नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट में मुस्लिम विधि के अन्तर्गत धर्म परिवर्तन (Religion change) और उससे उत्पन्न होने वाले प्रभाव के बारें में बताया गया है जो विधि के छात्रो व आमजन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं इसे जरुर पढ़े|

परिचय – धर्म परिवर्तन

वर्तमान समय में धर्म परिवर्तन करना आम बात हो गई है, इनमे अनेक व्यक्ति ऐसे होते है जो अपनी आस्था के कारण धर्म परिवर्तन करते है लेकिन इसके अलावा समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते है, जो अपनी मनमर्जी, लालसा, इच्छापूर्ति, कपटपूर्ण आशय आदि को पूरा करने के लिए धर्म परिवर्तन करते है|

धर्म परिवर्तन करने से व्यक्ति पर पहले धर्म कि विधि समाप्त हो जाती है और जिस धर्म को वह ग्रहण करता है, उस विधि से वह व्यक्ति शासित हो जाता है| लेकिन इसमें महत्वपूर्ण बिंदु व्यक्ति द्वारा धर्म परिवर्तन सद्भावपूर्ण होना चाहिये|

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यहाँ यह बताना आवश्यक होगा कि, मुस्लिम विधि उन व्यक्तियों पर लागू होती है जो –

(i) जन्म से मुसलमान है या,

(ii) धर्म परिवर्तन द्वारा मुसलमान बने है।

यह पोस्ट उन लोगों से सम्बंधित है जो धर्म परिवर्तन से मुसलमान हो गये हैं। धर्म परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म अपनाने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह समझा जाता है कि धर्म परिवर्तन के पूर्व के धर्म को इस्लाम धर्म ने प्रतिस्थापित कर दिया और मुस्लिम विधि उन पर लागू हो गई है।

धर्म परिवर्तन के लिए यह जरूरी है कि ऐसे व्यक्ति इस्लाम धर्म में अपनी सम्पूर्ण आस्था रखे और ऐसा धर्म परिवर्तन सद्भावपूर्ण होना आवश्यक है, लेकिन ऐसे व्यक्ति जो अपने निजी स्वार्थ हेतु व्यक्तिगत विधि से बचने के लिये जो उन पर बाध्यकारी हो, इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेते है, उस स्थिति में न्यायालय किसी को धर्म परिवर्तन के बहाने विधि के साथ कपट नहीं करने देता है।

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केस – स्किनर बनाम आर्ड

इस मामले में जार्ज स्किनर का हेलेन स्किनर से ईसाई विधि के अनुसार विवाह सम्पन्न हुआ था। जार्ज स्किनर की मृत्यु के पश्चात हेलेन ने जॉन टॉमस के साथ, जिसकी ईसाई विधि से विवाहित पत्नी जीवित थी, संयोग किया और इस संयोग को वैध बनाने के लिये हेलेन और जॉन टॉमस दोनों ने धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म अपना लिया।

इस प्रकरण में प्रिवी कौसिल ने अपने निर्णय में कहा कि “यह धर्म परिवर्तन असद्भावपूर्ण था और उसका प्रयोजन विधि पर कपट करना था। हेलेन और जॉन टॉमस ने मुस्लिम धर्म इसलिये ग्रहण किया ताकि उनका अवैध सम्बन्ध वैध हो जाए, न कि इस कारण कि उन्हें मुस्लिम धर्म में आस्था थी”। इससे यह स्पष्ट है कि धर्म परिवर्तन को सद्भावपूर्ण होना चाहिये।

केस – नरंतकंथ बनाम पाराखल

इस प्रकरण में एक मोपला स्त्री ने एक आदमी से विवाह किया, जिसने बाद में अहमदिया धर्म ग्रहण कर लिया। चूंकि मोपला कट्टर मुसलमान होते हैं, जिससे यह धर्म परिवर्तन अधिकांश मुसलमानों द्वारा धर्मत्याग समझा गया और इस कारण उस स्त्री ने समझा कि विवाह-विच्छेद हो गया है। उसके पश्चात जब उसी स्त्री ने दूसरा विवाह किया तो विवाह के आधार पर उसका अभियोजन किया गया।

मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि “अहमदिया लोग इस्लाम के मूल सिद्धान्तों में विश्वास करते हैं, इसलिये वे मुस्लमान हैं जिस कारण अहमदिया धर्म ग्रहण करना धर्मत्याग नहीं है।

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मुस्लिम विधि के अनुसार पति-पत्नी में से किसी एक द्वारा धर्म परिवर्तन करने पर दो प्रकार की परिस्थितियां यानि, जब ऐसा धर्म परिवर्तन –

(i) किसी ऐसे देश में किया जाये जो मस्लिम विधि के अधीन हो, या

(ii) किसी ऐसे देश में किया जाय जिसमें मुस्लिम विधि देश की विधि न हो।

पहली स्थिति में जब दोनों पक्षकारों में से एक पक्षकार इस्लाम धर्म ग्रहण कर ले तो उसे दूसरे पक्षकार को इस्लाम धर्म ग्रहण करने का प्रस्ताव करना चाहिये और दूसरे पक्षकार द्वारा जब इन्कार कर दिया जाए तब विवाह-विच्छेद किया जा सकता है।

दूसरी स्थिति में पति-पत्नी में किसी एक के द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद तीन माह की अवधि बीतने के बाद विवाह स्वत: समाप्त हो जाता है। लेकिन भारत में यह विधि लागू नहीं है।

केस – रोबासा खानम बनाम खुदादाद बोमनजी (1946, 48 बाम्बे लॉ रिपोर्टर 864)

इस वाद में कहा गया कि “दम्पति में से जो धर्म परिवर्तन करता है वह विवाह-विच्छेद या न्यायालय की घोषणा के लिये यह वाद दायर नहीं कर सकता है कि दम्पति में से जिसने धर्म ग्रहण करने से इन्कार किया है उसके विरुद्ध विवाह-विच्छेद कि डिक्री पारित की जाए”|

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धर्म परिवर्तन और दाम्पत्य अधिकार

यदि हिन्दू पत्नी धर्म परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेती है उस स्थिति में उसके पति के साथ उसका विवाह स्वत: विच्छेद नहीं होता है, वह अपने पति के जीवनकाल में किसी अन्य पुरुष से विवाह की वैध संविदा नहीं कर सकती। यदि वह धर्म परिवर्तन के बाद किसी से भी विवाह की रस्म अदा करती है तो वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत द्विविवाह की दोषी होगी।

केस – बम्बई सरकार बनाम डगा (1880, 4 बम्बई 330)

इस मामले में यह कहा गया कि “हिन्दू पत्नी के द्वारा अपने पति के जीवनकाल में इस्लाम धर्म ग्रहण करके किसी मुसलमान से विवाह करने पर, हिन्दू पति से स्वतः ही विवाह-विच्छेद नहीं होगा। लेकिन हिन्दू पति की मृत्यु के बाद वह मुसलमान पुरुष से विवाह करने के लिये स्वतन्त्र है।

केस – जान जिबन बनाम अविनास (1939, 2 कलकत्ता 12)

न्यायालय ने इस वाद में कहा कि “जब किसी भारतीय ईसाई लड़की से विवाहित भारत का अधिवासी कोई भारतीय ईसाई, इस्लाम धर्म ग्रहण कर ले तो वह मुसलमान स्त्री से विवाह की वैध संविदा कर सकता है, चाहे ईसाई पत्नी से पहला विवाह अभी तक कायम ही क्यों न हो।

केस – खम्बट्टा बनाम खम्बट्टा (1935, 59 बम्बई 278)

इस प्रकरण में “एक मुसलमान ने एक ईसाई स्त्री से ईसाई विधि के अनुसार विवाह किया और उसके बाद में पत्नी ने इस्लाम धर्म अपना लिया। बाद में पति ने तलाक द्वारा उससे विवाह-विच्छेद किया”।

