इस आलेख में आपराधिक दायित्व किसे कहते है, इसकी परिभाषा एंव इसको उद्भव करने वाले तत्त्वों के रूप में आशय, हेतु व असावधानी की संक्षेप में विवेचना की गई है
परिचय – आपराधिक दायित्व
सामान्य अर्थों में दायित्व (liability) से तात्पर्य न्यायिक बंधन से है। सॉमण्ड के अनुसार – दायित्व, आवश्यकता का ऐसा बंधन है जो अपकारकर्त्ता और उसके द्वारा किये गये अपकार के उपचार के मध्य विद्यमान होता है। उदाहरण के लिए, अपकारकर्ता (wrong doer) अपने अपकृत्य (wrong) के लिए उत्तरदायी होता है।
मनुष्य उस समय किसी कार्य अथवा कृत्य के लिए उत्तरदायी हो जाता है जब वह अपने विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन करता है। विधिशास्त्र के तहत दायित्व एक ऐसी संकल्पना या अवधारणा है जिस पर विधिशास्त्री भी एक मत नहीं है।
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आपराधिक दायित्व | criminal liability
जब व्यक्ति का दायित्व किसी आपराधिक कार्य अथवा कृत्य से जुड़ जाता है तब वह आपराधिक दायत्वि (criminal liability) कहलाता है। आपराधिक दायित्व का सम्बन्ध अपराधी व्यक्ति को उसके आपराधिक कार्य के लिए दण्डित किये जाने की कार्यवाही से है।
सॉमण्ड के अनुसार – आपराधिक दायित्व में विधि का उद्देश्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर विधि विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को दण्डित करना है जो हमेशा दाण्डिक या शास्तिक (penal) प्रकृति का होता है।
आपराधिक उत्तरदायित्व के लिए दो बातें होना जरुरी हैं –
(i) उत्तरदायी ठहराये जाने वाले व्यक्ति द्वारा किसी कार्य अथवा कृत्य का किया जाना और
(ii) ऐसा कार्य या कृत्य करते समय उसका आपराधिक मस्तिष्क (mens rea) होना।
सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति अपने ही कृत्य के लिए उत्तरदायी होता है ना की दूसरों के कृत्य के लिए। लेकिन वर्तमान समय में इस धारणा में परिवर्तन आ गया है, अब किसी व्यक्ति को अन्य व्यक्ति के कार्यों के लिए भी उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, इसे प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious liability) कहा जाता है।
व्यक्ति का कोई भी कार्य या कृत्य अपराध नहीं होता है और ना ही कोई कार्य या कृत्य किसी व्यक्ति को अपराधी बनाता है। व्यक्ति अपराधी तभी बनता है जब उसके द्वारा किये गए कृत्य या कार्य के साथ उसका आपराधिक मस्तिष्क अर्थात् दुराशय (mens rea) हो।
इस सम्बन्ध में एक लैटिन सूत्र है – “Actus non facit reum nisi mens sit rea” यानि “केवल कृत्य मात्र से कोई अपराधी नहीं बनता है जब तक कि उसका मन भी अपराधी न हो।”
इस प्रकार किसी व्यक्ति पर आपराधिक दायित्व केवल तभी उत्पन्न होता है, जब उसके द्वारा
(i) विधि द्वारा वर्जित कोई कार्य किया जाता है और
(ii) ऐसे कार्य को करने में उसकी आपराधिक मनःस्थिति (mens rea) रही हो।
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इस प्रकार आपराधिक दायित्व में किसी व्यक्ति द्वारा कार्य करते समय उसका आशय, मनःस्थिति की भावना एंव लापरवाही का प्रमुख योगदान होता है, इसलिए इन्हें आपराधिक दायित्व के तत्व भी कहा जाता है, जिनके योगदान का यहाँ संक्षेप में उल्लेख किया गया है-
आपराधिक दायित्व के तत्व
आपराधिक दायित्व में मुख्य तौर पर चार तत्व माने गए है, जो निम्नलिखित है –
हेतु (Motive) –
हेतु अपराध का एक मानसिक तत्त्व है जिसे ध्येय (Motive) भी कहा जाता है। यह किसी कार्य को करने का अन्तिम उद्देश्य होता है। वस्तुतयः प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई हेतु अवश्य रहता है। यह बात अलग है कि मात्र हेतु अपने – आप में अपराध का गठन नहीं करता है।
दायित्व के निर्धारण में हेतु की कोई विशेष भूमिका नहीं होती है यद्धपि हेतु से आशय का पता लगाने में सहायता जरुर मिलती है।
उदाहरण के लिए – क अपने बच्चों को भूख से मरने से बचाने के लिए ख के मकान में प्रवेश कर कुछ आनाज चुराकर ले जाता है। यहाँ पर क का अपने बच्चों को भूख से मरने से बचाना उसका ‘हेतु’ अर्थात ‘घ्येय’ है। यह अपने-आप में अपराध नहीं है बल्कि वह अपराध तब बनता है जब कार्य रूप में परिणित हो जाता है।
मनुष्य का हेतु, नैतिक-अनैतिक, वैधानिक- अवैधानिक अच्छा-बुरा कैसा भी हो सकता है। अच्छा हेतु अपराध तब बनता है जब वह दुराशय में परिणित हो जाये।
मामला – लोकेश शिवकुमार बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक (ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 956)
इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, किसी मामले में हेतु अर्थहीन हो जाता है जब मामला चिकित्सकीय साक्ष्य सहित अन्य साक्ष्य से पूर्णतया साबित हो।
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आशय (intention) –
