नमस्कार दोस्तों, इस लेख में सीपीसी के तहत कब और किन शर्तों पर अस्थायी निषेधाज्ञा जारी किया जा सकता है, सिविल न्यायालय द्वारा अस्थायी व्यादेश स्वीकृत किये जाने के सिद्धान्तों की विवेचना के साथ साथ क्या अस्थायी व्यादेश में परिवर्तन किया जा सकता है के बारे में बताया गया है, अगर आप वकील, विधि के छात्र या न्यायिक प्रतियोगी परीक्षा की  तैयारी कर रहे है, तो ऐसे में आपको ‘अस्थायी निषेधाज्ञा’ के बारे में जानना जरुरी है –

अस्थायी निषेधाज्ञा क्या है

अस्थायी निषेधाज्ञा से तात्पर्य एक ऐसे न्यायिक आदेश से है, जिसके द्वारा पक्षकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी विनिर्दिष्ट कार्य को करे या ना करे| अस्थायी निषेधाज्ञा वाद के अन्तिम निर्णय तक वादग्रस्त सम्पत्ति को यथास्थिति (status quo) में बनाये रखने के लिए न्यायालय द्वारा अनुदत्त (प्रदान) किया जाता है।

इस व्यादेश का प्रभाव वाद के अन्तिम निर्णय तक अथवा न्यायालय के अग्रिम आदेश तक रहता है। इसका मुख्य उद्देश्य वाद के लम्बित रहने के दौरान वादग्रस्त सम्पत्ति की सुरक्षा, संरक्षण एवं परिरक्षण करना है। सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 39 में विहित व्यादेश से अभिप्राय इसी अस्थायी निषेधाज्ञा से है।

अस्थायी व्यादेश संहिता के आदेश 39 नियम 1 से 5 की विषय वस्तु है, जिसे माननीय न्यायालय वादी के आवेदन पर एक निश्चित समय के लिए या वाद के अंतिम निर्णय तक देता है| अस्थायी व्यादेश से वाद का भाग्य निर्मित होता है, इसलिए अस्थायी व्यादेश जारी करते समय अत्यन्त सावधानी एवं सतर्कता बरतने के साथ साथ ऐसे उपाय भी किये जाने चाहिए जिससे दोनों पक्षकारों के साथ न्याय हो सके।

इसके साथ ही अस्थायी व्यादेश जारी करते समय न्यायालय को अभिवचनों का अच्छी तरह अध्ययन कर लेना चाहिए, क्योंकि सिविल न्याय प्रशासन में अभिवचनों का अत्यधिक महत्त्व होता है। यह न्यायालय का मात्र आदेश होता है, जिसे वाद के दौरान, या प्रतिवादी को समन की तामील करने से पूर्व वादी के आवेदन पर प्रतिवादी को सुने बिना भी दिया जा सकता है|

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अस्थायी निषेधाज्ञा कब अनुदत्त किया जा सकता है

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 39 नियम 1 के अन्तर्गत उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनमें न्यायालय प्रतिवादी के खिलाफ अस्थायी निषेधाज्ञा अनुदत्त/जारी (grant) कर सकता है, संहिता के आदेश 39 नियम 1 के निम्न प्रावधान है –

(क) जब किसी वाद में शपथ पत्र द्वारा या अन्यथा यह सिद्ध कर दिया जाता है कि –

(i) वाद में विवादग्रस्त सम्पत्ति को वाद के किसी पक्षकार द्वारा नष्ट किये जाने, उसे नुकसान पहुँचाये जाने या अन्तरित किये जाने का खतरा है, अथवा

(ii) प्रतिवादी ऋणदाताओं के साथ कपट करने के लिए अपनी सम्पत्ति को हटाने या उसका व्ययन करने की धमकी देता है या ऐसा करने का आशय रखता है, अथवा

(iii) प्रतिवादी वादी को वादग्रस्त सम्पति से बेकब्जा करने या उसे अन्यथा क्षतिग्रस्त करने की धमकी देता है।

