हेल्लो दोस्तों, इस लेख में साक्ष्य अधिनियम की धारा 24 के तहत संस्वीकृति के बारें में बताया गया है जो साक्ष्य विधि का महत्वपूर्ण विषय है| इस लेख में संस्वीकृति क्या है? इसकी परिभाषा, संस्वीकृति के प्रकार, इसका प्ररूप (Form of confession) तथा स्वीकृति एवं संस्वीकृति में मुख्य अन्तर क्या है? का उल्लेख किया गया है, उम्मीद है कि, यह लेख आपको जरुर पसंद आएगा –
संस्वीकृति क्या है? –
साक्ष्य विधि में संस्वीकृति का उतना ही महत्त्व है जितना स्वीकृति का है। आपराधिक मामलों में संस्वीकृति से सही निष्कर्ष पर पहुँचना तथा मामले का त्वरित विचारण आसान हो जाता है| संस्वीकृति का मौलिक कानून साक्ष्य अधिनियम की धारा 24 से धारा 30 एंव दण्ड प्रक्रिया संहिता में प्रक्रिया विधि में धारा 164, 281 व 463 में दिया गया है|
यह किसी अपराध या जुर्म से सम्बंधित होती है, इसमें आरोपी अपराध को स्वीकार करता है और न्यायालय द्वारा उसे दोषारोपित किया जाता है परन्तु यदि कोई स्वीकृति किसी अपराध से सम्बंधित नहीं है तो वह संस्वीकृति नहीं कहलाएगी|
स्टीफेन के अनुसार – “यह एक ऐसी स्वीकृति है जो किसी भी समय ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है जिस पर किसी अपराध का आरोप है और जो यह स्वीकार करता है या उसके कथन से यह अनुमान होता है कि उसने अपराध किया है।”
स्वीकृति ऐसा कथन है जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारें में कोई अनुमान इंगित करता है और जब यह कथन ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए जिस पर अपराध का आरोप है तब उसे संस्वीकृति कहा जाता है| साक्ष्य अधिनियम में संस्वीकृति को एक उपजाति माना गया है और जिसकी जाति स्वीकृति मानी गई है इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि, प्रत्येक संस्वीकृति में स्वीकृति निहित होती है लेकिन प्रत्येक स्वीकृति में संस्वीकृति नहीं होती है|
यह भी जाने – अपराधी किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार के होते हैं? समझाइये।
संस्वीकृति की परिभाषा –
यद्यपि साक्ष्य अधिनियम में इसकी स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है फिर भी संस्वीकृति से सम्बंधित जितने उपबंध है वह स्वीकृति शीर्षक के अन्तर्गत दिए गए है| धारा 17 में दी गई स्वीकृति की परिभाषा भी इस पर लागु होती है|
संस्वीकृति से तात्पर्य – अभियुक्त द्वारा ऐसा कथन किया जाना जिसमे वह स्वंय किसी अपराध को करने या उस अपराध के गठन में भूमिका होना स्वीकार करता है, सस्वीकृति कहलाती है|
भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 24 के अनुसार –
“अभियुक्त व्यक्ति द्वारा की गई संस्वीकृति दाण्डिक कार्यवाही में विसंगत होती है, यदि उसके किये जाने के बारे में न्यायालय को प्रतीत होता हो कि अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध आरोप के बारे में वह ऐसी उत्प्रेरणा, धमकी या वचन द्वारा कराई गई है जो प्राधिकारवान व्यक्ति की ओर से दिया गया है और जो न्यायालय की राय में इसके लिए पर्याप्त हो कि वह अभियुक्त व्यक्ति को यह अनुमान करने के लिए उसे युक्तियुक्त प्रतीत होने वाले आधार देती है कि उसके करने से वह अपने विरुद्ध कार्यवाहियों के बारे में ऐहिक रूप का कोई फायदा उठायेगा या ऐहिक रूप से किसी बुराई का परिवर्जन कर लेगा।”
हालाँकि यह संस्वीकृति की शाब्दिक परिभाषा नहीं है।
यह भी जाने – अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) क्या है? यह कब और कैसे मिलती है | CrPC in Hindi
