हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में आरोप किसे कहते है (what is the charge), यह संयुक्त आरोप से किस प्रकार भिन्न है एंव इसकी अन्तर्वस्तु (Contents of charge) में किन्हें शामिल किया जाता है, का उदाहारण सहित उल्लेख किया गया है | उम्मीद है कि, यह आलेख आपको जरुर पसंद आएगा –
आरोप सामान्य परिचय
आरोप (charge) एक सामान्य शब्द है जो हमारी दिन प्रतिदिन की आम भाषा में भी शामिल है, जब भी हमसे कोई विवादित कार्य अथवा बात होती है तब हम उस बात या कार्य का दोष किसी अन्य व्यक्ति पर मढ़ने लगते है, अथवा किसी व्यक्ति की शिकायत पुलिस या किसी अन्य से करते है, उस स्थिति में यह माना जाता है कि हमारे द्वारा उस व्यक्ति पर अरोप लगाया जा रहा है जबकि यह इसका वास्तविक रूप नहीं है|
आरोप क्या है | what is the charge
आपराधिक न्याय प्रशासन के क्षेत्र में आरोप का अलग ही अर्थ एंव स्थान है। पुलिस द्वारा आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के बाद न्यायालय में अंतिम प्रतिवेदन पेश किया जाता है उसके बाद ही कोई मुकदमा आरोप हेतु नियत किया जाता है। इसके पश्चात न्यायालय उस गिरफ्तार व्यक्ति पर अरोप तय करती है, जिसे ‘दोषारोपण’ या अंग्रेजी में Charge भी कहा जाता है।
किसी मुकदमे की कार्यवाही में इसका महत्वपूर्ण स्थान है बल्कि वास्तविक रूप से मुकदमे की कार्यवाही (विचारण) की शुरुआत अरोप से ही होती है। अरोप के साथ ही न्यायिक प्रक्रिया सक्रिय हो जाती है। आरोप इस बात का संकेत देता है कि अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध प्रथम दृष्ट्या कोई मामला (Prima facie case) बनता है।
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आरोप की परिभाषा क्या है | Definition of allegation
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2(ख) में आरोप शब्द को परिभाषित किया गया है, लेकिन यह ना तो शाब्दिक परिभाषा है और ना ही अर्थबोधक है। इसके अनुसार – “आरोप के अन्तर्गत, जब आरोप में एक से अधिक शीर्ष हों, आरोप का कोई भी शीर्ष है।”
वस्तुतः अरोप से तात्पर्य ऐसे लिखित कथन से है, जिसे किसी अपराध के सम्बन्ध में अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध लगाया जाता है और उसे अपराध की पूर्ण जानकारी देता है।
आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि, आरोप अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध अपराध की जानकारी का ऐसा लिखित कथन होता है जिसमें आरोप के आधारों के साथ-साथ, समय, स्थान, व्यक्ति एवं वस्तु का उल्लेख भी रहता है जिसके बारे अपराध कारित किया गया है।
अर्थात् अरोप किसी अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध किसी विनिर्दिष्ट दोषारोपण की ऐसी संक्षिप्त विरचना है जिसे ऐसा व्यक्ति प्रारम्भिक स्तर पर ही जानने का हक़दार है।
इस प्रकार आरोप का मुख्य अर्थ एवं उद्देश्य अभियुक्त व्यक्ति पर अपराध का दोषारोपण करना है। इसके आधार पर ही अभियुक्त व्यक्ति अपनी प्रतिरक्षा (defence) तैयार करता है।
एशियन रिजूरफेंशिंग ऑफ रोड एजेन्सी बनाम सी.बी.आई. के प्रकरण में निर्धारित किया गया कि, अरोप की विरचना का आदेश न तो विशुद्ध रूप से अन्तर्वर्ती आदेश है और न ही अन्तिम (ए.आई.आर. 2018 एस.सी. 2039)
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आरोप की अन्तर्वस्तु
