न्याय प्रशासन : परिभाषा, प्रकार एंव दण्ड के सिद्धान्त | Administration Of Justice

नमस्कार दोस्तों, इस आलेख में न्याय प्रशासन की परिभाषाप्रकार एंव दण्ड के विभिन्न सिद्धान्त | Definition And Punishment For Administration Of Justice का विस्तार से वर्णन किया गया है| अगर आपने इससे पहले विधिशास्त्र के बारे में नहीं पढ़ा है तब आप विधिशास्त्र केटेगरी से पढ़ सकते है…….

परिचय – न्याय प्रशासन

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के कारण उसकी ईच्छा रहती है कि वह समाज में शांतिपूर्ण तरीके से अपना जीवन यापन करें तथा वह अपेक्षा करता है कि कोई अन्य व्यक्ति उसके शांतिपूर्ण जीवनयापन में किसी प्रकार का दखल ना करे|

समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह उन नियमों व कानूनों के अनुसार अपना आचरण करें जिन्हें समाज या राज्य द्वारा बनाया जाता है|

यदि मनुष्य समाज द्वारा बनाये गए कानून का उल्लंघन करता है तब समाज का संतुलन बिगड़ने लगता है क्योंकि मनुष्य में तर्कबुद्धि होने के कारण वह अपने हित, अधिकार व इच्छाओं को प्राप्त करने लिए प्रयत्न करता है और ऐसा करने पर परस्पर टकराव और संघर्ष की स्थिति बन जाने के कारण समाज के मूल ढांचे के टूटने की आशंका बन जाती है और तब समाज के ढांचे को टूटने से बचाने के लिए न्याय प्रशासन की जरुरत पड़ती है|

न्याय प्रशासन सभ्य एवं सुव्यवस्थित समाज की आधारशिला एवं राज्य का लक्ष्य है। पारस्परिक सह अस्तित्त्व, शान्ति एवं व्यवस्था, बुराइयों तथा अपराधों के निवारण के लिए न्याय प्रशासन आवश्यक है।

न्याय प्रशासन की परिभाषा

न्याय प्रशासन शब्द की सार्वभौमिक परिभाषा दिया जाना अत्यन्त कठिन है। विधिवेत्ताओं ने इसकी अपने अपने ढंग से व्याख्या एवं परिभाषा की है। 

सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार  राजनीतिक समुदाय में राज्य की भौतिक शक्ति द्वारा अधिकारों अथवा न्याय का संरक्षण किया जाना ही न्याय प्रशासन है।

फ्रान्सीसी दार्शनिक पास्कल के अनुसार  शक्ति के बिना न्याय प्रभावहीन होता है तथा न्याय के बिना शक्ति कुछ निरंकुश होती है। विधि विहीन न्याय एक कपोल कल्पना मात्र है क्योंकि समाज में अवांछनीय व्यक्तियों पर उचित नियंत्रण रखने के लिए शक्ति आवश्यक है।

इसी प्रकार न्याय के बिना विधि स्वयं अपूर्ण मानी जाती है। जिस कारण न्याय और विधि को एक साथ रखा जाना परम आवश्यक है।

इस प्रकार कि न्याय प्रशासन राजनीतिक समुदाय का कार्य है। राज्य का लक्ष्य निष्पक्ष रूप से न्याय प्रशासन करना है तथा आपराधिक प्रकृति के लोगों को दण्डित करना है।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि न्याय प्रशासन का उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करना है। न्याय प्रशासन का माध्यम राज्य का बल है।

न्याय के दो प्रकार माने गये हैं 

(1) प्राकृतिक न्याय  प्राकृतिक न्याय उस आदर्श का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी पूर्ति के लिए विधिक न्याय प्रयत्नशील रहता है। प्राकृतिक न्याय स्वयंसिद्ध न्याय है।

(2) विधिक न्याय  राज्य जब यह अनुभव करता है कि प्राकृतिक विधि के कुछ नियम इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी होंगे, तो वह इन्हें अपनी विधियों में शामिल कर लेता है तथा उनका पालन करना लोगों के लिए आवश्यक हो जाता है।

