इस आलेख में डॉ. हनीराज एल. चुलानी के मामले का संक्षिप्त सार दिया गया है क्योंकि यह विधि व्यवसाय से जुड़ा हुआ महत्वपूर्ण मामला है| इसमें विधि व्यवसाय के साथ अन्य कोई व्यवसाय करने पर प्रतिबन्ध किस कारण लगाया गया है, के बारें में बताया गया है|

डॉ. हनीराज एल. चुलानी (केस भूमिका) –

यह मामला विधि-व्यवसाय (Legal profession) से जुड़ा हुआ है तथा संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (छ) से सम्बंधित है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (छ) के अधीन प्रदत्त व्यापार, व्यवसाय, वृति एवं कारबार का अधिकार एवं निरपेक्ष अधिकार है? क्या इस पर कोई युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाया जा सकता है?

इसमें अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अधीन यह भी प्रश्न शामिल था कि क्या विधि-व्यवसाय के साथ अन्य कोई व्यवसाय किया जा सकता है?

यह भी जाने – अधिवक्ता कोन होता है? परिभाषा, प्रकार एंव एक सफल अधिवक्ता के गुण

डॉ. हनीराज एल. चुलानी मामले के तथ्य –

इस मामले के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं कि, डॉ. हनीराज एल. चुलानी महाराष्ट्र में चिकित्सक का कार्य करते थे जिनके पास विधि स्नातक की उपाधि भी थी। डॉ. हनीराज एल. चुलानी चिकित्सा व्यवसाय के साथ-साथ विधि व्यवसाय भी करना चाहते हैं इसके लिए उन्होंने महाराष्ट्र राज्य विधिज्ञ परिषद् (State Bar Council of Maharashtra) के समक्ष अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अन्तर्गत अधिवक्ता के रूप में नामांकित होने के लिए एक प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया।

इस प्रार्थना- पत्र को राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निरस्त करते हुए कहा गया कि “विधि व्यवसाय एक पूर्णकालिक व्यवसाय है जो व्यक्ति इस व्यवसाय के प्रति समर्पित होकर कार्य करने का इच्छुक हो, वही इस व्यवसाय में प्रवेश पा सकता है, अन्य व्यक्ति नहीं।

चूँकि डॉ. हनीराज एल. चुलानी एक चिकित्सक थे और वे विधि-व्यवसाय के लिए पूर्ण समय देने में समर्थ नहीं थे इसलिए उनको विधि-व्यवसाय करने के लिए अनुज्ञा (सनद) दिया जाना सम्भव नहीं था।

डॉ. हनीराज एल. चुलानी ने राज्य विधिज्ञ परिषद् के इस आदेश के खिलाफ मुम्बई उच्च न्यायालय में अपील की और कहा कि उसे अधिवक्ता अधिनियम के अन्तर्गत विधि-व्यवसाय करने का अधिकार है लेकिन मुम्बई उच्च न्यायालय ने भी इस तर्क को स्वीकार नहीं किया और राज्य विधिज्ञ परिषद् के आदेश को सही ।

मुम्बई उच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ डॉ. हनीराज एल. चुलानी ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ए. एम. अहमदी, न्यायाधीश एस. एम. मजूमदार तथा न्यायाधीश सुजाता बी. मनोहर की न्यायपीठ द्वारा इस अपील की सुनवाई की गई।

यह भी जाने – संवैधानिक उपचार का अधिकार क्या है | अनुच्छेद 32 से 35 Indian Constitution

निर्णय –

माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने 43 पृष्ठों के निर्णय में यह कहा कि यह सही है कि संविधान के अनुच्छेद 19(1) (छ) के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को किसी भी प्रकार का व्यापार, व्यवसाय, वृत्ति या कारोबार करने का अधिकार है और वह एक से अधिक व्यवसाय एक साथ कर सकता है, लेकिन उसका यह अधिकार निरपेक्ष (Absolute) नहीं है।

संविधान के अनुच्छेद 19(6) के अन्तर्गत राज्य लोक हित में इस अधिकार को निर्बन्धित कर सकता है। राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा जो निर्बन्धन (Restriction) लगाया गया है वह संविधान के अनुच्छेद 19(6) के अनुरूप है।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधि व्यवसाय एक ऐसा पवित्र व्यवसाय है जिसमें प्रवेश करने वाले व्यक्ति को समर्पित भाव से कार्य करना होता है। अधिवक्ता को अपने पक्षकार (Client) के साथ न्याय करना होता है, उसे दिन-रात मामले की तैयारी में लगे रहना होता है।

