मामले की जाँच कर सकता है, या
(ख) किसी पुलिस अधिकारी को या किसी ऐसे अन्य व्यक्ति को, जिसे वह ठीक समझे, उसमें अन्वेषण करने का निदेश दे सकेगा।
परन्तु ऐसे किसी परिवाद को अन्वेषण हेतु नहीं भेजा जा सकेगा, यदि –
(क) मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह परिवाद अनन्य रूप से सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है, अथवा
(ख) जहाँ परिवाद किसी न्यायालय द्वारा नहीं किया गया हो, वहाँ परिवादी एवं उसके साक्षियों की धारा 200 के अधीन परीक्षा नहीं कर लिये जाने तक ऐसे मामलों में जाँच के दौरान मजिस्ट्रेट द्वारा साक्षियों की शपथ पर परीक्षा की जा सकेगी।
किसी परिवाद को अन्वेषण हेतु पुलिस अधिकारी को भेजना या नहीं भेजना न्यायालय के विवेकाधीन है तथा धारा 202 के अन्तर्गत आदेशिका जारी किये जाने का आदेश एक अन्तर्वर्ती आदेश (interlocutory order) है जिसके विरुद्ध पुनरीक्षण के लिए आवेदन नहीं किया जा सकता है। उसके विरुद्ध धारा 482 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत की जा सकती है।
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CrPC की धारा 202 के तीन मुख्य उद्देश्य है –
(अ) अपराध गठित करने वाले तथ्यों को सुनिश्चित करना,
(ब) प्रक्रिया का दुरुपयोग, जिससे न्यायालय का समय नष्ट होता है या अभियुक्त के लिए परेशानी उत्पन्न होती है, को निवारित करना तथा
(स) मजिस्ट्रेट को इस तथ्य का निर्णय करने में सहायता पहुँचाना कि क्या पर्याप्त आधार है जो छान-बीन को आवश्यक बनाते हैं तथा मामले को जारी रखने के लिये प्रेरित करते है।
धारा 202 के अंतर्गत जाँच का क्षेत्र अत्यधिक छोटा है, यह धारा परिवाद पत्र में लगाये गए आरोपों की सत्यता या झूठेपन को सुनिश्चित करने तक ही सिमित है|
(iv) परिवाद पत्र का खारिज किया जाना –
CrPC की धारा 203 के तहत, मजिस्ट्रेट यदि परिवादी एंव साक्षियों के शपथ पर किये गए कथन तथा धारा 202 के अधीन जाँच या अन्वेषण पर विचार करने के परिणाम पर विचार करने के पश्चात् यह पाता है कि उस परिवाद पर आगे कार्यवाई किये जाने का कोई पर्याप्त आधार नहीं है तब वह उस परिवाद को खारिज कर सकेगा।
इस धारा के अधीन जहाँ किसी परिवाद को खारिज किया जाता है वहाँ ऐसे खारिज किये जाने वाले कारणों का उल्लेख किया जाना आवश्यक होगा।
एक मजिस्ट्रेट परिवाद को निम् मामलों में ख़ारिज कर सकता है –
(अ) यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि कोई अपराध कारित नहीं हुआ है
(ब) यदि परिवादी द्वारा दिये गये वक्तव्य पर मजिस्ट्रेट विश्वास नहीं करता है और
(स) यदि परिवादी के वक्तव्यों पर मजिस्ट्रेट विश्वास नहीं करता है लेकिन उसका अविश्वास इतना मजबूत नहीं है कि उसे इस पर कार्य करने के लिए बाध्य कर सके, ऐसी दशा में वह धारा 200 के अन्तर्गत अतिरिक्त जाँच का आदेश दे सकता है। इन मामलों में मजिस्ट्रेट प्रक्रिया जारी करने से मना कर सकता है।
नाथु सिंह बनाम बसन्त लाल के मामले में यह निर्धारित किया गया कि, यदि परिवाद ख़ारिज करने के लिए कारण नहीं दिए गए है तो आदेश न केवल अनियमित होगा वरन, अवैध होगा और भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 465 के अंतर्गत शमनीय नहीं होगा | (ए.आई.आर. 1968 गुजरात 210)
सुभाष एस. देशमुख बनाम सतीश आत्माराम कलेकर के प्रकरण में कहा गया है कि, किसी मामले को पुनः खोलने से पूर्व अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिया जाना आवश्यक है। (ए.आई.आर 2020 एस.सी. 3324)
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संदर्भ :- बूक : दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 (सूर्य नारायण मिश्र)