उपर्युक्त अवस्थाओं में न्यायालय वाद के अन्तिम निस्तारण तक अथवा अग्रिम आदेश तक सम्पत्ति को नष्ट करने, क्षतिग्रस्त करने, अन्य संक्रामण करने, विक्रय करने, हटाने, परिवर्तित करने, बेकब्जा करने, आदि से रोकने वाला या उससे निवारित रहने वाला अस्थायी व्यादेश अनुदत्त/जारी कर सकता है|

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सीपीसी के आदेश 39 नियम 1 (क) के तहत ऐसा व्यादेश प्रतिवादी के पक्ष में भी जारी किया जा सकता है यदि वादी वादग्रस्त सम्पत्ति को नष्ट, क्षतिग्रस्त या व्ययनित करने वाला हो।

आदेश 39 नियम 2 (ख) के तहत व्यादेश जारी करते समय न्यायालय द्वारा लेखा रखने तथा प्रतिभूति देने (Keeping an account and giving security) की शर्तें अधिरोपित की जा सकती है।

केस – इसपाल सिंह बनाम श्रीमती रणजीत (ए.आई.आर. 2011, (एन.ओ.सी.) 377 बम्बई)

इस वाद में शामिलात निवासगृह में पत्नी को निवास करने के सम्बन्ध में पत्नी ने पति के खिलाफ उसे घर में प्रवेश करने से पति द्वारा नहीं रोकने के लिए निषेधाज्ञा का आवेदन पत्र प्रस्तुत किया| न्यायालय ने आवेदन को स्वीकार करते हुए यह कहा कि, ऐसे निवास गृह में पत्नी द्वारा अपना स्वामित्व सिद्ध करना जरुरी नहीं है|

केस – सुपर कैंट इण्डस्ट्रीज बनाम म्यूजिक ब्रोडकास्ट प्रा. सेवा (ए.आई.आर. 2012 सु.को. 2144)

इस प्रकरण में माननीय न्यायालय ने स्पष्ट किया कि, अस्थाई निषेधाज्ञा जारी करते समय न्यायालयों को चाहिए कि विवादित सम्पति को सरंक्षित करने की दृष्टि से स्थिति जैसी है वैसी रखनी चाहिए (Status Quo) जिससे सफल पक्षकार को इसका लाभ मिल सके|

जैक इण्डस्ट्रीज बनाम अनिस फात्मा बेगम के वाद में न्यायालय ने यह निर्णित किया कि, वाद में जब तक प्रथम दृष्टया मामला, अपूर्णीय क्षति एंव सुविधा का संतुलन उत्पन्न नहीं होता है, अस्थाई व्यादेश जारी नहीं किया जा सकता है| इसलिए यह व्यादेश जारी करने के निम्नलिखित सामान्य सिद्धान्त है –

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अस्थायी निषेधाज्ञा के मुख्यतया तीन सिद्धान्त है

(1) प्रथम दृष्ट्या मामला (prima facie case)

यह अस्थायी निषेधाज्ञा जारी किये जाने का पहला सिद्धान्त है, इसका यह तात्पर्य है कि न्यायालय के समक्ष उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर वादी अनुतोष प्राप्त करने का अधिकारी है। इस प्रकार प्रथम दृष्ट्या मामले से तात्पर्य वाद में के पक्षकारों के बीच सद्भावनापूर्वक विवाद होने तथा उसमें वादी को सफलता मिलने की सम्भावना से भी है।

प्रथम दृष्ट्या मामला का निर्धारण करते समय न्यायालय दोनों पक्षकारों के साक्ष्यों पर विचार करता है, अस्थाई निषेधाज्ञा के लिए वादी को वाद में प्रथम दृष्ट्या स्वत्व को साबित करना जरुरी नहीं है बल्कि प्रथम दृष्ट्या मामला को साबित करना आवश्यक है, जो की न्यायालय के समक्ष सारपूर्ण प्रश्न होता है जिसके अन्वेषण के आधार पर गुनवदोष पर निर्णय दिया जा सके|

