इस आलेख में कब्जे / आधिपत्य की परिभाषा, इसके विभिन्न प्रकार, आवश्यक तत्व तथा आधिपत्य को स्वामित्व के स्वत्व का प्रथम दृष्टया साक्ष्य क्यों माना जाता है, तथा विधि द्वारा आधिपत्य को क्यों संरक्षित किया जाता है? का उल्लेख किया गया है-
परिचय – कब्जे / आधिपत्य
विधिशास्त्र में आधिपत्य अर्थात कब्जे (possession) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। साम्पत्तिक अधिकारों में स्वामित्व के बाद कब्जे का ही स्थान आता है। यह ना केवल स्वामित्व का वास्तविक प्रतीक है, वरन न्यायिक व्यवस्था में संपत्ति से जुड़े अधिकारों की रक्षा का एक सशक्त माध्यम भी है।
“कब्जा विधि का नव अंक है”, यह कथन इस अवधारणा की केन्द्रीयता को दर्शाता है। सॉमण्ड का कहना है कि मानव जीवन के लिए भौतिक वस्तुओं पर कब्जा होना परम आवश्यक है।
कोई व्यक्ति किसी भौतिक वस्तु का कब्जे के आधार पर ही उपयोग-उपभोग कर सकता है, इसके बिना मानव जीवन असम्भव है। वस्तुतः कब्जा मनुष्यों एवं वस्तुओं के बीच आधारभूत सम्बन्धों की अभिव्यक्ति है।
कब्जे की परिभाषा
कब्जे के बारे में यह कहा जाता है कि, इसकी अवधारणा को समझ लेना आसान है लेकिन इसकी परिभाषा अत्यन्त कठिन है यानि कब्जे के विचार की अवधारणा सरलता से समझने योग्य है, लेकिन इसे ठीक-ठीक परिभाषित करना कठिन है।
विभिन्न विधिवेत्ताओं द्वारा दी गई कब्जे की परिभाषा निम्नानुसार है –
सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार – किसी वस्तु एवं व्यक्ति के मध्य निरन्तर एवं वास्तविक सम्बन्ध को कब्जा कहते हैं। इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि, कब्जे का सम्बन्ध वस्तु से है नहीं होकर अधिकार से।
फ्रेडरिक पोलक (Fredrick Polock) के अनुसार – कब्जे से तात्पर्य, किसी वस्तु पर भौतिक नियंत्रण से है। पोलक ने कब्जे को भौतिक नियंत्रण के रूप में परिभाषित किया हैं।
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जकारिया (Zachariae) के अनुसार – कब्जा किसी वस्तु एवं व्यक्ति के बीच ऐसा सम्बन्ध है जो यह परिलक्षित करता है कि वह व्यक्ति उस वस्तु को धारण करने का अशय एवं उसका व्ययन करने की क्षमता रखता है।
हीगेल ने कब्जा को स्वतंत्र इच्छा का निरपेक्ष सम्पादन (objective) माना है|
काण्ट (Kant) के अनुसार – कब्जे के रूप में अभिव्यक्त व्यक्ति की इच्छा प्रत्येक अन्य व्यक्ति से पूर्ण सम्मान की हकदार है और इसे केवल सार्वभौम द्वारा ही राज्य के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है।
इहरिंग (Ihering) के मतानुसार – कब्जा रक्षणात्मक स्वामित्व है। यानि कब्जा स्वामित्व की ढाल है जो तथ्यतः स्वामित्व रखने वाले व्यक्ति को प्राप्त है।
कब्जे की अवधारणा
आंग्ल विधि में कब्जे की मुख्यतया तीन अवधारणायें मानी गई हैं –
(i) किसी व्यक्ति का वस्तु पर कब्जा और भौतिक नियंत्रण दोनों हो सकता है,
(ii) किसी व्यक्ति या भौतिक नियंत्रण के बिना भी वस्तु पर कब्जा हो सकता है,
(iii) किसी व्यक्ति का कब्जे के बिना भी वस्तु पर भौतिक नियंत्रण हो सकता है।
इस प्रकार कब्जे की परिभाषा एंव अवधारणा से यह स्पष्ट है कि, कब्जा किसी वस्तु पर व्यक्ति के भौतिक नियंत्रण एवं ऐसा भौतिक नियंत्रण बनाये रखने की इच्छा (animus) का द्योतक है।
जब किसी व्यक्ति का किसी वस्तु पर भौतिक नियंत्रण होता है और ऐसा भौतिक नियंत्रण होने या बनाये रखने की उसकी इच्छा होती है तो यह mana जाता है कि, उस व्यक्ति का उस वस्तु पर कब्जा है।
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कब्जे के आवश्यक तत्व
