हेल्लो दोस्तों, इस लेख में निर्धन व्यक्ति कौन है तथा निर्धन व्यक्ति किस प्रकार वाद न्यायालय में पेश कर सकता है यानि निर्धन व्यक्ति द्वारा वाद दायर करने के लिए सिविल प्रक्रिया सहिता, 1908 द्वारा निर्धारित प्रक्रिया को आसान शब्दों में समझाने का प्रयास किया गया है|

परिचय – निर्धन व्यक्ति

जैसा की हम जानते है की भारत की काफी जनसंख्या गरीबी दर में गुजारा करती है, जिस कारण से न्यायालय में मुकदमेबाजी के सभी खर्चों को वहन करना उनके लिए काफी मुश्किल रहता है और इस तरह वे अपने अधिकारों का प्रवर्तन कराने से वंचित हो जाते है,

इस समस्या के समाधान को ध्यान में रखते हुए समाज के वंचित एंव गरीब वर्गों के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39A के तहत यह व्यवस्था की गई है कि राज्य का कोई भी व्यक्ति मात्र निर्धनता/गरीबी के कारण न्याय से वंचित ना रहे।

संविधान का अनुच्छेद 39ए समाज के कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करने के साथ-साथ समाज के गरीब और कमजोर वर्गों को मुफ्त कानूनी सहायता भी प्रदान करता है तथा सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करता है।

इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 14 और 22 (1) में भी यह प्रावधान किया गया है कि, कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित की जाए और न्याय को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक कानूनी प्रणाली प्रदान की जाए जो राज्य की ओर से अनिवार्य होगी।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में भी इसी प्रकार की व्यवस्था करते हुए निर्धन व्यक्तियों को न्याय के अवसर सुलभ कराये गये है। इस सम्बन्ध में संहिता के आदेश 33 में निर्धन व्यक्तियों द्वारा वाद’ (Suits by indigent persons) का प्रावधान किया गया है।

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निर्धन व्यक्ति कौन है

संहिता के आदेश 33 के नियम 1 में यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी निर्धन व्यक्ति द्वारा वाद संस्थित किया जा सकता है। इसके स्पष्टीकरण में शब्द ‘निर्धन व्यक्ति’ (indigent person) को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार निर्धन व्यक्ति से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है –

(क) जिसके पास किसी डिक्री के निष्पादन में कुर्की से मुक्त तथा वादग्रस्त सम्पत्ति को छोड़कर, किसी वाद के लिए विधि द्वारा विहित शुल्क संदाय करने हेतु पर्याप्त साधन (sufficient means) नहीं हो, अथवा

(ख) जहाँ न्यायालय शुल्क विहित नहीं हो, वहाँ किसी डिक्री के निष्पादन में कुर्की से मुक्त अथवा वादग्रस्त सम्पत्ति को छोड़कर, उसके पास ₹ 1000/- (एक हजार रुपये) से अधिक की सम्पत्ति नहीं हो।

नियम 1 में प्रयुक्त शब्द ‘व्यक्ति’ में न्यायिक व्यक्ति (juristic person) भी शामिल है। एक न्यायिक व्यक्ति के रूप में मूर्ति निर्धन व्यक्ति की हैसियत से वाद ला सकती है। इसी तरह एक भागीदारी फर्म द्वारा भी निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद दायर किया जा सकता है।

केस – ओ.पी. नीलम होजरी वर्ल्स बनाम स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, ए. आई. आर. 1994 हिमाचल प्रदेश 11

शब्द ‘पर्याप्त साधन’ (sufficient means) से तात्पर्य पर्याप्त सम्पत्ति से नहीं है, इसमें ऐसे साधन शामिल नहीं है जिन पर पक्षकार और उसके परिवार का जीवन निर्वाह निर्भर करता हो।

केस – फातिमुन्निसा बेगम बनाम डॉ. हिमावती, ए. आई. आर. 2000 आन्ध्रप्रदेश 5

इस प्रकरण अनुसार जहाँ कोई महिला अत्यन्त निर्धन हो, पति की आर्थिक स्थिति अत्यधिक कमजोर हो तथा उसके भरण-पोषण के लिए आय के पर्याप्त साधन नहीं हो, वहाँ उसके द्वारा निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद दायर किये जाने को उचित ठहराया गया है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि निर्धन के रूप में वाद संस्थित करने के लिए किसी अवयस्क व्यक्ति की सम्पत्ति में उसके पिता को सम्पत्ति को सम्मिलित नही माना गया। है।