श्रीमती विमला देवी बनाम जंग बहादुर के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि, अस्थायी निषेधाज्ञा के लिए पक्षकार का प्रथम दृष्ट्या मामला होना आवश्यक है। यहाँ प्रथम दृष्ट्या मामले से तात्पर्य वादी को उपचार प्राप्त होने की सम्भावना होना है । (ए. आई. आर. 1977 राजस्थान 196)

कुन्दन सिंह नरपत सिंह राजपूत बनाम आलोक कंवर के मामले में प्रथम दृष्ट्या मामला नहीं होने पर भी अस्थायी व्यादेश जारी कर दिए जाने को त्रुटिपूर्ण माना गया है। (ए.आई. आर. 2018 एन.ओ.सी. 421 राजस्थान)

(2) अपूरणीय क्षति (irreparable loss)

अस्थायी निषेधाज्ञा जारी किये जाने का दूसरा सिद्धान्त अपूरणीय क्षति है| अपूरणीय क्षति से तात्पर्य ऐसी क्षति से है जो यदि वादी के पक्ष में व्यादेश जारी नहीं किया गया तो उसे हो सकती है और जिसका धन में मूल्यांकन किया जाना सम्भव नहीं है।

इसे यों भी कहा जा सकता है कि यदि वादी के पक्ष में व्यादेश जारी नहीं किया गया तो वादी सदा-सदा के लिए अपने अधिकारों से वंचित हो सकता है।

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(3) सुविधा का सन्तुलन (balance of convenience)

अस्थायी निषेधाज्ञा का तीसरा सिद्धान्त सुविधा का सन्तुलन है | सुविधा के सन्तुलन से तात्पर्य यह है कि यदि व्यादेश जारी नहीं किया गया तो प्रतिवादी की अपेक्षा वादी को अधिक असुविधा होगी। व्यादेश जारी करते समय न्यायालय को सुविधा सन्तुलन का ध्यान रखना होता है। यदि सुविधा का सन्तुलन वादी के पक्ष में नहीं है तो उसके पक्ष में व्यादेश जारी नहीं किया जा सकता।

इस सम्बन्ध में ‘उषाबेन नवीनचन्द्र त्रिवेदी बनाम भाग्यलक्ष्मी चित्र मन्दिर’ (ए. आई. आर. 1978 गुजरात 13) का एक उद्धरणीय मामला है। इसमें फिल्म ‘जय संतोषी माँ’ के प्रदर्शन के विरुद्ध इस आधार पर व्यादेश चाहा गया कि यह हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाली है,

अतः इसके प्रदर्शन को रोका जाये। लेकिन न्यायालय ने वस्तुतः ऐसा नहीं पाया। न्यायालय ने सुविधा का सन्तुलन इसके प्रदर्शन के पक्ष में मानते हुए व्यादेश अनुदत्त करने से इन्कार कर दिया।

प्रेम कुमार धै बनाम डॉ. बीर भान गर्ग  के मामले में भी यही कहा गया है कि जब तक सुविधा का सन्तुलन आवेदक के पक्ष में नहीं हो, अस्थायी व्यादेश अनुदत्त नहीं किया जाना चाहिए। (ए. आई. आर. 2005 पंजाब एण्ड हरियाणा 193)

कुसुम गुप्ता बनाम सरला देवी के मामले में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि व्यादेश के तीनों सिद्धान्तों में से किसी एक की भी पूर्ति नहीं होती हो तो व्यादेश जारी नहीं किया जाना चाहिए। (ए. आई. आर. 1988 इलाहाबाद 154)