सामण्ड ने विधि के तीन प्रमुख उद्देश्य बताये हैं 

(1) अधिकारों का संरक्षण

(2) न्याय व्यवस्था बनाये रखना

(3) अपराधों का निवारण।

न्याय प्रशासन का उद्देश्य

(क) अधिकारों का संरक्षण

(ख) शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखना

(ग) अपराधों का निवारण करना।

न्याय प्रशासन के प्रकार

न्याय प्रशासन मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है

(i) सिविल (दीवानीन्याय प्रशासन 

दीवानी न्याय प्रशासन का कार्य पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण करना और क्षतिग्रस्त पक्षकार को अनुतोष प्रदान करना है| यह अनुतोष क्षतिपूर्ति, विनिर्दिष्ट पालन, व्यादेश (स्थाई या अस्थाई) या पुनर्भुगतान आदि के रूप में सकता है|

दीवानी न्याय प्रशासन का उद्देश्य यथास्थिति कायम रखना अथवा सुधारात्मक या प्रतिकारात्मक (Compensatory) न्याय प्रदान करना है। वे अपकार जो सिविल कार्यवाही की विषय वस्तु होती है उन्हें सिविल अपकार कहा जाता है|

(ii) आपराधिक न्याय प्रशासन 

आपराधिक न्याय प्रशासन को दांडिक न्याय प्रशासन भी कहा जाता है| इसका मुख्य उद्देश्य अपराधों का निवारण करना, अपराधों की पुनरावृत्ति को रोकना तथा दोषी व्यक्तियों को दण्डित करना है। अपराधी को दण्ड जुर्माना (अर्थदंड), शारीरिक एंव मानसिक पीड़ा या कारावास के रूप में दिया जाता है| वे अपकार जो दाण्डिक कार्यवाही की विषय वस्तु होती है उन्हें दाण्डिक अपकार कहा जाता है|

सॉमण्ड के अनुसार दण्ड के पाँच मुख्य उद्देश्य हैं 

(i) दण्ड द्वारा अपराधियों में भय व्याप्त करना

(ii) अपराधियों का प्रतिशोध की भावना से बदला लेना

(iii) अपराधों का निवारण करना

(iv) अपराधी को प्रायश्चित्त करने का अवसर प्रदान करना

(v) अपराधी में सुधार करना।

दण्ड के सिद्धान्त –

सॉमण्ड ने दण्ड के उद्देश्यों के आधार पर दण्ड के निम्न सिद्धान्त प्रतिपादित किये है –

(i) प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त

इसे दण्ड का निवारणात्मक सिद्धान्त (Deterrent theory) भी कहा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य अपराधों की रोकथाम के लिए मनुष्य में दण्ड का भय उत्पन्न करना है। इस सिद्धान्त के अनुसार – लोगों को अपराधों से विरत रखने के लिए अपराधियों को कठोर दण्ड दिये जाने की अपेक्षा की जाती है ताकि लोगों में दण्ड का भय बना रहे और वे अपराध ना करें। 

पैटन के शब्दों में यह सिद्धान्त समाज के संरक्षण पर विशेष बल देता है और कैदियों के साथ ऐसे व्यवहार की अपेक्षा करता है कि दूसरे लोग विधि का उल्लघंन करने का साहस नहीं जुटा पायें। 

यही कारण है कि प्राचीन काल में अपराधियों को कठोरतम दण्ड दिये जाने का प्रचलन था, जैसे — सार्वजनिक तौर पर फाँसी लगाना, कोड़े लगाना, उबलते हुए तेल या पानी में डाल देना, दीवारों में चुन देना आदि। 

लेकिन वर्तमान समय में इस सिद्धान्त की कटु आलोचना की जाने लगी और यह धारण बनी कि कठोर दण्ड से अपराधों का निपटारा सम्भव नहीं है।

माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘राजेन्द्र प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश’ (ए.आई.आर. 1979 एस.सी. 916) के मामले में कहा गया है कि अनेक अपराधी ऐसे हैं जो कारावास के छूटते ही पुनः उसी प्रकार का अपराध कर बैठते हैं जिसके लिए उन्हें दण्डित किया गया| 

(ii) प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त

इसे दण्ड का प्रतिकारात्मक सिद्धान्त (Retributive theory) भी कहा जाता है । दण्ड का यह सिद्धान्त प्रतिशोध अर्थात् बदले की भावना पर आधारित है। इस सिद्धान्त अनुसार अपराधी को उसके अपराध के अनुपात में ही दण्ड दिया जाना चाहिये। 

कान्ट (Kant) के शब्दों में यह सिद्धान्त ‘जैसे को तैसा’ (tit for tat) की लोकोक्ति पर आधारित है। इस सिद्धान्त की यह मान्यता है कि – “जीवन के बदले जीवन, हाथ के बदले हाथ, पाँव के बदले पाँव, आँखे के बदले आँख एवं दाँत के बदले दाँत, का दण्ड दिया जाना चाहिये।”

