हेल्लो दोस्तों, इस लेख में साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 में शब्द ‘साबित (Proved), नासाबित (Disproved) व साबित नहीं हुआ (Not Proved)’ को उदाहरण सहित परिभाषित किया गया है और इसके साथ ही धारा 56 एंव 58 में जिन तथ्यों को साबित किया जाना आवश्यक नहीं है को आसान भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है –
साबित (Proved), नासाबित (Disproved) व साबित नहीं हुआ (Not Proved)
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 में शब्द ‘साबित (Proved), नासाबित (Disproved) व साबित नहीं हुआ (Not Proved)’ को परिभाषित किया गया है, इन शब्दों को ‘सिद्ध’, ‘असिद्ध’, एंव ‘सिद्ध नहीं’ भी कहा जाता है।
साबित (सिद्ध) –
धारा 3 के अनुसार – “कोई तथ्य साबित हुआ कहा जाता है जब न्यायालय अपने समक्ष के विषयों पर विचार करने के पश्चात् या तो यह विश्वास करे कि उस तथ्य का अस्तित्व है या उसके अस्तित्व को इतना अधिसम्भाव्य समझे कि उस विशिष्ट मामले की परिस्थितियों में किसी प्रज्ञावान व्यक्ति को इस अनुमान पर कार्य करना चाहिये कि उस तथ्य का अस्तित्व है”।
साबित की परिभाषा से दो बातों के पता लगता है (i) कि व्यक्ति किसी तथ्य के बारे में या उसके अस्तित्व पर विश्वास कर ले या (ii) कि वह पूर्ण रूप से तथ्य के बारें में निश्चित नहीं है, लेकिन उस तथ्य के अस्तित्व को इतना अधिसम्भाव्य मानें जैसे एक प्रज्ञावान व्यक्ति उस स्थिति में मानता है|
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यहाँ प्रज्ञावान व्यक्ति (Prudent person) से तात्पर्य – ऐसे व्यक्ति से है जो व्यावहारिक बातों में विवेकपूर्ण या समझदार होता है। दूसरे शब्दों में हम एक साधारण बुद्धि अथवा विवेक वाले व्यक्ति को प्रज्ञावान व्यक्ति कह सकते हैं। यह एक ऐसा साक्ष्य है जो तार्किक मनुष्य को किसी युक्तियुक्त निष्कर्ष की ओर ले जाता है।
साबित का अर्थ किसी तथ्य के अस्तित्व को सकारात्मक रूप से सिद्ध कर देना है अर्थात व्यक्ति किसी तथ्य के अस्तित्व पर विश्वास करता है और इस अनुमान पर कार्य करता है कि, उसका अस्तित्व है तब इसे साबित करना कहा जाएगा|
धारा 3 के अनुसार “जिस तथ्य के अस्तित्व पर न्यायालय विश्वास करता है, वही तथ्य साबित है और ऐसा करते समय न्यायालय को एक प्रज्ञावान व्यक्ति की तरह कार्य करना होता है।
न्यायालय किसी तथ्य के अस्तित्व पर –
(i) या तो निश्चित रूप से विश्वास कर लेता है, या
(ii) उसके अस्तित्व को अधिकतम सम्भाव्य समझ लेता है।
विजय सिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश के प्रकरण में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – साबित हो जाने का तात्पर्य गणितीय स्तर वाले सबूत से नहीं है, क्योंकि यह असम्भव है। इसका तात्पर्य केवल ऐसे साक्ष्य से है जो किसी भी प्रज्ञावान व्यक्ति को एक विशेष निष्कर्ष पर आने के लिए प्रेरित करता है। (ए.आई.आर. 1990 एस.सी. 1459)
इसी तरह बबूदा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के मामले में कहा गया है कि – सन्देह सबूत का स्थान नहीं ले सकता और न ही न्यायाधीश का नैतिक विश्वास कि अभियुक्त दोषी है, सन्देह एक ऐसा सागर है जिसका कोई किनारा नहीं है। (ए.आई.आर. 1992 एस.सी. 209)
उदाहरण – अ पर ब के घर में चोरी करने का आरोप है। साक्ष्य में प्रत्यक्षदर्शी गवाह यह कहते हैं कि उन्होंने अ को ब के घर में चोरी करते देखा है। अ को भागते हुए मौके पर ही पकड़ लिया जाता है और उसके कब्जे से चोरी का माल भी बरामद हो जाता है और वह चोरी की संस्वीकृति (Confess) भी कर लेता है। यह तथ्य ‘साबित’ माने जाने योग्य है|
इसी प्रकार क एक मकान का स्वामी है और ख यह कहता है कि यह मकान उसका है, ऐसी स्थिति में यदि क मकान के दस्तावेज, मकान पर अपना कब्ज़ा व मकान के स्थान की स्थिति को साक्ष्य द्वारा साबित कर देता है तब यह साबित हुआ माना जाएगा|
