हेल्लो दोस्तों, इस लेख में PIL यानि जनहित याचिका जिसे लोकहित वाद भी कहा जाता है का भारत में विकास कैसे हुआ और इसके क्या कारण थे और इसकी आवश्यकता क्यों महसूस की गई के बारें में जानेगें जो public interest litigation का महत्वपूर्ण विषय है|
जनहित याचिका (PIL)
यह एक ऐसी याचिका या वाद है, जिसके माध्यम से पीड़ित पक्षकार स्वयं या अन्य कोई व्यक्ति या संस्था द्वारा उसकी ओर से न्यायालय के समक्ष प्रार्थना पत्र पेश किया जा सकता है। लेकिन ऐसे मामले व्यापक जनहित वाले (public interest at large) होने आवश्यक है।
जनहित याचिका की इस प्रणाली ने पूर्व प्रचलित Locus standi (अधिकारिता) को बदल दिया। अब स्वतः संज्ञान के माध्यम से भी न्यायालय द्वारा (मीडिया रिपोर्टों, सोशल साइट्स आदि को आधार बनाकर) कार्यवाही की जाती है। भारत के पूर्व न्यायाधीश पी.एन. भगवती को ‘जनहित याचिका का जनक’ माना जाता है।
गंगा का पानी, ताजमहल का सौन्दर्य, न्यायाधीशों का स्थानान्तरण, महिलाओं का यौन शोषण एवं उत्पीड़न, दलित वर्ग पर अत्याचार, पुलिस यंत्रणा, नारी निकेतनों की दुर्दशा आदि ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें जन साधारण का व्यापक हित होने से इन्हें लोकहित वाद का मामला माना गया है।
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न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने भी यह कहा है कि – “पीड़ित एवं व्यथित व्यक्ति के ही न्यायालय में जा सकने की संकुचित धारणा अब समाप्त हो गई है। उसका स्थान अब वर्ग कार्यवाही, लोकहित वाद, प्रतिनिधि वाद आदि ने लिया है।
अब कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक हित से जुड़े मामलों में अपने व अन्य के हितों की सुरक्षा के लिए न्यायालय में दस्तक दे सकता है।” इतना ही नहीं, समय के साथ-साथ पत्रों, पोस्टकार्डों एवं समाचार पत्रों की कतरनों के आधार पर भी न्यायिक कार्यवाही की जाने लगी है।
जनहित याचिका का विकास
जनहित याचिका – हमारा भारत देश शुरुआत से ही न्यायप्रिय व उदारवादी रहा है। न्याय, नीति और धर्म इसके आदर्श रहे हैं तथा व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा का प्रयास किया है।
प्रारम्भ में जब वर्तमान जैसे न्यायालय नहीं थे तब राजा ही न्यायाधीश का कार्य करता था तथा उसे ही न्याय का स्रोत (Fountain of justice) माना जाता था। विक्रमादित्य एवं जहांगीर का न्याय इसके अच्छे उदहारण है।
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धीरे-धीरे परिस्थितीयों के अनुसार न्याय के रूप मै न्यायपालिका का विकास हुआ और पीड़ित एवं व्यथित पक्षकार न्याय के लिए न्यायालय में आने लगे। लेकिन फिर भी पीड़ित एवं व्यथित पक्षकार न्याय से दूर रहा जिसके कई कारण थे –
(i) न्याय प्राप्ति के लिए पीड़ित अथवा व्यथित पक्षकार को स्वयं न्यायालय में उपस्थित होना पड़ता था|
(ii) न्याय व्यवस्था अत्यधिक खर्चीली होने के कारण पीड़ित एवं व्यथित पक्षकार न्यायालय में प्रार्थना पत्र नहीं दे पाते हैं। जिस कारण निर्धनता को न्याय के मार्ग में एक बहुत बड़ा बाधक माना गया है तथा
(iii) न्याय प्राप्ति में अधिक समय लगने से भी पीड़ित अथवा व्यथित पक्षकार न्याय से वंचित होने लगा। जिस वजह से यह कहावत चरितार्थ होती है कि – “वादी मर जाता है, लेकिन वाद अमर रहता है।”
