इस आलेख में पूर्व-निर्णय कि परिभाषा, इसके विभिन्न प्रकार एंव महत्त्व तथा पूर्व निर्णय के गुण-दोषों का संक्षेप में वर्णन किया गया है, यह आलेख विधि के छात्रों, आमजन एंव अधिवक्ताओ के लिए काफी उपयोगी है|
न्यायिक पूर्व निर्णय क्या है?
सामान्य विधिक भाव में पूर्व-निर्णय का तात्पर्य, पूर्व न्याय, नजीर अथवा दृष्टान्त से है, जिसका विधि के एक स्रोत के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रायः सभी विधिक व्यवस्थाओं में न्यायिक पूर्व निर्णयों की अहम् भूमिका रही है। निर्णीतानुसरण के रूप में पूर्व-निर्णयों की आबद्धता कॉमन लॉ विधिक व्यवस्था की तो अपनी पहचान रही है।
सॉमण्ड ने तो यहाँ तक कहा है कि – इंग्लैण्ड में एक न्यायिक पूर्व-निर्णय प्राधिकार के साथ बोलता है। यह विधि का साक्ष्य मात्र नहीं होकर एक स्रोत है जिसका अनुसरण करने के लिए न्यायालय बाध्य है। पूर्व-निर्णय का सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से न्यायिक विनिश्य से है इसलिए इसे कभी कभी न्यायाधीश निर्मित विधि भी कहा जाता है|
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पूर्व निर्णय कि परिभाषा
न्यायिक पूर्व-निर्णय की विभिन्न विधिशास्त्रियों द्वारा भिन्न- भिन्न परिभाषायें दी गई है; यथा –
सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार – न्यायिक पूर्व-निर्णय से अभिप्राय न्यायालय द्वारा दिये गये ऐसे निर्णय से है जिसमें विधि का कोई सिद्धान्त निहित होता है। पूर्व-निर्णय में निहित सिद्धान्त जो उसे प्राधिकारिता प्रदान करता है, निर्णयाधार कहलाता है।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि – न्यायिक पूर्व-निर्णय न्यायालय द्वारा निर्धारित ऐसे सिद्धान्त होते हैं जो भविष्य में न्यायालय के समक्ष निर्णय हेतु आने वाले समान मामलों में लागू किये जाते हैं।
प्रो. कीटन (Prof. Keetan) के अनुसार – न्यायिक पूर्व-निर्णय न्यायालय द्वारा दिये जाने वाले ऐसे न्यायिक विनिश्चय है जिनके साथ कुछ प्राधिकार जोड़ दिये जाते हैं।
ग्रे (Gray) के अनुसार – न्यायिक पूर्व निर्णय से अभिप्राय है उसके अन्तर्गत कही गई या की गई ऐसी प्रत्येक बात जो पश्चात्वर्ती आचरण के लिए एक नियम प्रस्तुत करती है।
ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के अनुसार – पूर्व- निर्णय एक ऐसा पूर्ववर्ती दृष्टान्त या मामला है जो पश्चात्वर्ती मामलों के लिए उदाहरण या नियम के रूप में स्वीकार किया जाता है या जिसके द्वारा समान कार्य या परिस्थितियों को समर्थित या उचित ठहराया जा सकता है।
ब्लैकस्टोन का कहना है कि – पूर्ववर्ती निर्णयों के प्रयोग द्वारा न्याय की तुला संतुलित एवं स्थिर बनी रहती है। जो बातें पहले अनिश्चित रहती है, वे न्यायिक पूर्व-निर्णयों के द्वारा विनिश्चत हो जाती है।
बैन्थम ने पूर्व निर्णयों को न्यायाधीशों द्वारा निर्मित नियम अथवा न्यायाधीशों द्वारा निर्मित विधि (Judge made law) कहा है जबकि ऑस्टिन इसे न्यायपालिका की विधि (Judiciary’s law) के नाम से सम्बोधित करते हैं।
इस तरह पूर्व-निर्णय एक ऐसा निर्देश है जो भावी आचरण का आधार हो सकता है। इसे एक ऐसा सिद्धान्त भी कहा जा सकता है जो भविष्य में न्यायालय के समक्ष निर्णय हेतु आने वाले समान मामलों में लागू किया जाता है।
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पूर्व-निर्णय के प्रकार
मुख्यतया पूर्व-निर्णय दो प्रकार के होते है यानि इसे दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
(i) प्राधिकारिक पूर्व-निर्णय (Authoritative precedent) –