कब्जे की परिभाषाओं से कब्जा अर्जित/प्राप्त करने के निम्न आवश्यक तत्व हमारे सामने होते हैं –
(i) भौतिक तत्व
यह कब्जे का पहला आवश्यक तत्व है, इसे ‘कब्जे का काय’ (Corpus possessions) भी कहा जाता है। यह तत्व किसी वस्तु पर वास्तविक कब्जे का द्योतक है। इसे भौतिक नियंत्रण की संज्ञा भी दी जा सकती है।
शब्द ‘कॉरपस’ (corpus) से तात्पर्य वस्तु पर एकल नियंत्रण से है तथा इसमें दूसरे व्यक्तियों को कब्जे से वंचित रखने की क्षमता भी निहित है। इसके अन्तर्गत-
(क) कब्जा रखने वाला व्यक्ति कब्जे की वस्तु का उपयोग-उपभोग कर सकता है, अन्य कोई व्यक्ति उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
(ख) कब्जा बनाये रखने के लिए कब्जाधारी की वैयक्तिक उपस्थिति मात्र पर्याप्त होती है चाहे व्यक्ति शारीरिक रूप से कितना ही दुर्बल क्यों न हो,
(ग) कब्जाधारी व्यक्ति अपने कब्जे की वस्तु को गोपनीय रख सकता है ताकि उसमें किसी का बाहरी हस्तक्षेप न होने पाये, तथा
(घ) कब्जा धारण करने वाले व्यक्ति के मन में वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा रहती है।
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(ii) मानसिक तत्व
यह कब्जे का दूसरा आवश्यक तत्व है। इसे कब्जे का ‘धारणाशय’ (Animus possidendi) तत्व कहा जाता है। वस्तुतः यह किसी वस्तु पर कब्जा बनाये रखने की मानसिक इच्छा होती है। इस इच्छा की अभिव्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को अपवर्जित रखने के रूप में हो सकती है।
सरलता से यह कहा जा सकता है कि किसी वस्तु पर भौतिक कब्जा रखने वाले व्यक्ति की इच्छा उस वस्तु का उपयोग-उपभोग करने की हो या नहीं, लेकिन उस वस्तु पर कब्जा बनाये रखने की इच्छा का होना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में निम्नांकित बातें उल्लेखनीय हैं-
(क) किसी वस्तु पर कब्जा रखने वाले व्यक्ति का दावा अनन्य (exclusive) होना चाहिये अर्थात् उसका अन्य व्यक्तियों को अपवर्जित करने का आशय होना चाहिये;
(ख) कब्जा धारण करने वाला व्यक्ति किसी वस्तु को अभिरक्षा (custody) के तौर पर भी धारण कर सकता है जैसे गिरवी के मामलों में गिरवीदार ऋण को अदायगी तक गिरवी की वस्तु को अपनी अभिरक्षा में रखता है;
(ग) किसी वस्तु पर कब्जा किसी अन्य व्यक्ति की ओर से भी धारण किया जा सकता है, जैसे-अभिकर्ता, न्यासी, उपनिहिती आदि द्वारा धारित कब्जा;
(घ) किसी वस्तु पर कब्जा धारण करने के आशय का न्यायोचित होना आवश्यक नहीं है, यह सदोष भी हो सकता है, जैसे-अतिक्रमी का कब्जा, एवं
(ङ) कब्जाधारी का आशय सामान्य हो सकता है अर्थात् उसका विनिर्दिष्ट (specific) होना आवश्यक नहीं है।
इस प्रकार विधिपूर्ण कब्जे के लिए (i) कब्जे का काय (Corpus possessionis) एवं (ii) धारणाशय (Animus possessionis) का होना आवश्यक है –
कब्जे के काय को तथ्यतः कब्जा (defacto possession) एवं धारणाशय को विधितः कब्जा (dejurc possession) भी कहा जाता है। पहला भौतिक कब्जा एंव दूसरा मानसिक कब्जा होता है।
हॉलैण्ड, सैविनी तथा इहरिंग ने भी कब्जे के लिए दो तत्व आवश्यक माने हैं – पहला वस्तु पर भौतिक अथवा प्रभावी नियंत्रण एवं दूसरा वस्तु को धारित रखने का आशय।
केस – रामसिंह बनाम सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स (ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 2490)
इस मामले में माननीय न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि – मानसिक अर्थात् सचेतन कब्जे को वस्तुओं पर नियंत्रण से साबित किया जा सकता है।