आशय, आपराधिक विधि में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। हेतु का अगला चरण आशय होता है यानि हेतु का कार्य रूप में परिणित होना’आशय’ कहलाता है।
उदाहरण के लिए – क किसी कारण से ख से रंजिश रखता है और ख से बदला लेना चाहता है और इसके परिणामस्वरूप क, ख की हत्या कर देता है। यहाँ पर रंजिश के कारण बदला लेने की भावना क का ‘हेतु’ है और उसे कार्य रूप में परिणित कर देना यानि ख की हत्या कर देना क का ‘आशय’ (intention) है। इस प्रकार ‘हेतु’ अपराध का प्रथम तत्त्व है एंव ‘आशय’ उसके बाद का तत्व है।
दुराशय (mens rea) –
आपराधिक दायित्व के तत्व के रूप में शब्द ‘दुराशय’ का उल्लेख करना भी समीचीन होगा। दुराशय अपराध का एक आवश्यक तत्त्व है। जब किसी आशय से कोई अपराध कारित किया जाता है तो वह ‘दुराशय’ कहलाता है। वस्तुतः दुराशय ही किसी कार्य अथवा कृत्य को अपराधी बनाता है।
केवल कार्य किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता है। जब कार्य आपराधिक मनःस्थिति अर्थात् दुराशय से किया जाता है, तो वह अपराध का रूप ले लेता है।
यह धारणा “Actus non facit reum nisi mens sit rea” नामक सूत्र पर आधारित है जिसका अर्थ है – “आशय के बिना केवल कार्य किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता।”
मामला – फावलर बनाम पेयर [(1798) 7 टी. आर. 501]
इस मामले में यह कहा गया कि “कृत्य स्वयं किसी मनुष्य को अपराधी नहीं बनाता; यदि उसका मन भी अपराधी न हो।” इसी प्रकार ‘आर बनाम आलडे’ [(1837) 8 सी. एण्ड पी. 136] के मामले में भी कहा गया है कि, कोई व्यक्ति तब तक दोषी नहीं है जब तक कि उसका मन भी दोषी न हो।
असावधानी –
असावधानी को उपेक्षा, अनवधानता या लापरवाही (Negligency) के नाम से भी जाना जाता है। हमारे दैनिक जीवन में ऐसे अनेक कार्य होते हैं जो लापरवाही अथवा असावधानी से किये जाते हैं और जिनसे अन्य व्यक्तियों को क्षति या नुकसान कारित होता है। ऐसे कार्य या तो अपकृत्य होते हैं या फिर अपराध।
असावधानी की परिभाषा –
असावधानी की विधिशास्त्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न परिभाषायें दी गई है, जैसे –
विनफील्ड के अनुसार – असावधानी या उपेक्षा, सावधानी बरतने के विधिक कर्त्तव्य का ऐसा उल्लंघन है जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति को क्षति कारित होती है।
सॉमण्ड के अनुसार – असावधानी में जहाँ सावधानी बरतना विधि द्वारा अपेक्षित होता है, सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया जाता है।
न्यायाधीश विलीस के शब्दों में – असावधानी ऐसी सावधानी का अभाव है जिसका पालन करना दूसरे व्यक्ति का कर्त्तव्य था। (Negligence is the absence of such care as it was the duty of the defendant to use.)
हॉलैण्ड (Holland) के मतानुसार – उपेक्षा ऐसी असावधानी है जो एक तरफ तो दूसरों की उपहति (dolus) तथा दूसरी तरफ परिणामों को सोचने के पूर्ण अभाव का संकेत देती है।
सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि – व्यक्ति द्वारा किसी विधिक कर्तव्य का नहीं करना या उसे लापरवाही से करना असावधानी या उपेक्षा है।
इस प्रकार ‘असावधानी’ या ‘उपेक्षा’ भी आपराधिक दायित्व का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। असावधानी से भी अपराध का गठन एवं आपराधिक दायित्व का उद्भव होता है। इतना अवश्य है कि इसमें दुराशय या आशय का अभाव होता है।
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 279, 304क आदि के अन्तर्गत आने वाले अपराध आपराधिक दायित्व के अच्छे उदाहरण हैं।
मामला – आर.पी. शर्मा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (ए.आई.आर. 2002 राजस्थान 104)
इस मामले में रोगी को गलत ग्रुप का रक्त देने से उसकी मृत्यु हो गई थी, माननीय न्यायालय ने इसे चिकित्सक की असावधानी माना।
मामला – स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ बनाम गजेन्द्र सिंह (ए.आई.आर. 2015 छत्तीसगढ़ 132)
इस प्रकरण में शिविर में ऑपरेशन के दौरान चिकित्सक की लापरवाही के कारण रोगी की मृत्यु हो गई थी। शिविर सरकार की ओर से लगाया गया था, इस कारण न्यायालय ने राज्य का भी आपराधिक दायित्व माना।
मामला – भोली देवी बनाम स्टेट ऑफ जम्मू-कश्मीर (ए.आई.आर. 2002 जम्मू एण्ड कश्मीर 65
इस मामले में माँसपेशियों में लगाये जाने वाले इंजेक्शन को नाड़ी में लगा देने से रोगी की मृत्यु हो गई थी, न्यायलय ने इसे चिकित्सक की लापरवाही माना।
निष्कर्ष –
इस प्रकार इस आलेख से यह पूर्णतया पता चलता है कि, ‘हेतु’ (Motive), ‘आशय’ (Intention) एवं ‘असावधानी’ आपराधिक दायित्व का उद्भव करने वाले तत्त्व हैं जिनके होने से ही कोई कार्य या कृत्य अपराध बनता है, यदि इनमें से किसी एक का अभाव होता हो तब वह कार्य अपराध नहीं माना जाएगा
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