नमस्कार दोस्तों, इस लेख में सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत डिक्री के निष्पादन सम्बन्धी विधि, सीपीसी के तहत डिक्री के निष्पादन के तरीके क्या है (State the law relating to execution of decree) का वर्णन किया गया है, यदि आप वकील या विधि के छात्र है अथवा प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है, तब सीपीसी के तहत डिक्री के निष्पादन की क्या रीतियाँ है, आपके लिए जानना बेहद जरुरी है –
डिक्री के निष्पादन की रीति
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 21 के नियम 30 से 57 तक में डिक्री के निष्पादन की रीतियों (modes of execution) का उल्लेख किया गया है। भिन्न – भिन्न प्रकार के मामलों में पारित डिक्रियों के निष्पादन की रीतियाँ भिन्न – भिन्न होती है|
डिक्री के निष्पादन के तरीके क्या है
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 21 के नियम 30 से 57
(1) धन के संदाय के लिए डिक्री
धन के संदाय के लिए प्रत्येक डिक्री का निष्पादन किसी अन्य डिक्री के वैकल्पिक रूप में धन के संदाय को सम्मिलित करते हुए निम्नांकित रीतियों से किया जा सकता है –
(क) निर्णीत ऋणी के सिविल कारावास में निरोध के द्वारा, या
(ख) निर्णीत ऋणी की सम्पत्ति की कुर्की और विक्रय द्वारा, या
(ग) दोनों के द्वारा। (आदेश 21 नियम 30)
यह भी जाने – आरोप की परिभाषा एंव उसकी अन्तर्वस्तु का उल्लेख । संयुक्त आरोप किसे कहते है
धन के संदाय की डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तारी और निरोध का आदेश देने से पूर्व न्यायालय द्वारा निर्णीत ऋणी को हेतु संदर्शित करने की सूचना दी जायेगी।
लेकिन यदि निर्णीत ऋणी के पलायन कर दिये जाने की आशंका हो तो ऐसी सूचना दिया जाना आवश्यक नहीं होगा। (आदेश 21 नियम 37) इसके अलावा यदि गिरफ्तार किये गये निर्णीत ऋणी द्वारा डिक्री की राशि एवं खर्चे का संदाय कर दिया जाता है तो उसे अविलम्ब मुक्त कर दिया जायेगा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि धन के संदाय की डिक्री के निष्पादन में किसी महिला को गिरफ्तार नहीं किया जा सकेगा। (धारा 56)
जी. प्रभातभाई नाथाभाई बनाम पण्ड्या अरविन्द कुमार अम्बालाल (ए. आई. आर. 1987 गुजरात 160) –
इस मामले में यह कहा गया है कि – धन के संदाय की डिक्री के निष्पादन में धन का संदाय नहीं किये जाने पर निर्णीत ऋणी को तभी गिरफ्तार एवं निरुद्ध किया जा सकेगा जब डिक्री धारक द्वारा यह साबित कर दिया जायेगा कि –
(क) निर्णीत ऋणी के पास डिक्री की राशि का संदाय करने के पर्याप्त साधन है, और
(ख) वह दुर्भावनावश धन का संदाय नहीं करना चाहता है।
धारा 58 में निरोध की अवधि का उल्लेख किया गया है। निरोध की यह अवधि –
(i) जहाँ डिक्री पाँच हजार रुपये से अधिक के धन के भुगतान के लिए हो, वहाँ तीन माह से अधिक की नहीं होगी, तथा
(ii) जहाँ डिक्री दो हजार रुपये से अधिक, किन्तु पाँच हजार रुपये से कम के भुगतान के लिए हो, वहाँ छः सप्ताह से अधिक की नहीं होगी।
स्पष्ट है कि दो हजार रुपये से कम की राशि के भुगतान की डिक्री के निष्पादन में निर्णीत ऋणी को गिरफ्तार एवं निरुद्ध नहीं किया जा सकेगा।
फिर धन के संदाय की डिक्री में ऐसी सम्पत्ति को कुर्क नहीं किया जा सकता है जिसका उल्लेख धारा 60 में किया गया है।
एम. श्रीराम मूर्ति बनाम मैनेजर आंध्र बैंक (ए.आई. आर. 2012 आंध्रप्रदेश 66) –
इस प्रकरण में यह निर्धारित किया गया कि – निष्पादन कार्यवाहियों का मुख्य उद्देश्य डिक्रीशुदा धन को वसूल करना है। यदि निष्पादन के किसी भी प्रक्रम पर ऐसे धन की वसूली हो जाती है तो विक्रय की पुष्टि नहीं की जायेगी तथा निष्पादन कार्यवाही को रोक दिया जायेगा।
यह भी जाने – आपराधिक दायित्व की परिभाषा एंव इसके तत्त्वों के रूप में आशय, हेतु व असावधानी की विवेचना
(2) विनिर्दिष्ट चल सम्पत्ति के लिए डिक्री –