न्यायालय द्वारा ‘पलविन्दर कौर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब‘ के प्रकरण में संस्वीकृति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि – “किसी अभियुक्त द्वारा किया गया ऐसा कथन संस्वीकृति है जब कथन में स्वयं अपने द्वारा अपराध का किया जाना या अपराध का गठन करने वाले तथ्यों को स्वीकार कर लिया जाता है।” (ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 354)
इस सम्बन्ध में ‘पकाला नारायण स्वामी बनाम एम्परर‘ का प्रमुख मामला है जिसमे प्रिवी कौंसिल द्वारा संस्वीकृति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि- “संस्वीकृति शब्द का अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि वह किसी अभियुक्त द्वारा किया गया ऐसा कथन है जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि उसने अपराध किया है। संस्वीकृति में या तो सीधे ही अपराध की या कम से कम उन सब तथ्यों की स्वीकृति होनी चाहिये जो किसी अपराध का गठन करने के लिए आवश्यक हो। (ए.आई.आर 1939 पी.सी. 47 )
”दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि संस्वीकृति ऐसी होनी चाहिये जिससे या तो अपराध को दोषपूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया गया हो और या कम से कम अपराध से सम्बन्धित करीब-करीब सभी तथ्य स्वीकार कर लिये गये हों।
यह भी जाने – अभिवचन किसे कहते है, इसके प्रकार एंव मुख्य उद्देश्य बताइये | लॉ नोट्स
संस्वीकृति के लिए निम्नांकित बातों का होना आवश्यक है –
(क) यह ऐसे व्यक्ति द्वारा की गई हो जिस पर किसी अपराध का आरोप हो,
(ख) उसके द्वारा अपराध को या अपराध गठित करने वाले तथ्यों को स्वीकार कर लिया गया हो,
(ग) यह स्वैच्छिक रूप से की गई हो इसमें किसी प्रकार से उत्प्रेरणा, धमकी या वचन नहीं होना चाहिए जैसा की अधिनियम की धारा 24 में कहा गया है|
इस समंध में “अब्दुल रहमान बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक‘ का प्रमुख मामला है जिसमे संस्वीकृति का स्वैच्छिक होना आवश्यक माना गया है। (ए.आई.आर. 1979 एस. सी. 1924)
इसी प्रकार ‘शिवप्पा बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक‘ केप्रकरण में न्यायालय द्वारा यह निर्णित किया गया कि, संस्वीकृति के कथन लेखबद्ध करने से पूर्व इस बात का समाधान कर लिया जाना चाहिए कि वह स्वेच्छा से की जा रही है। (ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 980)
‘बृजेन्द्रसिंह बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश’ के मामले में न्यायालय द्वारा, अभियुक्त के ऐसे कथनों को संस्वीकृति नहीं माना गया है जो अभियुक्त द्वारा किये गये हैं एवं जिसके आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट लेखबद्ध की गई हो। (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 1552 )
संस्वीकृति के कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण निम्न है –
(i) ए व्यक्ति पर बी व्यक्ति को डुबो कर उसकी हत्या करने का आरोप है। यदि ए कहता है कि उसने बी को डुबो दिया है, तब वह एक संस्वीकृति है, लेकिन यदि ए कहता है कि मैं तथा बी नदी में स्नान कर रहे थे, उस वक्त सी व्यक्ति आया और बी को डुबोने लगा। मैंने बी को बचाने की कोशिश की, परन्तु बचा नहीं सका, तब यह केवल स्वीकृति है, सस्वीकृति नहीं है।
(ii) अ व्यक्ति पर चलती गाड़ी में ब व्यक्ति की हत्या करने का आरोप लगाया गया। अ ने कहा कि वह ब (मृतक) के साथ यात्रा कर रहा था। एक स व्यक्ति ने गाड़ी में प्रवेश किया वह ब को शौचालय में ले गया और उसे पीटने लगा। मैंने उसे बचाने की कोशिश की परन्तु मुझे भी चोट लगी और ब को बचा नहीं पाया। इस स्थिति में अ का यह कथन स्वीकृति थी, संस्वीकृति नहीं लेकिन यदि अ यह कहता कि उसने ब की हत्या की थी या उसने चाकू से ब की गर्दन काटी थी, तब यह सस्वीकृति के तुल्य होता ।