प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त के उद्देश्य 

(i) दण्ड स्वयं में एक लक्ष्य है

(ii) अपराधी को उसके कृत्य का उसी के अनुरूप दण्ड मिलना ही चाहिये

(iii) अपराध से समाज में अपराधी के प्रति उपजे क्षोम को शान्त करने का यही एकमात्र उपाय है। 

लेकिन आलोचकों द्वारा इस सिद्धान्त की कटु आलोचना की गई है। सॉमण्ड का कहना है कि प्रतिशोध उपचार नहीं होकर अपराध में वृद्धि करने वाला कारक है। होम्स प्रतिशोध अथवा बदले की भावना को अपराध निवारक नहीं मानते हैं। 

(iii) प्रायश्चितत्ता का सिद्धान्त

प्रायश्चितत्ता का सिद्धान्त (Expiratory theory) का मुख्य आशय यह है कि अपराधी के अपने किये हुए कृत्य पर प्रायश्चित्त अर्थात् पश्चाताप हो। जब अपराधी को कारावास में बन्दी बनाया जाता है या उसे एकान्त कारावास का दण्ड दिया जाता है तो वहाँ उसे अपने आपराधिक कृत्य पर पायश्चित्त करने का अवसर मिलता है।

उससे अपराध का बोध होता है और आत्मग्लानि भी। वह भविष्य में फिर कभी ऐसा अपराध नहीं करने का संकल्प लेने की सोचता है और एक अच्छा नागरिक बनकर नये जीवन की शुरुआत की मानसिकता बनाता है। 

हीगल एवं कोहलर का मानना है कि दण्ड सहन करना विधि के उल्लघंन से उपजे ऋण की अदायगी करना है। अपराध के लिए दण्ड भोगकर अपराधी निर्दोष हो जाता है।

केस – जावेद अहमद बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र [(1985) 1 एस.सी.सी. 275]

इसमें यह कहा गया है कि यदि कोई नवयुवक अपराधी यह प्रतिज्ञा करता है कि यदि उसे जीवित रहने का एक अवसर प्रदान किया जाये तो वह अपना सम्पूर्ण जीवन मानव जाति की सेवा के लिए अर्पित कर देगा तो ऐसे अपराधी के मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में बदला जाना न्याय सम्मत होगा। लेकिन आलोचकों द्वारा इस सिद्धान्त की भी आलोचना की गई।

सॉमण्ड के अनुसार प्रायश्चित्त के भाव से पीड़ित व्यक्ति की क्षतिपूर्ति सम्भव नहीं है। यह एक रहस्यवादी सिद्धान्त है। पैटन का कहना है कि प्रायश्चित्त का सिद्धान्त नैतिक मूल्यों पर आधारित है, अत: यह विधि के क्षेत्र के बाहर की विषय-वस्तु है।

राज्य का कार्य अपराधियों को उनके आपराधिक कृत्य का दण्ड देना है। सामाजिक खतरों के विरुद्ध ऐसे उपाय तलाशना नहीं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह सिद्धान्त व्यवहारिक नहीं रह गया है। 

(iv) निरोधात्मक सिद्धान्त

न्याय प्रशासन का मुख्य उद्देश्य अपराधों का निवारण करना है और इसी उद्देश्य की पूर्ति दण्ड का निरोधात्मक सिद्धान्त (Preventive theory) करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड भोगने के पश्चात् अपराधी में अपराधों के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है और वह अपराधों से घृणा करने लगता है।

दण्ड से अपराध कारित करने की इच्छा शक्ति भी समाप्त हो जाती है जिससे अपराधी वापिस अपराध की ओर नहीं जाता है। 

पैटन (Paton) के शब्दों में  “निरोधात्मक दण्ड भविष्य में अपराध कारित करने की शक्ति को समाप्त कर देता है।”

बेकारिया के अनुसार  “दण्ड की कठोरता एक अपराध के दण्ड से बचने के लिए अनेक अपराध कारित करने की प्रेरणा देती है।” 

मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास, देश निकाला, सम्पत्ति का समपहरण आदि ऐसे दण्ड हैं जो अपराधी को भविष्य में अपराध कारित करने के लिए अक्षम बना देते हैं। यही कारण है कि उपयोगितावादी विचारक जेरेमी बेन्थम, जॉन स्टुअर्ट मिल आदि ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। लेकिन यह सिद्धान्त भी आलोचना का पात्र बना है|

