हेल्लो दोस्तों, इस लेख में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 4 : उपधारणा (Presumption) का उल्लेख किया गया है, इसके साथ ही धारा के तहत उपधारणा कर सकेगाउपधारणा करेगा एवं निश्चायक सबूत से क्या तात्पर्य है तथा उपधारणा के प्रकार | Presumption in hindi को आसान भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है, उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –

उपधारणा क्या है | What is the Presumption

साक्ष्य विधि में उपधारणा (Presumption) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। साक्ष्य विधि के अनुसार सामान्यतः किसी भी तथ्य को साक्ष्य द्वारा साबित करना होता है। लेकिन कभी-कभी कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जो बिना साक्ष्य के ही उप-धारणा के आधार पर साबित मान लिये जाते हैं। उपधारणा एक तथ्य का अनुमान है जो किसी अन्य जाने हुए या साबित किये हुए तथ्य से निकाला जाता है|

रसेल के अनुसार  जब हम किसी तथ्य के अस्तित्व के आधार पर किसी अन्य तथ्य का अनुमान लगा लेते है, तब यह अनुमान उपधारणा करना कहलाती है|

माननीय न्यायालय जब किसी तथ्य के अस्तित्व को मान लेता है, जब तक उसका खंडन ना किया गया हो, उपधारणा (Presumption) कही जाती है| उप-धारणा जिस पक्षकार के पक्ष में की जाती है वह पक्षकार उस तथ्य को साबित करने के भार से बच जाता है| उपधारणा कोई प्रमाण नहीं होती है|

उपधारणा का शाब्दिक अर्थ  “बिना जाँच या सबूत के सत्य मान लेना” के होते है, यह एक कल्पना है जो कि विपरीत साक्ष्य न मिलने पर कर ली जाती है|

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उपधारणा की परिभाषा | Definition of Presumption

बेस्ट के अनुसार  जहाँ किसी तथ्य की सत्यता या असत्यता के बारे में स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता हो, वहाँ किसी स्वीकृत या स्थापित तथ्य से, सम्भाव्य तर्क के आधार पर उसकी सत्यता या असत्यता के बारे में सकारात्मक या नकारात्मक अनुमान लगाया जाना ही उपधारणा है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 4 में उपधारणा की कोई विशेष परिभाषा नहीं दी गई है, जबकि इसमें उपधारणा कर सकेगाउपधारणा करेगा एंव निश्चायक सबूत के बारें में बताया गया है, जिसके आधार पर उप-धारणा से किसी तथ्य के अस्तित्व के विषय में सकारात्मक या नकारात्मक अनुमान अभिप्रेत है,

जो अनुमान न्यायालय तर्क के आधार पर किसी अन्य तथ्य से निकालता है जो तथ्य सर्वस्वीकृति हो या जिसकी न्यायिक अवेक्षा की जा सके या जो न्यायालय को समाधान प्रदान करने वाले रूप से साबित कर दिया गया है|

उपधारणा का तात्पर्य  किसी तथ्य के अस्तित्व का एक ऐसा निर्णय या अनुमान है जो बिना साक्ष्य के, किसी कुछ दूसरे तथ्य के आधार पर, जो पहले से ही साबित है या जो वर्तमान में साबित मान लिया गया है, से होता है। यह एक ऐसा अनुमान है जो विपरीत साक्ष्य न मिलने पर किया जाता है तथा उप-धारणा में सबूत या तथ्य की जाँच की भी आवश्यकता नहीं होती है|

उपधारणा (Presumption) के सम्बन्ध में बीर सिंह बनाम बचनी के प्रकरण में यह कहा गया है कि, कोई तथ्य जो कि संदेह से युक्त है उसका निर्णय दुसरे तथ्य के साबित होने से किया जा सकता है| (ए.आई.आर. पंजाब 800)

उदाहरण  यदि किसी स्थान से धुआं निकल रहा तब उसे देखकर हम बिना किसी साक्ष्य के तुरन्त यह अनुमान लगा लेते है की वहाँ अवश्य ही आग लगी होगी अथवा आग है, यही उप-धारणा कहलाती है|

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उपधारणा के प्रकार (Type of Presumption in Hindi)

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 4 में तीन तरह की उप-धारणा है, जो निम्न है –

उपधारणा कर सकेगा (May presume)