संहिता के आदेश 21 नियम 31(1) में किसी विनिर्दिष्ट चल सम्पत्ति के लिए पारित डिक्री के निष्पादन की रीतियों का उल्लेख किया गया है। ऐसी डिक्री का निष्पादन निम्नांकित रीतियों से किया जा सकेगा –
(क) अभिग्रहण ( seizure) द्वारा अर्थात् यदि चल वस्तु या अंश का अभिग्रहण साध्य हो तो ऐसी वस्तु या अंश के अभिग्रहण द्वारा,
(ख) निरोध (detertion) द्वारा अर्थात् निर्णीत ऋणी के सिविल कारावास में निरोध द्वारा,
(ग) कुर्की (attachment) द्वारा अथवा
(घ) दोनों के द्वारा अर्थात् निर्णीत ऋणी के निरोध एवं उसकी सम्पत्ति की कुर्की के द्वारा।
यदि ऐसी कुर्की तीन माह तक प्रवृत्त (in force) रह जाती है और निर्णीत ऋणी द्वारा डिक्री का पालन नहीं किया जाता है तब ऐसी कुर्क की गई सम्पत्ति को डिक्रीधारक के आवेदन पर बेचा जा सकेगा और उससे प्राप्त राशि में से वह राशि, जो चल सम्पत्ति के एवज में निर्धारित की गई है, डिक्रीधारक को संदत की जायेगी तथा शेष राशि निर्णीत ऋणी को लौटा दी जायेगी। (नियम 31 उप नियम 2)
उप नियम 3 में यह कहा गया है कि यदि –
(क) निर्णीत ऋणी द्वारा डिक्री का पालन कर दिया जाता है,
(ख) सभी खर्चे का भुगतान कर दिया जाता है, या
(ग) कुर्की के तीन माह समाप्त होने पर सम्पत्ति के विक्रय के लिए आवेदन नहीं किया जाता है, या
(घ) आवेदन किया जाता है लेकिन वह खारिज कर दिया गया है
तब ऐसी कुर्की विरत अर्थात् समाप्त (cease) हो जायेगी।
(3) संविदा के विनिर्दिष्ट पालन, दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना या व्यादेश के लिए डिक्री –
संहिता के आदेश 21 नियम 32 में निम्नलिखित डिक्रियों के निष्पादन की रीतियों का उल्लेख किया गया है –
(क) संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के लिए डिक्री,
(ख) दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए डिक्री, एवं
(ग) व्यादेश के लिए डिक्री।
जहाँ निर्णीत ऋणी को ऐसी डिक्रियों की पालना करने का पर्याप्त अवसर मिला हो और ऐसा अवसर मिलने के पश्चात् भी निर्णीत ऋणी द्वारा जानबूझकर पालना नहीं की गई हो वहाँ –
(i) दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना की डिक्री के निष्पादन में ऐसे व्यक्ति की सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकेगा, तथा
(ii) संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन अथवा व्यादेश की डिक्री के निष्पादन में ऐसे व्यक्ति को सिविल कारावास में निरुद्ध किया जा सकेगा या उसकी सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकेगा या दोनों किया जा सकेगा।
वी.एस. अलवर अय्यगर बनाम गुरु स्वामी थेवर (ए. आई. आर. 1981 चेन्नई 354) –
इस प्रकरण में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि – किसी शाश्वत व्यादेश की डिक्री की पालना नहीं किये जाने पर व्यतिक्रमी को सिविल कारावास में निरुद्ध किया जा सकेगा।
इस सम्बन्ध में रामकृष्ण नायडू बनाम सेठूरमण का प्रमुख मामला है जिसमें चेन्नई उच्च न्यायालय द्वारा ही यह कहा गया है कि – जहाँ शाश्वत व्यादेश की डिक्री में निर्णीत ऋणी द्वारा अवहेलना करते हुए सम्पत्ति में अतिचार (trespass) किया जाता है वहां ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार एवं सिविल कारावास में निरुद्ध किया जा सकेगा। (ए. आई. आर. 2005 चेन्नई 108)
यदि डिक्री के छः माह तक प्रवृत्त (in force) रहने पर भी निर्णीत ऋणी द्वारा डिक्री का पालन नहीं किया जाता है तब उसकी कुर्क की गई सम्पत्ति का विक्रय कर दिया जायेगा और उससे प्राप्त आगमों में से डिक्रीधारक को प्रतिकर का संदाय किया जायेगा तथा शेष राशि निर्णीत ऋणी को लौटा दी जायेगी। (नियम 32 उप नियम 3)
उप नियम 4 में यह कहा गया है कि यदि निर्णीत ऋणी द्वारा –
(क) डिक्री का पालन कर दिया जाता है,
(ख) सभी खर्चे का संदाय कर दिया जाता है, या
(ग) कुर्की के छः माह पश्चात् भी ऐसी सम्पत्ति के विक्रय के लिए आवेदन नहीं किया जाता है, या