सीआरपीसी, 1973 की धारा 211 में आरोप की अन्तर्वस्तुओं (Contents) का वर्णन किया गया है, आरोप की अन्तर्वस्तु से तात्पर्य उन बातों से है, जिनका उल्लेख अरोप में किया जाना होता है। यानि आरोप में निम्नांकित मुख्य बातों का उल्लेख किया जाना चाहिए –
(क) प्रत्येक आरोप में उस अपराध का उल्लेख किया जाना आवश्यक है जिसका कि अभियुक्त पर आरोप है।
(ख) यदि विधि के अन्तर्गत उस अपराध को कोई नाम दिया जा सकता है तो आरोप में उसका नाम दिया जायेगा, जैसे- चोरी, लूट, हत्या, बलात्संग आदि।
(ग) यदि अपराध को विधि के अन्तर्गत कोई नाम नहीं दिया गया है तो आरोप में उस अपराध की ऐसी परिभाषा दी जायेगी जिससे अभियुक्त व्यक्ति को यह सूचना या जानकारी हो जाये कि उस पर क्या अरोप है।
(घ) अरोप में उस विधि एवं धारा का उल्लेख भी किया जाना अपेक्षित है। जिसके अन्तर्गत वह अपराध आता है। जैसे- “भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 354 के अन्तर्गत ……।”
(ङ) इस कथन का कि “आरोप लगा दिया गया है” यह तात्पर्य होगा कि, आरोपित अपराध को गठित करने के लिए विधि द्वारा अपेक्षित सभी शर्ते पूरी हो गई हैं।
(च) आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जायेगा।
(छ) यदि पश्चात्वर्ती अपराध के लिए अभियुक्त की किसी पूर्व दोषसिद्धि का सहारा लिया जाना हो तो अरोप में ऐसी पूर्व दोषसिद्धि का तथ्य, तिथि और स्थान का उल्लेख किया जायेगा।
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आरोप की अन्तर्वस्तु को उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है –
“यह कि आप ………… दिनांक को दिन के लगभग बजे परिवादी के खलिहान में पड़ा अनाज उसकी अनुपस्थिति में बेईमानीपूर्वक आशय से चुरा कर ले गये। आपका यह कृत्य भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 379 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध है।”
चितरंजनदास बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि, आरोप में न तो अनावश्यक बातों को स्थान दिया जाना चाहिये और न ही न्यायालय को छोटी-छोटी तकनीकी बातों पर ध्यान देना चाहिये। (ए. आई. आर. 1963 एस. सी. 1696)
इसी तरह कृष्णन बनाम स्टेट के मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, आरोप न्यायालय की भाषा में तैयार किया जाना चाहिये और यदि अभियुक्त न्यायालय की भाषा नहीं समझता है तो अरोप का उस भाषा में अनुवाद किया जा सकता है जिसे अभियुक्त समझता है। (ए. आई. आर. 1958 केरल 94)
संहिता की धारा 212 के अनुसार –
आरोप में निम्न बातों का उल्लेख किया जाना चाहिए –
(क) अपराध कारित किये जाने का समय
(ख) अपराध कारित किये जाने का स्थान, तथा
(ग) उस व्यक्ति एवं वस्तु का विवरण जिसके विरुद्ध एवं जिसके सम्बन्ध में अपराध कारित किया गया है।
संतोष कुमार बनाम स्टेट ऑफ जम्मू कश्मीर (ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 3402) –
इस प्रकरण मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया है कि, आरोप में निम्नांकित बातों का उल्लेख किया जाना अपेक्षित है –
(क) अपराध कारित किये जाने का समय
(ख) स्थान
(ग) कारित अपराध, तथा
(घ) वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध अपराध कारित किया गया है।
उपरोक्त सभी तथ्यों से यह साबित है कि, आरोप में उन बातों का उल्लेख किया जाना अपेक्षित है जिनसे अभियुक्त को यह पता चल जाये कि उसके विरुद्ध क्या अरोप है।
