न्याय प्रशासन मै अधिवक्ता की क्या भूमिका है? अधिवक्ताओं के अधिकार | विधि व्यवसाय

नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में न्याय प्रशासन यानि न्यायालय में अधिवक्ता की क्या भूमिका होती है और अधिवक्ताओं  को न्यायालय में अपने पक्षकार की पैरवी करने के लिए कोनसे अधिकार प्राप्त होते है आदि के बारें में बताया गया है| यह आलेख विधि के छात्रो एंव आमजन का लिए काफी उपयोगी है|

अधिवक्ता कोन होता है

विधि व्यवसाय (legal profession) का कार्य एडवोकेट द्वारा किया जाता है, अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा (1) (ख) के अनुसार अधिवक्ता का अर्थ, ऐसे व्यक्ति से लगाया जाता है जिसका नाम अधिवक्ताओ की नामावली में दर्ज जो तथा साथ में वह विधि स्नातक हो|

अन्य शब्दों में एडवोकेट से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से भी है जो न्यायालय मै अन्य व्यक्ति की और से पैरवी करता है, उसका पक्ष रखता है तथा उसकी और से उपस्थिति देता है|

एडवोकेट के कार्य, अधिकार, कर्तव्य, दायित्व आदि का उल्लेख विधि व्यवसाय के अंतर्गत किया जाता है क्योंकि विधि व्यवसाय करने का अधिकार केवल मात्र एडवोकेट को ही होता है और इस कारण न्याय प्रशासन मै अधिवक्ताओ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है|

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न्याय प्रशासन मै अधिवक्ता की भूमिका

एडवोकेट न्याय प्रशासन की धुरी होते है। एडवोकेट ही न्यायालय के समक्ष अपने पक्षकारों का पक्ष रखते हैं तथा उनकी ओर से पैरवी करते हैं। एडवोकेट अपने पक्षकारों की पैरवी समुचित अथवा अच्छी तरह से कर सकें तथा न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष स्वतन्त्रता, निर्भीकता एवं निष्पक्षता से प्रस्तुत कर सकें, इसलिए अधिवक्ता कई महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान किए गए हैं। जो निम्न हैं –

पैरवी करने का अधिकार

एडवोकेट का पहला महत्त्वपूर्ण अधिकार न्यायालय में अपने पक्षकार की ओर से पैरवी करने का है। केवल एडवोकेट ही पक्षकार की ओर से न्यायालय में उपस्थित हो सकते हैं एवं पैरवी कर सकते हैं। अन्य किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है।

पैरवी करने के इस अधिकार से तात्पर्य केवल स्थगन (Adjournment) लेने से नहीं है, अपितु वास्तविक रूप से पैरवी एवं बहस करने से है।

एडवोकेट के न्यायालय में उपस्थित होने के अधिकार का अर्थ अत्यन्त विस्तृत है। इसमें न्यायालय को सम्बोधित करने, साक्षियों की परीक्षा एवं प्रति-परीक्षा करने, मौखिक बहस करने आदि का अधिकार भी सम्मिलित है| (संजय आर. कोठारी बनाम साऊथ मुम्बई कन्ज्यूमर डिस्प्यूटस रेड्रेसल फोरम ए.आई.आर. 2003 मुम्बई 15)

एक एडवोकेट को महिला आयोग के समक्ष पैरवी करने का भी अधिकार है, क्योंकि महिला आयोग द्वारा सिविल न्यायालय की शक्तियों का प्रयोग किया जाता है (प्रसाद उर्फ परुषोत्तमन बनाम केरल वीमेन्स कमीशन तिरुवन्तपरम ए.आई.आर. 2018 एन.ओ.सी. 573 केरल)

यहाँ स्पष्ट करना उचित होगा कि वकालत करने का अधिकार अधिवक्ता का मूल अधिकार नहीं है। यह अधिवक्ता अधिनियम 1961 द्वारा प्रदत्त एक सांविधिक अधिकार है। (बार कौंसिल ऑफ इण्डिया बनाम हाईकोर्ट ऑफ केरल, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 2227)