(घ) ऐसा आवेदन किया जाता है लेकिन वह खारिज कर दिया गया है, तब ऐसी डिक्री विरत अर्थात् समाप्त (cease) हो जायेगी।
(4) दस्तावेजों के निष्पादन या परक्राम्य लिखत के पृष्ठांकन के लिए डिक्री –
संहिता के आदेश 21 नियम 34 में दस्तावेजों के निष्पादन तथा परक्राम्य लिखतों के पृष्ठांकन के लिए पारित डिक्री के निष्पादन की रीतियों की उल्लेख किया गया है।
जब किसी दस्तावेज के निष्पादन या परक्राम्य लिखत के पृष्ठांकन के लिए पारित डिक्री की पालना करने से निर्णीत ऋणी द्वारा इन्कार किया जाता है या उपेक्षा की जाती है तब डिक्रीधारक द्वारा डिक्री के निबन्धनों के अनुरूप दस्तावेज अथक पृष्ठांकन प्रारूप तैयार किया जायेगा और ऐसा प्रारूप न्यायालय के समक्ष पेश किया जायेगा।
ऐसे प्रारूप की एक प्रति निर्णीत ऋणी को भेजी जायेगी और उससे निर्धारित समय में आक्षेप (objections) पेश करने को कहा जायेगा।
ऐसे आक्षेप प्रस्तुत होने पर यदि न्यायालय उचित समझे तो प्रारूप में तदनुसार परिवर्तन या संशोधन किया जा सकेगा और डिक्रीधारक द्वारा ऐसे परिवर्तनों सहित या रहित प्रारूप समुचित स्टाम्प पर न्यायालय के समक्ष पेश किया जायेगा। तत्पश्चात् ऐसा दस्तावेज या पृष्ठांकन (endorsement) न्यायाधीश द्वारा या इस निमित्त नियुक्त किसी अन्य अधिकारी द्वारा निष्पादित किया जायेगा।
यदि ऐसे दस्तावेज का रजिस्ट्रीकरण आवश्यक है तो उसके अनुसार उसका रजिस्ट्रीकरण कराया जायेगा।
(5) अचल सम्पत्ति के लिए डिक्री –
संहिता के आदेश 21 नियम 35 अचल सम्पति के परिदान के लिए पारित डिक्री के निष्पादन की रीतियों का उल्लेख करती है।
यदि डिक्री किसी अचल सम्पत्ति के परिदान (delivery of immovable property) के लिए है तो ऐसी डिक्री का निष्पादन उस सम्पति का कब्जा डिक्रीधारक को या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति को परिदत्त करके किया जायेगा। यदि कब्जाधारी कब्जा देने से या सम्पत्ति खाली करने से इन्कार करता है तो ऐसे व्यक्ति को वहाँ से हटाकर उस सम्पत्ति का कब्जा डिक्रीधारक को सौंपा जायेगा।
नियम 35 के उप नियम 1 में शब्द ‘डिक्री द्वारा बाध्य किसी व्यक्ति’ (Any person bound by the decree) प्रयुक्त किये गये हैं। इसका तात्पर्य यह है कि निर्णीत ऋणी के साथ-साथ ऐसे व्यक्ति भी इसमें सम्मिलित हैं जिन्हें डिक्री से बाध्य किया जा सकता है।
यदि डिक्री अचल सम्पत्ति के संयुक्त कब्जे के लिए है, तब सम्पत्ति के किसी सहजदृश्य स्थान पर वारन्ट की प्रति को चिपकाकर तथा डिक्री के सार को किसी सुविधाजनक स्थान पर ढोल पिटवाकर या अन्य प्रथागत रीति से उद्घोषित करके ऐसे कब्जे का परिदान कराया जायेगा। (नियम 35 उप नियम 2)
उप नियम 3 में यह कहा गया है कि जहाँ किसी भवन या घेरे (building or enclosure) का कब्जा परिदत्त किया जाना हो और कब्जाधारी डिक्रीधारक को यहाँ तक नहीं पहुँचने दे रहा हो, वहाँ न्यायालय अपने अधिकारी के माध्यम से ताले या चिटकनी को हटाकर, खोलकर या किंवाड़ तोड़कर उसके कब्जे का परिदान करा सकेगा। लेकिन यदि ऐसे भवन या घेरे में कोई पर्दानशीन महिला रहती है तो उसे वहाँ से हटने का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया जायेगा।
आधिश सिन्हा बनाम हिन्दुस्तान गैस एण्ड इण्डस्ट्रीज लि. के मामले में, कब्जे के परिदान से सम्बंधित यह सारे कार्य रिसीवर के माध्यम से कराने की अनुशंसा की गई है। (ए.आई.आर. 1994 एन.ओ.सी. 250 कोलकाता)
यदि अचल सम्पत्ति किसी किरायेदार अथवा अन्य हक़दार व्यक्ति के कब्जे में है तो उसका परिदान उसी रीति से कराया जायेगा जो उप नियम 2 में बताई गई है। (नियम 36)
इस प्रकार खास-खास डिक्री के निष्पादन की यही रीतियाँ हैं। कुछ अन्य डिक्री के निष्पादन की रीतियों का उल्लेख संहिता की धारा 43 से 45 तक में भी किया गया है।
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संदर्भ – बुक सिविल प्रक्रिया संहिता चतुर्थ संस्करण (डॉ. राधा रमण गुप्ता)