नागराव बनाम नागपुर इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट (ए. आई. आर. 2001 मुम्बई 402) के मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अस्थायी व्यादेश जारी किये जाने के लिए उपरोक्त तीनों सिद्धान्तों का पालन करना आवश्यक है। ठीक यही बात ‘सी. जे. इन्टरनेशनल होटल्स लि. बनाम एन. डी. एम. सी.’ (ए. आई. आर. 2001 दिल्ली 435) के मामले में कही गई है।

अस्थायी निषेधाज्ञा के आदेश में संशोधन या परिवर्तन

संहिता के आदेश 39 नियम 4 में व्यादेश के आदेश को उन्मोचित, परिवर्तित अथवा अपास्त किये जाने के बारे में प्रावधान किया गया है। अस्थायी व्यादेश के आदेश को निम्नांकित अवस्थाओं में उन्मोचित, परिवर्तित अथवी अपास्त (discharge, vary or set aside) किया जा सकता है –

(क) जहाँ अस्थायी निषेधाज्ञा प्राप्त करने के लिए सारभूत विशिष्टियों को छिपाया गया हो अथवा मिथ्या या भ्रमित कथन किया गया हो, वहाँ न्यायालय द्वारा व्यादेश के आदेश को समाप्त (vacate) किया जा सकेगा,

(ख) जहाँ अस्थायी निषेधाज्ञा जारी करने के पश्चात् परिस्थितियों में बदलाव (change in the circumstances) आ गया हो वहाँ न्यायालय द्वारा व्यादेश के आदेश को तदनुसार परिवर्तित या अपास्त किया जा सकेगा;

(ग) जहाँ न्यायालय का यह समाधान हो जाये कि अस्थायी व्यादेश के आदेश से पक्षकार को कठिनाई (hardship) हो रही है, वहाँ ऐसा आदेश उन्मोचित, परिवर्तित या अपास्त किया जा सकेगा अथवा

(घ) आदेश से असंतुष्ट पक्षकार द्वारा आवेदन किये जाने पर ऐसा आदेश उन्मोचित, परिवर्तित या अपास्त किया जा सकेगा।

एस. राजिन्दर सिंह बनाम एस. दलीप सिंह (ए. आई. आर. 2000 दिल्ली 228) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि, यदि कोई व्यक्ति, सही तथ्यों को छिपाकर एकपक्षीय व्यादेश प्राप्त कर लेता है। तो उसे अपास्त कर दिया जाना चाहिए।

अस्थायी निषेधाज्ञा की अवज्ञा या भंग के परिणाम

व्यादेश की पालना करना प्रत्येक पक्षकार का कर्त्तव्य है। यदि कोई पक्षकार उसकी अवज्ञा (disobedience) या भंग (breach) करता है तो उसके परिणामों का उल्लेख आदेश 39 नियम 2 क में किया गया है। इसके अनुसार यदि कोई पक्षकार व्यादेश की अवहेलना या भंग करता है तो –

(क) उसकी सम्पत्ति को कुर्क (attach) किया जा सकेगा। ऐसी कुर्की एक वर्ष तक प्रभाव में रहेगी। यदि इसके पश्चात् भी अवज्ञा या भंग जारी रहता है तो उस सम्पत्ति का विक्रय कर उससे क्षतिग्रस्त पक्षकार की प्रतिपूर्ति की जा सकेगी,

(ख) उसे तीन माह से अनधिक अवधि के लिए सिविल कारावास में निरुद्ध रखा जा सकेगा; अथवा

(ग) उसे न्यायालय के अवमान के लिए दण्डित किया जा सकेगा।

मड़गाँव म्युनिसिपल कौंसिल बनाम पाण्डुरंग कुस्टा के मामले में व्यादेश की अवज्ञा के आदेश की स्पष्टता को साबित किये जाने तथा ऐसे आदेश को न्यायालय में प्रदर्शित ( exhibit) किये जाने की आवश्यकता जताई गई है। (ए. आई. आर. 2000 मुम्बई 78)

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संदर्भ – बुक सिविल प्रक्रिया संहिता चतुर्थ संस्करण (डॉ. राधा रमण गुप्ता)