धारा के अनुसार  “जहाँ कहीं इस अधिनियम द्वारा यह उपबन्धित है कि न्यायालय किसी तथ्य की उप-धारणा कर सकेगा, वहाँ न्यायालय या तो ऐसे तथ्य को साबित हुआ मान सकेगा, यदि और जब तक वह नासाबित नहीं किया जाता है या उसके सबूत की माँग कर सकेगा।“

इस प्रकार यह न्यायालय को किसी तथ्य के बारे में अनुमान करने अथवा न करने का विवेकाधिकार प्रदान करता है, इसके अन्तर्गत जहाँ न्यायालय किसी तथ्य की उप-धारणा कर सकेगा, वहाँ वह –

(i) ऐसे तथ्य को साबित समझ लें, जब तक कि वह नासाबित नहीं कर दिया जाता, या

(ii) ऐसे तथ्य के सबूत (Proof) की माँग करें।

न्यायालय किसी तथ्य की उप-धारणा करते समय उस तथ्य को साबित हुआ मान सकता है, धारा 86, 87, 88, 90, 114, 118 इसके अन्तर्गत आती है|

उदाहरण  जब किसी सम्बंधित व्यक्ति के बारे में सात वर्ष या उससे अधिक अवधि तक कुछ नहीं सुना जाता है, जिसके बारे में, यदि वह जीवित होता तो सुना जाता, तब न्यायालय यह उप-धारणा करेगा कि उस सम्बंधित व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी है, ऐसी मृत्यु को ‘सिविल मृत्यु’ (Civil death) भी कहा जाता है।

इस सम्बन्ध में सीताराम बनाम ननकू का एक अच्छा मामला है जिमसे यह कहा गया कि, “जो व्यक्ति किसी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करता है, वह स्वेच्छा से करता है| (2 ए.एल.जे. 833)

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उपधारणा करेगा (Shall presume)

साक्ष्य अधिनियम की धारा के अनुसार  “जहाँ कहीं इस अधिनियम द्वारा यह निर्दिष्ट है कि न्यायालय किसी तथ्य की उपधारणा करेगा, वहाँ न्यायालय ऐसे तथ्य को साबित मानेगा यदि और जब तक वह नासाबित नहीं किया जाता है।”

इस प्रकार “उपधारणा करेगा” से अभिप्रेत है कि – न्यायालय किसी तथ्य को साबित हुआ मानने के लिए बाध्य है, जब तक कि यह नासाबित नहीं कर दिया गया हो। आसान शब्दों में “उपधारणा करेगा” से तात्पर्य – अखण्डनीय एवं निश्चायक उपधारणा है । (ए.आई.आर. 1927 इलाहाबाद 810)

उदाहरण  यदि हत्या के अपराध का कोई अभियुक्त अपने आपको विकृत- चित्त बताते हुए अपवादों के अन्तर्गत आने का अभिकथन करता है, तब उसे ऐसी विकृत- चित्तता को साबित करना होगा, क्योंकि न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उप-धारणा करता है।

श्रीधर डे बनाम कल्पना डे के प्रकरण में न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया  कि “जहाँ विवाह के समारोहपूर्वक सम्पन्न होने का तथ्य साबित हो जाता है, वहाँ न्यायालय द्वारा यह उप-धारणा की जायेगी कि, विवाह के सभी अनुष्ठान पूरे कर दिये गये हैं, लेकिन तब जब कि इसी आधार पर विवाह की वैधानिकता एवं विधिमान्यता प्रश्नास्पद न हो। (ए.आई.आर. 1987, कलकता 213)

उप-धारणा कर सकेगा एवं उप-धारणा करेगा के बीच मुख्य अन्तर न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति का है| ‘उप-धारणा कर सकेगा’ में न्यायालय को उप-धारण करने या न करने की विवेकाधीन शक्ति प्राप्त है, जबकि “उप-धारणा करेगा” में ऐसी कोई विवेकाधीन शक्ति प्राप्त नहीं है।

निश्चायक सबूत (Conclusive Proof)

सभी उपधारणाओं में “निश्चायक सबूत” महत्वपूर्ण एवं प्रबलत्तम है। इसे नासाबित करने के लिए न्यायालय विरोधी पक्षकार को स्वीकृति नहीं देता और ना वादी को उस तथ्य को साबित करना होता है|

इस अधिनियम की धारा के अनुसार  “जहाँ कि इस अधिनियम द्वारा एक तथ्य किसी अन्य तथ्य का निश्चायक सबूत घोषित किया गया है, वहां न्यायालय उस एक तथ्य के साबित हो जाने पर उस अन्य को साबित मानेगा और उसे नासाबित करने के प्रयोजन के लिए साक्ष्य दिये जाने की अनुज्ञा नहीं देगा।”