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समझौता करने का अधिकार

एडवोकेट को अपने पक्षकार की ओर से मामले में राजीनामा अर्थात् समझौता (Compromise) करने का अधिकार होता है। एडवोकेट के द्वारा पक्षकार की ओर से राजीनामा पेश किया जा सकता है और वह पक्षकार पर आबद्धकर होता है। सामान्यतः वकालतनामे में अधिवक्ता के राजीनामा करने के अधिकार का उल्लेख कर दिया जाता है|

पारिश्रमिक प्राप्त करने का अधिकार

एडवोकेट को अपने पक्षकार से पैरवी के बदले पारिश्रमिक प्राप्त करने का अधिकार है। यदि कोई पक्षकार पारिश्रमिक का संदाय नहीं करता है तो अधिवक्ता द्वारा उसे विधिनुसार वसूल किया जा सकता है।

पारिश्रमिक नहीं मिलने पर एडवोकेट द्वारा पैरवी करने से इन्कार किया जा सकता है क्योंकि विधि व्यवसाय (legal profession) एक तरह से अधिवक्ता का व्यवसाय है|

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निरीक्षण करने का अधिकार

एडवोकेट को अपने पक्षकार से सम्बन्धित न्यायालय की पत्रावली एवं अन्य दस्तावेजों का निरीक्षण तथा उनका अवलोकन करने का अधिकार होता है। वह निर्धारित शुल्क जमा करवा कर न्यायालय की इजाजत से पत्रावली एवं अन्य दस्तावेजों का अवलोकन कर सकता है। लेकिन अवलोकन के दौरान वह पत्रावली अथवा दस्तावेजों में न तो कुछ लिख सकता है और न ही लिखे हुए को काट सकता है।

प्रतिलिपि प्राप्त करने का अधिकार

एडवोकेट को अपने पक्षकारों से सम्बन्धित मामलों में किसी कार्यवाही, निर्णय, डिक्री, आदेश अथवा दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिपियाँ (Certified copies) प्राप्त करने का अधिकार होता है। वह निर्धारित शुल्क जमा कराकर यथासमय आवेदन कर सकता है।

समन आदि प्राप्त करने का अधिकार

किसी मामले में विचारण के दौरान किसी कार्यवाही में पक्षकार की ओर से उसके एडवोकेट पर समन की तामील कराई जा सकती है, जैसा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 3 में व्यवस्था की गई है।

ब्रीफ पेश करने का अधिकार

अधिवक्ताओं को किसी अन्य अधिवक्ता के मामलों में उसकी ओर से ब्रीफ (Brief) प्रस्तुत करने का अधिकार होता है। सामान्यतः ऐसा तब होता है जब वह एडवोकेट किसी कारणवश न्यायालय में उपस्थित रहने में असमर्थ रहता है।

ऐसी स्थिति में ऐसे अधिवक्ता की उपस्थिति को क्षम्य करते हुए उसकी ओर से ब्रीफ पेश करने वाले अधिवक्ता की उपस्थिति ब्रीफ पर दर्ज कर ली जाती है। हालांकि उसके द्वारा कार्यवाही में सक्रिय रूप से भाग नहीं लिया जाता है।

वृत्तिक संसूचनाओं का अधिकार

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 126 के अन्तर्गत अधिवक्ताओं को वृत्तिक संसूचनाओं के सम्बन्ध में विशेषाधिकार (Privilege) प्रदान किया गया है। इसके अनुसार-अधिवक्ताओं को पैरवी के दौरान अपने पक्षकारों से जो भी सूचनाएँ, साक्ष्य आदि प्राप्त होती हैं उन्हें प्रकट करने के लिए अधिवक्ता को विवश नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ऐसी सूचनाएँ आदि गोपनीय मानी जाती हैं।

इन्हें प्रकट करने से पक्षकार के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए इन्हें प्रकट नहीं करने का अधिवक्ताओं को विशेषाधिकार प्रदान किया गया है।