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निर्धन व्यक्ति द्वारा वाद पेश करने की प्रक्रिया

आदेश 33 के नियम 1 क, 2, 3 व 4 में निर्धन व्यक्ति के रूप में बाद संस्थित करने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। इनके अनुसार –

(क) निर्धन व्यक्ति के तौर पर वाद प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति द्वारा न्यायालय के समक्ष एक आवेदनपत्र प्रस्तुत किया जायेगा जिसमें बाद में के वादपत्र की विशिष्टियों (particulars) का उल्लेख किया जायेगा।

(ख) उसके साथ आवेदक की समस्त चल एवं अचल सम्पत्तियों का उनके मूल्य सहित ब्यौरा दिया जायेगा।

(ग) ऐसा आवेदन पत्र वादपत्र की तरह हस्ताक्षरित एवं सत्यापित (signed and verified) किया जायेगा। (नियम 2 )

(घ) ऐसा आवेदन पत्र स्वयं आवेदक द्वारा प्रस्तुत किया जायेगा और उसे स्वीय उपस्थिति से मुक्ति प्रदान किये जाने की दशा में उसके प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा प्रस्तुत किया जा सकेगा। (नियम 3 )

(ङ) ऐसा आवेदन किये जाने पर आवेदक के निर्धन होने के बारे में न्यायालय के मुख्य मंत्रालयिक अधिकारी द्वारा जाँच की जायेगी। (नियम 1 क)

(च) ऐसे आवेदक का न्यायालय द्वारा परीक्षण भी किया जा सकेगा। ऐसा परीक्षण किया गया है। इसके अनुसार प्रतिवादी अथवा सरकारी अधिवक्ता की ओर से आवेदन किये जाने पर वादी को 7 दिनों की सूचना देते हुए निम्नांकित आधारों पर अनुमति को वापस लिया जा सकेगा –

(क) यह कि वादी का आचरण वाद के दौरान अनुचित एवं तंग करने वाला (improper or vexatious) रहा है,

(ख) यह कि वादी के पास पर्याप्त साधन है जिसके कारण उसे निर्धन नहीं माना जाना चाहिए।

(ग) यह कि किसी व्यक्ति ने वादी के साथ किये गये करार के अन्तर्गत वाद की विषय-वस्तु में हित अर्जित कर लिया है।

इस सम्बन्ध में बाबू बनाम बानुमथी मेनन (ए. आई. आर. 2005 केरल (155) का एक उद्धरणीय मामला है। इसमें संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के लिए निर्धन के रूप में वाद संस्थित करने की अनुमति इसलिए प्रदान नहीं की गई, क्योंकि –

(i) वादी द्वारा अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का विवरण नहीं दिया गया था, तथा

(ii) वादी द्वारा यह संदर्शित नहीं किया गया था कि वह बकाया क्रय मूल्य देने के लिए तैयार एवं इच्छुक है।

न्यायालय शुल्क की वसूली

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि निर्धन के रूप में संस्थित किये जाने वाले वादों में भी अंततः न्यायालय शुल्क देना ही होता है। इस सम्बन्ध में नियम 10 से 12 तक में निम्नांकित व्यवस्था की गई है –

(1) जहाँ वादी निर्धन के रूप में संस्थित वाद में सफल रहता है वहाँ उसे न्यायालय शुल्क देना होगा। ऐसा न्यायालय शुल्क वाद में की विषय वस्तु पर प्रथम भार (first charge) माना जायेगा।

(2) निम्नांकित अवस्थाओं में भी वादी द्वारा न्यायालय शुल्क देय (payable) होता है –

(क) जहाँ वह वाद में असफल रहता है;

(ख) यदि वह निर्धन नहीं रह जाता है;

(ग) यदि उसके द्वारा वाद को वापस ले लिया जाता है;

(घ) यदि उसका वाद उसकी अनुपस्थिति के कारण या आदेशिका नहीं दिये जाने के कारण खारिज कर दिया जाता है, अथवा

(ङ) यदि वाद का वादी की मृत्यु के कारण उपशमन हो जाता है।

उपर्युक्त सभी अवस्थाओं में न्यायालय शुल्क देना होता है, लेकिन ऐसा न्यायालय शुल्क कार्यवाही की समाप्ति पर ही वसूल किया जा सकता है। (जुल्फिकार हुसैन बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश, ए. आई. आर. 1981 इलाहाबाद 408)

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संदर्भ – बुक सिविल प्रक्रिया संहिता चतुर्थ संस्करण (डॉ. राधा रमण गुप्ता)