इस विवाह-विच्छेद के सम्बन्ध में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि “पत्नी के ईसाई धर्म त्याग देने पर अधिवास विधि के अन्तर्गत उस पर उसके धर्म की विधि लागू होती है, जिसके परिणामस्वरूप यह विवाह-विच्छेद मान्य था।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने धर्म परिवर्तन को लेकर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं, जिससे भी यह स्पष्ट होता है कि “यदि कोई हिन्दू पुरुष जिसका विवाह हिन्दू रीति रिवाज के तहत हो चुका है और इस्लाम धर्म को इस आशय के साथ ग्रहण करता है ताकि वह दूसरा-विवाह कर सके, तब ऐसा कार्य धर्म परिवर्तन नहीं माना जायेगा और उसका दूसरा विवाह शून्य घोषित कर दिया जायेगा और उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के तहत दण्डित किया जायेगा।

केस – सरला मुदगल बनाम भारत संघ (1995, 3 एस.सी.सी. 635)

इस में यह कहा कि “इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पश्चात् ऐसा हिन्दू पति, जिसका विवाह विधिपूर्ण तरीके से विच्छेद नहीं हुआ है, दूसरा विवाह नहीं कर सकता। उसका दूसरा विवाह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत शून्य कर दिया जायेगा तथा उसे इसी विधि के अन्तर्गत दण्डित भी किया जायेगा।

यहाँ यह बताना उचित होगा कि, इस वाद में चार याचिकायें शामिल थीं जिसमें पहली याचिका के तथ्य इस प्रकार थे –

सन् 1978 में मीना माथुर का विवाह जितेन्द्र माथुर से हुआ और उनके बीच बच्चे पैदा हुये, 1998 में याचिकाकर्ता को यह सुनकर गहरा धक्का लगा कि उसके पति ने किसी सुनीता नरूला (फातिमा) नाम की लड़की से दूसरा विवाह कर लिया है। यह विवाह दोनों दम्पतियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पश्चात् किया।

याचिकाकर्ता के अनुसार उसके पति द्वारा धर्म परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार करना केवल दूसरा विवाह करना तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के प्रावधान से बचना था। इसके अलावा जितेन्द्र माथुर का कहना था, कि इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पश्चात् उसे चार पत्नियाँ रखने का अधिकार है, भले ही उसकी पहली पत्नी हिन्दू ही क्यों न हो।

यह विधित है कि द्विविवाह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 17 के अन्तर्गत प्रतिबन्धित किया गया है और इसे अपराध माना गया है, इस कारण ऐसा प्रत्येक विवाह जो कि पहले विवाह के अस्तित्व में रहते हुये किया गया है, भले ही धर्म परिवर्तन के बाद ही क्यों न किया गया हो, हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 17 तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत अपराध माना जायेगा।

 धर्म परिवर्तन और दाय के अधिकार

विरोधी रूढ़ि के अभाव में धर्म-परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति की सम्पदा यानि सम्पति के उत्तराधिकारी मुस्लिम विधि से शासित होते है|

चेदाम्बरम् बनाम मान्यीय मे के वाद में यह कहा गया कि ”एक हिन्दू पति जिसके हिन्दू पत्नी व बच्चे थे, इस्लाम धर्म ग्रहण कर मुस्लिम महिला से विवाह कर लिया हो और उससे बच्चे हो गये हों, तब ऐसे व्यक्ति कि मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति उसकी मुसलमान पत्नी व बच्चों को मिलेगी। क्योंकि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत किसी मुसलमान की सम्पत्ति का कोई हिन्दू उत्तराधिकारी नहीं हो सकता।

 धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति और उसकी मूल विधियों का कायम रहना

(i) शरिअत अधिनियम 1937 से पहले

शरिअत अधिनियम, 1937 के पारित होने से पहले धर्म परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म अपनाने वाले व्यक्ति अपनी मूल विधियों और रीतियों को अपने साथ ला सकते थे और मुसलमान हो जाने के बाद भी उनसे शासित हो सकते थे|  लेकिन निम्नलिखित लोगों पर इस्लाम धर्म में आस्था होने पर भी उन पर दाय और उत्तराधिकार के मामले में हिन्दू विधि लागू होती है –

(अ) खोजा लोग,

(ब) कच्छी मेमन, हलई मेमन

(स) गुजरात के सुन्नी बोहरे, और

(द) भडौच के मौला सलाम गिरिया लोग।

(ii) शरिअत अधिनियम 1937 के पारित होने के बाद

शरिअत अधिनियम 1937 ने खोजा और कच्छी मेमन लोगों के उत्तराधिकार की रूढ़िगत विधि को समाप्त कर उन्हें मुस्लिम विधि के अधीन कर दिया है।