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 निश्चायक सबूत का एक अच्छा उदाहरण है, इसमें यह कहा गया है कि –

“यह तथ्य कि किसी व्यक्ति का जन्म उसकी माता और किसी पुरुष के बीच विधिमान्य विवाह के कायम रहते हुए या उसका विघटन होने के उपरान्त माता के अविवाहित रहते हुए 280 दिन के भीतर हुआ था, इस बात का निश्चायक सबूत (Conclusive proof) होगा कि वह उस पुरुष का धर्मज पुत्र है, जब तक कि यह दर्शित न किया जा सके कि विवाह के पक्षकारों की परस्पर पहुँच ऐसे किसी समय नहीं थी जब उसका गर्भाधान किया जा सकता था।”

इस प्रकार निश्चायक सबूत ऐसा अनुमान है जो किसी भी विपरीत साक्ष्य द्वारा अन्यथा साबित नहीं की जा सकती है। यह विधि की अखंडनीय उपधारणा है जिसे न्यायालय अन्तिम मानता है| इस प्रकार “विधि की अखंडनीय उप-धारणा” को निश्चायक सबूत भी कहा जाता है

साक्ष्य अधिनियम में उपधारणा के प्रकार

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में सामान्यत उपधारणायें तीन प्रकार की होती है – (i) तथ्य की उप-धारणा (ii) विधि की उप-धारणा (iii) तथ्य एवं विधि की मिश्रित उप-धारणा।

तथ्य की उपधारणा | Presumption of Fact 

ऐसा अनुमान जो प्राकृतिक रूप से प्रकृति के क्रम के निरिक्षण और मानवीय मस्तिष्क की रचना से निकाले जाते है, तथ्य की उपधारणा कहलाते है| तथ्य की उपधारणाओं को लैटिन में Prijamityon Hominis कहा जाता है|

यह उपधारणा असंख्य है, क्योंकि मानव जीवन में अनगिनत परिस्थितियां होई है| तथ्य की उपधारणा “उपधारणा कर सकेगा” के समान है और यह उपधारणा सदैव खंडनीय होती है, इसका वर्णन अधिनियम की धारा 86, 87, 88, 90 व 114 में किया गया है|

धारा के अनुसार  न्यायालय को यह अधिकार होता है कि वह अपने विवेक से किसी तथ्य के आधार पर उपधारणा कर सकता है, जो उपधारणा किसी अधिकार, योग्यता अथवा निर्योग्यता के सम्बन्ध में हो सकती है| इस प्रकार धारा 4 न्यायालय को किसी भी तथ्य के अस्तित्व के बारे में उपधारणा करने का विवेकाधिकार देता है यानि न्यायालय का विवेक है कि वह किसी तथ्य की उप-धारणा करें या ना करें|

उदाहरण  एक व्यक्ति के कब्जे से चोरी का सामान चोरी के तुरन्त बाद में बरामद होता है, तब न्यायालय यह उपधारणा कर सकता है कि वह स्वंय चोर है या उसने यह जानते हुए की यह सामान चोरी का है प्राप्त किया था| चूँकि तथ्य की उपधारणा खंडनीय होने से वह व्यक्ति साक्ष्य द्वारा स्वंय चोर नहीं होने तथा सामान भी चोरी का नहीं होना की उप-धारणा का खंडन कर सकता है|

विधि की उपधारणा या कृत्रिम उपधारणा

कोई उप-धारणा जिसे न्यायालय किसी विधि के उपबंधो के अनुसार मानने के लिए बाध्य होता है, विधि की उप-धारणा कहलाती है यह उपधारणा विधि के नियमों पर आधारित होती है तथा ऐसी उपधारणा के बारें में न्यायालय को विवेकाधिकार नहीं होता है|

धारा 4 के तहत यह उपबन्ध न्यायालय को आदेश देता है कि ऐसे तथ्यों को साबित माना जाएगा जब तक कि हितबद्ध पक्षकार द्वारा उसे नासाबित करने के लिए साक्ष्य नहीं दिया जाता है| विधि की उपधारणाए आवश्यक प्रकृति की होती है जिनकी उप-धारणा करने के लिए न्यायालय बाध्य होता है|

उदाहरण  धारा 108 के अनुसार जब किसी व्यक्ति के बारें में सात वर्ष या इससे अधिक अवधि से उसके बारेंमे कुछ सुना नहीं गया है कि वह व्यक्ति जीवित है तब उसके बारें में यह उप-धारणा की जाती है की वह मर चुका है, यदि कोई व्यक्ति कहे की वह अब भी जीवित है तो यह बात (तथ्य) उसे (जीवित कहने वाले) ही साबित करनी होगी|