आलोचकों का मानना है कि यह सिद्धान्त अपराधों को समाज से पृथक् रखने पर बल देता है, उसके सुधार पर नहीं। किसी अपराधी को आखिर कब तक कारावास में बन्दी बनाकर रखा जा सकता है उसे समाज में लौटने एवं सुधरने का अवसर दिया जाना आवश्यक है। 

(v) सुधारात्मक सिद्धान्त

दण्ड का सुधारात्मक सिद्धान्त (Reformative theory) बीसवीं सदी की एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। यह सिद्धान्त समाज के संरक्षण की अपेक्षा व्यक्ति के सुधार पर अधिक बल देता है। इसके अनुसार अपराधों का निवारण दण्ड से नहीं; अपितु हृदय परिवर्तन से किया जा सकता है। यह दण्ड में अधिक विश्वास नहीं करता है।

यह सत्य भी है, क्योंकि अपराध के अनेक कारण होते हैं। कई बार अपराधी नहीं चाहते हुए भी अपराध कर बैठता है। कई बार विवशता, भावावेश, प्रकोपन, उत्तेजना आदि के कारण अपराध हो जाते हैं और ऐसे अपराध कारित होने के बाद स्वयं अपराधी के मन में प्रायश्चित्त होता है और वह सुधरना चाहता है। उसमें अपराध की पुनरावृत्ति का भाव नहीं होता। वह केवल यही चाहता है कि उसे सुधरने का अवसर प्रदान किया जाये। 

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा कि  “अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं।” अपराध से घृणा कर अपराधी को सुधारा जा सकता है। यदि अपराधी को दण्डित नहीं किया जाकर उसके साथ सम्मान जनक व्यवहार किया जाये तो वह भी एक अच्छा नागरिक बन सकता है। 

केस – रतनलाल बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (.आई.आर. 1965 एस.सी. 444)

इस मामले में कहा गया है कि न्याय प्रशासन का उद्देश्य दण्ड देना नहीं; अपितु अपराधी में सुधार लाना है। यह उदार सुधारवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। 

धर्मशास्त्रों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति (अध्याय 7. 129) में यह कहा गया है कि –

वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्विग्दण्डं तदन्तरम्। 

तृतीयं धन दण्डं तु वधदण्डत्तमः परम्।

अर्थात् प्रथम बार अपराध करने पर वाग्दण्ड, दूसरी बार अपराध करने पर दिग्दण्ड, तीसरी बार अर्थदण्ड एवं अन्त में वध दण्ड दिया जाना चाहिये। 

इस प्रकार धर्मशास्त्रों एवं न्यायिक-निर्णयों में दण्ड के सुधारवादी सिद्धान्त का व्यापक समर्थन किया गया है अपराधियों के लिए

(i) भर्त्सना, परिवीक्षा एवं पैरोल पर छोड़े जाने

(ii) सुधार गृहों में रखे जाने

(ii) शारीरिक, बौद्धिक एवं नैतिक प्रशिक्षण दिये जाने

(iv) समाज में पुनर्वास की व्यवस्था किये जाने आदि की अनुशंसा की गई है। 

यद्यपि इस सिद्धान्त की भी आलोचना की गई है और यह कहा गया है कि सुधारात्मक सिद्धान्त से –

(क) अपराधियों के मन में भय समाप्त हो जायेगा

(ख) अपराधी और अधिक अपराध करने की ओर प्रवृत्त होंगे

(ग) कारागृह सुखद आवास गृह बन जायेंगे

(घ) अपराध करना एवं लाभप्रद व्यवसाय बन जायेगा, आदि|

लेकिन इन सबके बावजूद सुधारात्मक सिद्धान्त दण्ड का एक परिष्कृत स्वरूप है। 

महत्वपूर्ण आलेख

सेशन न्यायालय के समक्ष अपराधों के विचारण की प्रक्रिया | Sec. 225 to 237 CrPC

विधिक/ कानूनी अधिकारों का वर्गीकरण | Classification of Legal Right in hindi

संक्षिप्त विचारण क्या होता है तथा किन अपराधों का संक्षिप्त विचारण किया जाता है | Sec. 283-288 of BNSS

Reference – Jurisprudence & Legal Theory (14th Version, 2005)

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