कब्जे के तत्वों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण निर्णय निम्नानुसार हैं –
(i) टेबर बनाम जेनी का मामला ‘टेवर बनाम जेनी’ (1 स्प्रेगू 315)
इस मामले में डेल मछली को मारकर लंगर द्वारा 15 फैदम नीचे पानी में रोका गया था। इसमें कब्जा माना गया, क्योंकि उस स्थान पर जहाँ लंगर रोका गया था, पूर्ण नियंत्रण था।
(ii) रेग बनाम रिली का मामला ‘रेग बनाम रिली’ (1853 डी.सी.सी. 149)
इस मामले में एक व्यक्ति अपनी भेड़ें हाँककर ले जा रहा था। उसकी भेड़ों में किसी अन्य व्यक्ति की भेड़ें सम्मिलित हो गईं। जब उसके द्वारा सारी भेड़ों को बेचा गया तब उसे इस बात का पता चल गया था। उसे चोरी का अपराधी माना गया, क्योंकि अन्य व्यक्तियों की भेड़ों पर उसका कब्जा नहीं था।
(iii) मेरी बनाम ग्रीन का मामला मेरी बनाम ग्रीन [(1841)7 एम एण्ड डब्ल्यू 623]
इस मामले में एक बढ़ई द्वारा नीलाम में दराज वाली एक मेज खरीदी गई थी। उस दराज में एक गुप्त दराज भी था जिसमें धन रखा हुआ था। क्रेता ने वह धन ले लिया उसे चोरी का अभियुक्त माना गया, क्योंकि उस धन पर विक्रेता का अभी भी कब्जा बना हुआ था।
(iv) आर. बनाम हडसन (1943 के.बी. 458)
इस मामले में अभियुक्त को एक लिफाफा प्राप्त हुआ जो उसी नाम के किसी अन्य व्यक्ति को सम्बोधित था। कुछ दिन पड़ा रखने के बाद अभियुक्त ने उस लिफाफे को खोल लिया। लिफाफे में एक चैक मिला जिसे अभियुक्त ने अपने काम में ले लिया। उसे चोरी का दोषी माना गया, क्योंकि जब तक लिफाफे को नहीं खोला गया, उस पर अभियुक्त का कब्जा नहीं था अर्थात् धारणाशय (animus) का अभाव था।
कब्जे के प्रकार
कब्जे को निम्नांकित भागों में विभाजित किया जा सकता है –
(i) मूर्त एवं अमूर्त कब्जा
कब्जा मूर्त या अमूर्त किसी भी रूप में हो सकता है । मूर्त कब्जे (corporeal possession) से तात्पर्य है, किसी भौतिक वस्तु पर कब्जा, जैसे मकान, भूमि, वाहन, फर्नीचर आदि पर कब्जा से है।
अमूर्त कब्जा (incorporeal possession), अमूर्त वस्तुओं के सम्बन्ध में होता है, जैसे – मार्गाधिकार, हवा एवं प्रकाश पाने का अधिकार, अवलम्ब का अधिकार आदि। ऐसे अधिकारों से व्युत्पन्न कब्जा अमूर्त कब्जा कहलाता है।
रोमन विधि में मूर्त कब्जे को possessio corpus तथा अमूर्त कब्जे को possessio juris कहा जाता है। वास्तविक कब्जा हमेशा मूर्त होता है जबकि अमूर्त कब्जा एक ऐसी संकल्पना है जो वास्तविक कब्जे से कुछ न्यूनता प्रकट करती है।
(ii) तात्कालिक एवं मध्यवर्ती कब्जा
कब्जा तात्कालिक अथवा मध्यवर्ती भी होता है। जब कोई व्यक्ति स्वयं प्रत्यक्ष तौर पर कब्जा अर्जित करता है तो उसे तात्कालिक कब्जा कहा जाता है।
लेकिन जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से कब्जा प्राप्त करता है तो वह मध्यवर्ती कब्जा कहा जाता है।
उदाहरण के लिए – क बाजार से स्वयं कोई वस्तु क्रय करके लाता है तो उस वस्तु पर क का तात्कालिक कब्जा होगा। लेकिन यदि क अपने नौकर ख को बाजार में वस्तु लेने के लिए भेजता है तो जब तक वह वस्तु ख के पास रहती है, क का उस पर मध्यवर्ती कब्जा माना जाएगा।
(iii) तथ्यतः एवं विधितः कब्जा
जब किसी वस्तु को स्वयं धारण किया जा सकता है या उस पर भौतिक नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है तब वह ‘तथ्यतः कब्जा’ (de facto possession) कहलाता है। आसान शब्दों में कहा जा सकता है कि, तथ्यतः कब्जा धारण करने का अर्थ किसी वस्तु को भौतिक नियंत्रण के अधीन रखना है।.