विधि की उपधारणाए दो प्रकार की होती है 

खण्डनीय उप-धारणा (rebuttable presumption) –

विधि की खण्डनीय उपधारणा धारा 4 में वर्णित शब्द  “उपधारणा करेगा” के अन्तर्गत आती है जिसका वर्णन पूर्व में किया जा चूका है| खण्डनीय उप-धारणा ऐसे परिणाम है जिन्हें न्यायालय निकालने के लिए बाध्य है जब तक विपक्षी साक्ष्य द्वारा उसे नासाबित नहीं किया जाता है|

इस उप-धारणा का यह प्रभाव होता है कि जिसके पक्ष में ऐसी उपधारणा की जाती है वह तथ्य के साबित करने के बार से बरी हो जाता है और विपक्षी पर उस तथ्य को साबित करने का भार चला जाता है| इस प्रकार की उप-धारणा तब की जाती है जब किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता है|

विधि की उप-धारणा यह बताती है कि किसी आरोप को साबित करने के लिए कितना साक्ष्य देना जरुरी है और ये तथ्य इस प्रकार के होते है कि यदि उनके विपरीत कोई साक्ष्य दिया जाता है तो वे खण्डनीय हो जाते है अन्यथा वे निश्चायक माने जाते है| इसका वर्णन भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 79 से 85 तक व धारा 105 में किया गया है|

उदाहरण  किसी व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि उसको विपरीत साबित नहीं किया जाता है|

अखण्डनीय अथवा निश्चायक उप-धारणा 

अखंडनीय उप-धारणा को निश्चायक प्रमाण या निश्चायक सबूत भी कहा जाता है| यह कानून के वे निर्विवाद नियम होते है जो किसी भी विपरीत साक्ष्य द्वारा अन्यथा साबित नहीं किये जा सकते है| कुछ लेखको के अनुसार अखंडनीय उप-धारणा किसी भी प्रकार की उप-धारणा नहीं है वरन वे विधि नियम है|

अखंडनीय उप-धारणा का विस्तृत अध्ययन इस अधिनियम की धारा 41, 112, 113, 115 व 117 में किया गया है| उदाहरण  भारतीय दण्ड संहिता की धारा 82 के अन्तर्गत यदि सात वर्ष से कम आयु के बच्चे द्वारा कोई अपराध किया जाता है, तब वह अपराध नहीं माना जाता है|

तथ्य या विधि की मिश्रित उपधारणा

ये ऐसी उपधारणाए होती है जिनकी स्थिति तथ्य की उप-धारणा एंव विधि की उप-धारणा के मध्य की होती है, भारतीय साक्ष्य अधिनियम में मिश्रित उपधारणाओं को स्थान नहीं दिया गया है|

तथ्य की उपधारणा एंव विधि की उपधारणा में अन्तर

(i) तथ्य की उप-धारणा प्राकृतिक नियमों, मानवीय अनुभवों तथा प्रचलित प्रथाओं के आधार पर निकाली जाती है, जबकि विधि की उप-धारणा न्यायिक नियमों के स्तर पर प्रतिष्ठित है तथा यह विधि का अंग बन गई है|

(ii) तथ्य की उप-धारणा का आधार तर्क है, लेकिन विधि की उप-धारणा का आधार विधि के प्रावधान है|

(iii) तथ्य की उप-धारणा खण्डनीय होती है, जबकि विधि की उप-धारणा खण्डन के अभाव में निश्चायक होती है|

(iv) न्यायालय तथ्य की उप-धारणा की उपेक्षा कर सकता है, लेकिन विधि की उप-धारणा की न्यायालय उपेक्षा नहीं कर सकता क्योंकि यह आवश्यक प्रकृति की होती है|

(v) तथ्य की उप-धारणा की स्थिति अनिश्चित एंव परिवर्तनशील होती है, लेकिन विधि की उप-धारणा की स्थिति निश्चित एंव एकरूप होती है|

उप-धारणा का वर्गीकरण

उप-धारणा का वर्गीकरण समझने के लिए –

उपधारणा का वर्गीकरण
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नोट  पोस्ट में संशोधन की आवश्यकता होने पर जरुर साँझा करें, धन्यवाद

संदर्भ  भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 17वां संस्करण (राजाराम यादव)