प्राधिकारिक पूर्व-निर्णय से तात्पर्य ऐसे पूर्व निर्णय से है जिसे न्यायाधीशों द्वारा अवश्यमेव माना जाता है चाहे वे उससे सहमत हो या न हो, उच्चतम न्यायालयों के निर्णय सभी अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा माने जाते हैं, इसलिये कि वे प्राधिकारिक पूर्व-निर्णय हैं।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्राधिकारिक पूर्व-निर्णयों बाध्यकारी प्रभाव रखते है और इनके सम्बन्ध में न्यायाधीशों के स्वविवेक की कोई गुंजाइश नहीं रहती है। इसे विधि का स्रोत माना जाता है।
(ii) अनुनयी या प्रेरक पूर्व-निर्णय (Persuasive precedent) –
अनुनयी पूर्व-निर्णय से तात्पर्य ऐसे पूर्व निर्णय से है जिसे मानने के लिए न्यायालय आबद्ध नहीं होते हैं अर्थात यह बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखते है। ऐसे पूर्व-निर्णयों को केवल ध्यान में रखते हुए समुचित महत्त्व प्रदान किया जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर एक उच्च न्यायालय के निर्णय को दूसरे उच्च न्यायालय द्वारा मानना या न मानना उसके स्वविवेक पर निर्भर करता है।
इस कारण सॉमण्ड ने अनुनयी पूर्व-निर्णय को विधि का विधिक स्रोत नहीं मानकर इसे ऐतिहासिक स्रोत (Historical source) माना है। सॉमण्ड ने प्राधिकारिक पूर्व-निर्णय को भी दो भागों में वर्गीकृत किया है –
(क) निरपेक्ष प्राधिकारिक पूर्व-निर्णय एवं (ख) सशर्त प्राधिकारिक पूर्व-निर्णय।
निरपेक्ष प्राधिकारिक पूर्व-निर्णय न्यायालयों पर आवश्यक रूप से बाध्यकारी होते है तथा अयुक्तियुक्त होने पर भी इन्हें न्यायालय अस्वीकार नहीं कर सकते है|
जबकि इसके विपरीत सशर्त प्राधिकारिक पूर्व-निर्णयों को न्यायालयों द्वारा कुछ परिस्थितियों में मानने से इन्कार किया जा सकता है।
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सॉमण्ड के अनुसार पूर्व-निर्णय प्रकार
सॉमण्ड ने पूर्व-निर्णय के स्वरूप कि दृष्टि से इसे दो भागों में विभाजित किया है –
(क) मौलिक पूर्व-निर्णय (Original Precedents) –
मौलिक पूर्व-निर्णय से तात्पर्य ऐसे निर्णय से है, जिनमें न्यायालयों द्वारा नये नियमों का निर्धारण किया जाता है अर्थात मौलिक पूर्व-निर्णय विधि के लिए नए नियमों का निर्धारण करते है| माननीय न्यायालय द्वारा जब नई नई व्याख्याओं द्वारा नए नियमों का प्रतिपादन किया जाता है, तब मौलिक पूर्व-निर्णय का सृजन होता है|
मामला – केशवानन्द भारती बनाम स्टेट ऑफ केरल (ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 1461)
इस सम्बन्ध में यह प्रमुख मामला है जिसमे न्यायालय द्वारा यह नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है कि, संसद द्वारा संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं किया जा सकता है जो उसके आधारभूत ढाँचे (Basic structure) को नष्ट करता हो।
(ख) घोषणात्मक पूर्व-निर्णय (Declaratory Precedents) –
घोषणात्मक पूर्व-निर्णय से तात्पर्य ऐसे निर्णय से हैं जिनमें नई विधि का सृजन नहीं किया जाकर पूर्व से विद्यमान विधि के नियमों की ही घोषणा की जाती है। ऐसे पूर्व-निर्णय अधिकांशतः रूढ़ियों एवं प्रथाओं पर आधारित होते हैं तथा इनकी संख्या मौलिक पूर्व-निर्णय कि संख्या की तुलना में कहीं अधिक होती है|
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पूर्व-निर्णय के गुण (merits)
(i) पूर्व-निर्णय विधि की निश्चितता को प्रबल बनाता है जो न्याय निर्णयन के लिए आवश्यक है।
(ii) इसमें न्याय का गुण समाहित है, क्योंकि यह समान प्रकृति के मामलों में समान रूप से लागू होता है।
(iii) यह न्यायाधीशों के न्याय निर्णयन के कार्य को आसान बना देता है और उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि करता है।