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नासाबित (असिद्ध) –
धारा 3 के अनुसार – “कोई तथ्य नासाबित हुआ कहा जाता है जब न्यायालय अपने समक्ष के विषयों पर विचार करने के पश्चात् या तो यह विश्वास करे कि उसका अस्तित्व नहीं है या उसके अनस्तित्व को इतना अधिसम्भाव्य समझे कि उस विशिष्ट मामले की परिस्थितियों में किसी प्रज्ञावान व्यक्ति को इस अनुमान पर कार्य करना चाहिये कि उस तथ्य का अस्तित्व नहीं है।”
यह ‘साबित’ के ठीक विपरीत अर्थ रखता है, इसमें न्यायालय –
(i) या तो यह विश्वास कर लेता है कि उस तथ्य का अस्तित्व नहीं है, या
(ii) उसके अनस्तित्व को इतना अधिसम्भाव्य समझ लेता है कि उस विशिष्ट मामले की परिस्थितियों में कोई प्रज्ञावान व्यक्ति इस अनुमान पर कार्य करता है कि उस तथ्य का अस्तित्व नहीं है।
श्रीकृष्ण बनाम भंवरलाल के प्रकरण अनुसार – नासाबित से तात्पर्य “ऐसे प्रकार के साक्ष्य से है जो तार्किक मनुष्य को किसी युक्तियुक्त निष्कर्ष की और ले जाता है”| (ए.आई.आर. 1974, राज. 96) नासाबित का अर्थ ‘किसी तथ्य के अस्तित्व को नकारात्मक रूप से सिद्ध कर देना है’।
नासाबित की परिभाषा साबित के विपरीत है, जब दोनों पक्षकार या एक पक्षकार किसी तथ्य को प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य देते है, परन्तु न्यायालय का यह विचार है कि, वह तथ्य स्थापित नहीं हो सका है तब वह तथ्य नासाबित माना जाएगा| नासाबित मिथ्या के समान है|
उदाहरण – अ पर ब की हत्या का आरोप है तथा अ यह साबित कर देता है कि जिस दिन की घटना बताई जा रही है उस रोज वह अमुक जेल में बन्द था व जेल के रिकार्ड से भी इसकी पुष्टि हो जाती है। उस स्थिति में न्यायालय अ द्वारा ब की हत्या के तथ्य को नासाबित मान लेगा, क्योंकि जेल में रहते हुए अ द्वारा ब की हत्या किये जाने का तथ्य नितान्त असम्भव है।
इस तरह – जब एक व्यक्ति यह कहता है कि यह मकान उसका है, तब विपक्षी द्वारा यह साबित कर दिया जाता है कि उस व्यक्ति ने अपना मकान मुझे बेच दिया है, तब यह इस बात को नासबित करता है कि उसका उक्त मकान पर अधिकार है|
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साबित नहीं हुआ (सिद्ध नहीं) –
धारा 3 के अनुसार – “कोई तथ्य साबित नहीं हुआ तब कहा जाता है जब वह न तो साबित किया गया है और न नासाबित।” अर्थात जब कोई तथ्य ना तो सकारात्मक रूप से और ना ही नकारात्मक रूप से साबित होता है बल्कि उस तथ्य को किसी भी तरह से साबित नही किया जा सके, यद्यपि वास्तव में घटना हुई है, तो उसे साबित नहीं हुआ कहा जाएगा|
इस प्रकार साबित नहीं हुआ, साबित और नासाबित के बीच की मानसिक स्थिति है। यह किसी तथ्य के साबित या नासाबित दोनों से इन्कार करती है। जब किसी मामले में प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सके कि कोई तथ्य साबित हुआ है या नासाबित हुआ है, तब उसे ‘साबित नहीं हुआ’ कहा जाता है।
भगवान पाटिल बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के प्रकरण में माननीय न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि “जब सत्य एवं असत्य तथ्य एक दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हों कि उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता हो तो ऐसा तथ्य ‘साबित नहीं हुआ’ माना जाता है। (ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 211)
उदाहरण – अ पर ब को लूटने का आरोप लगाया गया है, इस घटना के दो प्रत्यक्षदर्शी गवाह है लेकिन दोनों गवाह पक्षद्रोही (Hostile) हो जाते हैं। यहाँ किसी निर्णय पर पहुँचना असम्भव हो जाता है, क्योंकि ना तो यह कहा जा सकता है कि अ द्वारा ब को लूटा गया है और ना ही यह कहा सकता है कि अ द्वारा ब को नहीं लूटा गया। ऐसा तथ्य “साबित नहीं हुआ” माना जाता है।