कच्छी मेमन अधिनियम 1920 (संख्या 47) की धारा 2 और कच्छी मेमन (संशोधन) अधिनियम, 1923 (संख्या 34) में यह उपबन्ध था कि “कोई व्यक्ति जो विहित प्राधिकारी के समक्ष ऐसी घौषणा करें – कि यह एक कच्छी ‘मेमन’ है और वही व्यक्ति है जिसका होना वह निरूपित होता है, वह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11 के अर्थ में संविदा करने के लिये सक्षम है और वह भारत में निवास करता है”।

विहित प्राधिकारी के समक्ष प्रस्तुत की गई ऐसी घोषणा के द्वारा वह व्यक्ति यह घोषित कर सकता है कि वह अधिनियम का लाभ उठाता चाहता है और उसके उपरांत वह व्यक्ति, उसके सब अवयस्क बच्चे और उसके वंशज उत्तराधिकार और दाय सम्बन्धी मामलों में मुस्लिम विधि से शासित होंगे।

कच्छी मेमन अधिनियम 1920 को कच्छी मेमन अधिनियम 1938 द्वारा समाप्त कर दिया गया है। अब कच्छी मेमन अधिनियम, 1938 के अन्तर्गत कच्छी मेमन लोग उत्तराधिकार और दाय सम्बन्धी सभी मामलों में मुस्लिम विधि से शासित होते हैं।

हलई मेमन लोग – बम्बई के अधिसेवी हलई मेमन लोग उत्तराधिकार और दाय सम्बन्धी सभी मामलों में मुस्लिम विधि से शासित होते हैं।

लेकिन गुजरात के सुन्नी बोहरे और भड़ौच के मौला सलाम गिरिया लोग उत्तराधिकार और दाय के मामलों में हिन्दू विधि से शासित होते हैं।

धर्म परिवर्तन के विधिक परिणाम

(i) इस्लाम धर्म और व्यक्तिगत विधि का प्रयोग जो उस धर्म के पीछे आवश्यक रूप से चलता है, धर्म परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति के पूर्व धर्म को प्रतिस्थापित कर देता है।

(ii) इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति के अधिकार मुस्लिम विधि के अधीन हो जाते हैं।

(iii) धर्म त्याग का प्रभाव इस्लाम धर्म ग्रहण करने के समय से तात्कालिक और प्रभावी होता है, भूतलक्षी नहीं।

(iv) धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति की सम्पत्ति का उत्तराधिकार मुस्लिम विधि से- शासित होता है।

इस्लाम धर्म त्यागने का प्रभाव

अनेक बारे यह प्रश्न आता है कि अपने धर्म का त्याग करने पर क्या होता है? जिसके उत्तर में यह कहा जाता है कि इस्लाम धर्म के जो सिद्धान्त मूलभूत नहीं हैं, उनसे विचलन (deviation) मात्र से धर्म त्याग (Renunciation) नहीं हो जाता है। जब तक कोई इस्लाम के मूलभूत सिद्धान्तों को स्वीकार करने में प्रवृत्त हो, वह धर्म त्यागी नहीं है।

प्राचीन मुस्लिम विधि के अन्तर्गत इस्लाम धर्म त्यागने वाला व्यक्ति किसी अन्य मुसलमान का उत्तराधिकारी होने का अधिकार खो देता था। लेकिन वर्तमान समय में जाति नियोग्यता निवारण अधिनियम, 1850 के उपबन्धों के अन्तर्गत धर्म त्याग करने वाला व्यक्ति इन अधिकारों से वंचित नहीं होता है।

जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1850 के लागु होने से मुस्लिम धर्म का त्याग करने वाला व्यक्ति अपने मुस्लिम नातेदारों से उत्तराधिकार में सम्पत्ति प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं होता है  यानि ऐसा व्यक्ति मुस्लिम धर्म का त्याग करने के बाद भी विरासतन सम्पति पाने का अधिकार रखता है।

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संदर्भ :- अकील अहमद 26वां संस्करण