(iv) यह न्यायाधीशों के व्यक्तिगत राग में द्वैष तथा भेदभाव की भावना पर अंकुश लगाता है।
(v) इसमें लचीलापन होता है अतः यह समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप विधि की व्याख्या में सहायक होता है।
(vi) पूर्व-निर्णयों पर भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि इनमें न्यायाधीशों के अनुभव का निचोड़ होता है।
राजेन्द्र प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि यदि न्यायिक पूर्व-निर्णयों का उचित रूप से प्रयोग किया जाये तो विधिक तर्क के तौर पर इनका काफी महत्त्व है। (ए.आई.आर. 1979 एस.सी. 916)
पूर्व-निर्णय के दोष (demerits)
(i) पूर्व निर्णय पर आधारित विधि अपूर्ण होती है, क्योंकि इसमें न्यायाधीशों द्वारा उन्हीं आधारों पर विचार किया जाता है जो उनके समक्ष विचराधीन मामलों में उत्पन्न होते हैं।
(ii) पूर्व निर्णय का विकास मुकदमेबाजी पर निर्भर करता है। यदि कोई महत्त्वपूर्ण विवाद न्यायालय के समक्ष नहीं आता है तो उस पर पूर्व- निर्णय का अभाव भी रहता है।
(iii) कई बार गलत रिपोर्टिंग से अन्याय होने की सम्भावनायें प्रबल हो जाती हैं।
(iv) कई बार निर्णय मनमाने अर्थात् स्वेच्छाचारी (arbitrary) भी हो सकते हैं।
(v) कई बार निर्णय जल्दबाजी में किये जाने से उनमें विधि की सी परिपक्वता नहीं होती है।
(vi) पूर्व निर्णय की प्रकृति कार्योत्तर (ex post facto) होने से नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध है।
(vii) पूर्व निर्णय की प्रयोज्यता के नियम निश्चित नहीं होने से उन्हें लागू करने में कठिनाई आती है।
पूर्व-निर्णयों का महत्त्व
विधि के सृजन एवं न्याय निर्णयन में न्यायिक पूर्व निर्णयों का शुरुआत से ही महत्त्व रहा है। कॉमन लॉ विधिक व्यवस्था में तो पूर्व निर्णयों की बाध्यता उसकी पहचान रही है।
उच्चतर न्यायालयों के निर्णय समान प्रकृति के मामलों में अधीनस्थ न्यायालयों का मार्ग दर्शन करते हैं तथा उनके न्याय निर्णयन के कार्य को आसान बना देते हैं।
विभिन्न विधि पत्र-पत्रिकाओं एवं जर्नलों में लिपिबद्ध न्यायिक निर्णय अधिवक्ताओं के लिए भी काफी सहायक होते हैं। कुछ पूर्व निर्णय बाध्यकारी प्रकृति के होते हैं जिनका अनुसरण किया जाना अधीनस्थ न्यायालयों के लिए आवश्यक होता है।
उदाहरणार्थ – इंग्लैण्ड की लार्ड सभा (House of Lords) तथा भारत के उच्चतम न्यायालय के निर्णय सभी अन्य न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं, यद्यपि वे स्वयं उनसे बाध्य नहीं होते है।
इसके विपरीत कुछ निर्णय अनुनयी प्रकृति के होते हैं जिन्हें मानने के लिए न्यायालय बाध्य नहीं होते, फिर भी न्यायालय किसी सही निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए उनकी मदद ले सकते हैं।
पूर्व निर्णय के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए हरमेश मेरिन्स लिमिटेड बनाम केपसोल मेरिटाईम पार्टनर्स के मामले में यह कहा गया है कि उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ का निर्णय एकल पीठ पर आबद्धकर होता है। (ए.आई.आर. 2016 एन.ओ.सी. 732 गुजरात)
यद्यपि डायसी एवं एलेन ने न्यायिक पूर्व-निर्णयों की यह कहते हुए आलोचना की है कि न्यायिक निर्णयों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इन्हें ढूंढ पाना अत्यन्त कठिन कार्य है तथा बढ़ती हुई विधि पत्र-पत्रिकाओं से त्रुटिपूर्ण रिपोर्टिंग की सम्भावनाएँ भी प्रबल हो गई हैं।
इन सबके बावजूद भी न्यायिक पूर्व निर्णयों के गुणों को देखते हुए विधि के सृजन में इनके महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता है।
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