जबकि ‘विधितः कब्जे’ (dejure possession) से तात्पर्य ऐसे कब्जे से है जिसमें व्यक्ति का वस्तु पर भौतिक नियंत्रण तो नहीं होता है, लेकिन कब्जे का उसका आशय (animus) बना रहता है।
उदाहरण – क का पर्स चोरी हो जाता है और चोरी होने के बाद पर्स पर क का भौतिक नियंत्रण नहीं है, लेकिन उस पर उसका मानसिक कब्जा अभी भी बना हुआ माना जायेगा, इसलिये उसे विधितः कब्जा माना जाएगा।
(iv) आन्वयिक कब्जा
आन्वयिक कब्जे को प्रतीकात्मक कब्जा (constructive possession) भी कहा जाता है। इसमें किसी वस्तु पर कब्जा धारण करने वाले व्यक्ति का कब्जा प्रतीक के तौर पर होता है। उदाहरण के लिए क द्वारा ख को किसी गृह की चाबियाँ सौंप देना उस गृह का प्रतीकात्मक कब्जा माना जायेगा।
केस – एल्मोर बनाम स्टोन (10 आर.आर. 578)
इस मामले में ख एक अस्तबल का मालिक था जिससे क ने एक घोड़ा खरीदा था। क एवं ख के बीच यह तय हुआ था कि घोड़ा ख के अस्तबल में ही रहेगा। यहाँ घोड़े पर क का कब्जा प्रतीकात्मक कब्जा माना गया।
केस – मै. एन.सी.एम.एल.इण्डस्ट्रीज लिमिटेड बनाम डेट्स रिकवरी ट्रिब्यूनल लखनऊ (ए.आई.आर. 2018 इलाहाबाद 131)
इस मामले में शब्द ‘प्रतीकात्मक कब्जे’ की सुन्दर व्याख्या की गई है। इसमें यह कहा गया है कि प्रतीकात्मक कब्जा भौतिक अथवा वास्तविक कब्जा नहीं होकर आन्वयिक अथवा कागजी कब्जा होता है।
(v) समवर्ती कब्जा
सामान्यतः किसी वस्तु पर एक साथ दो व्यक्तियों का कब्जा नहीं हो सकता, क्योंकि कब्जे की अनन्यता ही उसका वास्तविक मर्म है। यानि अनन्य उपयोगों के दो परस्पर विरोधी दावों का एक साथ निष्पादन किया जा सकता है।
लेकिन सॉमण्ड का मानना है कि कुछ मामले ऐसे होते हैं, जिनमें दावे पृथक-पृथक होते हुए भी, वे परस्पर विरोधी नहीं होते हैं, इसलिए उनका एक साथ निष्पादन हो सकता है। ऐसे दोहरे कब्जे को समवर्ती कब्जा (concurrent possession) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, गिरवी राखी गई वस्तु पर गिरवीदार (pledge) का वास्तविक कब्जा एवं गिरवीकर्ता (pleder) का मध्यवर्ती कब्जा होता है।
(vi) प्रतिकूल कब्जा (Adverse possession)
प्रतिकूल कब्जा किसी अन्य व्यक्ति के स्वामित्व का अतिक्रमण है। इसके द्वारा किसी भूमि पर हक का अर्जन किया जाता है। आसान शब्दों में एक व्यक्ति का दूसरे की भूमि पर उसके स्वामी को बहिष्कृत करने के आशय से बने रहना, प्रतिकूल कब्जा कहलाता है।
परिसीमा अधिनियम के तहत प्रतिकूल कब्जा की अवधि 12 वर्ष मानी गई है और यह कब्जा भूमि आदि पर अनन्य एवं निरन्तर होना चाहिये।
केस – टी.एम. मनिका नायकर बनाम एन.जे. चन्द्रशेखर (ए.आई.आर. 2003 मद्रास 404)
इस मामले में माननीय न्यायालय द्वारा यह गया है कि, प्रतिकूल कब्जे के लिए कब्जे का 12 वर्ष की सांविधिक अवधि तक निरन्तर एवं निर्विघ्न बने रहना आवश्यक है।
केस – क्रिस्टोफर ओरम बनाम जूलियस ओरम (ए.आई.आर. 2003 एनओसी 519 उड़ीसा)
इस मामले में न्यायालय द्वारा कहा गया है कि, प्रतिकूल कब्जे के लिए किसी व्यक्ति को बहिष्कृत करने का आशय स्पष्ट एवं ठोस प्रमाण द्वारा साबित किया जाना अपेक्षित है।
केस – बीजा राम बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 2003 राजस्थान 338)
इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि प्रतिकूल कब्जे के लिए मात्र कब्जा पर्याप्त नहीं है अपितु वास्तविक स्वामी के सवत्व के विपरीत कब्जा धारण करने का आशय होना भी आवश्यक है।
केस – पशुपति नाथ बनाम रवि प्रकाश गौड़ (ए.आई.आर. 2003 पंजाब एण्ड हरियाणा 372)
इस मामले में यह कहा गया है कि, किसी संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में एक सह-अंशधारी के विरुद्ध दूसरे सह-अंशधारी द्वारा प्रतिकूल कब्जा धारण नहीं किया जा सकता है।