अधिवक्ता को रात-रात भर जागना पड़ता है, चैम्बर में पने पक्षकारों को धैर्य से सुनना होता है और समुचित राय देनी होती है। यह सब तभी सम्भव है जब कोई व्यक्ति पूर्णकालिक और समर्पित भाव से इस व्यवसाय को करे।

यह भी जाने – विधिशास्त्र की उत्पत्ति और विकास | Developments Of Jurisprudence In Hindi

यह कहना गलत नहीं होगा कि अधिवक्ता की हर दिन न्यायालय में परीक्षा होती है तथा उसे अपने मामले के सम्बन्ध में न्यायालय को सन्तुष्ट करना होता है और यह तभी सम्भव है जब अधिवक्ता अपने मामले को पूरी तैयारी के साथ न्यायालय में रखे।

डॉ. हनीराज एल. चुलानी के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने आगे ओर कहा कि ठीक यही स्थिति चिकित्सक की भी है। चिकित्सा व्यवसाय भी उतना ही पवित्र है जितना विधि-व्यवसाय। उसमें भी चिकित्सक को रोगी के साथ न्याय करना होता है, उसे समर्पित भाव से देखना होता है, उसके लिए भी शान्ति, समय और धैर्य की आवश्यकता है।

यदि कोई व्यक्ति दोनों व्यवसाय एक साथ अपना लेता है तो उसकी स्थिति त्रिशंकु सी हो जाती है। वह न इधर का रहता है और न उधर का रहता यानि वह किसी के भी साथ न्याय करने की स्थिति में नहीं रह जाता है।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधिज्ञ परिषद् द्वारा जो नियम बनाए गए हैं वे विधि के अनुसार हैं और वे संविधान के अनुच्छेद 14, 19 (1) (छ) तथा 21 का अतिलंघन नहीं करते हैं।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि, राज्य विधिज्ञ परिषद् को नियम बनाने की जो शक्तियाँ प्रदान की गई हैं वे प्रत्यायोजित विधान (Delegated Legslation) के अनुरूप है तथा विधिज्ञ परिषद् ऐसे नियम बनाकर एक साथ दो व्यवसाय करने पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 का यह प्रावधान विधि-सम्मत है कि विधि-व्यवसाय के साथ अन्य कोई व्यवसाय करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। परिणामस्वरूप अपीलार्थी (डॉ. हनीराज एल. चुलानी) की अपील को खारिज कर दिया गया।

मामले में विधि के सिद्धान्त –

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा विधि के निम्नांकित सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए –

(1) संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (छ) के अन्तर्गत प्रदत्त व्यापार, व्यवसाय, वृति एवं कारबार का अधिकार कोई निरपेक्ष (Absolute) अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 19(6) के अन्तर्गत लोकहित में इस पर प्रतिबन्ध (Restriction) लगाया जा सकता है।

(2) अनुच्छेद 19(6) के अधीन लगाए जाने वाले प्रतिबन्धों से अनुच्छेद 14 19 (1) (छ) तथा 21 पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।

(3) राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा प्रत्यायोजित विधान के अन्तर्गत विधि-व्यवसाय के साथ अन्य कोई व्यवसाय करने से निवारित करने वाले नियम बनाए जा सकते है।

(4) अधिवक्ता अधिनियम के अन्तर्गत विधि-व्यवसाय के साथ अन्य कोई व्यवसाय करने की इजाजत नहीं दिया जाना न्याय-सम्मत है।

महत्वपूर्ण लिंक

मुस्लिम विधि के स्रोत क्या है? प्राथमिक स्रोत एंव द्वितीयिक स्रोत | Sources Of Muslim Law

अपकृत्य के उपचार : न्यायिक एंव न्यायेत्तर उपचार | Remedies under Law of Torts in India

आपराधिक षडयंत्र क्या है : परिभाषा, सजा एंव इसके आवश्यक तत्व | धारा 120A व धारा 120B

कब्जे की अवधारणा : परिभाषा तथा कब्जे के आवश्यक तत्व निर्णित वाद सहित