इसी तरह – Z के मकान में चोरी हो जाती है और गवाह A , B तथा C को पेश किया जाता है, जिसमे गवाह A गवाही से पहले मर जाता है, गवाह B गंभीर बीमारी से ग्रसित होने के कारण गवाही नही दे पाता है तथा गवाह C पक्षद्रोही हो जाता है, तब ऐसी स्थिति में घटना तो वास्तविक रूप से हुई होती है लेकिन घटना के अस्तित्व को न्यायालय में न तो साबित किया जा सका व ना ही नासाबित किया गया, उस स्थिति में इसे साबित नही हुआ कहा जाएगा|
ऐसे तथ्य जिन्हें साबित किया जाना आवश्यक नहीं है –
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 56 एवं 58 में उन तथ्यों का उल्लेख किया गया है जिन्हें साबित (सिद्ध) किये जाने की आवश्यकता नहीं होती है।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 56 –
“जिस तथ्य की न्यायालय न्यायिक अवेक्षा करेगा, उसे साबित करना आवश्यक नहीं है।”
धारा 56 यह कहती है कि – “प्रत्येक तथ्य को साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना चाहिये।” लेकिन ऐसे तथ्य को जिनकी न्यायालय द्वारा अवेक्षा की जानी होती है, साक्ष्य द्वारा साबित किये जाने की आवश्यकता नहीं होती है।
क्योंकि ये तथ्य अपने आप में इतने महत्त्वपूर्ण होते है या ऐसी लोक प्रकृति के होते है कि, न्यायालय उनको मानने के लिए और उनकी अवेक्षा करने के लिए बाध्य होते है।
स्टीफेन का भी यह मत है कि – कुछ तथ्य अपने आप में इतने महत्त्वपूर्ण एवं विख्यात होते हैं कि उनको साबित करने की आवश्यकता नहीं होती। न्यायालय उनसे परिचित होते हैं। यदि न्यायालय उनसे परिचित नहीं होते हैं तो वे बिना साक्ष्य लिये उनके बारे में सूचना प्राप्त कर सकते है।
इसका सबसे अच्छा उदाहरण – भारत के राज्य क्षेत्र में प्रवृत्त विधियाँ है। ऐसी विधियों को साबित करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि न्यायालय को उनकी न्यायिक अवीक्षा करनी होती है।
जयशंकर प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ बिहार के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – न्यायालय इस बात की न्यायिक अवेक्षा कर सकता है कि कई नेत्रहीन व्यक्ति उच्च शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। (ए.आई. आर. 1993 पटना 22)
साक्ष्य अधिनियम की धारा 58 –
“किसी ऐसे तथ्य को किसी कार्यवाही में साबित करना आवश्यक नहीं है, जिसे उस कार्यवाही के पक्षकार या उनके अभिकर्ता सुनवाई पर स्वीकार करने के लिए सहमत हो जाते हैं, जिसे वे सुनवाई के पूर्व किसी स्वहस्ताक्षरित लेख द्वारा स्वीकार करने के लिए सहमत हो जाते हैं या जिनके बारे में अभिवचन सम्बन्धी किसी तत्समय प्रवृत्त नियम के अधीन यह समझ लिया जाता है कि उन्होंने उसे अपने अभिवचनों द्वारा स्वीकार कर लिया है,
परन्तु न्यायालय स्वीकृत तथ्यों को ऐसी स्वीकृतियों द्वारा साबित किये जाने से अन्यथा किया जाना अपने विवेकानुसार अपेक्षित कर सकेगा”।
इससे स्पष्ट है कि ऐसे तथ्यों को साबित करने की आवश्यकता नहीं होती जो स्वीकृत (Admit) कर लिये गए है| यानि जो तथ्य पक्षकारों द्वारा स्वीकार कर लिये गये है उनके बारे में कोई विवाद नहीं होता और इस कारण किसी सबूत की आवश्यकता भी नहीं होती।
नरेन्द्रकुमार बनाम विष्णु कुमार के वाद में किरायेदार द्वारा अपने अभिवचनों में यह मान लिया गया था कि – वादी उसका मकान मालिक है और वह उसका किरायेदार। न्यायालय ने इस तथ्य पर अन्य किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं समझी। (ए.आई.आर. 1994 दिल्ली 209)
धारा 56 एवं 58 के अनुसार कोनसे तथ्यों को साबित करने की आवश्यकता नहीं है –
(i) जिनके बारे में न्यायालय न्यायिक अवीक्षा (Judicial Notice) करता है, व
(ii) जिन्हें पक्षकारों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है।
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