(iii) एक्स व्यक्ति पर अपनी पत्नी तथा तीन पुत्रियों की हत्या का आरोप था। उसने कागज के एक टुकड़े पर लिखा कि वे (पत्नी तथा लड़कियाँ) अब संसार में नहीं हैं, यह एक स्वीकृति है, यदि उसने यह कहा होता कि उसने उनकी हत्या की थी, तब यह सस्वीकृति के तुल्य होता।
संस्वीकृति के प्रकार –
आंग्ल लेखकों ने सस्वीकृति को (i) न्यायिक सस्वीकृति एवं (ii) न्यायेत्तर सस्वीकृति दो वर्गों में विभाजित किया है –
(i) न्यायिक संस्वीकृति (Judicial Confession) –
न्यायिक सस्वीकृतियां वे है जो किसी अभियुक्त द्वारा एक मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष विधिक कार्यवाही के दौरान की जाती है और इनका धारा 164, 281, 313 व दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 के तहत लेखबद्ध किया जाना आवश्यक है| साक्ष्य अधिनियम की धारा 80 ऐसी लेखबद्ध की गई सस्वीकृति के हक़ में उपधारणा कर लेती है कि यह विधि अनुसार ली गई है|
(ii) न्यायेत्तर संस्वीकृति (Extra judicial confession) –
न्यायेत्तर संस्वीकृति तात्पर्य अभियुक्त द्वारा मजिस्ट्रेट के सामने या न्यायालय से बाहर किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के समक्ष किये गए कथन से है| अकेले में बड़बड़ाना भी न्यायेत्तर सस्वीकृति हो सकती है तथा यह एक प्रार्थना के रूप में भी हो सकता है|
जैसे – एक व्यक्ति अपराध करने के बाद अपने मित्र या किसी रिश्तेदार को यह पत्र लिख सकता है की वह अपने द्वारा किये अपराध से अत्यन्त दुखी या किसी व्यक्ति के समक्ष किये गए अपराध की माफ़ी मांगते हुए कह सकता है कि उसे अत्यन्त अफ़सोस है, निसंदेह यह एक न्यायेत्तर संस्वीकृति होगी|
किसी प्रकरण में एक सह अभियुक्त की न्यायेतर सस्वीकृति के आधार पर दूसरे सह – अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है।
न्यायेत्तर सस्वीकृति की साक्ष्य में ग्राह्यता के लिए दो बातें आवश्यक हैं –
(i) संस्वीकृति करने वाले व्यक्ति का स्वतंत्र होना, तथा
(ii) जिस व्यक्ति के समक्ष वह की गई है, उसका विश्वसनीय होना।
चतरसिंह बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में ऐसी न्यायेत्तर साक्ष्य को विश्वसनीय नहीं माना गया जो –
(i) पंचायत के पूर्व सदस्य से की गई थी,
(ii) घटना के पांच माह बाद की गई थी,
(iii) पूर्व सदस्य परिचित व्यक्ति नहीं था,
(iv) 35-40 किमी की दूरी पर रहता था।
न्यायेत्तर संस्वीकृति को अत्यन्त कमजोर प्रकृति की साक्ष्य माना गया है जिसके सम्बन्ध में ‘माखनसिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब’ के मामले में न्यायालय द्वारा निर्णित गया है कि, ऐसी सस्वीकृति की ग्राह्यता पर सावधानी एवं सतर्कता से विचार किया जाना चाहिए। (ए.आई. आर. 1988 एस. सी.1705)
‘साहू बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, सस्वीकृति में अपराध कारित करने वाला व्यक्ति अपने अपराध को स्वीकार (admit) करता है जबकि स्वीकृति में अपराध को स्वीकार करने जैसी कोई बात नहीं होती। स्वीकृति सामान्यतः सिविल मामलों में की जाती है। (ए.आई.आर. 1966 एस.सी. 40)
क्या सम्पूर्ण संस्वीकृति पर विचार करना चाहिए –
संस्वीकृति के बारे में यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि संस्वीकृति के कथनों को या तो पूर्ण रूप से स्वीकार करना चाहिए या पूर्ण रूप से अस्वीकार| ऐसा नहीं हो सकता कि संस्वीकृति के अपराध की स्वीकारोक्ति वाले भाग को तो साक्ष्य में ग्राह्य कर लिया जाये और निर्दोष साबित करने वाले कथनों पर विचार नहीं किया जाये।