उपरोक्त सब कारणों से जब पीड़ित अथवा व्यथित पक्षकार या आम आदमी न्याय व्यवस्था से दूर होने लगा तब विधि वेत्ताओं, न्यायविदों एवं समाज सेवियों ने इन दोषों को दूर करने तथा अधिक विलम्ब एवं व्यय से बचने के लिए लोक अदालत’ (Lok Adalat) प्रणाली का शुभारंम किया गया। इसके तहत मामलों को आपसी समझौतों एवं राजीनामों के माध्यम से निपटाने का कार्य किया गया तथा इसके साथ ही –
संविधान में एक नया अनुच्छेद 39 क जोड़कर ‘निःशुल्क विधिक सहायता’ (Free legal aid) स्कीम शुरू की गई इसमें यह प्रावधान किया गया कि राज्य ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित करेगा जिससे कोई भी व्यक्ति मात्र अर्थाभाव (निर्धनता) के कारण न्याय से वंचित नहीं रह जाये।
इस प्रकार जो व्यक्ति निर्धनता अथवा अन्य किसी कारण से न्यायालय में जाने में असमर्थ रहते हैं उनके लिए ‘लोकहित वाद यानि जनहित याचिका की अवधारणा’ (Concept of public interest litigation) का विकास हुआ।
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जनहित याचिका के विकास के कारण
भारत में जनहित याचिका के उद्गम एवं विकास के अनेक कारण मने जाते है, जिनमे कुछ निम्नाकित है –
(1) भारत का संविधान
जनहित याचिका के उद्गम एवं विकास का सर्वाधिक श्रेय भारत के संविधान को जाता है। हमारे संविधान में ऐसी अनेक व्यवस्थायें की गई हैं जिनसे लोकहित वाद की अवधारण का उद्गम एवं विकास हुआ है; यथा –
(a) संविधान की प्रस्तावना में ही सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समता का अवगाहन किया गया है।
(b) संविधान के अनुच्छेद 38 में राज्य का यह कर्त्तव्य माना गया है कि वह प्रत्येक नागरिक के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय सुनिश्चित करें।
(c) संविधान के अनुच्छेद 39 में वितरित न्याय (Distributive justice) का प्रावधान किया गया है ताकि प्रत्येक नागरिक अपने नैसर्गिक अधिकारों के साथ सम्मानजनक जीवन जी सकें।
(d) संविधान के अनुच्छेद 39 क में निःशुल्क विधिक सहायता स्कीम शुरू की गई| इसके तहत कहा गया की राज्य ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित करें कि कोई भी व्यक्ति मात्र अर्थाभाव (निर्धनता) के कारण न्याय से वंचित न रहें। इस व्यवस्था से लोकहित वाद यानि जनहित याचिका की अवधारण के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
(2) अधिकारिता का उदार सिद्धान्त
लोकहित वाद के उद्गम एवं विकास का श्रेय ‘अधिकारिता’ (locus standi) की उदार व्याख्या को भी जाता है। पीड़ित एवं व्यथित पक्षकार ही अपने अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय में जा सकता है यह अधिकारिता धीरे धीरे समाप्त होने लगी उसके स्थान पर इस बात को लागु किया गया की व्यापक जनहित से जुड़े मामले किसी भी व्यक्ति, संघ या संगठन द्वारा न्यायालय में ले जाये जा सकते हैं और कार्यवाही शुरू की जा सकती है|
(3) जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है
जनहित याचिका के उद्गम एवं विकास “जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है” (Ubi jus ibi remedium) के सूत्र को भी जाता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि यदि अधिकार है तो उसके लिए उपचार भी है। (Where there is right, there is remedy) कोई भी अधिकार उपचार विहीन नहीं है और हो भी नहीं सकता, क्योंकि उपचार के बिना अधिकार अर्थहीन एवं बेमानी है।
यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन होता है और ऐसे उल्लंघन का उपचार नहीं हो तो वह अधिकार ही व्यर्थ हो जाता है। लेकिन यह सूत्र केवल सम्पन्न व्यक्तियों अथवा वर्ग तक ही सिमट कर रह गया|
अर्थात केवल सम्पन्न व्यक्ति ही इस सूत्र का लाभ उठाते रहें। निर्धन एवं कमजोर वर्ग इस सूत्र के लाभों से वंचित रहा। लेकिन वर्तमान मै इस सूत्र को लागु करने व अर्थपूर्ण बनाने के लिए लोकहित वाद की अवधारणा को लागु किया गया।
(4) न्यायिक सक्रियता
जनहित याचिका की अवधारणा के विकास मै न्याययिक सक्रियता (Judicial activism) का भी योगदान रहा है। शीर्षस्थ न्यायालयों (apex-courts) द्वारा लोकहित के मामलों का शीघ्र निस्तारण भी लोकहित वाद की अवधारणा को जन्म देता है|
यथा — पर्यावरण संरक्षण, गंगा का पानी, ताजमहल का सौन्दर्य, नारी-उत्पीड़न, बाल-शोषण, पुलिस अत्याचार, चिकित्सीय लापरवाही आदि। इसके अलावा न्यायालयों ने पत्रों, पोस्टकाडों एवं समाचार पत्रों की कतरनों को रिट मानकर न्याय प्रशासन को गति प्रदान की है। जिस कारण लोकहित वाद के विकास में न्यायिक सक्रियता का योगदान अमूल्य रहा है।
केस – एम.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 1086)
इस मामले में उच्चत्तम न्यायालय द्वारा एक पत्र को रिट मानकर न्यायिक सक्रियता का परिचय दिया गया जिससे लोकहित वाद (जनहित याचिका) की अवधारणा को काफी सम्बल मिला है।
(5) न्यायाधीशों का उदार दृष्टिकोण
लोकहित वाद के उद्गम एवं विकास मै न्यायाधीशों का उदार दृष्टिकोण भी महत्वपूर्ण रहा है। इस दिशा में उच्चतम न्यायायल के पूर्व न्यायाधीश पी.एन.भगवती, न्यायाधीश कृष्णा अय्यर तथा राजस्थान उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश गुमानमल लोढ़ा, न्यायाधीश दिनकरलाल मेहता आदि का सक्रिय योगदान रहा है।
न्यायाधीश पी.एन. भगवती के अनुसार – “न्याय अब केवल सम्पन्न व्यक्तियों की बपौती नहीं है। न्याय के मन्दिर अब जन साधारण के लिए खुले हुए हैं।”
न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार – “पीड़ित और व्यथित व्यक्ति के ही न्यायालय में जा सकने की संकुचित धारणा अब समाप्त हो गई है। उसका स्थान अब वर्ग कार्यवाही, लोकहित वाद/जनहित याचिका एवं प्रतिनिधि वाद आदि ने ले लिया है।”
जनहित याचिका की आवश्यकता
(i) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा कानून के शासन को संरक्षित करने और शासन की संरचनाओं के भीतर उत्तरदायित्व और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये पीआईएल को एक शक्तिशाली साधन के रूप में माना गया था।
(ii) जनहित याचिका (PIL) देश के नागरिकों को एक सस्ते कानूनी उपाय के रूप में, नाममात्र न्याया शुल्क पर प्राप्त होता है।
(iii) जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से दायर याचिकाएँ बड़े सार्वजनिक मुद्दों से संबंधित परिणामों पर भी ध्यान केंद्रित करती हैं।
(iv) विशेष रूप से मानवाधिकारों, उपभोक्ता कल्याण और पर्यावरण के क्षेत्र में पीआईएल का महत्त्व स्वतःसिद्ध है।