अनन्त प्रकाश सिन्हा बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के प्रकरण में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि, साक्ष्य प्रारम्भ होने से पूर्व आरोप में परिवर्तन किया जा सकता है या अतिरिक्त अरोप विरचित किया जा सकता है, बशर्ते कि वह अभियुक्त के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता हो । (ए.आई.आर. 2016 एस. 1197)
त्रुटिपूर्ण आरोप का प्रभाव –
सी आर पी सी, 1973 की धारा 215 में त्रुटिपूर्ण आरोप के प्रभाव का वर्णन किया गया है। इस धारा के अनुसार – “अपराध के या उन विशिष्टियों के, जिनका अरोप में कथन होना अपेक्षित है, कथन करने में किसी गलती को और उस अपराध या उन विशिष्टियों के कथन करने में किसी लोप को मामले के किसी प्रक्रम में तब ही तात्विक माना जायेगा जब ऐसी गलती या लोप से अभियुक्त वास्तव में भुलावे में पड़ गया है और उसके कारण न्याय नहीं हो पाया है, अन्यथा नहीं।”
इससे यह स्पष्ट है कि यदि, त्रुटिपूर्ण आरोप यदि तात्विक है और उससे (क) अभियुक्त भुलावे में पड़ जाता है, एवं (ख) उसके साथ न्याय नहीं हो पाता है, तब वह अरोप दूषित माना जायेगा और ऐसे अरोप के आधार पर किया गया विचारण भी दूषित होगा।
लेकिन किसी मामले में अभियुक्त को विचारण का समुचित अवसर प्रदान किया गया हो व उसके द्वारा प्रतिरक्षा भी प्रस्तुत की गई हो तथा उसके हितों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा हो, वहाँ अरोप में किसी त्रुटि, लोप अथवा अनियमितता मात्र के आधार पर विचारण दूषित नहीं माना जायेगा। (स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम लेसल हक, ए. आई. आर. 1989 एस. सी. 129)
संयुक्त आरोप किसे कहते है What Is Joint –
CrPC की धारा 223 संयुक्त अरोप के सम्बन्ध में प्रावधान करती है, इसके अनुसार निम्नांकित व्यक्तियों पर एक साथ आरोप विरचित कर उनका एक साथ विचारण किया जा सकता है –
(क) वे व्यक्ति जो एक ही संव्यवहार के अनुक्रम में किये गये एक ही अपराध के अभियुक्त हो।
(ख) किसी अपराध को कारित करने के लिए दुष्प्रेरित करने वाले व्यक्तियों का विचारण एक साथ किया जा सकेगा।
(ग) ऐसे व्यक्ति जो एक ही वर्ष के अन्दर एक ही प्रकार के अनेक अपराधों के लिए अभियुक्त हो।
(घ) ऐसे व्यक्ति जो एक ही संव्यवहार के अनुक्रम में किये गये विभिन्न अपराधों के अभियुक्त हों।
(ङ) ऐसे व्यक्ति जो चोरी, अपकर्षण, छल या आपराधिक दुर्विनियोग का अपराध कारित करने के अभियुक्त हो और वे व्यक्ति जो ऐसी सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने के अभियुक्त हो। इन सभी का एक साथ विचारण किया जा सकेगा।
उदाहरण – तीन व्यक्तियों द्वारा मिलकर चोरी या सात व्यक्तियों द्वारा मिलकर बलवा अथवा डकैती का अपराध कारित किया जाता है। इन सभी व्यक्तियों का अपने- अपने अपराधों के लिए एक साथ विचारण किया जा सकेगा।
यह धारा अनेक व्यक्तियों पर संयुक्त रूप से अरोप लगाने की ईजाजत देती है| यह धारा केवल विचारण मामलों में ही लागु होती है तथा इस धारा के अधीन संयुक्त विचारण इस आधार पर समाप्त नहीं किया जा सकता कि, विचारण के अन्त में यह पता लगता है कि जो तथ्य विचारण के दौरान सामने आये है वे उन तथ्यों से अलग है जिसके आधार पर मूलतः अरोप लगाया गया था|
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