‘पलविन्दर कौर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब‘ के मामले में संस्वीकृति के कथनों में कुछ शब्द ऐसे थे जो अभियुक्त को अपराध में लिप्त करने वाले थे जबकि कुछ उसे निर्दोष साबित करने वाले। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि सस्वीकृति की ग्राह्यता का यह एक स्वर्णिम नियम है कि उसे या तो सम्पूर्ण रूप से स्वीकार किया जाना चाहिये या सम्पूर्ण रूप से अस्वीकार।
न्यायालय को यह अधिकार नहीं है कि वह अपराध में फंसाने वाले कथनों को तो विश्वसनीय मान लें और अपराध से मुक्त करने वाले कथनों को अविश्वसनीय। (ए.आई.आर.1952 एस.सी. 354)
इसी तरह ‘जसवन्तसिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान‘ के प्रकरण में अभियुक्त द्वारा यह कहा गया था कि – “जब उसकी पत्नी द्वारा बच्चों की हत्या की गई और तत्पश्चात् स्वयं ने आत्महत्या कर ली, उस समय वह कमरे में था।” न्यायालय ने कहा कि केवल उस भाग को शेष से काटकर स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वह घटना के समय वहीं उपस्थित था। (ए.आई.आर. 1966 राजस्थान 83 )
संस्वीकृति का प्रारूप (Form of confession) –
संस्वीकृति किसी भी रूप में हो सकती है। यह न्यायालय में हो सकती है या न्यायालय से बाहर किसी भी व्यक्ति के सामने हो सकती है। यह स्वयं के साथ बातचीत से भी पैदा हो सकती है और यदि कोई व्यक्ति इसे सुन ले तो वह इसका साक्ष्य दे सकता है।
साहू बनाम स्टेट ऑफ यू. पी. के प्रकरण में “अभियुक्त पर यह आरोप था कि उसने अपनी बहू की हत्या की है, वह उसके साथ सदैव ही लड़ा करता था। हत्या के दिन घर से निकलते हुए वह बड़बड़ा रहा था और उसे यह कहते हुए सुना गया कि – “मैंने उसे मिटा दिया और उसके साथ ही रोज के झगड़े।” (ए.आई.आर. 1966 एस.सी. 40)
इस प्रकार यह कथन सस्वीकृति माना गया और इसका साक्ष्य स्वीकार किया गया क्योंकि संस्वीकृति के सुसंगत होने के लिए आवश्यक नहीं है कि इसे किसी अन्य व्यक्ति से किया जाये।
स्वीकृति एवं संस्वीकृति में मुख्य अन्तर –
स्वीकृति एवं संस्वीकृति में समानता होते हुए भी उनमे कुछ अन्तर मिलता है –
स्वीकृति | सस्वीकृति |
स्वीकृति एक जाति है। | सस्वीकृति उसकी उपजाति है। |
स्वीकृति का प्रयोग सामान्यतः सिविल मामलों में किया जाता है। | सस्वीकृति का प्रयोग आपराधिक मामलों में किया जा सकता है। |
स्वीकृति वाद के पक्षकार, अभिकर्त्ता, हितबद्ध व्यक्ति या प्रतिनिधि द्वारा की जा सकती है। | संस्वीकृति केवल अभियुक्त द्वारा की जा सकती है। |
स्वीकृति का प्रयोग उसे करने वाले के पक्ष में किया जा सकता है। | संस्वीकृति का प्रयोग उसे करने वाले के विरुद्ध किया जाता है। |
स्वीकृति, स्वीकृत तथ्यों का निश्चायक सबूत नहीं होती। | स्वैच्छिक सस्वीकृति को निश्चायक सबूत माना माना जा सकता है। |
एक व्यक्ति द्वारा की गई स्वीकृति दूसरे के विरुद्ध साक्ष्य नहीं हो सकती। | एक ही अपराध के लिए संयुक्त विरुद्ध विचारण में एक अभियुक्त द्वारा की संस्वीकृति को सह-अभियुक्त के विरुद्ध विचार में लिया जा सकता है। |
सम्बंधित पोस्ट –
साक्ष्य कानून में सह अपराधी कौन है? साक्ष्य में उसकी स्थिति और कथन का क्या महत्त्व है?
साक्ष्य क्या है, परिभाषा एंव साक्ष्य के प्रकार | Definition of evidence in Hindi
मृत्युकालिक कथन किसे कहते है और यह किन परिस्थितियों में साक्ष्य अधिनियम में ग्राह्य है?
नोट – पोस्ट में संशोधन की आवश्यकता होने पर जरूर शेयर करें और कानून से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के लिए ब्लॉग को सब्सक्राइब करें।
संदर्भ :- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 17वां संस्करण (राजाराम यादव)