विनिर्णय प्रस्तुत करने का अधिकार

अधिवक्ताओं को अपने मामलों में उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों आदि के विनिर्णय प्रस्तुत करने का अधिकार होता है। ऐसा अपने पक्ष के समर्थन में किया जाता है।

न्यायालयों द्वारा ऐसे विनिर्णयों को निर्णय या आदेश पारित करते समय ध्यान में रखा जाता है। लेकिन ऐसे विनिर्णयों का सुसंगत (Relevant) होना आवश्यक है|

बैठक आदि की सुविधाएँ प्राप्त करने का अधिकार

एडवोकेट न्यायालय के अधिकारी होते हैं और वे अपने पक्षकारों के प्रतिनिधि या अभिकर्ता के रूप में उनकी पैरवी करते हैं। न्याय प्रशासन में उनकी अहम् भूमिका मानी जाती है। जिस कारण अधिवक्ताओं को न्यायालय की ओर से विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं जिनमे बैठक (Sitting) सुविधा भी शामिल है।

अधिवक्ताओं के लिए न्यायालय कक्ष में कुर्सियाँ, मेज आदि उपलब्ध रहती हैं। इनका उपयोग करने का पहला अधिकार अधिवक्ताओं को है। पक्षकार या अन्य व्यक्ति प्राथमिकता के आधार पर ऐसी सुविधा का क्लेम नहीं कर सकते।

अधिवक्ताओं को चैम्बर (Chambers) का भी आवंटन किया जाता हैं, एक एडवोकेट एक से अधिक  चेंबर के लिए आवेदन नहीं कर सकता है।

कमिश्नर आदि नियुक्त होने का अधिकार

न्यायिक कार्यवाहियों के दौरान विभिन्न कार्यों के लिए अधिवक्ताओं की मदद ली जाती है और ऐसे कार्यों के लिए उन्हें समय-समय पर पद दिए जाते है –

(i) कमिश्नर (Commissioner),

(ii) प्रापक (Receiver)

(iii) शपथ आयुक्त (Oath Commissioner),

(iv) नोटेरी पब्लिक (Notary Public) आदि नियक्त किया जाता है।

इस तरह की नियुक्ति का अधिकार सामान्यतः अधिवक्ताओं को ही होता है। इन कार्यों के लिए उन्हें पारिश्रमिक भी दिया जाता है।

कमिश्नर, प्रापक, शपथ आयुक्त व नोटेरी पब्लिक के रूप में एडवोकेट के कुछ अधिकार होने के साथ साथ उनके कुछ कर्त्तव्य भी होते है – जैसे उन्हें निष्ठा एवं ईमानदारी से अपने पदीय-कृत्यों का निर्वहन करना होता है।

सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन अधिकार

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 3 आदि में अधिवक्ताओं के विभिन्न अधिकारों का उल्लेख किया गया है जैसे –

(i) अपने पक्षकारों का न्यायालय में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार,

(ii) पक्षकारों की ओर से न्यायालय में उपस्थिति देने का अधिकार,

(iii) राजीनामा (समझौता) पेश करने का अधिकार,

(iv) मामले में आवेदन पत्र, दस्तावेज आदि पेश करने का अधिकार,

(v) अपील, पुनरीक्षण, पुनरावलोकन आदि के लिए प्रार्थना-पत्र पेश करने का अधिकार,

(vi) मृतक पक्षकार की ओर से वैध प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने का अधिकार आदि।

दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि एडवोकेट की सुनवाई का अधिकार स्वयं न्यायालय द्वारा विनियमित किया जाता है। किसी विशिष्ट मामले में अधिवक्ता का न्यायालय में उपस्थित या प्रस्तुत होना न्यायालय के मत में अनुचित है तो ऐसे मामले में उसे उपस्थित होने से रोका जा सकता है। (अमरजीतसिंह कालरा बनाम प्रमोद गुप्ता’ ए.आई.आर. 2005 दिल्ली 41))

इस प्रकार अधिवक्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है|

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